मंजू यादव हैदराबाद में विदेशी भाषा विश्वविद्यालय से स्पैनिश में परास्नातक कर रही हैं। अनुनाद ने उनसे
स्पैनिश मूल से कुछ अनुवाद मॉंगे थे, जिसके जवाब में बेंजामिन प्रादो की एक और पाब्लो नेरूदा
की दो कविताऍं मंजू ने उपलब्ध करायी हैं। हमारा यह मानना है कि समर्थ और कुशल युवा अनुवादकों की उपस्थिति
हिन्दी की समृद्धि के लिए आवश्यक है। अनुनाद मंजू यादव का स्वागत करता है और आशा
करता है कि भविष्य में वे अवश्य ही कोई विस्तृत और एकाग्र कार्य इस क्षेत्र में करेंगी। मंजू संभावनाशील कवि हैं, शीघ्र ही उनकी कुछ कविताऍं अनुनाद पर पढ़ी जा सकेंगी।
पाब्लो नेरूदा की दो प्रेम कविताऍं
1.
अगर मैं मर जाऊँ, मुझे जीवित रखना एक पवित्र ऊर्जा की तरह
जो जगा सके ठण्ड और दर्द के आवेश को
प्रकाशित करो अपनी अमिट आँखों को, दक्षिण से दक्षिण तक,
सूर्य से सूर्य तक
जब तक कि तुम्हारा मुख, झनक ना उठे सितार की तरह। ।
मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी मुस्कराहटें और क़दम डगमगाए,
मैं नहीं चाहता कि मेरी ख़ुशियों की जागीर ख़त्म हो जाए
मेरे सीने में आवाज़ ना दो, मैं वहां नहीं हूँ,
मेरी अनुपस्थिति में तुम उसी तरह जीना, जैसे एक घर में जिया जाये। ।
अनुपस्थिति कितना बड़ा घर है ना
कि तुम दीवारों को पकड़ कर घूमोगी
और तस्वीरों को पारदर्शी हवाओं में टाँगोगी।
अनुपस्थिति कितना पारदर्शी घर है ना,
मरकर भी मैं तुम्हारा जीना देखूंगा ,
और अगर तुम तकलीफ में होगी, मैं एक बार फिर मर जाऊंगा। ।
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Si muero sobrevíveme con tanta fuerza pura
que despiertes la furia del pálido y del frío,
de sur a sur levanta tus ojos indelebles,
de sol a sol que suene tu boca de guitarra.
No quiero que vacilen tu risa ni tus pasos,
no quiero que se muera mi herencia de
alegría, no llames a mi pecho, estoy ausente.
Vive en mi ausencia como en una casa.
Es una casa tan grande la ausencia que pasarás en ella a
través de los muros y colgarás los cuadros en el aire.
Es una casa tan transparente la ausencia que
yo sin vida te veré vivir y si sufres, mi amor, me moriré otra vez.
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2.
“मेरे साथ
चलोगे ” कहा
मैंने – बिना किसी को भनक लगे,
कहाँ और कैसे मेरे दर्द भरे हालात जाग गए।
और मेरे लिए कोई गुलनार, कोई विरह गीत ना हुए ,
कुछ नहीं, सिवाय एक ज़ख़्म के जो प्रेम ने उघेड़ दिया। ।
दोबारा सुनो; चलो मेरे साथ , जैसे कि मैं मृत्यु के करीब होऊंगा ,
पर किसी ने मेरे मुँह में झांककर चाँद ना देखा जो लहूलुहान था ,
ना किसी ने वह रक्त देखा जो ख़ामोशियों में उपजा था ,
ओह प्रेम ; अब हम भुला देंगे उस सितारे को जिसमे कांटे उग आए।
और इसलिए , जब मैंने सुना तुम्हारी आवाज़ को दोहराते हुए ,
“मेरे साथ
चलोगे” लगा
तुमने ढीले कर दिए मेरे बंधन
दर्द, प्यार और रोष छूटा हो ज्यूँ ढक्कन बंद शराब
की बोतल का।
कि जैसे लावा फूटा हो ज्वालामुखी के अंतर्मुख से ,
और एक बार फिर मैंने अपने मुख में, महसूस किया आग के स्वाद को
लहू को और लाल फूलों को ,
पत्थरों को और ज्वलनशीलता को।
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y para mí
no había clavel ni barcarola,
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nada sino una herida por el amor abierta.
Repetí: ven
conmigo, como si me muriera,
y
nadie vio en mi boca la luna que sangraba,
nadie vio
aquella sangre que subía al silencio.
Oh amor ahora olvidemos la estrella con
espinas!
Por eso cuando oí que tu voz repetía
“Vendrás conmigo” -fue como si
desataras
dolor, amor, la furia del vino
encarcelado
que desde su bodega sumergida subiera
y otra vez en mi boca sentí un sabor de
llama,
de sangre y de claveles, de piedra y
quemadura.
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कभी देर नहीं होती ज़ीरो से शुरु करने के लिए,
जहाज़ों को जलाने के लिए,
कि कोई आके तुम्हें बताए :
–मैं या तो तुम्हारे साथ हो
सकता हूं या अपने खिलाफ़
कभी देर नहीं होती बेड़ियों को काटने के लिये,
ख़ुशियों के अंतर्नाद के तरफ़ लौट जाने के लिए,
उस पानी को पीने के लिए कि जिसे तुम पी ना सके थे
कभी देर नहीं होती सबसे बंधन तोड़ने के लिए
और जो अपने इतिहास को अपना ना सके,
एक ऐसा आदमी बनने की कोशिशों को छोड़ देने के लिए।
और संभवतः
यह ज्यादा आसान है
मारिया का आना,सर्दियों का खत्म होना, सूरज का उदय होना,
बर्फ़ का बडे़ और विशाल युद्धों के आँसू रोना,
और अचानक दरवाज़ा दीवार का भ्रम नही देता,
और शान्ति जीवित आत्मा-सी नहीं रहती
और वो पिंजरा मेरी चाभियों से ना खुलता ना बंद होता है।
और इसीलिए आसान है ऐसी शांति से ये समझाना :- अभी भी देर नहीं हुई
और अपनी जीविका के लिये लिखने से पहले
अभी
मै जीना चाहता हूं
ये गाथा सबको सुनाने के लिए।
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Nunca
es tarde”, Benjamín Prado
Nunca es tarde para empezar de cero,
para quemar los barcos,
para
que alguien te diga:
-Yo sólo
puedo estar contigo o contra mí.
Nunca es tarde para cortar la cuerda,
para volver a echar las campanas al vuelo,
para beber de ese agua que no ibas a beber.
Nunca es tarde para romper con todo,
para dejar de ser un hombre que no pueda
permitirse un pasado.
Y además
es tan fácil:
llega María, acaba el invierno, sale el sol,
la nieve llora lágrimas de gigante vencido
y de pronto la puerta no es un error del muro
y la calma no es cal viva en el alma
y mis llaves no cierran y abren una prisión.
Es así, tan sencillo de explicar: -Ya no es
tarde,
y si antes escribía para poder vivir,
ahora
quiero vivir
para
contarlo.***
Heart touching poem…Good job…
बहुत सुन्दर
Very great and deep thought that you hv beautifully blended with simple but profound words ..grt work dear… congratulations..keep it up������