अनुनाद

अरूणाचल के पानी में डूब रहा है केरल – अनामिका अनु की कविताऍं

कितनी अलग-अलग आवाज़ें इस बीच हिन्‍दी कविता को मिली हैं, यह देखना सुखद है। अहिन्‍दी प्रदेशों में हिन्‍दी की कविता के रचे हुए नए-नए-से ये दृश्‍य आश्‍वस्‍त करते हैं। इन दृश्‍यों में लम्‍बी यात्राऍं हैं, सुदूर फैले संवेदन हैं। ऐसे ही एक दृश्‍य, यात्रा और संवेदन के साक्ष्‍यरूप में केरल से अनामिका अनु की कविता हमें मिली हैं। कवि का अनुनाद पर स्‍वागत है।

   कवि का कथन   
 
पुरानी ऋणगंध से निवृत्ति हेतु लिखी गयी ये मन और माटी की कविताएँ हैंभावनाओं और घटनाओं का समुच्चय मेरे जीवन का अंकगणित गढ़ता आया है। अब जरूरी है कि मैं उसके कुछ प्रश्न सुलझाऊँ, कुछ प्रमेय सिद्ध करूँ और रहे गये जीवन बीजगणित के कुछ अज्ञात अक्षरों  का  विन्यास कम और सरल शब्दों में आप तक लेकर आऊँ। जो शब्द मिले हैं उनसे अपने भाव, ज्ञान, दृष्टि और जीवन समझ को कह कर,स्व और पर के साथ घटित सुंदर, असुंदर पलों के स्मृति ऋण से निवृत्त हो जाऊँ। कहना मन पर लदे समान को उतारना भर है, कहना जरूरी है बस इसलिए कह रही हूँ। पुरानी स्मृतियों की गंध बेचैन करती है, शब्दों में  बाँध अब मैं उन्हें उड़ा देना चाहती हूँ खुले आकाश में। हाँ मैं लिखती हूँ क्योंकि लिखना चाहती हूँ… 
             

टिकुला

एक जोड़े में दो टिकुला,
झरोखे के पास ,पेड़ से लटका।
मंजर,मिठास, भँवरे मिले,फल लगा ,टिकुला हरा।
मन में खिजां रस,
नज़र बचाकर झुरमुट बीच बढ़ा ,
अप्रैल की आँधी झुरमुट को सरका गयी,
जोड़ा दिखने लगा सभी को।

लोगों के आँखों को हरा लगा,
मारा झुटका गिरा दिया,
टहनी से बूँद-बूँद दूध टपक रहा,
पत्थर से फोड़ा,चाटा- चटकारा,
आवाज़ दे किसी ने फटकारा ,
सरपट भागे लोगों का चप्पल वहीं पड़ा है।
क्षत-विक्षत मरा, टिकुला हरा  है।

पकने से पहले टपक चुका,
समाज की लपलपाती जीभ,चटोर मुख और स्वाद की खातिर खप्प  चुका ,
ज़ख्मी बीज, माटी में गड़ा पड़ा,
एक जोड़े में दो टिकुला  मरा है।
अखबार टीवी देख रहे लोगों से नन्ही बेटी पूछ रही-
टिकुला किसने तोड़ा,कहाँ गया टिकुला  हरा?
                                      
*टिकुला- टिकोरा ,कैरी,आम का कच्चा छोटा फल


मोनपा

वह मोनपा लड़की जो जानती है
मैं वह देख रहा हूँ
      अरूणाचल के पानी में  डूब रहा है केरल

थांगका पेंटिंग बनाती उस फूले आँखों वाली लड़की
ने एक दिन बस यूँ ही खिलाया था
थूपका नूडल
और मन उन्हीं नूडलों
में आज तक फँसा रहा

पहक चटनी सी तीखी बातें करती वह लड़की
अंदर से सोयाबीन बड़ी थी
जरा सी नरम बात नहीं उड़ेली
कलेजा मोम बना लेती थी

एक याक,तीन सूअर
और दो भेड़ तब ताक रहे थे मुझको
उसकी माँ अनभिज्ञ बनने का
अभिनय करती रही
और बिनती रही कालीन
मानो प्रेम में कर रही हो मध्यस्थता
झूठ कहते है सब लोग
मोनपा व्यापार में करते हैं मध्यस्थता
प्रेम में करते हैं
मैं जान गया था उस दिन

बाँस की चूड़ियों से सजे हाथ ने एक चटक लाल
एंडी* थमायी थी
बारिश भी हुई
बुखार भी आया था
बाँस का झुमका मेरे पास
उसकी निशानी है
जो मेरी लिखी किताबों के बीच पुरस्कार सा पड़ा है

फरवरी का तीसरा हफ्ता था
लोसार था उस दिन
लोसार यानी कि नव वर्ष,नव हर्ष
रस भरी लड़कियाँ पानी भरने गयी थी
सजधज कर
आठ शुभ चिन्हों से सजी दीवारें बोल रही थी
गरम छांग, जौ के सत्तू से महक रहा था घर-आँगन
कुँए, पोखर पर जल रहे थे धूप-दीप
बर्तनों के मुँह पर सूत बँधी थी
सब गये थे तवांग मठ
उसके लौटने से पहले
मैं समेट चुका था खुद को

केरल में मंजारी के बीज
से सड़क पटा था
सुर्ख लाल बीजों पर दिल बना था
छह महीने बाद इड्डुक्कि
डूब गया
उस मोनपा लड़की का नेह सच्चा था
और उसके आँसू अंतहीन…

*पुरुषों का एक वस्‍त्र               


गीतगंधा
(तीन बिन्दियाँ (ठुमरी) कहानी पर लिखी गयी कविता)

मन की दीवार पर एक कील ठोक कर रखी है
प्रिय तुम्हारा तैलचित्र टंगा है उससे
 उम्र और सुर में  बँधा जीवन
तुम मुख को खोले सुन रहे हो
कब से मुझको बेजान माइक सा!

मैं नाद अकेली साँझ तले
स्मृतियों के चूर्ण विचूर्ण क्षणों
से जोड़ रही टूटी अपनी तानपूरा
सूखी सख्त जमीन पर छींट रही मैं सुर कणिका
नाद और सहनादों की फसल उगेगी
जो गाना उससे रह गया नया
वह गीत समय अब गाएगा

मन सरसों की पोटली
दिमाग मछलियों का अंडा है
आधी कथा से आधे सिर में  दर्द है रहता
अधूरे प्रेम से जीवन भर…

कभी चाँदनी नहीं टंगी
शाल वृक्षों की बाल फुनगियों पर
यह रही बिछती श्यामल-मसृण युवा घास पर
परित्यक्त रागिनी का ठौर बनाते
एक दिन बन गयी स्वंय यंत्र मैं
जिसे बजा जाती हैं
अनचीन्ही उँगलियाँ

प्रथम प्रेम पत्र में स्वर था
हर पंक्ति तब झनक रही थी
द्वितीय प्रेमपत्र बस बोलती चिट्ठी
तीसरा प्रेमपत्र गूँगा था।

 प्रेम के धूप की गंध करती रही बेचैन
 सहनाद को नौगुन ऊँचाई पर पहुँचाते
कट गयी एक उम्र सुरमयी
तन मन धन तीनों बिंदियों को चिपका दिया
गीत, स्वर और सहनाद के सिर पर
बन गयी मैं गीतगंधा


उत्पलावनता

मेरे रिक्त का आयतन बहुत बड़ा है
गुब्बारे में गुबार भरा है
करता रहा विस्थापित मैं मर्यादाओं
को अपने आयतन से कहीं अधिक
रहा तैरता ऊपर-ऊपर
विज्ञान इसे उत्पलावनता कहती है
मैं इसको मेरा हल्कापन।


सपने उन्हें देखते हैं

वे बच्चे जो पेंसिल छिलते रहते हैं
डस्टबिन के पास
जो कक्षा में होकर भी अलग-सी दुनिया
में होते हैं
ख़ुद से बातें करते
दूसरी दुनिया के चक्कर काटते ये बच्चे
अनछुए रह जाते हैं उस ज्ञान से
जिसे हम हर रोज परोसते हैं।

प्रश्न की दीवारों को ताकते ये बच्चे
कहाँ पार कर पाते हैं परीक्षा की परिधि
केन्द्र से अछूते,
आत्ममुग्ध इन बच्चों के आँखों में क्या होता है?
चौकोर भोर जिसकी चारों भुजा एक सी
सब उसे वर्ग कहते हैं
ये दृष्टि

इनके पेट में एक उबाल होता है
 आँखों में बेचैनी
पानी की बड़ी बड़ी घूँट पीते
उल्टे डी,बी, उ, अ लिखते
 “हर गोल” से भागते ये बच्चे
परिधिहीन दुनिया की सैर पर होते हैं

आसमान सबका होता है
ये सच भी है और
तय भी
ये बच्चे अपना आसमान स्वंय गढ़ते हैं
फिर उस पर हीरों-सा चमक उठते हैं
इनके आसमान में न चांद होता है ,न बादल।

छूटते टूटते सपनों के ये बाज़ीगर
खरीद लाते हैं कबाड़ी के मोल में हीरा
और फिर लिखी कही जाती हैं
उन पर अनगिनत कहानियां

ये जो धूप का टुकड़ा लाते हैं
वह भी उजाले का हिस्सा है
इनकी रिक्त कापियां  दस्तक है
हमारे  ज्ञान कोष पर

बड़ी बड़ी आँखों वाला एबिन
झूठ नहीं कहता
वह सपने नहीं देखता
सपने उसे देखते हैं
 

निर्वासित कवि

गाँव के पोखर के पास
खेत की दोमट मिट्टी पर दोपहर में सरसों
आज भी ठहाके लगाती होगी न?
सूरज अपने देह की पीली माटी
से रंग देता होगा
देह धरा का
तब जाकर सरसों खिलती होगी
आज भी जनवरी पीली खेत से मिलती होगी।

बाँस के हरे पत्ते
और सरसों की हरी पत्तियाँ  जुड़वा भाई-बहन हैं
दोनों के रंग इसलिए एक से हरे हैं
 कहता था कहलू पहलवान

चन्देश्वर कितना छोटा दिखता था
पर बातें बड़ी-बड़ी करता था
उसकी बातों के पोखर में
मैं डूबता और उभरता रहता था

उम्र तेरह थी ,
गाय चराने जाता रहता था
बाबा की चुनौटी से निकाल खायी थी खैनी
बँसबिट्टी में साँय- साँय एक हवा चली थी
डर खूब लगा था
तन पीला, पेंट गीला और थूक दिया था खैनी
मुँह छीली रही थी पाँच दिनों तक
आत्मग्लानि लंबी चली थी
चूने को बाँस के गिरे भूरे पत्तों से पोंछ
खैनी को उगल  खायी थी एक कसम
फिर कभी नहीं  छुऐंगे
किसी कसैली और नशीली चीज को

माँ के पास नहीं थी
एक भी साड़ी गुलाबी
वह कभी नहीं गयी बाजार
बाबूजी ही लाते रहे साड़ी दुकान से
जो हमेशा हल्के रंगों की होती थी
कभी सफेद,फूल के छींटों वाली
कभी आसमानी या पीला…
पर माँ को शायद बहुत पसंद था रंग गुलाबी
बाबू की धोती, पाग और बकरी के मेमनों
को रंगती रही गुलाबी

उसी माँ के आँगन में लकड़ी की ओखली
में मैं छिपा कर रखता था
पके बेर,जामुन और फालसे
का गुच्छा
कभी -कभी किसुनभोग आम भी
वही कनेर पेड़ के पास गाड़ दिया था
टूटे फाउंटेन पेन को
 कि कभी तो कलम का पेड़ उगेगा

मखाने के पोखर के पास
एक काँटा चुभा था पैर में
और एक फूल सी लड़की
पर पहली बार
नजर वहीं ठहरी थी

लिखता पढ़ता
लड़ता उलझता
समझता बूझता आज
आ गया हूँ कितनी दूर

घहराती घूमती लयबद्ध
घर्र-घर्र करती जाँता
ये जाँता नहीं
मेरे माँ का दो टूक कलेजा है
कितनी स्मृतियाँ रख दी पीस कर
सूई सी घुमती यह जाँता
बीस बरस से बना विदेशिया !
कब लौटेगा बेटा?

माँ ठंड में प्रतीक्षा की घुनी जलाती होगी
कितने सालों से नहीं मिला मैं!
तीन सौ पैंसठ दिन का एक बरस था
पर हर दिन में आठ पहर था
कितने पहरों का इंतजार था माँ का…

मैं  निर्वासित कवि हूँ
एक सुंदर देश का
कल मुझ से मिलने मेरे अतीत का सहचर आया था
वह केतली सा भरा था गर्म स्मृतियों से
खौलती स्मृतियों को वह मेरे भीतर उड़ेल रहा था
मैं  कमजोर प्लास्टिक की कप सा पिघल कर विकृत हो गया
स्मृतियाँ फैल गयी थी इधर-उधर
 मैंने एक ताप और उदास भाँप
बहुत भीतर ,बहुत दिनों
बाद महसूस की।

बाहर बर्फबारी हो रही है
शीशे को पोंछती प्रेमिका कह रही है।
मेरे मुँह से भाप निकल रही है
इंजन रुक गयी है
छुक-छुक बंद है
पटरी गाँव से होकर गुजरती है
मगर  भाप वाले इंजन नहीं चलते अब वहाँ

मेरे मन के कुछ महीन मुलायम धागे
आज भी बँधे मिलेंगे
बगान के सबसे बड़े आम पेड़ की सबसे झुकी टहनी पर
और मैं मिलूँगा  माँ के साथ बैठकर जाँते में स्मृतियाँ पीसता
 जँतसार से गूँज उठेंगी चहुँ दिशाएँ
बोल कुछ ऐसे होंगे-
बीसो बरिसवा पर लौटे न  मोरा बेटवा हो…
                                     

परिचय
निवासी    – केरल
शिक्षा – एम एस सी (वनस्पति विज्ञान,विश्वविद्यालय स्वर्ण पदक)
पी एच डी – लिमनोलाजी(इन्स्पायर फेलोशिप,DST)
हंस,कादम्बिनी,नया ज्ञानोदय,समकालीन भारतीय साहित्य,वागार्थ,कथादेश,पाखी,बया,आजकल,
परिकथा,दोआब,माटी,जानकीपुल, समालोचन, पोषम पा,शब्दांकन,हिंदीनामा,पुरवाई,समग्रंथन,केरल ज्योति,शोध सरोवर,नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर ,राजस्थान पत्रिका आदि कई पत्र पत्रिकाओं में कविता, कहानी, अनुवाद का प्रकाशन।
फोन नम्बर – 8075845170

0 thoughts on “अरूणाचल के पानी में डूब रहा है केरल – अनामिका अनु की कविताऍं”

  1. बेहतरीन प्रतीक एवं बिम्ब के साथ रची गई रचनाओं के लिए रचनाकार को साधुवाद।

  2. मैंने आज ये कविताएँ दोबारा पढ़ीं। मैं Anamika जी की कविताओं से पहली बार ही मिला हूँ तो पहली बार उन्हें सही से पकड़ नहीं पाया और उन्हें धैर्य के साथ पढ़ने की सोचते हुए बीच में छोड़ दिया।

    आज दोबारा पढ़ते हुए बड़ा आनंद आया। ये कविताएँ स्मृतियों के निराले गीत हैं।

    एक दो कविताओं में मुझे ये जरूर लगा कि वे लंबा होने की वजह से अपना कसाव खोती हैं कहीं कहीं।

    कच्चे आम वाली कविता तो गहरे अर्थ लिए हुए है।

    कवि को शुभकामनाएं और अनुनाद का आभार।

    -प्रदीप सैनी

  3. बहुत ही सुन्दर कविताएं।अपने अंचल के शब्दों को भावों से समेटती कवयित्री को बधाई।कुछ नए बिम्ब,कुछ नए उपमान कविताओं में दिखाई पड़े हैं।सर्जन हमेशा चलता है,जो कविता को गतिमान रखता है।कुछ पंक्तियां मुझे खासकर पसंद आई-'वह केतली सा भरा था गर्म स्मृतियों से,ख़ौलती स्मृतियों को वह मेरे भीतर उड़ेल रहा था','मैं कमजोर प्लास्टिक की कप सा पिघल कर विकृत हो गया।'बहुत ही सुन्दर बिम्ब।सरसों का ठहाके लगाना,कलम का पेड़ उगाना।बहुत ही प्रौढ़ भाषा का प्रस्तुतीकरण।

  4. कविताएँ बेहतरीन हैं। बहुत डूबकर और दो तीन बार पढ़ना पड़ता है। कहीं शिल्प में कुछ कमी है जो बीच बीच में उबाऊपन लाती हैं।
    – गणेश गनी

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