अनुनाद

छंद की समकालीनता या तो यमाताराजभानसलगाः 1 – संदीप तिवारी

संदीप तिवारी हिन्‍दी के सुपरिचित युवा कवि हैं। उन्‍‍हें वर्ष 2019 में कविता के लिए रविशंकर उपाध्‍याय स्‍मृति पुरस्‍कार मिला है। रचना और आलोचना, दोनों के स्‍तर पर उनमें बहुत सम्‍भावनाऍं हैं। हिन्‍दी के कवि उपन्‍यासकारों पर वे शोध कर रहे हैं। समकालीन कविता में छंद पर जो एक बहस वरिष्‍ठ कवि संजय चतुर्वेदी ने इधर आरम्‍भ की है, उस बहस को ध्‍यान में रखते हुए लिखा गया संदीप का यह लेख अनुनाद को मिला है।
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समकालीन हिंदी कविता पर इधर एक चर्चा शुरू हुई. लेकिन जैसा होता रहा है कि चर्चाएँ अपने मूल से भटक जाती हैं. यहाँ भी वही हुआ. एक तरफ तो पूरी समकालीन हिंदी कविता को ही कटघरे में खड़ा कर दिया गया. और उसी के साथ कविता में छंद और हुनर की वापसी की बात कही गई . वहीं दूसरी तरफ से छंदों की वापसी की बात को फासीवादी मांग कहा जाने लगा. न तो समकालीन कविता में हुनर की कमी है और न ही छंद और लय में कविता रचने वाले सभी लोग फासीवादी सोच के हैं.  बात कविता और उसके तत्वों से शुरू हुई और होते-होते व्यक्तिवादी हो गई . खैर इसमें क्या आश्चर्य कि सोशल मीडिया पर शुरू होने वाली हर बहस का कुछ- कुछ ऐसा ही अंत देखने को मिलता है .



जबकि हमें इस बहस का स्वागत करना चाहिए था. वह कोई भी हो, किसी भी विचारधारा का हो, इसका कोई मतलब नहीं. अगर बहस के केंद्र में कविता है तो, हमें उस बहस का मूल बिंदु पकड़ना चाहिए  तब जबकि बहस बहुत ज़रूरी हो चली हो.  क्या हम सच का सामना नहीं करना चाहते ? या सच सुनना हमें गवारा नहीं है. बल्कि जो बातें उठीं वह कविता का कोई साधारण पाठक बहुत पहले से कहता और सोचता रहा  है. हम इसे समझ पाते यदि हम उस दुनिया तक थोड़ी पहुँच रखते, जहाँ हिंदी का साधारण पाठक रहता है .



छंद और मुक्त छंद की बहस  कोई नयी नहीं है , यह बहुत  पुरानी हो चुकी है. रामस्वरूप चतुर्वेदी कहीं इसे शिया सुन्नी का झगड़ा कहते हैं.  लेकिन फिर भी आज की कविता पर हम अगर बात करें,  तो बिना इस बहस के हम आगे नहीं बढ़ सकते. निराला जी की लिखी परिमल की भूमिका का वह हिस्सा जिसमें कविता को छंद के बंधन से मुक्त करने की बात कही गई , उसे ऐसे मामले में बार-बार उद्धृत किया जाता रहा है. मतलब इस बहस में  सबसे पहले निराला के कंधे पर बन्दूक रखी जाती है. जबकि सच तो यह है  कि निराला आदि से लेकर अंत तक छंद को छोड़ नहीं पाए. 



जब यह दलील दी जाती रही कि युग का यथार्थ बहुत बदल चुका है और  अब कविता सिर्फ गद्य की भाषा में ही संभव है . तब हमें उस पूरी परम्परा को भी देखना चाहिए जो छंद से कभी विलग नहीं हुए  और कविता की भाषा और उसकी  लय को साथ लेकर चले. क्या नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार जी  के समय का यथार्थ जटिल नहीं था? या वह किसी दूसरे समय में रच रहे थे.  प्रगतिशील कवियों में तो छंदों, गीतों और बोलचाल की गद्य में लय भरने का अद्भुत सामर्थ्य रहा है. कविता का साधारण पाठक तो ऐसी कविताओं को पसंद ही करता है. विद्वान्, पढ़े- लिखे , प्रतिरोधी चेतना से लैस लोग, आन्दोलनकारी आदि भी इन कविताओं को उतना ही सम्मान से याद रखते हैं. कोई भी प्रतिरोध हो, किसी भी  सत्ता के खिलाफ कहीं कोई लामबंदी हो तो सबसे पहले ऐसी ही कविताओं की याद क्यों आती है. क्यों हमें बार- बार इन्हीं के पास जाना पड़ता है.  क्योंकि इसमें कविताई है , संप्रेषणीयता  है , लोगों की आत्मा और चित्त को कविता से जोड़ देने की अद्भुत क्षमता है.



हमें यह सोचना चाहिए कि यदि यह सब कविता का गुण नहीं अवगुण है, तो लोग क्यों ऐसी कविताओं की तरफ आकर्षित होते हैं? क्यों ऐसी कविताओं को याद रखते हैं ?  यदि हम सचमुच साहित्य से प्रेम करते हैं तो हमें ज़रूर इस पर ठहरकर सोचना पड़ेगा.



समकालीन कविता ने अपना बड़ा पाठक वर्ग खोया है. इस बात को मानने में अब  न कोई संकोच होना चाहिए. न झिझक . यह हमारा कड़वा सच है.  हम इससे आँख नहीं मूँद सकते. मूंदना भी नहीं चाहिए. ऐसा क्यों हुआ होगा ? इसके कई कारण हैं . पर हम अभी सिर्फ इसके एक महत्वपूर्ण  कारण की ही चर्चा करते हैं. जो इन दिनों ज़ेर-ए- बहस है.  दिन-ब-दिन कविता के पाठक या श्रोता का कम होते जाने का एक कारण,  कविता का अपनी ही लय से विमुख हो जाना भी है. लय की ताकत थी कि वह हमारी रोजमर्रा को, हमारे संघर्षों को, हमारी संवेदनाओं को कविता में बांधती थी. लोग भाषा की इस लयात्मकता सम्मान करते रहे,  पसंद करते रहे और ऐसी कविताओं में डूब जाते रहे , उन्हें सीने से लगाए रहे.  समकालीन हिंदी कविता ने कविता के इस रूप  को बहुत हद तक तोड़ दिया. और इसे तोड़ने का नुकसान अब किसी से  छिपा नहीं है.



निराला ने भी मुक्तछंद की वकालत सिर्फ इसलिए की थी कि वह भाषा की छिपी शक्ति को सामने ला सकें. वह कविता को बोलचाल की भाषा के बहुत पास लाना चाहते थे. कविता की नयी शक्तियों की खोज कर रहे थे. लेकिन वह कविता के मूल से कभी न विमुख रहे न इस तरह से कभी सोचा. आलोचक रामविलास शर्मा निराला की  साहित्य साधना में लिखते हैं-   “उनके मन में मुक्त छंद के प्रति कहीं शंका है. शंकित मन कहता है, बोलचाल की लय को अपनाने के लिए यह आवश्यक नहीं कि मुक्त छंद ही लिखा जाय, सानुप्रास मात्रिक छंदों में भी यह कार्य संभव है.”



मुक्तिबोध की कविता ‘भूल गलती’ का ज़िक्र करते हुए भगवत रावत कहते हैं  कि उन्होंने मुक्तिबोध को प्राइवेट वार्ड में यह कविता पढ़कर सुनाई. अपनी कविता सुनने के बाद मुक्तिबोध  उनसे कहते हैं-  “कविता में यह जो लय है भाषा की, यह कविता का गुण है अवगुण नहीं, इसे कभी मत छोड़ना.”

लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि अब हम इसे कविता का अवगुण मानने लगे हैं.  मुक्तिबोध जिस लय की बात कर रहे थे वह समकालीन हिंदी कविता में कितना बची? और कितने कवियों ने उसे अब तक बचाए रखा. यह सोचने की बात है.  कविता ने अपना पाठक ऐसे नहीं खोया . और अपना रूतबा ऐसे ही नहीं जाने दिया.  उसका एक बड़ा कारण उसका अपने मूल से कट जाना भी है. और उसका धीरे-धीरे दुरूह और जटिल होते जाना भी है.  धीरे- धीरे यह चल निकला कि कविता की जटिलता और दुरुहता को ही उसका गुण बताया जाने लगा और कविता के गुण को अवगुण मान कर निकाल फेंका गया. कोई सहज संप्रेषणीय  कविता हुई तो उसे उसकी भाषा से ही सतही औसत और खराब कविता की कोटि में रखा जाने लगा. हम कविता के भीतर से  कोई बहुत बड़ी बात, या उसके बहुत भीतर छिपी कोई बहुत गूढ़ बात, या फिर कोई चमत्कृत करने वाला कोई वाक्य ही तलाशते रहे. और कविता के भीतर की सहजता को हम अपने बगल से ही खो जाने दिए . 



भाषा की ऐसी दुरुहता रघुवीर सहाय को परेशान करती थी. वह कविता की एक  ऐसी भाषा तलाश रहे थे, जिसका केवल एक अर्थ हो.  वह लिखते हैं –  “इसलिए कहूंगा मैं / मगर मुझे पाने दो / पहले ऐसी बोली / जिसके दो अर्थ न हों.”



रघुवीर सहाय भाषा में कविता को सहज बनाने के पक्षधर थे. उन्हें पता था कि कविता जितना जटिल होगी पाठक उतने दूर जायेंगे.



मुक्त छंद की वकालत में निराला के परिमल की भूमिका से यह पंक्तिया हमेशा उद्धृत की जाती रही कि “मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है. और कविता की मुक्ति छंदों के बंधन से अलग हो जाना.”[i]  कविता को छंद के बंधन से  मुक्त करने पर उन्होंने जोर  दिया . पर यह भी सच है कि निराला जीवन भर छंदों की प्राण- प्रतिष्ठा में लगे रहे. वह शब्दों के नित नये- नये अर्थ तलाशते रहे. डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं-   “हर तरह का कमाल मात्रिक छंदों में ही दिखाना उन्हें प्रिय हुआ. इसलिए निराला की अधिकाँश कविताएँ मुक्त छंद में नहीं, सानुप्रास मात्रिक छंदों में हैं.”



जिस छंद को हम यह कहकर तोड़े कि हमें अपना यथार्थ व्यक्त करने के लिए, अब  बोलचाल की भाषा में कविता लिखना ज़रूरी हो गया है.  छंद तो टूट गया पर बोलचाल की भाषा और सहजता को छोडकर हम भाषा की दुरुहता की डाल पकड़ कर लटक गये. यह ज़रूरत महसूस नहीं हुई कि कि सहज लिखी गई कविता में हम देखें कि उसमें कविताई कितना है.  अब हमें इसपर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है  कि कहीं  समकालीन कविता में भी हम इसी तरह के ढर्रे पर तो नहीं चले जा रहे हैं. और युवा  पीढ़ी तो पारम्परिक रूप से हमेशा अपनी पुरानी पीढ़ी से कविता का सलीका सीखती रही  हैं. तो अब इसपर भी  सोचने की भी ज़रूरत है कि कहीं  युवा कविता भी उस जटिलता और दुर्बोधता का जाने अनजाने शिकार तो नहीं हुई.



जब आज गद्य और कविता की भाषा में बहुत  फ़रक करना मुश्किल हो गया है. तो अब कवियों के लिए गद्य लिखना कोई कसौटी और चुनौती भी नहीं रहा. फिर कवियों का एक दायित्व यह भी बनता ही है कि वह अपने भीतर उठने वाले तरह-तरह के  विचारों के लिए, गद्य की अन्य विधाओं के साथ भी कदम ताल करें. कविता जैसी विधा के ऊपर पहले से ही अधिक बोझ है. आज गद्य की कई विधाएं प्रचलन में हैं और खूब पढ़ी भी जा रही हैं. कविता से तो ज्यादा ही पढ़ी जा रही हैं. ऐसे में सिर्फ कविता के ऊपर ही अनावश्यक बोझ लादना, कहीं से भी उचित नहीं जान पड़ता है. इसलिए कवियों को अन्य विधाओं में भी आवाजाही करनी ही चाहिए . हर विचार को  कविता का रूप दे देना भी कविता के साथ एक तरह से ज्यादती है. 



और अंत में यही कि कोई कविता सिर्फ इसलिए अच्छी नहीं हो जाती कि वह बहुत बोधगम्य है. सहज है. या छंद, लय या वाद्य की भाषा में लिखी गई है. बल्कि कविता के तत्वों की तलाश उसके भीतर भी  हमेशा की ही  जायेगी. जैसे कथा का पाठक कथा में किस्सागोई खोजता है वैसे ही कविता का पाठक कविता में कविताई तलाशेगा. यह हर पाठक का अधिकार है. हम उसे उसके अधिकारों से वंचित नहीं कर सकते. न ही बहुत दिनों तक उसे गुमराह कर सकते हैं. 



इस बहस में जिस हुनर की वापसी की बात उठाई गई , वह हुनर कम नहीं है. कवियों के पास हुनर तो बहुत है. मुक्त छंद में बहुत सारे कवियों ने अपने कहन के लिए एक नयी और बहुत ही प्रभावी भाषा अर्जित की जिसके कारण भी उनकी बहुत सी कविताओं को हमेशा याद किया जाता रहेगा. लेकिन समग्रता से समकालीन हिंदी कविता  पर बात करने के लिए एक बार पीछे मुड़कर ज़रूर देखना चाहिए कि समकालीन कविता की हालत कैसी है. ऐसा क्यों हुआ कि लोग कवियों से दूर भागने लगे. ऐसा क्यों हुआ होगा कि कविता सुनाने और कवियों  को लेकर चुटकुले और मजाक बनने लगे . एक बात और कि कवि-लेखक या साहित्य से बहुत गहरे जुड़े लोग भले कविता की मुक्ति की बात समझते हों. पर बहुत सामान्य सा पाठक इस मुक्ति की बात को कतई नहीं जानता. वह कविता के इस रूप में जरा सा भी सहज नहीं है. वह कहीं दूर  बैठा अभी भी अपनी खोई हुई कविता तलाश रहा है. संभव हो थोडा बहुत उसके पास पहुँच भी जाती हो.

anunadshirish@gmail.com

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