कवि ने कहा
वस्तुतः लेखक होने से पहले मैं स्वयं को एक सजग पाठक के रूप में देखता हूँ। एक
सजग पाठक ने मेरे व्यक्तित्व को एक सजग नागरिक बनाने में मदद की है। इसी के चलते
यह समझ परिपक्व हुई है कि हमारे जीवन के हर हिस्से को राजनीति केवल प्रभावित ही
नहीं करती अपितु नियंत्रित भी करती है। इस राजनीतिक चेतना से यह लाभ हुआ कि समाज
को देखने,
समस्या को जानने तथा साहित्य की सीमाओं को समझने में अपना
एक दृष्टिकोण जरूर विकसित हुआ है।
अपने इसी दृष्टिकोण के कारण कई साहित्यिक मित्र मुझे विचारधार का कवि कहते भी
है और मानते भी हैं। मेरा भी यह मानना है कि साहित्यिक रचना के माध्यम से व्यक्त
होने वाले किसी भी अनुभव में विचारधारा एक आधारभूत आयाम के रूप में होती है और
रचना के मूल्यांकन में इस आयाम का महत्वपूर्ण स्थान होता है। दूसरा यह कि एक ही प्रकार की विचारधारा
के आधार पर ऐसी रचनाएं दी जा सकती हैं जो बौद्धिक क्षमता, संवेदन-शक्ति और अभिव्यक्ति माध्यम पर अधिकार की दृष्टि से एक दूसरे से काफी
भिन्न हो।
हर लेखक/कवि के पास अपने यथार्थजन्य अनुभव होते हैं, जो वस्तुतः लेखन के लिए उसकी पूंजी होती है। जब स्थितियों-परिस्थितियों से जूझते
हुए ये अनुभव व्याकुल कर देते हैं तो इस आंतरिक व्याकुलता से मुक्ति पाने के लिए
कुछ न कुछ लिख देता हूँ। लिखना मेरे लिए दरअसल अपने को मुक्त करने का, अपने दिल की गांठें खोलने का माध्यम है। साथ के साथ अपनी बेचैनियों को व्यक्त
करने का साधन भी है।
सुरंग का भूगोल
वह
एक अंधेरी सुरंग थी
और
हम जा रहे थे उस पार
हमें
बता दिया गया था
कि
सुरंग के पार
सुंदर
घाटी है
जहां
सुख का सूरज उगता है।
एक
भयंकर अंधेरी सुरंग से
हम
जा रहे थे
उस
सुंदर घाटी की खोज में
सुख
के सानिध्य में
जीवन
को सुखी करने
हम
जा रहे थे।
हालांकि
सुरंग के उस भयावह अंधेरे में
हम
एक अज्ञात भय से डरे हुए थे
जैसे
बलि से पहले
वध-स्थल
की ओर जाते हुए डरता है पैहरु।
यह
डर हमारा भ्रम था
या
हम सचमुच डरे हुए थे
साफ-साफ
कुछ नहीं कह सकते
मगर
इस यात्रा में सपने ही हमारा संबल थे।
उन
सपनों को पूरा करने की चाह में
हम
जा रहे थे।
बुजुर्गों
का कहना है
हमारे
पुरखे भी गुजरे हैं
ऐसी
ही कई सुरंगों से
अपने
सपनों की तलाश में।
एक
के बाद दूसरी सुरंग
अंतहीन
सिलसिला है यह सुरंगों का
हर
सुरंग के मुहाने में दिखती है रौशनी
फिर
धीरे-धीरे बढ़ता जाता है अंधकार
सुरंग
में भी और हमारे मन में भी।
सदियों
से ऐसे ही चलते जा रहे हैं हम
पीढ़ी
दर पीढ़ी।
कई
भयावह अंधेरी सुरंगें
पार
की हैं हमने
उस
सुंदर घाटी की तलाश में।
सुरंग
के अंधेरे के खौफ का
अपना
अलग चेहरा होता है
प्रकाश
के खौफ से अलहदा
अंधेरे
का खौफनाक चेहरा।
इस
अंधेरे में
मौत
का भय नहीं है
थकान
के बीच
चलते
रहने की जिद्द है।
इस
खौफनाक मंज़र में
भूख
कम, प्यास ज्यादा लगती है।
हमें
बताया गया है
सुरंग
के पार
मीठे
पानी के चश्मे हैं
इन्हीं
चश्मों
की तलाश में
सदियों
से जा रहे है हम।
अपनी
इस लम्बी यात्रा में
हम
सुरंगों के भूगोल के ज्ञानी होते जा रहे हैं
घूप्प
अंधेरे में टटोलते हैं
अपने-अपने
हाथ-पांव।
साथ
चलते हमराहियों को
देते
हैं दिलासा-
धीरज
रखो-धीरज रखो
धीरे-धीरे
चलते रहो।
वह
देखो हम पहुँच रहे हैं
सुरंग
के मुहाने पर,
खत्म
होने जा रहा है
सुरंग
का भयावह अंधेरा।
गहरी धंसी जड़ें
उन्होंने
बालपन
से देखा है
बड़े-बुजुर्गों
को
देवता
की देहरी पर
नाक
रगड़ते,
कभी
देवता से बतियाते,
कभी
झगड़ा करते
तो
कभी मन्नत मांगते।
उनके
जीवन में
चारों
तरफ वैसे ही पसरा है देवता
जैसे
हवा में हरदम
मौजूद
रहते हैं वाष्पकण
जो
बादलों में तबदील होते ही
कभी
प्यास बुझाते हैं
तो
कभी बाढ़ लाते हैं।
वे
इतना डरते हैं देवता से
कि
जीवन में किसी भी शुरुआत से पहले
मांगते
हैं इजाजत
फसल
बीजने से लेकर
घर
की नींव रखने तक,
शादी-ब्याह,
जीवन-मरण
हर
जगह हस्तक्षेप करता है देवता।
वैसे
उनके हिस्से में
अनेक
देवता हैं
जिनसे
सुबह-शाम वास्ता रहता है उन्हें।
कुल
देवता से शुरू हुआ
यह
सिलसिला
ग्राम
देवता से होता
इलाके
के अधिष्ठाता देव तक
वैसे
ही जाता है जैसे
लोकतंत्र
में ग्राम पंचायत वार्ड मेम्बर से
शुरू
होकर
पंचायत
प्रधान, विधायक से होते हुए सांसद तक जाता है।
विपदा
में वे
देवता
को बुलाते हैं घर-द्वार
ब्यान
करते हैं उससे दुःख-दर्द
और
चाहते हैं हल
विपदा
के टलने-टलाने का।
गर
कभी मिले कोई खुशी
तो
उसे बांटने
सबसे
पहले
जाते
हैं देवता के ही द्वार
उसका
आभार जताने।
हालाँकि
एक पहलू यह भी है
कि
इसी देवता की आड़ में
देव-संस्कृति
के नाम पर
लहलहा
रहीं है
कई
बुराइयों की फसलें।
जातीय
भेदभाव को तर्कसंगत बताने में
हर
बार आगे कर दिया जाता है देवता।
शोषित
नवाजते हैं सिर
चाहते
हैं
सदियों
से पैरों में पड़ी
दासता
की बेड़ियों से मुक्ति
पर
इस जन्म में नहीं
अगले
जन्म में।
देवता
हरबार कबूलता है उनकी अरदास
बरसते
हैं फूल
गूँजते
हैं जयघोष
शोषित
बजाते हैं नगाड़े और तुरही
गहरे
तक धंसी
देव
संस्कृति की जड़ें
और
गहरी हो जाती हैं।
दूर
कहीं चीत्कार लगता है
अपने
घोंसले की राह से भटका
कोई
पंछी
शाम
के धुंधलके में।
गोद लिये गाँव
जिसने
कभी
नवजात
न
लिया हो गोद में
उसने
साथियों
से कहा
“आओ
गोद ले लें
एक-एक
गाँव।”
साथियों
ने
अपने-अपने
चुनाव क्षेत्र में ढूंढे
ऐसे
नवजात गाँव
जो
पहुँच में होने के साथ-साथ
वजन
में हल्के हों
जिन्हें
गोदी में उठाकर
घुमाया
जा सके देश भर में।
गोद
में बैठते
गाँव
वैसे
ही प्रसन्न हुए
जैसे
आंगनबाड़ी केंद्र में
प्रसन्न
होते हैं बच्चे
मनमाफिक
कुछ खाने को मिलते ही।
गोद
लेने की घोषणा के साथ
नापी
गई
गाँव
की देह
ताकि
सिलवाये जा सकें
साफ-सुथरे
नए फैशनेबल कपड़े।
गाँव
के पाँव का
लिया
गया पूरा-पूरा माप
जिससे
बनवाये जा सकें
आरामदेह
चमकीले जूते
ताकि
आसानी से दौड़ा जा सके
विकास
पथ पर।
गाँव
का मुरझाया चेहरा
चमकाने
को
बुलाये
गए एक्सपर्ट व्यूटीशियन
ताकि
भाग लिया जा सके
ग्लोबल
व्यूटी कम्पीटिशन में।
इस
सारी कवायद में
गोद
लेने वालों की
जयजयकार
हुई
फूलमालाओं
से सुशोभित हुए
उनके
गले।
कई
दिन
मीडिया
में चर्चा चली
अखबारों
में गाँव की फोटो छपी।
गोद
लेने वाले
शीघ्र
लौटने का वायदा कर
गले
मिल कर गए
गाँव
वालों से।
गोद
लिए गाँव
तब
से ताक रहे हैं
उनके
लौटने की राह
अपने
नए कपड़े
जूते
और व्यूटीशियन के इंतजार में।
कारोबार
वे
जानते हैं
आपदा
को अवसर में
बदलने
की कला।
वे
आपदा
पैदा करने की कला भी
बाखूबी
जानते हैं।
इसी
कला के चलते
पहले
उन्होंने
रोटी
पर कब्जा किया
फिर
भूख पैदा करने निकल गए।
भूख
की खेती करते
उनके
हाथ लगी पानी की फसल
उन्होंने
पानी
पर कब्जा किया
और
प्यास पैदा करने निकल गए।
भूख
और प्यास की फसल
जब
खूब लहलहाने लगी
तो
उनकी नजर से हवा भी बच न सकी।
उन्हें
लगा
हवा
भी शामिल होनी ही चाहिए कारोबार में।
तब
उन्होंने ऑक्सीजन प्लांट लगाए
वेंटिलेटर
बनाये
फिर
ऑक्सीजन और वेंटिलेटर की जरूरत
पैदा
करने निकल गए।
चींटियां शोर नहीं करती
चींटियां
जब निकलती हैं
तो
अक्सर एक साथ
असंख्य
निकलती हैं
कतारबद्ध
हो ऐसे चलती हैं
जैसे
सेना कूच कर रही हो
एक
पड़ाव से दूसरे पड़ाव।
चींटियों
का कतारबद्ध चलना
सेना
के अभ्यास से कम नहीं होता
मगर
चींटियां सैनिक नहीं होती।
एक
साथ-एक जगह
इकट्ठा
होने पर भी
चींटियां
शोर नहीं करती
न
जुबान से
न
कदमों की थाप से।
चींटियां
खींच लाती हैं
खुद
से पांच-दस गुना बड़े शरीर वाले
किसी
मरे हुए कीट की देह को
और
रख देती हैं सुरक्षित
अपने
बिम्बों के भीतर
दुर्भिक्ष
के दिनों के लिए।
आकार
में छोटी चींटियों से
डरते
हैं विशालकाय हाथी भी
हाथियों
का चींटियों से यूँ डरना
चींटियों
की जीवन्तता का प्रमाण है।
परिचय
21अक्तूबर 1959 को हिमाचल प्रदेश के मण्डी शहर में जन्म।
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से हिन्दी व इतिहास विषय में एम.ए., हि. प्र. विश्वविद्यालय से ही हिन्दी में एम.फिल. व पीएच-डी. की डिग्री।
विभिन्न सरकारी विभागों में सेवाएं देते हुए शिक्षा विभाग में प्राध्यापक के पद से
सेवानिवृत।
हिन्दी साहित्य की प्रमुख व प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं
प्रकाशित,
कविता में मूल अभिरुचि होने के साथ-साथ कहानी व आलोचना में
भी हस्तक्षेप,
समसामायिक मुद्दों पर वैचारिक लेखन के अतिरिक्त गोष्ठियों
के आयोजन से लेकर विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी।
‘साम्प्रदायिक सद्भाव और हिन्दी उपन्यास’ शीर्षक से आलोचनात्क पुस्तक प्रकाशित।
“चींटियाँ शोर नहीं करती” काव्य संग्रह प्रकाशनाधीन।
मोबाईल: 9418123571, 8628823571
ईमेलः- vjyvishal@gmail.com
Very Nice Sir ! Salute !
कमाल की कविताएँ