अनुनाद

गूँगी नहीं हो जाती है आत्मा – प्रदीप सैनी की कविताऍं

समकालीन हिन्‍दी कविता की अन्‍तर्धारा में प्रदीप सैनी सदा ही धैर्य और संयम के साथ रचनारत दिखायी दिए हैं। अनुनाद को उनकी ये अप्रकाशित कविताऍं मिली हैं। प्रेम को अवश्‍य ही कविता में अनगिन बार कहा गया है और अनगिन बार कहा जाएगा, किन्‍तु पाठकों को यहॉं आत्‍मा के मुँह में घुलती गुड़ की डली के स्‍वाद जैसी इसकी मौलिकता कुछ अलग अनुभव सरीखी लगेगी। 

अनुनाद पर कवि का स्‍वागत है और इन कविताओं के लिए शुक्रिया भी। 
                           
कवि का कथन 

मेरे लिए कविता अपने भीतर की बेचैनियों, चिंताओं और झटपटाहटों को पकड़ने की यात्रा है। वे क्या हैं और क्यों हैं ? मेरे लिए इसका जवाब खोजना दरअसल अपनी खोज के साथ-साथ उस सत्ता, संस्कृति और समाज की भी जांच पड़ताल हैं जिससे रोज़ मेरा पाला पड़ता है। इस यात्रा में सच्चाई और अपने प्रति निर्मम ईमानदारी ही मेरी लालटेन रही है।

जीवन में जिया हुआ तमाम झूठ, फ़रेब, कायरताएँ और सुविधाजनक समझौतों की स्वीकारोक्ति के लिए मैंने कविता को एक कॉन्फेशन बॉक्स की तरह भी बरता होगा, इससे इंकार नहीं कर सकता। लेकिन मेरे लिए कविता सिर्फ़ इतनी ही नहीं है। उसमें मुझसे बाहर की एक दुनिया भी है। मेरी समाज, देश और दुनिया को लेकर चिंताएं भी उनमे शामिल हैं।  लेकिन किसी एजेंडे के तहत या उसके दबाव में मैंने कविताएं कभी नहीं लिखीं और न ही पॉलिटिकली करेक्ट होने को किसी अनिवार्य शर्त की तरह देखा।

अपनी बात को कहने के लिए मेरे पास कविता से बेहतर कुछ भी नहीं। यहाँ भी अपने वक्तव्य को अपनी दस साल पहले लिखी एक अप्रकाशित कविता से विराम देता हूँ।

बाबा, ये मैं कैसा कवि हूँ ?
[कवि नागार्जुन को याद करते हुए]

यूँ तो जब भी लिखता हूँ कविता की पंक्ति कोई
दाएँ हाशिए को वह छूती नहीं कभी
पर बाँई तरफ़ करता हूँ कहाँ से शुरू लिखना
यह भी तो तय नहीं

न फक्कड़ हूँ न घुम्मकड़
एक जगह जमकर फैला रहा हूँ जड़ें गहरी
दूर दूर तक बना रहा हूँ पहुँच
सोख लेना चाहता हूँ
अपने हिस्से से ज्यादा खनिज और पानी

बाबा
साफ़ साफ़ सुनता हूँ तुम्हारी आवाज़
कभी हकलाते नहीं हो तुम
तुम्हारी आवाज़ में शामिल जो हैं
बहुत सी आवाज़ें गुमनाम
खुद वक़्त की खोई हुई आवाज़ भी
पाती है शरण उसमें

मेरी आवाज़ में तो बाबा बस मेरा अपना ही शोर है

जिस प्रेम को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल कर
कविता में बदल देता हूँ
उसे सब से छुपाकर एक गुनाह की तरह जीता हूँ
कठिन समय में करता हूँ प्रेम
कमाल यह है कि कविताएँ लिखने के लिए
बचा रहता हूँ

सौ झूठ जीता हूँ
शुक्र है इतना कि कविता में सिर्फ सच लिखता हूँ

धूल भरे मौसमों में
मैली हुई आत्मा को धोने
कविता में लौटता हूँ बारबार
हर बार गंदला करता हूँ उसका जल

बाबा, ये मैं कैसा कवि हूँ

इतना पवित्र था कि प्रेम ही हो सकता था

        1.

यह पिछली सदी के
उम्मीद भरे आख़िरी दिनों की बात है
सदी बदलने से तो यूँ बदलने वाला कुछ नहीं था
पर तुम अचानक मिली जब मुझे
यक़ीन हो चला था
आने वाले समय में बेहतर होगी दुनिया
विलुप्त हुई नदियाँ
दन्तकथाओं से निकल धरती पर बहेंगी
बारूद सिर्फ़ दियासिलाई बनाने के काम आएगा
और ऐसे ही न जाने कितने सपनों ने
आँखों में घोंसला बना लिया था
मैं साफ़-साफ़ नहीं देख पाता था वक़्त।
         2.
तुम किसी आदिम प्यास के स्वप्न में
मेरे भीतर की बावड़ी तक
अनजाने ही आ गईं थीं
वहां इतना निथरा  था जल
यक़ीनन उसमें तुम
रूप अपना ही देख मुग्ध हुईं 
वरना पास तुम्हारे वहां आने और बैठ जाने की
वाजिब कोई वजह मौजूद नहीं थी

तुम्हारा आना इतना अप्रत्याशित था
मैं नहीं जानता था
किस नाम से पुकारूँ तुम्हें
तुम्हारी गंध को पहले-पहल मैंने
खुशनुमा जंगल की देन समझा
हड़बड़ाहट में मेरे बहुत ज्यादा बोलने के बाद भी
तुम कुछ भी सुन नहीं पाईं
जानता ही  कहाँ था मैं तब स्पर्श की भाषा।

         3.
अपने लिए हल्की तरफ़दारी के साथ ही सही
आज भी याद है मुझे सब
और इस बीच दस बरस बीत गए हैं
और प्रेम किसी वायरस की तरह चिन्हित किया जा चुका है
बचाव के लिए हम सभी
खुद को स्मृतिहीन बना रहे हैं
कि कहीं दर्ज़ न हो पाएं
एक काँपते हुई पल के थमे हुए रंग
कोई ऐसी ध्वनि जो गूँजती रहे ताउम्र
और काया से परे का कोई स्पर्श
बाक़ी सब भी मिटाए जाने की सहूलियत के साथ
कुछ गीगाबाइट मेमोरी के हवाले रहे

सभी बदल रहे हैं लगातार
प्रेम नहीं
वह आज भी आपको नष्ट करने की क्षमता रखता है
बावजूद इसके कि हम सभी
अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में लगे हैं।

         4.
इन दस बरसों में
सभी दस अंकों की एक संख्या में तब्दील हो गए हैं
लगातार चल रहा है
असंख्य संख्याओं के बीच
जमा-घटाव-गुणा-भाग
एक संख्या दूसरी से इतना बतियाती है
जैसे अभी-अभी ईजाद हुई हो भाषा
ख़ुदा का शुक्र था
जब हम मिले संवाद कम चुप्पियाँ ज़्यादा बोलती थीं।

         5.

उस वक़्त मेरे भीतर
सिर्फ़ कविताएँ थीं
रगों में खून नहीं स्याही दौड़ती थी
और कविताएँ धीरे-धीरे ही सही
हमारे बीच पुल बन गईं थीं
उनसे होकर हम आ-जा सकते थे
एक दूसरे के भीतर

कविताएँ तुम भी लिखती थीं
अब नहीं लिखती होगीं
सफ़ेद पड़ चुके हल्के गुलाबी रंग वाली स्मृतियों के साथ
उन्हें भी छोड़ दिया होगा तुमने
जैसे दुर्गम पहाड़ पर चढ़ने से पहले
पर्वतारोही आधार शिविर में छोड़ देता है
अगले सफ़र के लिए गैर-जरूरी हो गया
बहुत-सा सामान ।

         6.

मुझसे बरस दो बरस उम्र में
छोटा होने के बावजूद
कितना समझदार थी तुम
जान लिया था कि नहीं जिया जा सकता उसके साथ
जो हमारे बीच
इतना पवित्र था कि प्रेम ही हो सकता था।

         7.

तुम्हारा जाना मेरे लिए
गहरी नींद से जगकर आँखें मलने जैसा था
मैंने दुनिया को नई नज़र से देखा

इन दस बरसों में
कठिन अभ्यास से अर्जित की है मैंने
सामने घटित होते हुए को न देख पाने की दृष्टि
सिर्फ़ उन आवाज़ों को पहचानने का हुनर
जो मेरे पक्ष में हैं
या जिन्हें मेरे पक्ष में किया जा सकता है
और भाषा का वह तिलिस्म
जिससे अपनी आत्मा के सिवा
सभी को छला जा सकता है

हो सकता है किसी रोज
तुम मेरे सामने से गुजरो
और मैं तुम्हें देखूं एक अपरिचित मुस्कान के साथ।

पार करना

तुम मेरे जीवन में नदी की तरह आईं 
मुझे तुम में डूब जाना था

अभागा हूँ मैं
आगे की यात्रा के लिए प्रार्थनाएं बुदबुदाते हुए
मैंने तुम्हें एक पुल से पार किया।


एहतियात

ताज़ा ताज़ा प्रेम अभी गीला है
रच जाने दो इसे दिल की दीवार पर

छुओ मत
दूर रखो तन

वरना इस  पर पड़ेंगे धब्बे
और तुम दाग लेकर जाओगे।


गलत नम्बर का चश्मा

याद में उस हकीम की
पढ़ता हूँ कविता को दवा के पुर्ज़े की तरह
नब्ज़ देखे बिना ही जो दवा की पुड़िया बाँध देता था

कसैले वक़्त में बढ़ाता हूँ हाथ
शहद की जगह हाथ में सल्फास आ जाता है

कुछ का कुछ दिखता है अब मुझे
जानता हूँ उसकी याद गलत नम्बर का चश्मा है।


गुड़ की डली

गूँगी नहीं हो जाती है आत्मा
न ही होश खोती है

सही गलत दिखता है उसे सब 
बस वह बोल नहीं पाती है

प्रेम आत्मा के मुँह में घुलती गुड़ की डली है।


आसान विकल्प

कविता एक आसान विकल्प है

अंट जाओगी तुम भी
कविता में धीरे-धीरे
ज़िन्दगी में नहीं
कविता में हमेशा होती है गुंजाइश।


अन्न-जल

तुम्हारे पास आकर मैंने
अपनी भूख को जाना
तुमसे दूर रहकर अपनी प्यास को

तुम्हारे पास ही तो मेरा अन्न-जल है।
***



परिचय

जन्म : 28/04/1977
शिक्षा : विधि स्नातक
सृजन : कविताएँ विपाशा, सेतु, आकंठ, जनपथ, समावर्तन, दैनिक ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं के अलावा असुविधा, पहली बार, अजेय, अनहद, आपका साथ, साथ फूलों का व पोषम पा ब्लॉग्स पर प्रकाशित एवं आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के शिमला केंद्र से प्रसारित। चार युवा कवियों की कविताओं पर कोलकत्ता के कवि-आलोचक श्री नीलकमल द्वारा सम्पादित काव्य पुस्तकसम्भावना के स्वर” में कविताएँ शामिल तथा “समावर्तन” साहित्य पत्रिका के मुख्य संपादक श्री निरंजन क्षोत्रिय जी ने अपनी पत्रिका के युवा कविता पर आधारित चर्चित स्तम्भ “रेखांकित” में कविताओं को शामिल किया है।
सम्प्रति : वकालत

पता : चैम्बर नंबर 145, कोर्ट काम्प्लेक्स, पौंटा साहिब, जिला सिरमौर, हिमाचल प्रदेश।
मोबाइल : 9418467632, 7018503601
ईमेल : sainik.pradeep@gmail.com

0 thoughts on “गूँगी नहीं हो जाती है आत्मा – प्रदीप सैनी की कविताऍं”

  1. सभी कवितायेँ बहुत सुंदर हैं , कविता छह , गुड़ की डली और अन्न जल बहुत सुंदर लगीं

  2. प्रदीप सैनी जी की कविताएं हमारे लिए उपलब्धि हैं। एक कवि का अज्ञातवास से वापस लौटना, अनुनाद के साथ।

  3. अद्भुत कविताएँ । कविवर् को बधाई और शुभकामनाएं । अनुनाद को साधुवाद इस महत्वपूर्ण साहित्यिक पहल के लिए ।

  4. बहुत ही सुन्दर और मिठास से भरी हुईं कविताएँ हैं|

    कवि प्रदिप सैनी जी को बधाई!जब कभी समय मिलता है अनुनाद पर आता हूँ|सुन्दर और उम्दा रचनाएँ पढवानें के लिए आभार|

  5. इतनी ख़ूबसूरत और गहरी बातें घुल गईं हैं कविताओं में कि दो चार प्रतिनिधि पंक्तियाँ नहीं रख सकता पूरी कविताएँँ ही चुनता हूँ।बहुत बधाई प्रदीप जी।

    शिरीष भैया को शुक्रिया अच्छी कविताएँ प्रकाशित करने के लिए।

  6. इतनी ख़ूबसूरत और गहरी बातें घुल गईं हैं कविताओं में कि दो चार प्रतिनिधि पंक्तियाँ नहीं रख सकता पूरी कविताएँँ ही चुनता हूँ।बहुत बधाई प्रदीप जी।

    शिरीष भैया को शुक्रिया अच्छी कविताएँ प्रकाशित करने के लिए।

  7. नवनीत भाई की कविताएँ पहली दफा ब्लॉग पर ही पढ़ी थी। आज फिर से इतने ताज़ा मुहावरों और नए बिंबों से युक्त कविताएँ पढ़वाने के लिए आभार।

  8. Adbhut !! Bass kamaal hi kar diya hai Pradeep ji ne, "dhage wali" mishri ki tarh peeroya hai shabdon ki inn kavitaaon ki mithas ne ,

  9. बेहतरीन कविताएं।
    प्रदीप वास्तव में नैसर्गिक सौंदर्य व निश्छल प्रेम के कवि हैं।

  10. जीवन के अनुभवों की इतनी सरलता से गूढ़ काव्य में अभिव्यक्ति! प्रदीप भाई।

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