समकालीन कविता में भारतबोध
भारत मात्र एक भू-खंड ही नहीं, अपितु समृद्ध वैचारिक परंपरा, विशाल सभ्यता, संस्कृति, जीवनमूल्यों, दर्शन एवं आध्यात्मिकता का समुच्चय है। भाषा, साहित्य, सभ्यता की दृष्टि से यह सबसे प्राचीन होने के साथ ही इसका गौरवशाली अतीत भी है। किन्तु पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश में भारतबोध, देशप्रेम, राष्ट्रवाद जैसे कुछ शब्द अधिक प्रासंगिक हो गए हैं, लोग भी इन शब्दों की अलग-अलग दृष्टिकोण से व्याख्या कर रहे हैं, एक वर्ग इन शब्दों को बहुत संकुचित अर्थ में देख रहा है तो दूसरा वर्ग इसे विस्तार देने में जुटा हुआ है। ‘भारतबोध‘ को संपूर्ण देश में हर स्तर पर नवीन दृष्टिकोण से परिभाषित किया जा रहा है। मेरा यह शोध भी ‘भारतबोध‘ को पहचानने और उसे एक स्वस्थ दृष्टि से देखने की कोशिश भर है। आरंभ से ही
भारतीय चिंतन में समष्टि भाव की प्रधानता रही है। निराला ‘तुलसीदास‘ नामक कविता में प्राचीन भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम अतीत और आत्म-गौरव
का बोध कराते हुए भारतीय संस्कृति के ह्रास की ओर संकेत करते हैं उनकी कविता सांस्कृतिक
बोध के साथ-साथ मूल और आगन्तुक संस्कृतियों के बीच का संघर्ष भी दिखाती है-
भारत
के नभ के प्रभापूर्य
शीतलाच्छाय
सांस्कृतिक सूर्य,
अस्तमित
आज रे-तमस्तूर्य दिंमण्डल,
उर
के आसन पर शिरस्त्राण1
भारतीय संस्कृति की उदारता तथा समन्यवयादी
गुणों ने ही अन्य संस्कृतियों को भी समाहित किया है, इसकी विशेषता आर्य,
द्रविड़, कोल, किरात और
फिर शक, हूण, यूनानी, कुषाण कि समासिक मिली-जुली संस्कृति में दिखाई देती है। बाहर से आने वाले
अरबों, तुर्कों, और मुगलों के माध्यम
से यहाँ इस्लामिक संस्कृति का आगमन हुआ और वह भी यहाँ की संस्कृति में घुल-मिल
गए। ठीक यही स्थिति यूरोपीय जातियों के आने तथा ब्रिटिश साम्राज्य के कारण भारत
में विकसित हुई ईसाई संस्कृति पर भी लागू होती है। ‘भारत
तीर्थ‘ कविता में रवींद्रनाथ कहते हैं- आर्य, अनार्य, द्रविड़, चीनी,
शक, हूण, पठान, मुगल सब यहाँ एक देह में लीन हो गए। यह देह ही भारतबोध है। इसी के साथ विगत
कुछ वर्षों से भारतीय संस्कृति के ह्रास और वर्तमान भारत का यथार्थ और संघर्ष भी
भारतबोध है-
ऐसा
तो कभी नहीं हुआ था कि
एक
नहीं, दो नहीं, तीन नहीं-
तेरह
के तेरह अभागे-
अकिंचन
मनुपुत्र
ज़िदा
झोंक दिए गए हों
प्रचंड
अग्नि की विकराल लपटों में
साधन
संपन्न ऊँची जातियों वाले
सौ-सौ
मनुपुत्रों द्वारा!2
‘भारतबोध‘ एक विशाल
अवधारणा है जब हम भारत के अतीत से सीखते हुए, वर्तमान में केन्द्रित
हो, भविष्य की ओर देखते हैं तो यह भारतबोध कहलाता है। इसे
निश्चित परिभाषा में बाँध पाना कठिन है। बोध से अभिप्राय एक अनुभूतिपूर्ण समझ से
है। भारत के संदर्भ में अनुभूत तथ्य, हजारों-हजार साल की
सभ्यता एवं संस्कृति की श्रेष्ठता पर जब हम गर्व करते हैं, उसे आत्मसात करते हैं और रचनात्मक रूप में अपनाते हैं तो यह भारतबोध है।
वास्तव में यदि हमें भारत को जानना है तो बार-बार पीछे मुड़ कर देखना होगा। कृष्ण
कल्पित हिन्दनामा में लिखते हैं-
भारत
एक खोया हुआ देश है
सबको
अपना- अपना
भारत
खोजना पड़ता है
मैं
भी इस भू-भाग पर भटकता हुआ
अपना
भारत खोज रहा हूँ!3
भारत में लेखकों, साहित्यकारों एवं इतिहासकारों
का एक ऐसा वर्ग भी रहा है, जिसने भारतीय समाज को भ्रमित करने
और भारत को हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखने तथा ‘भारतबोध‘
से दूर ले जाने का प्रयास किया है। कई बार भारत को पश्चिम की दृष्टि
से भी देखने का प्रयास किया गया जिसके परिणामस्वरूप भारतीय समाज का मूल स्वरूप
विकृत हो गलत दिशा में आगे बढ़ने लगा। किन्तु अनेक राजनीतिक एवं सांस्कृतिक
आक्रमणों के बाद भी भारत अपनी पहचान के साथ आज भी खड़ा है। भारतीयता को लेकर जो
नकारात्मकता फैली हुई है उसे दूर करने का प्रयास भारतीयता से ओतप्रोत समकालीन कवि
कर रहे हैं-
हम
हिन्दू नहीं थे
उन्होंने
हमें हिन्दू कहा
जन्म
भूमि ही हमारा धर्म है
इस
महादेश में अन्न और शब्दों की कभी कमी नहीं रही
इस
महादेश में कामक्रीड़ा भी एक तरह का यज्ञ थी
और
यज्ञ एक तरह की काम क्रीड़ा
कारगार, वनवास और देश निकाला
प्राचीन
सजाएं थी
अपने
जन-समाज देश से विलग करने का दंड
अंग-भंग, मृत्यु दंड और
दीवार में चुनवा देने की सजाएं
हमनें
कुछ अधिक सभ्य होने के बाद ईजाद की
कुछ
मरकर भी जीवित थे
कुछ
जीते जी मर गए
कुछ
को पुरस्कार देकर मार डाला गया……
इस
महादेश में कविता लिखना
जीवन
मरण का प्रश्न था4
आरंभ से ही
भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में स्थापित था। मौर्य शासनकाल इसका उदाहरण
है। हिमालय से हिन्द महासागर तक का संपूर्ण भारतवर्ष में राजनीतिक एकता थी। राष्ट्र
16 महाजनपदों- अवन्ति,
अश्मक, अंग, कम्बोज,
काशी, कुरू, कोशल,
गांधार, चेदि, वज्जि,
वत्स, पांचाल, मगध,
मत्स्य, मल्ल, शूरसेन
में विभाजित था। इस विशाल साम्राज्य के महत्वपूर्ण निर्णय आपसी सहमति से लिए
जाते थे। उत्तरापद में स्थित तक्षशिला, नालंदा, पल्लवी और विक्रमशीला भारतीय विधाओं के बड़े केन्द्र थे। प्राचीनकाल से
ही विभिन्न भाषाओं, बोलियों, संस्कृतियों
की साझी विरासत के साथ भारत का राष्ट्र के रूप अस्तित्व बनाए रखना संपूर्ण विश्व
के लिए अनुकरणीय है। आज भी ‘हम भारत के लोग‘ हमारे संविधान की प्रस्तावना का पहला ध्येय वाक्य है। हम,
भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न
समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त
नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास,
धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और
अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र
एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए…… एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत5 भारतीय
संविधान में वर्णित प्रावधानों का पालन कहाँ तक हो रहा है वह जग-जाहिर है। समकालीन
कवि अपनी रचनाओं में इन विडम्बनापूर्ण स्थितियों का चित्रण करते हैं-
मेरे
लोग शब्दों की तरह मेरी भाषा में आते हैं
हताशा, अवसाद और क्रोध से भरे
मेरे
शब्द लोगों की तरह मेरी भाषा से बाहर जाते हैं
मेरे भीतरी भूकम्प, बेचैनी और दु:खों की
तरह
एक तथाकथित सुखमय
प्रमुदित
संसार में
बिना लज्जित हुए
बिना डरे6
देश कभी भी
भौगोलिक सीमाओं से नहीं बनता, वह बनता है लोगों से, जन चेतना, जन संस्कारों और जन आकांक्षाओं से। सांस्कृतिक-राजनैतिक चेतना से संपन्न
जनता ही अपने देश प्रति प्रेम, सम्मान, त्याग, प्रगति का भाव रखती है।
ग्राम, नगर या कुछ लोगों का
नाम नहीं होता है देश
संसद, सड़कों, आयोगों का नाम नहीं होता है देश
देश
नहीं होता है केवल सीमाओं से घिरा मकान
देश
नहीं होता कोई सजी हुई ऊंची दूकान
देश
नहीं क्लब,
जिसमें बैठे करते रहे सदा हम मौज
देश
नहीं केवल बंदूकें,
देश नहीं होता है फ़ौज
जहाँ
प्रेम के दीपक जलते,
वही हुआ करता है देश
जहाँ
इरादे नहीं बदलते,
वही हुआ करता है देश7
स्वाधीन भारत
का सपना था सरकार सेवक बनकर जनता की सेवा करे लेकिन व्यवस्था ने जनता के साथ
इसके विपरीत व्यवहार किया है। धूमिल की कविताएं स्वाधीनता के सपनों के मोहभंग की
पीड़ा और आक्रोश को सशक्त अभिव्यक्ति देती है-
क्या आजादी
सिर्फ़
तीन थके हुए
रंगों
का नाम है
जिन्हें
एक पहिया ढोता है
या
इसका कोई खास मतलब होता है?8
भारत का स्वाधीनता
संग्राम भी केवल राजनीतिक स्वतंत्रता आंदोलन नहीं था। इसमें अस्पृश्यता का
विरोध, जातिवाद एवं समाजिक
कुरीतियों का विरोध, सामुदायिक स्वच्छता, आर्थिक स्वालंबन, जमींदारी का विरोध, शिक्षा सुधार, महिला सशक्तिकरण, अहिंसा आदि मुद्दों पर जन समर्थन और जन जागरण का अह्वाहन था। किन्तु आज
हम इन जन आकांक्षाओं को दरकिनार कर धार्मिक, राजनीतिक,
सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से विभाजित होते जा
रहे हैं भारत की आर्थिक संरचना भी लक्ष्यों के अनुकूल नहीं है। समकालीन कविता इन
जन आकांक्षाओं एवं विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर वैचारिक विमर्श कर भारतबोध को आगे
बढ़ा रही है।
धिक्कार
है
इस
आजादी को
जहाँ
बहुत बड़ी आबादी को
मिलता
सुख और चैन नहीं
दिन
में काम
आराम
सारी
रैन नहीं
यहाँ
भूखा
बचपन पालिश करता9
देश की अंधिकांश जनसंख्या
गरीबी-रेखा के नीचे है,
मजदूरों का शोषण, किसानों का संघर्ष देश की स्वतंत्रता
पर प्रश्न चिह्न लगाता है। रघुवीर सहाय ‘राष्ट्रगीत‘
नामक कविता में लिखते हैं-
राष्ट्रगीत
में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता
है
फटा
सुथन्ना पहने जिसका
गुन
हरचरना गाता है
………………………….
पूरब-पश्चिम
से आते हैं
नंगे-बूचे
नरकंकाल
………………………
कौन-कौन
है वह जन-गण-मन
अधिनायक
वह महाबली
डरा
हुआ मन बेमन जिसका
बाजा
रोज बजाता है।10
हमें भारत की
सर्व धर्म सम्भाव वाली सनातन सभ्यता को आत्मसात करना होगा। भारतीय सभ्यता ऐसी
विशिष्ट सभ्यता है जिसका आधार विवेक सम्मत ज्ञान और तर्क प्रणाली है। किन्तु
साम्राज्यवादी, मजहबी आक्रमणों ने भारतीय वैचारिक-संवेदनात्मक दृष्टि को क्षत-विक्षत
किया है। इस वैचारिक विमर्श का उद्देश्य भारतबोध को सही मायने में जनता के सामने
रखना है। क्योंकि भारतीय संस्कृति का आधार तो ‘वसुधैव
कुटुंबकम‘ है जो मानवता की भावना का विस्तार दिखाता है। भारत
में शंकराचार्य से लेकर विवेकानंद तक दार्शनिक समाज सुधारकों की लंबी श्रृंखला रही
है जिन्होंने राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों में भी भारतीय समाज को आध्यात्मिक
पुनर्जागरण और समाजिक सौहार्द के लिए प्रेरित किया। शंकराचार्य की वह भारत दृष्टि
ही थी कि उन्होंने चारों दिशाओं में अपने मठ स्थापित किए। पूर्व में गोवर्धन मठ,
पश्चिम में शारदा मठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ
और दक्षिण में शृंगेरी मठ। ये मठ भारत की एकता के भी परिचायक चिह्न है। भारतीय
वर्ण व्यवस्था को यदि तर्कपूर्ण दृष्टि से देखे तो वर्ण व्यवस्था का आधार
कदापि जन्म नहीं था वरन यह योग्यता, क्षमता और अभिरूचि पर
आधारित था। ज्ञान को समाज में सर्वोच्च माना गया दूसरा स्थान सुरक्षा को तीसरा
स्थान समृद्धि और चौथा स्थान शारीरिक कौशलों को दिया गया। किन्तु आज 21 वीं सदी
के वैज्ञानिक युग में भी जाति और वर्ण के नाम पर समाज में अराजकता और अमानुषिकता
फैली हुई है और समकालीन कविता लगातार इन विसंगतियों की ओर समाज का ध्यान
केन्द्रित कर रही है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘ठाकुर का कुआँ‘
में जातिगत भेदभाव की त्रासदी को इस प्रकार चित्रित करते हैं-
चूल्हा
मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का।
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत
ठाकुर का।
बैल ठाकुर के
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी।
फसल ठाकुर की
कुआँ ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गाँव?
देश? …..।11
समकालीन कवियों
ने भारतबोध को अत्यंत सशक्तता से अभिव्यक्त किया है समकालीन कविता पैने व्यंग्य
के माध्यम से लगातार समाज को दर्पण दिखाने का कार्य कर रही है।
निर्धन
जनता का शोषण है
कहकर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कहकर आप हँसे
सब के सब हैं भ्रष्टाचारी
कहकर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी कहकर आप हँसे
कितने
आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पाकर
फिर से आप हँसे12
समकालीन कवि समाज के प्रति प्रतिबद्ध है। अत्याचार, हताशा, जड़ता, निराशा में भी वह आशा की खोज करता है।
जितना
बचा हूँ
उससे
भी बचाए रख सकता हूँ यह अभिमान
कि अगर नाक हूँ
तो वहां तक हूँ जहां तक हवा
मिट्टी
की महक को
हलकोरकर
बांधती
फूलों की सूक्तियों में
और
फिर खोल देती
सुगंधी
के न जाने कितने अर्थों को
हजारों
मुक्तिओं में।13
वस्तुत: समकालीन
समाज भारत को उस दृष्टि से नहीं देख रहा है जो उसकी मूल दृष्टि है। वह भारत को
विदेशी दार्शनिकों की समझ से समझने का का प्रयास कर रहा है। किन्तु भारतीय संस्कृति
के कई ऐसे पहलू हैं,
जिन्हें भारतीय होकर ही जाना जा सकता है। हमारी संस्कृति प्राचीन
काल से ही विशिष्ट रही है, इस देश में जो भी आया वह यहीं का
होकर रह गया। अत: भारतबोध भारतीय मूल्यों एवं परंपराओं को पूर्वाग्रहों से मुक्त
होकर देखने का प्रयास है। आज आवश्यकता है भारत के स्वर्णिम अतीत, समाज,
संस्कृति, इतिहास एवं जीवन पद्धति को सही
दृष्टि से समाज के सम्मुख रखने की। जिससे भारतीय चिंतन द्वंद्वात्मक न होकर सत्य और तर्क पर आधारित हो। भारतीय समाज अपनी जड़ो
को पहचानते हुए उसे आत्मसात कर रचनात्मक रूप से आगे बढ़े।
संदर्भ:-
1. निराला सूर्यकान्त त्रिपाठी, तुलसीदास, hindi-kavita.com
2.
नागार्जुन, हरिजनगाथा, hindwi.org
3.
कल्पित कृष्ण, हिन्दनामा :
एक महादेश की गाथा, पोस्ट राजकमल प्रकाशन समूह
4.
कल्पित कृष्ण, हिन्दनामा :
एक महादेश की गाथा, पोस्ट परिदृश्य हिन्दी किताब मुंबई
5. संविधान (बयालीसवां संशोधन)
अधिनियम, 1976 की धारा 2
द्वारा (3-1-1977) “राष्ट्र की एकता” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
6.
शिरीष कुमार मौर्य की कविताएं, 2017,
samalochan.blogspot.com
7.
गर्ग शेर जंग, सर्वप्रिय, अगस्त, 1985, पृ. 15
8.
धूमिल, बीस साल बाद,
kavitakosh.org
9.
सुधाकर जगदीश, कुंदलशील, अप्रैल 1984, पृ.9
10.
रघूवीर सहाय , राष्ट्रगीत,
kavitakosh.org
11. बाल्मीकि ओमप्रकाश, सदियों का संताप, पृष्ठ-3
12. सहाय रघुवीर, हंसो हंसो जल्दी हंसो, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 112
13.
श्रीवास्तव परमानन्द, शब्द और मनुष्य,
राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-30
दीक्षा मेहरा
अतिथि व्याख्याता
डी. एस. बी. परिसर,कुमाऊँ विश्वविद्यालय,नैनीताल