अनुनाद

बहुत अधिक मामूली लोगों में जो महानता छिपी होती है, वह हम देख नहीं पाते – जोशना बैनर्जी आडवाणी की कविताएं

जोशना बैनर्जी आडवाणी की कविताएं कई कहे-अनकहे, सुने-अनसुने कथानकों को सिरजती हुई अपनी कहन के लिए एक अलग तरह का शिल्‍प गढ़ती हैं। अंचल विशेष की भाषा, तीज-त्यौहार, प्राकृतिक सौन्दर्य, रीति-नीति के नीड़ में लोक-जीवन के छोटे-छोटे स्वप्न-पाखियों के अनूठे स्‍वरों से भरी ये कविताएं, अपने आख्यान में भाषाई तौर पर लौकिक संस्कृत के वातावरण में अनायास ही पाठक को ले जाती हैं। नौ दुग्गा के रूपों की तरह ही ये कविताएं भी अपने विराट में संवेदनाओं के प्राक्ट्य से, लोक-जीवन की बहुविधियों और रूपों का साधारणीकरण करती हुई हमारे समकालीन इस संसार में विन्‍यस्‍त हो जाती हैं। कविताओं के लिए हमारा अनुरोध स्वीकार करने के लिए कवि का आभार और अनुनाद पर उनका स्वागत।

-अनुनाद

    नकघिसनी प्रार्थनाएँ   

 

जीवन के तुमुल में

किसी पुंडरीकाक्ष, किसी नटेश्वर के पास
नहीं मिला कारूण्य

किसी मनोहारिणी स्त्री के पास नहीं मिली
कामख्या की शक्तियाँ

किसी पक्षी ने वृक्षों की पीड़ाओं के विषय
में नहीं बताया

किसी रगड़ के पास नहीं थी पत्थरों की जीवनी

किसी अठोतरी में नहीं मिला एक सौ आठ
तरीके के सुख

 

जीवन के तुमुल में

मिली मात्र नकघिसनी प्रार्थनाएँ।

***

     निचला ओंठ अधिक चंचल है    

 

उचक कर कोने से दाँत में पहले वही जा
गड़ता है

जैसे एक रहस्य टिका हो उसपर

जैसे रहस्योद्घाटन से पहले की भंगिमा

जैसे प्रियतम की पहली पसंद हो वही

छुआ जाये तो उसी को पहले छुआ जाये

जैसे अधरामृत अमोघ

जैसे वृष्टि, मेघ, गर्जन से भी अधिक चपल

जैसे उपरी ओंठ हो अपंग और इसीपर हो
दायित्व

देखरेख का

जैसे ऋतुसंहार में कवि अपनी प्रिया को
संबोधित

कर रहा हो

जैसे चेहरे पर उभरे रहने के बावजूद निचले

होने की दुआई दे रहा हो

नकारता हुआ इस सत्य को कि दोनों ओंठ समान

जैसे अपरिचय से जुड़ी कोई संवेदना

दंभ इतना जैसे ऊपरी ओंठ का भार उसी ने
संभाल रखा हो

जैसे उसी पर टिका हो सौंदर्य सम्पूर्ण

जैसे दंतपंक्ति के सफेद पर लाल जवा

जैसे ऊपरी ओंठ की सभी ज़िम्मेदारी उसी पर
हो

एकांत में मुस्कुराये तो खींच ले जाये
उसे अपने साथ

जैसे अवसाद में खंडित नायिका का बिछोह
गीत

जैसे विरह के अवशिष्ट दिनों में भी
रमणीयता

बनाये रखने की कला

जैसे देह के शासन के कार्यभार की सूची

जैसे आठ अध्यायों वाली अष्टाध्यायी

इतना चंचल जैसे काम, क्रोध, मोह, माया, अहंकार

निचला ओंठ अधिक चंचल है

 

 परंतु

कहो कोई इस निचले ओंठ से

मेरे प्रेयस ने इसे नहीं छुआ

छुआ मेरे माथे को पहले, फिर छुए मेरे नेत्र

इसे तो छुआ ही नहीं

***

     अठोतरी   

 

आठ सहेलियों में चर्चा का विषय था कि
अश्रु बहकर कहाँ चले जाते हैं

पहली सबसे बड़ी उम्र की लड़की ने कह दिया
नीलोत्पला में जाकर मिल जाते हैं

सहसा किसी ने पूछा अनुकांक्षाऐं जो पूरी
नहीं होती वे कहाँ शरण पाती हैं

दूसरी लड़की जिसके पिता धमतरी में पत्थर
काटते थे कह उठी सिहावा में जम जाते हैं

जब पूछा गया कि पीड़ा में भी मुड़ जाने की
लचीली कला देह के किस अंग में हैं

गौना हुआ था जिस तीसरी लड़की का धीमें
स्वर में बोली जाँघों में

हम सब ताकते रह गये उसे

चौथी लड़की जो कुम्हड़ा सिर पर रखकर चली आई
थी बोली जब बना चुकी होगी चूल्हे में अपनी देह झोंककर तरकारी रोटी

खा लेंगे सभी

पर मेरी देह की गंध से स्नेह नहीं करेगा
कोई

पाँचवीं लड़की की कामना थी कि वह ऐरावत की
सवारी करे

ऐसा कह देने भर से ही सब ने उसकी खूब
खिल्ली उड़ाई

अल्लम गल्लम बकते रहे सब

छठीं लड़की अंधी थी

माँ बाबा मर चुके थे

कहने लगी पता नहीं कौन उसकी छाती मसल
देता है जब तब

गंध से पहचानती है तो दादी डांटकर समझा
देती है चाचा के बारे ऐसा नहीं कहते पाप लगता है दण्ड मिलेगा

उसकी आँखों में झोंक दिया गया था
दण्डविधान

सातवीं लड़की को खूब पढ़ाई करनी थी

देश दुनिया घूमना चाहती थी

अजायबघरों पर किताब लिखना चाहती थी

एक घर खरीदेगी परिवार के लिए अच्छी नौकरी
लगने पर

अभी प्रतीक्षा में है

पिता ने कन्या छात्रवृत्ति योजना में
फॉर्म भरा है

आठवीं लड़की सोच रही है उसे क्या कहना
चाहिए

किस विषय पर बात करे

यकायक उठकर सबको गले से लगा लेती है

आठों सहेलियाँ खिलखिलाकर हँस देतीं हैं

 

आठ लड़कियों के आठ दुःख

आठ सौ लड़कियों के होंगे आठ सौ

और इस तरह जितनी लड़कियाँ उतने दुःख

किस अठोतरी में इतनी दिव्यता जो जप भर
लेने से मिट जाये इनकी पीड़ाऐं

आठ लड़कियों के लिए एक सौ आठ मनकों की एक
अठोतरी

निर्रथक है

निर्रथक है अठोतरी।

 

*(अठोतरी – एक सौ आठ मनकों की माला।)

*** 

    कु   

 

 कु नहीं है मन मेरा

इसने तो घपच्ची मारकर न दुःख पकड़ा न सुख

कठिन समय में कीका भी नहीं

आदर सूचक शब्दों का ही प्रयोग किया

बरगेल पक्षी को देखता है तो उसी के प्रेम
में पड़ जाता है

रक्त देख लेता है तो कई दिनों तक नीले को
भी

लाल देखता है, पीले को भी लाल, काले, सफेद, हरे को

भी लाल ही देखता है

इसे कोई मतलब नहीं कि किस स्त्री से
उत्पन्न हुए ऐतरेय ऋषि

या नसीरुद्दीन शाह ने की कितनी पिक्चरें

कोई मतलब नहीं इसे कि कौन पी रहा है महुए
की शराब

या कहाँ दिए जा रहे हैं बेरोज़गार भत्ते

हाँ, अबक्का देवी और किन्नूर की चेनम्मा जैसी
कुछ औरतों

की जीवनियाँ पढ़ने ठहर जाता है

जलकुंभी के बगल में बैठकर देह का ताप
उतार देता है

मौन रहता है हर किसी के सामक्ष

एक हल्के झंपन से भी उठ बैठता है

कीटिकाओं को देखता है, नहीं देखता फिल्में

 

कु नहीं है मन मेरा

ये तो तैमूर लंग भी नहीं जो च़गेज़ खां बनना
चाहता हो

ये तो गणित भी नहीं जो विज्ञान से उलझ
रहा हो

पृथ्वी पर झरी हुई एक पत्ती में भी ढूँढ
लेता है अपना आलय

किसी की खासी सुनकर भी व्याकुल हो उठता
है

घायल बिल्ली को झाड़ियों से एहतियातन ऐसे
घर उठा लाता है

 

दंडायमान् खड़ा रहता है तितलियों और
गिलहरियों के बीच

उन्हें नहीं डराता

एक किताब जो गुम गई थी स्टेशन पर, उस किताब को याद करता है,
कोसता है खुद को

आकाश से सटे हिमालय से बहुत कुछ कहना
चाहता है

लाम्पोखरी झील के तट पर चाहता है अकेले
रहना

चाहता है श्रृंगार प्रधान नाटकों में
हिस्सा ले
,

कबूतरों को उनके पूर्वजों की याद दिलाये
जो पत्र लाया करते थे
,

 

कु नहीं है मन मेरा

ये तो संसार के समाप्त होने पर भी नहीं
रोयेगा

मछलियाँ पी जायें सारा पानी तो भी इसे
कोई पीड़ा नहीं

सितार के तारों की तरह कस लेता है ख़ुद
को

ख़ुद तपता है और सोचता है सौ लोगों को
शीतल करे

प्रथम दण्डाधिकारी के नियम नहीं मानता

 

किसी के होंठ बिचकते हैं तो फिर नहीं
लौटता उसके पास

 

कु नहीं है मन मेरा

एक धूलकण में भी खोज लेता है ईश्वर

वे, जो इसे बुरा समझते हैं, उनसे संधि वार्ता के लिए

कभी आगे नहीं आयेगा

इतना भर तो हठ है इसमें

परंतु कु नहीं है मन मेरा

 

*(कु- बुरा, एक उपसर्ग जो संज्ञा के पूर्व लगकर अनेक
अर्थ देता है (जैसे—कुपुत्र
, कुकर्म, कुधातु,
कुदिन, कुबेला)

*** 

    अच्छा हुआ उसे सत्यजीत रे ने नहीं देखा   

 

पृथ्वी का हरा चूमता था उसकी गैंती को

वह उस हरे से लाल, पीले, सफेद पुष्प उगा लेती थी

उसके गीले केश की गंध रवींद्र संगीत जैसी
थी

 

हल्दी के गाँठों के रंग उसकी हथेलियाँ पर
जम गये थे

उसकी धवलिमा से घर में एक उजास थी

वह केश बाँधते हुए भी कर लेती थी कोयलों
से

कूँकने में प्रतियोगिता

वह आठ भाई बहनों में सबसे बड़ी थी

सबसे छोटी रह गई उसकी अनुकांक्षाऐं

उसकी रसोई में पंच फोरन की महक से भूख
दुगनी हो उठती थी

जब शिशिर ढक लेता था हमारी छत

दोनों घुटनों में ऊन फँसाये वह गोले
बनाती थी

आँगन में लेट जाती थी वह बांग्ला उपन्यास
लिए

गिलहरियाँ देखती थी उसे एकटक

आँख लगने पर बिल्लियाँ शोर नहीं करती थी

उसे बर्फ पर जाना बेहद पसंद था

वह कभी नहीं जा पाई

बर्फ़ ने उसे कभी नहीं बुलाया

मैं आज तक बर्फ़ पर कविता नहीं लिख पाई

उसे चिठ्ठियों से नवजीवन मिलता था

अपने पिता की चिठ्ठी पाने पर खूब रोती थी

कौन करता है ऐसा भला

अनूठी, अनोखी थी वह

चिठ्ठियाँ रखने का एक कोना था उसका

मैं आज भी उस कोने में बैठकर उसका रुप
धरती हूँ

उसका साँवला रंग संध्या बाती में बांग्ला
फिल्मों की नायिका की तरह दमकता था

अच्छा हुआ उसे सत्यजीत रे ने नहीं देखा
था

वरना तो वो अपना पूरा जीवन मुझपर कैसे
वारती

उसकी सुंदर ऊँची नाक पर हीरा श्रद्धानत
होकर बैठा रहा

जब तक वो रही

मुझे मसोस है मेरी नाक उसकी तरह क्यूँ
नहीं

उसकी सभी साड़ियाँ और गहने मेरे पास है

मैं जतन से रखती हूँ

उसकी चादरों की बेलें उसकी कहानियों को
पकड़ कर

आकाश चढ़ जाते थे

मैं हर रात उन्ही बेलों को पकड़ कर आकाश
चढ़ती थी

उसने मुझे हर रोज़ काजल लगाया

आज काजल ही मेरा सबसे पसंदीदा आभूषण है

उसके गलतकिये में से केवड़े की गंध आती थी

वह गलतकिया आज भी मेरे पास है

वह मच्छरदानी लगाते हुए बांग्ला गीत गाती
थी

कंठ के तार कसे हुए थे

वह माँ थी, मेरी माँ

शाम को जब बिजली विभाग से पिता आते थे

माँ छावनी बन जाती थी

घायल पिता सुस्ताते थे।

*** 

   कौन रखेगा दु:ख पर चंदन   

 

किस विधात्री के हाथों लिखा गया था भाग्य

किस नटेश्वर ने तय किया कि मृत्यु कब
होगी

कौन सा दण्डविधान रचते रहे शनि

था कौन सा स्वर्ग वह

आखिर जना किसने ईश्वर को

विज्योल्लास को ताकता है मन

कितनी बड़ी तादात थी दुःखों की

बिछा दिए जाते तो आकाश तक पहुँच जाती सड़क

देश का राजा कहता है तीन चीज़े नक्की करो

तुम्हारा नाम

तुम्हारी पहचान

तुम्हारा वोट

घर का राजा कहता है घर, बच्चों और पैसों की हो
अच्छे से देखभाल

कार्यस्थल का राजा कहता है ठीक से काम
करो

मन का राजा कुछ नहीं कहता

बाकी के तीनों राजाओं ने इसका गला काट
दिया है

मन का राजा एक मृतक है

अर्धमूर्छित अवस्था में पड़ी है जिह्वा

आवाज़ उठाने के लिए एक वैद्य को लाना होगा
जो जिलाये रखे जिह्वा को

 

एक दुर्घटना की तरह सांसे ले लीं गई

कपड़े यह सोच कर पहने गये की किसी की
आँखें शापित न हो

जूतों ने ख़ूब साथ निभाया

जो चुप्पियाँ साध ली हमनें

एकांत में उन चुप्पियों ने मस्तक उठाकर
धिक्कारा

 

पृथ्वी ऊपर धान खड़ा था, पृथ्वी नीचे पानी

मन के ऊपर दैत्य समय का, मन के नीचे प्रेमी

कौन सा देवदूत हाथों में आशीर्वाद लिए
आयेगा तथास्तु कहने

कौन सी मोक्षदायिनी देवी हर लेगी
विपत्तियाँ

किसी कुबेर को नहीं जानता मन

कौन आयेगा वृष्टि लेकर

कौन लायेगा संतुष्टि

कौन ही रखेगा दुःख पर चंदन

कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं

***

    बेलूर मठ का भिक्षुक   

 

चार बजे मांगल्यआरती के समय मुख्य द्वार 

पर चरण पड़ते थे उसके

प्रथम भोग भगवान रामकृष्ण को चढ़ाकर 

फिर अन्नभोग चढ़ाता था वह भिक्षुक

हाँ, भिक्षुक ही था

वहीं मठ में ही रहता था

दादा उसे दुलारते थे, उसे धोती कुर्ता छः मास
में एक बार अवश्य ही देते थे।

वहाँ संध्या आरती का एक नियम था

आरती सूर्यास्त के बाईस मिनट के पश्चात
ही होती थी
 

पूर्णिमा उत्सव में नाचता था वह भिक्षुक

उसका नाम होरि था 

श्री हरि के रूप जैसा ही था उसका रूप

वहाँ ब्याहताएँ भी कहती किसी राजा का पाप
है अवश्य
, जाने कैसे मठ तक आ पहुँचा है

 

नून भात ही खाता था एक वेला, दूसरी वेला अन्नभोग

कैसा बंगाली था, मछली नहीं खाता था

उसकी देह पर एक धोती और एक जनेऊ था मात्र

ब्रह्माण्डा मंदिर परिसर के किसी कोने
में बैठता था खाली समय में

कितनी वितृष्णा भरी थी उसमें

किसी चीज़ से नहीं चौंकता था

किसी वस्तु से कोई लालच नहीं

 

पर क्यों ही आखिर मैं उसे देखती थी

कन्याओं के स्वप्न में तो राजकुमार आया
करते हैं
, भिक्षुक नहीं

नहीं प्रेम जैसा कुछ भी नहीं था मेरे मन
में

न ही कोई इच्छा उसके समीप पहुँच पाने की

जब जब उसे देखा दादा का हाथ पकड़कर

ही देखा

उनके हाथों के बिना कभी न देखा

उसे कभी कुनमुनाते या क्रोधित होते नहीं
देखा था

हम महान लोगों का गुणगान किया करते हैं

बहुत अधिक मामूली लोगों में जो महानता
छिपी होती है
, वह हम देख नहीं पाते

खोज नहीं पाते विलक्षणता

पा नहीं पाते धीरता

 

बेलूर मठ का भिक्षुक आज भी मिलता है मठ
में

जनेऊधारी भिक्षुक अब ढाक बजाता है

कालीबाड़ी से थोड़ा आगे चलकर जहाँ बिकती
हैं सब्ज़ियाँ
, वहाँ से पुई शाग खरीदता हुआ मिल जाता है

इस बार देखा तो एक बच्चे को बाँसुरी बजा
के

सुना रहा था

दिमाग से नहीं, हृदय से काम लेता बेलूर
मठ का भिक्षुक
,

एक भिक्षुक नहीं एक ओज है।

***

     हावड़ा पुल नहीं, प्रेमी है   

 

हावड़ा तुम्हें एक पुल की तरह दिखता है

अचम्भा है

मुझे तो दिखता है प्रेमी की आँख की तरह
जो बस मुझे ही देख रहा है निरंतर

हावड़ा की आँखें मुझसे नहीं हटती

ठीक वैसे ही जैसे देखो किसी की छवि

और वो लगता है तुम्हारी ओर ही देखता हुआ

चाहे किस भी दिशा में खड़े हो जाओ तुम

हावड़ा तुम्हें ही देखता हुआ मिलेगा

हुगली नदी के किनारे मास में चार इतवार
खड़े हो जाते थे हम बाप बेटी
, हाथ में रोहू पकड़े

 

औलूक्य ढूँढ रही थी मैं, लोक्खी पूजा की रात

एक भी न दिखने पर

आलते रंगे पैर की कितनी तस्वीरें उतारी,

शुक्तो बना देती थी माँ हर चौथे दिन 

स्वाद हर बार नया होता था

कितना ही नज़र रखती थी माँ मुझपर

भात का एक एक दाना जब तक न खत्म 

होता, पंखा झलती

पिता हँसते

बिजली विभाग की नौकरी में एक मिनट को भी
बिजली नहीं कटती थी

फिर भी माँ पंखा झलती, पिता माँ पर हँसते

 

पड़ोस के बंदोपाध्याय काकू ने कितना कहा
पिता से

चलो सौल्ट लेक में कोई घर देखें

छोटा मोटा ही सही, नहीं तो बेहाला ठीक
रहेगा

यहाँ बेलुर से निकल चलो

पद्म भरे पोखर को कैसे ही छोड़कर चली 

जाती माँ

वह पलंग जो दहेज में लेकर आई थी माँ

इतना विशाल, सटे थे उसमें चार बाँस
मच्छरदानी के लिए
, कितना भारी था

उसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में
कितने ही फाँस निकल आते
,

मन आहत होता

और वह गोल शृंगारदान, जिसमें विवाह के दूसरे
दिन से रोज़ दो बेला माँ सिंदूर भरती आई थी अपनी माँग में
,

वह शृंगारदान माँ की गंध को चिन्हता था

बांग्ला उपन्यास से भरा एक छोटा संदूक,

वह तो माँ का प्राण था

इतनी भारी भरकम चीज़े कैसे ठीक रख रखाव 

से ले जाया सकता है

बेलुर छोड़कर माँ कहीं नहीं जायेगी

 

एक छोटा घर हावड़ा किनारे स्वप्न था मेरा

माँ बेलुर में ही मरना चाहती थी

दुग्गा से माँ कहती थी अपनी अंतिम इच्छा

हावड़ा मुझे चकित करता रहा

पिता दुग्गा और हावड़ा के मध्य अभी तुरंत
निकाली गई मछली की तरह फड़फड़ाते रहे।

***

    बांकुड़ा की झिलमिली   

 

प्रेयसियाँ भागी चली जा रही हैं नंगे पैर
मध्यरात्रि
 

तलवे से रक्त छिटक कर दूर्बा को लाल रंग
रहे हैं

कोई सुध नहीं कि तनिक वेग कम कर लें

वायुदेव से शत्रुता ले रही हैं
प्रेयसियाँ

कपाल से बहता पसीना छाती से रिसता हुआ

नीचे टपक रहा है

इस प्रेमाग्नि के धधक में धूँ हो रहे हैं
जाने

कितने ही मन

 

पथ कितना ही लम्बा है, पृथ्वी के पृथ्वी खा गया
यह पथ

महिषासुर बना है समय का अँधकार

रूँधे गले देवी तक नहीं जा रही पुकार

बांकुड़ा से होती हुई जा पहुँची हैं
झिलमिली

प्रेयस सभी यहाँ हाथ में प्रतीक्षा लिए
खड़े हैं

 

झिलमिली के घने जंगल में रास है आज

वनस्पतियों की यहाँ मेघमालाओं से संधि है

बड़े बड़े पात छाया देंगे

पान से ढाँपेंगी अपना चेहरा प्रेयसियाँ

कांगसावती नदी आज आशीर्वाद देगी प्रेमियों
को

इस जल में निमज्जित हुए हैं प्रेमी सभी

इस जल से ही सिद्धि पायेंगे

पायेंगे बंगाल के इतिहास में अपना स्थान

जंगल में वन लताओं से प्रेमी बनायेंगे

शाका पौला अपनी संगिनी के लिए

सभी संगिनियाँ लाल पेरे साड़ी से ढाप
लेंगी अपने प्रेयस को

यहाँ स्नान करके वे लम्बी दूरी तय करके
चल देंगे बिश्नुपुर
 

सफर में दो मुठ्ठी मूड़ी से ही काम चला
लेंगे

यहाँ चंद्रमा में नाचेंगी प्रियतमाएँ

प्रियतम सारे रंग बिरंगी कागज़ काटेंगे

 

बालूचेरी साड़ी खरीद कर प्रेमी

रख देंगे माता के पैरों में

माथा टेककर कह देंगे मन की बात

मोक्षदायिनी देवी के समक्ष लजायेंगे

माँग लेंगे वरदान

बांकुड़ा के झिलमिली में प्रेमी पूरी कर
रहे हैं

अपनी शेष इच्छा।

***

    बंग महिला राजेन्द्र बाला घोष के लिए   

 

नीदरवासिनी और रामप्रसन्न घोष की

संतान बाला घोष कहो

कहो बाला घोष

तुम छापामार लेखिका क्यों कहलाईं

आखिर क्यों तुम बंग महिला के छद्मनाम

से लिखती रहीं

एक प्रतिष्ठित बंगाली परिवार में जन्मने

के बावजूद क्यों ही तुम कहलाई छापामार
लेखिका

क्योंकि वे कुछ अहम् से भरे समीक्षक कैसे

ही तुम्हारा ओज सहते

बंगाल तुमपर गर्व है बाला घोष

तुम्हारा चारुबाला नाम मुझे अधिक भाता है

जो तुम्हें रानी कहकर पुकारा करते थे,

वे अवश्य ही तुम्हारा भविष्य जानते होंगे

कितना ही यश कमाया तुमनें

कितना ही सम्मान पाया

तुमने बंगाल के माथे पर गर्व तिलक लगाया

बाला घोष

 

बाला घोष

तुम प्रवासिनी के नाम से ही लिखती रहती 

इतने नामों की क्या ही आवश्यकता एक
बंगाली स्त्री को

एक बंगाली स्त्री के रूप लावण्य, ओज और

हिम्मत से कोलकाता सृजित है

कोलकाता विश्वविद्यालय में वाईस चांसलर
सोनाली चक्रवर्ती बैनर्जी से सुना था एक बार कि तुम्हारी ही बनाई कहानी लेखन की
पृथ्वी पर प्रेमचंद बस गये थे

किस तरह ही आखिर तुम छापामार कहलाई
चारूबाला

यह कितना सघन षड़यंत्र था

 

हे चारूबाला

पिता कहते थे रूढ़ियों का अंत किया तुमने

स्त्री शिक्षा को सर्वोपरि माना

बंगाल तुम्हें प्रणाम कहता है चारूबाला

वे पुरोधा समीक्षक कितने ही भयभीत रहे

होंगे तुमसे जिन्होंने तुम पर शब्दों से

कितना प्रहार किया

भयभीत मनुष्य ही स्त्री पुरूष में अंतर
बताकर

स्वयं को श्रेष्ठ बताते

तुम्हें ओझल करने वाले आज स्वयं ओझल हैं

चारुबाला

तुम अजर अमर हुई चारूबाला

 

दुलाईवाला और चंद्रदेव से मेरी बातें

आज भी पिता के लकड़ी के अलमारी की शोभा है

कितना कुछ खोया तुमने चारुबाला

पति और बच्चों की मृत्यु ने तुम्हें तोड़ा

नहीं तोड़ सके तुम्हें चारित्रिक लांछन

उन समीक्षकों का नाम आज कहीं नहीं
जिन्होंने तुम्हें नकारा

आज तुम एक इतिहास हो चारूबाला, एक आंदोलन, एक उदाहरण, एक प्रेरणा

बंगाल तुम्हें प्रणाम करता है चारुबाला।

***

    तड़के का आकाश   

 

एक गोश्त पकाती औरत और ठीक उससे तीन
प्रदेश दूर

सूतिकागार में पड़ी औरत की चिंताएँ एक सी
हैं

उनके भय एक से हैं

एक ट्राम में बैठी औरत और नगर से दूर
पहाड़ों पर झरने में नहाती एक औरत गुनगुनाते हैं एक ही गीत

टूटी चप्पल में चलती एक औरत की कामनाएँ
कतई भिन्न नहीं

पियानो बजाने वाली एक औरत से

तीसरी लड़की जनने वाली एक औरत और एक औरत
जो दुर्घटना में खो चुकी है अपना एक पाँव
, दोनों की हँसी निश्छल ही रहेगी सदा

एक औरत जिसे प्रेमी ने दिया है धोखा अभी
अभी
,

उसकी योजनाएँ उस औरत से हुबहू मेल खाती
है
, जिसकी लगी है अभी अभी एक नई नौकरी

एक समाचार सुनती औरत उतनी ही गंभीर है, जितनी गंभीर 

है एक ऐसी औरत जिसके बच्चे को अगवा कर
लिया गया है

बाईबल पढ़ती एक बूढ़ी औरत उतनी ही खूबसूरत
है
, जितनी खूबसूरत लड़के वालों के सामने रामायण बाँचती एक कुवाँरी लड़की 

 

औरतें पुरूषों के लिए बना रही हैं
रोटियाँ

कल्पना के प्रेमी के लिए गुनगुना रही हैं
मीठा गीत

यह प्रेमी रसोईघर में अचानक प्रकट हो
जाता है

पिट कर सोने वाली स्त्रियों के

ग़ुसलखाने में कभी कभी आता है यह प्रेमी

चूमता है उसके घाव, उसे घंटों गले से लगाये
रहता है

 

पीड़ाएँ कितनी ही हैं जीवन में

इन पीड़ाओं की दृश्यावलियों में औरतें
अदाकाराएँ हैं
,

जिन्हें पुरस्कृत किया जाना रह जायेगा

रह जायेगा उनकी मृत्यु का शोक

उन्हें प्रेम किया जाना रह जायेगा

उनकी स्मृतियों में जितने भी पुरूष हैं

उन पुरूषों का एक रहस्य रह जायेगा

अलिखित रह जायेंगी औरतों की मन की बातें

औरतें कह ही नहीं सकी हैं अबतक वह सब, जो उन्हें

समय रहते कह देना चाहिए था

औरतें भावनाओं को छिपाने की देवियाँ हैं

औरतों के तड़के का आकाश अनूठा है

यह तड़के का आकाश ही उसका जीवन है

 

यह पृथ्वी एक दुशाला है

औरतें उस दुशाले की कुंज हैं

यही कुंज दिखाकर , दुशाले का व्यापार किया
जाता है।

***

परिचय:-  जोशना बैनर्जी आडवानी आगरा के
स्प्रिंगडेल मॉर्डन पब्लिक स्कूल में प्रधानाचार्य पद पर कार्यरत हैं।
 इनका पहला कविता संग्रह, सुधानपूर्णा, दीपक अरोड़ा स्मृति सम्मान के तहत
प्रकाशित हुआ है। बोलपुर और बेलूर
, कोलकाता में रहकर
इन्होंने कत्थक और भरतनाट्यम सीखा। इनकी कविताओं में बांग्ला भाषा का प्रयोग अधिक
है। इनका दूसरा कविता संग्रह
अंबुधि में पसरा है आकाश
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। रज़ा फाउंडेशन की ओर से इन्हें
शंभू महाराज जी पर विस्तृत कार्य करने के लिए
2021 में
फैलोशिप मिली है।

कविताओं का अंग्रेज़ी, बांग्ला, नेपाली, मराठी, मैथिली और
पंजाबी में अनुवाद हुआ है।

 

 

 

 

 

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