संदीप नौजवान कवियों में उम्मीद से भरा एक नाम हैं। उन्हें पिछले वर्ष युवा कविता के लिए रविशंकर उपाध्याय स्मृति पुरस्कार बनारस में दिया गया है। वे लोक और विचार से गहरी सम्बद्धता रखने वाले कवि हैं। उनका अनुनाद पर स्वागत है।
कवि ने कहा
कविता मुझे अधिकतर यात्राओं में मिलती है. या
किसी अनजान जगह पर. बसों, ट्रेनों, स्टेशनों या अस्पतालों में. कई बार राह चलते,
सड़क पर. अधिकतर तो भीड़भाड़ के बीच ही वह दिखती है. कई बार उसे साथ ले आता हूँ. कई
बार वह वहीं रह जाती है.
भीतर कोई गहरी उदासी हो, मन में किसी बात का
दुःख हो, पुरानी स्मृतियाँ उसी समय आकर घेरती हैं. दिन बीतने के क्रम में बहुत सी
चीजें अपना रूप बदल लेती हैं. अनुभव और स्मृतियाँ भी लिखते समय घट-बढ़ जाते हैं. कभी
बहुत चाह के भी लिखना संभव नहीं होता. तो कभी बहुत चाह के भी हम उसे टाल नहीं पाते.
कविता कब और कैसे होगी, यह ठीक-ठीक हमें कभी पता नहीं होता. वह जब भी आती है, अपने
हिसाब से आती है. हमारे हिसाब से नहीं. उस समय अच्छा बुरा जो भी हो, लिखना ज़रूरी
जान पड़ता है. न लिख पाओ तो एक अजीब सी बेचैनी होती है . जैसे कोई बहुत ज़रूरी काम
छूट रहा हो.
लिखना मेरे लिए हमेशा एक
मुश्किल काम रहा. इसीलिए अधिकतर टालता ही रहता हूँ. पता नहीं और लोगों के साथ ऐसा
होता है या नहीं? पर मुझे कई बार कोई सरल वाक्य लिखने में भी बहुत मेहनत करनी पड़ती
है. लिखना, काटना, फाड़ना, फेंकना,जोड़ना,
घटाना यह सब तो होता ही है. कभी कम तो कभी ज्यादा.
लिखकर भी कभी पूरी तरह संतुष्टि नहीं मिलती. ऐसा
कभी नहीं होता कि कह सकूँ- कि लो अब यह पूरा हुआ. अंत समय तक यही लगता रहता है कि
कुछ तो छूट रहा है. कुछ अधूरा रह गया है. वही अधूरापन भरने के लिए बार- बार लिखता हूँ . और बार-बार कुछ छूट
जाता है.
***
तमसा
बरसात में लबालब भर जाती वह
भर जाती तो सुंदर लगती
अचानक से बढ़ जाती उसकी उमर
उसकी काया
अचानक से खिल जाता
उसका रूप
भर जाती तो सुंदर लगती
अचानक से बढ़ जाती उसकी उमर
उसकी काया
अचानक से खिल जाता
उसका रूप
गर्मियों में वह सूखी बहती
जैसे भीतर से रोती हो कलप-कलप के
पी जाती अपने आँसुओं को
अपने ही कंठ से
जैसे भीतर से रोती हो कलप-कलप के
पी जाती अपने आँसुओं को
अपने ही कंठ से
जब उसमें पानी नहीं होता
तब भी उसका पुल काम आता
लोग सूखी नदी को भी
पुल से करते पार
तब भी उसका पुल काम आता
लोग सूखी नदी को भी
पुल से करते पार
पुल पर ही खड़े होकर
हम साइकिल की घंटियाँ बजाते
हमें लगता कि नदी अभी उछलकर
आ जाएगी पुल पर, हमसे मिलने
हम साइकिल की घंटियाँ बजाते
हमें लगता कि नदी अभी उछलकर
आ जाएगी पुल पर, हमसे मिलने
तमसा के किनारे ही
मामा का गाँव था
तमसा के किनारे ही ब्याही गई थी बहन
तमसा के किनारे-किनारे साइकिल से जाते हम
मामा के गाँव बहन के घर
हफ़्ते दस दिन में लौटते थे
तमसा के ही किनारे-किनारे
मामा का गाँव था
तमसा के किनारे ही ब्याही गई थी बहन
तमसा के किनारे-किनारे साइकिल से जाते हम
मामा के गाँव बहन के घर
हफ़्ते दस दिन में लौटते थे
तमसा के ही किनारे-किनारे
कथाओं में भी आया इस नदी का नाम
बनगमन के समय
राम पहली रात रुके थे
इसी नदी के किनारे
बनगमन के समय
राम पहली रात रुके थे
इसी नदी के किनारे
आह!
कितना कृतघ्न! कितना डरपोक!
कि मैं एक भी दिन नहीं सो सका
तमसा के किनारे
कितना कृतघ्न! कितना डरपोक!
कि मैं एक भी दिन नहीं सो सका
तमसा के किनारे
शहर गया और भूल गया
उसका रूप
भूल गया उसके जल को
भूल गया उसका साथ
भूल गया उसका भूगोल
उसका रूप
भूल गया उसके जल को
भूल गया उसका साथ
भूल गया उसका भूगोल
अब आसपास के कितने कस्बों
बाज़ारों, मिलों के कचरे को ढोती है वह
वह बड़ी नन्ही सी है बड़ी नाज़ुक सी
और उसके काँधे पर लाद दिया गया
उसकी उम्र से ज्यादा का भार
बाज़ारों, मिलों के कचरे को ढोती है वह
वह बड़ी नन्ही सी है बड़ी नाज़ुक सी
और उसके काँधे पर लाद दिया गया
उसकी उम्र से ज्यादा का भार
जब सारी बड़ी-बड़ी नदियाँ थक गईं
तो तमसा तो दुधमुँही है
सूख गई ढोते-ढोते कचरा
रूठ गई वह
हमारे साथ खेली हमसे ही रूठ गई
साइकिल की घण्टी सुनकर भी
अब चुप लगा जाती है वह!
तो तमसा तो दुधमुँही है
सूख गई ढोते-ढोते कचरा
रूठ गई वह
हमारे साथ खेली हमसे ही रूठ गई
साइकिल की घण्टी सुनकर भी
अब चुप लगा जाती है वह!
उसने पूछा
बहुत देर तक साथ में
पैदल चलते हुए
उसने पूछा
तुम सड़क पर चलते हुए
क्या देखते रहते हो?
मैंने कहा –
चलता तो आँख खोल कर हूँ
लेकिन बहुत बार
समझो बंद ही रहती है आँख
कभी कभी तो
सिर्फ पैर रखने की जगह देखता हूँ
एक पैर बढ़ाता हूँ
तो दूसरे के लिए खाली जगह देखता हूँ
सामने आ जा रहे लोग दिखते तो हैं
लेकिन मैं उन्हें देख नहीं पाता
वह आते हैं और चले जाते हैं
जैसे एक गाड़ी आती है
और चली जाती है,
मैं उसका रंग नहीं देख पाता
मुझे केवल गाड़ी का जाना सुनाई देता है
इतना सुनकर
उसने ऐसे देखा-
जैसे अभी पूरी न हुई हो बात
जैसे कुछ कहना रह गया हो बाकी
मैंने कहा-
सड़क पर चलते-चलते
खोजता हूँ कोई विचित्र चीज
और जब मिलता है कुछ ऐसा
तो ठहर जाता हूँ थोड़ी देर
लेकिन ऐसा कभी-कभी ही होता है
कभी कोई विचित्र पेड़ रोक लेता है
कभी कोई अलग सी चिड़िया
कभी-कभी उनका अलग रंग
तो कभी-कभी उनका उड़ना
कभी मुझे अचानक से दिखती है
कोई सुंदर सी चीज़
किसी कूड़ेदान के ऊपर
हो सकता है वह कूड़ेदान की वज़ह से
दिख रही हो सुंदर
और कभी अचानक से
कोई सुंदर चीज़
कूड़े जैसी दिखती है
कभी-कभी तो मैं सिर्फ कूड़ा देखता रहता हूँ
वह चुप हो गई
जाते-जाते मैंने भी पूछा
तुम क्या देखती हो जब चलती हो मेरे साथ
उसने थोड़ा ठहरकर कहा-
जब तुम ऐसी विचित्र चीजें देख रहे होते हो
मैं सिर्फ तुम्हें देखती हूँ
इतना कहकर
वह जाने लगी
उसका जाना जरा भी अलग नहीं था
वह जब भी जाती थी, इसी तरह जाती थी
जब वह जा रही थी
मैं आसमान में उड़ता
चिड़ियों का एक झुंड देख रहा था
राम
बुझारथ
राम
बुझारथ कोई आदमी नहीं था
एक
बछड़ा था
जिसे
मैंने पाला था
ढरकी
से दूध पिला-पिला कर
मर
गई थी जिसकी माँ
बचपन
में ही
जब
सारे खेतों में घास सूख गई रहती
तब
मैं खोज लाता उसके लिए
कहीं
से , दो-चार मूठी हरी घास
कितनी
भी दूर से बुलाऊं उसका नाम
शब्द
हवा में तैरता हुआ
सीधे
उसके कान तक जाता
जैसे
रामबुझारथ को हमारी भाषा का ज्ञान रहा हो
वह
उतने ही जोर से जवाब देता
और
तबतक देखता
आवाज़
की दिशा में
जबतक
कि मैं उसके सामने न पहुँच जाता
देखते-देखते
बड़ा हो गया रामबुझारथ
देखते-देखते
आने लगे उसके ख़रीदार
एक
दिन कोई आया
पाँच
सौ की एक नोट देकर,
ले
गया पकड़कर उसका पगहा
कितना
खेत जोता होगा मेरा रामबुझारथ
कितनी
बार मारा गया होगा
कितनी
बार रोया होगा बैठकर अकेले में
कितनी
बार सोचा होगा बहुत कातर होकर
कि
कभी कोई आये उसे लेने
यहाँ
से गया
क्या
पता जहाँ गया, वहां से भी गया हो कहीं
न
मैं जा पाया उससे मिलने
न
वह आया कभी लौटकर
अब
तो इस दुनिया में भी नहीं होगा वह !
आज
मेरे पास रह गई है
उसकी
एक धुंधली सी छवि
जिसमें
वह उस छोटे से नीम के बगल
बैठा
पगुरा रहा है
बहुत
निश्चिन्त होकर
रेल
नदियों
से नदियों तक ले जाती है
ले
जाती है देश से परदेश
घर
ले जाती है
लाती
है घर से
रेल
मनुष्यों की खोजी हुई नदी है
जिसका
अपना विशाल अपवाह तंत्र है
पूरब
से पश्चिम
और
उत्तर से दक्षिण तक
****
शानदार
बहुत सुन्दर
बहुत शानदार ,मर्मस्पर्शी।
मन की गहराई तक पैठ बनाती अति सुंदर कविताएं
सुंदर रचनाएँ संदीप जी।
…कि जैसे अंदर मचते शोर को शांत कर देने वाली कविताएँ।
कवि और सम्पादक को साधुवाद।
संदीप मेरे भाई,
अच्छा लगा पढ़कर। बधाई स्वीकार करना।