वरिष्ठ कथाकार – सम्पादक ज्ञानरंजन ने कई वर्ष पूर्व अपने एक पत्र में किसी संकोची व्यक्ति के लिए कहा था कि वह जीवन
के तलघर में रहकर काम करता है। सिद्धेश्वर सिंह पिछले कई वर्षों से इसी तरह हिन्दी
कविता के इलाक़े में एक ख़ामोश लेकिन महत्वपूर्ण कवि और अनुवादक के रूप में मौजूद रहे हैं। निजता में
उन्हें जानने वाले जानते हैं कि वे ख़ूब सुलझे हुए स्नेही व्यक्ति हैं। हिन्दी
की हलचलों पर उनकी प्रतिक्रियाऍं हमेशा ही
बेहद सौम्य किंतु बेधक होती हैं। अनुनाद ने ऐसी
हलचलों पर उनसे एक लेख का अनुरोध किया था। यह लेख हमें मिला है, इसके लिए अनुनाद लेखक का आभारी है।
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इसी पृथ्वी
के किसी कोने में दो लोगों के बीच बादल -बारिश से भीगी हुई एक सुबह में संपन्न हुए एक दीर्घतर टेलिफ़ोनिक संवाद का इस तीसरे
मोर्चे पर उल्लेख इसलिए हो पा रहा है कि
इसमे केवल तेरी – मेरी बात नहीं बल्कि ‘उसकी‘ बात भी हुई
थी। मुझे लगता है कि यदि यहाँ ‘भी‘ की जगह ‘ही‘ लिखा जाता तो
बेहतर होता क्योंकि इस बात के केंद्र में
आज की हिंदी कविता ,खास तौर पर
युवा कविता की बात विद्यमान थी।
अब थोड़ा –
पात्र परिचय।अपने बारे में क्या लिखूँ? महादेवी वर्मा की कविता पंक्ति
में कहूँ तो यह कहूँगा – ‘परिचय इतना
इतिहास यही‘। या फिर
अमृता प्रीतम की एक मशहूर किताब का शीर्षक
उधार लूँ तो कहूँगा – ‘रसीदी टिकट‘ जिसकी पीठ पर
लिख लिए जाने भर का ही बायोडेटा मेरे पास है। जिस
व्यक्ति से संवाद हुआ वे हिंदी के एक आलोचक -प्रोफेसर हैं ;युवा और
ऊर्जा से भरपूर।विपुल विद्या और विरल विनय के मेल से बना यह नौजवान खूब गंभीर
तरीके से लिखता – पढ़ता है।
इस संवाद कथा
के कुछ और पात्र भी हैं जिनका परिचय उनकी लिखी कविताएं हैं क्योंकि हमने उनकी
कविताओं की पंक्तियों ,थीम ,पात्र,संदर्भ, लोकेल और
शीर्षकों के साथ याद किया।इस वार्ता का हासिल यह रहा कि उस युवा मित्र को सचमुच हिंदी कविता के मौसम का हालचाल ठीक से
पता है जबकि इस समय तमाम तरह संसाधनों व पाठ्य सामग्री की सहज सुलभता के बावजूद
अक्सर लगता है कि पढ़ा कम जा रहा है और यदि पढ़ा भी जा रहा है तो सेलेक्टिव ज्यादा
है।इसमें दिक्कत बस इतनी लगती है कि इस सेलेक्शन की सामर्थ्य और सीमा क्या – कैसी है? यह बहुत कम आँका जा रहा है और
त्वरित कथन का उतावलापन है
हम दोनों ने
खूब बातें कीं और हम दोनों की इस निजी वार्ता में निंदा की अनुपस्थिति उपस्थित
रही।वे इस बात से बड़े खुश थे कि हिंदी के युवा कवि खूब अच्छा लिख रहे हैं।उनके पास
कुछ अच्छे कवियों और उनकी कविताओं की सही निशानदेही थी तथा कुछ जानकारी वे मुझसे
चाहते थे कि ताकि जब वे कहीं जल्द ही व्याख्यान देने वाले हैं तो तैयारी पूरी रहे
और यथाशक्ति इन्फॉर्मेशन फर्स्ट हैंड हो क्योंकि ‘प्राध्यापकीय
आलोचना‘ कहकर खारिज
किया जाना हिंदी जगत के ट्रेंड में है।यह स्वर पहले भी मुखर था लेकिन अब यह बहुत वाचाल है।
तो हमने क्या
बात की ? हमने बात यह
की कि हिंदी कविता के बड़े घर में अन्न -धन्न अकूत है लेकिन हम इस राशि के कोष
को ठीक से या तो देख नहीं पा रहे हैं या
फिर देखकर भी इतने घुन्ने बने हुए हैं कि जो मन में है वह कह नहीं पा रहे
हैं। मुझे अक्सर लगता है कि अच्छी कविताएं अपने लिए जगह बना लेती हैं।यदि वे सचमुच
की अच्छी और सच्ची है तो उनकी जगह हमारे दैनंदिन जीवन में हो जानी चाहिए।अपनी बात
यदि और स्पष्ट रूप में कहूँ तो क्या आपको कोई वस्तु, कोई दृश्य ,कोई व्यक्ति ,कोई प्रसंग ,कोई घटना ,कोई स्थिति
देखते समय किसी कविता की याद आती है?
इस समय हिंदी
कविता के घर में ‘झगरा भारी‘ है।एक ओर छंद
– विच्छन्द की बात – बतकही जारी है।नामावली का विरुद और बतंगड़ है।कुछ लोग जो हाशिए पर रखे गए हैं उनका
स्वयं का नोटिस न लिया जाना साल रहा है और
यह उचित भी है।अभी ऐसे समय में जब एक लंबी तालाबंदी के बाद माहौल ‘अनलॉक‘ की ओर अग्रसर
है तब जरूरी है कि अच्छी कविता को संवाद ,विमर्श या बातचीत के सूप में
रखकर फटकते – पछोरते समय सहजता, संतुलन व संयम व को ईमानदार रखा जाय।
बात की बात
में आज के संवाद में यह बात सामने आई कि
जिस तरह टीवी पर मौसम का समाचार आता है उसी तरह
कविता के मानचित्र पर क्यों न अच्छी कविताओं का प्वाइंटर का पकड़कर कुछ
लोकेशंस देखे जायं कि ताकि पता चले कि कहाँ का अधिकतम व न्यूनतम तापमान कितना है?बादल बरसात
और बर्फ की आमद के अंदेशे कहाँ – कैसे है? कहाँ खूब चटख धूप खिली है ? कहाँ निरभ्र
नील आकाश शोभायमान है और कहाँ समय ,समाज की
संगति – विसंगति के फलस्वरूप विक्षोभ बन रहा है तथा अंधड़ और चक्रवात की आहट है?
प्रिय युवा
आलोचक को कहीं बोलना है।इस बोलने से पहले
उन्हें लिखना है।लिखने से पहले अब तक के पढ़े के पुनर्पाठ के साथ नया भी पढ़ना
है।पढ़ने के बाद गुनना है तब लिखना है और लिखे का फाईनल ड्राफ्ट तैयार करते समय यह
यकीनी तौर पर खुद को तैयार रखना है कि यह अंतिम ड्राफ्ट नहीं है।कुछ लोग कहेंगे कि
इतनी मेहनत कौन करता है भाई? मैं तो यही कहूँगा
की मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो जमकर तैयारी करते हैं तब जाकर कुछ कहने के
लिए खुद को तैयार करते हैं।
आज की सुबह
कविताओं के जरिए आत्मिक संवाद से आबाद हुई।मुझे लगा कि सचमुच मुझे खुशी है कि मेरी
सुबह में रंग भरने के लिए हमारी हिंदी के संसार में कविताओं की कमी नहीं।बात बस
इतनी है कि उनके लिखने वालों को ठीक से देखा जाय ,सराहा जाय और उनके लिखे को जब
आलोचना की कसौटी पर कसा जाय तो ‘बिगाड़ के डर से ईमान की बात‘ कहने में संकोच न हो ,भाव व भाषा
ठीक रहे ; भंगिमा में
भदेसपन न आने पाये। दूसरी ओर कवियों के लिए बिन माँगी सलाह यह है कि कान में हर
वक्त मिश्री घुलने की उम्मीद से उछाल मिलते देर नहीं लगेगी। हो सकता है कि इफरात
में ईनाम – इकराम भी मिल जाय लेकिन समय की शिला पर अंकित किए जाने योग्य लिखना अभी
बाकी है यह ध्यान से हटने न पाए। चर्चा ,विमर्श और बतकही के लाइव –
अलाइव लोगों से बस इतनी ‘अरज‘ है कि अपने
चयन व कहन को प्रवचन बनने से बचने की सावधानी जरूर बरतें ताकि विश्वसनीयता बनी
रहे।
तो , मैं खुश हूँ
कि हमारे युवा आलोचक – प्राध्यापक मित्र
हाल ही में जब कहीं बोलेंगे तो उसमें थोड़ी – बात मेरी भी होगी, जिसमे कुछ पसंदीदा कविताओं के उद्धरण
होंगे और कुछ वे समर्थ – संभावनाशील नाम, जिनकी ‘बात बोलेगी ; हम नहीं‘। अब आप अपने
तरीके से ,अपनी समझ से ,अपनी पसंद से
यह अनुमान लगाइए कि वे कविताएं कौन सी होंगी और उनके नाम कौन से होंगे?और अंत में
अपने परिचय में बस इतना जोड़ दूँ कि मैं परिधि समझे जाने वाले भौगोलिक परिवेश में
रहने वाला हिंदी का एक मास्टर हूँ;अगर आपको यह शब्द हल्का लग रहा
है और आप इस अकिंचन को थोड़ी इज्जत बख्शना चाहते हैं तो प्रोफेसर कह लीजिए।हाँ ,तो बात यह है कि जिस तरह मेंरे विषय और मेंरी
कक्षाओं में छात्रों के मुकाबले छात्राओं की संख्या अधिक है तो ठीक वैसे ही इस समय
हिंदी युवा कविता के परिसर में स्त्री कवियों की धमक भरपूर है और आज सुबह के संवाद
में यह बात रेखांकित हुई कि ‘यही सच है‘।खैर ,अंजुम इरफानी का यह शेर देखिए –
इधर सच बोलने घर से कोई दीवाना निकलेगा
उधर मक़्तल में इस्तिक़बाल की तय्यारियाँ
होंगी।
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Badhiya lekh. Badhai
नैनीताल और चंपावत दोनों अलग अलग कारणों से क्रेंद्र रहे हैं| दो क्रेंदों की एक रंगभूमि पर की गयी आत्मीय बातचीत को पढ़ते समय पहली प्रतिक्रिया एक स्मृति के रूप में उठी |टनकपुर कॉलेज की वह स्मृति रही जहाँ दीवार में खुदा था चंपावत( नैनीताल) | निंदा की अनुपस्थिति की उपस्थिति वे लाइव काल में सचमुच दुर्लभ होती जा रही है | कोरोना ने हिंदी बिरादरी को अधिक वाचाल, आत्महीन और निंदक बनाया है | गहराई में जाने पर कारण साफ़ है कि " विद्वान " पढ़ते नहीं लड़ते हैं | मनुष्य पढ़ता है, गुनता है तो धीरता कमाता भी है | वही धीरता दोनों ओर है | तैयारी बोलने के बीच ज़रुरी मौन की संस्कृति को जब जब बनाती है तो कहे को सुनने, सुनने को और सुनने का मन होता है| बोलना वाचालता नहीं होता और ज़रुरी नहीं बोलना नीरस ही हो, इन अतियों से मुक्ति, संवाद का मूल स्वर है | बोलने के पीछे छिपी व्याापक तैयारी, स्त्री स्वर, विमर्श से अधिक हकीकत है समकाल की इस बात को निजी सामाजिक यथार्थ से व्यक्त किया गया है | संवाद का अलाव जलता रहेगा मद्धिम मद्धिम उम्मीद |
कमाल की शैली में बातें रखी गई हैं। महत्वपूर्ण लेख।
हमेशा की तरह बढ़िया लिखा है आपने।