श्रीधर नांदेडकर मराठी साहित्य में ख्यातिप्राप्त नाम हैं। उनकी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद कर पाठकों तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य सुनीता डागा ने किया है। सेतु प्रकाशन से छपे संग्रह से ली गई श्रीधर नांदेडकर की इन 15 कविताओं के लिए हम उनके आभारी हैं। अरुण कमल की यह लिखत ‘ज़मीन और पानी के दरमियान’ की कविताओं को हिन्दी के पाठकों के लिए कुछ और प्रकाशित करती है।
-अनुनाद
प्रख्यात मराठी कवि श्रीधर नांदेडकर की कविताओं के हिन्दी अनुवाद का पुस्तक रूप में प्रकाशन एक महत्वपूर्ण घटना है। मराठी से अधिक यह हिन्दी समाज के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि नदी या भाषा वही पृथुला होती है, जिसमें अनेक नदियों या भाषाओं के जल आकर मिलते रहते हैं। किसी भी इतर भाषा से अपनी भाषा में रूपान्तर अपनी भाषा को नयी, भिन्न उर्वर दृष्टि तथा चेतना और भावबोध से सम्पन्न करता है। श्रीधर नांदेडकर की कविताएँ हिन्दी कविता को नये भावबोध से परिचित कराती हैं। सुनीता डागा के समर्थ एवं समतुल्य अनुवाद मराठी कविता के एक पृथक स्वाद से हमें समृद्ध करते हैं। श्रीधर नांदेडकर की कविताएँ सूक्ष्म अवलोकन के साथ साथ कहन के नये तरीक़ों का आविष्कार करती है और समकालीन जीवन के लिए एक नये रूपक की खोज करती है। इन कविताओं का मूल स्वर दुख और यंत्रणा है, परंतु साथ ही साथ गहरा अनुराग और जीवन के प्रति लालसा तथा करुणा निरन्तर उस स्वर को थामे रहते हैं:
नींद में डूबे बच्चों पर
रात्रि में जग पड़ा पिता
ओढ़ाता है चद्दर ममता से भरकर
कवि की तीक्ष्ण दृष्टि का प्रकटीकरण आकस्मिक रूप से उन स्थलों पर होता है, जहाँ पहले से कोई कथा या आख्यायिकाएँ अथवा प्रसंग उपस्थित नहीं हैं : एक वृद्ध पंछी लड़खड़ाते हुए लपकेगा, या, कोई शाम होती ही है ऐसी निर्मम; या,हथेली पर जले कपूर का निशान। यह संग्रह ऐसे ही त्वरापूर्ण, उद्वेगमय बिम्बों से भरा है। पीड़ा, कुछ खो देने का दुख, विस्थापन इस संग्रह के मूल भाव हैं जो अनेक छवियों में व्यक्त हुए हैं। यहाँ एक सौम्यता और धैर्य है जो सत्तर के दशक की कविता से सर्वथा भिन्न प्रकृति का द्योतक है। लेकिन यहाँ भी कविता या काव्य एक स्थायी विषय है उन्हीं दशकों का स्मरण दिलाता हुआ। कवि ने कविता की वनस्थली के अनेकानेक रूपक प्रस्तुत किए हैं—जूठे हाथों से ही लिखनी पड़ती है उम्र भर कविता; और एक वायलिन बचती है पीछे पूरी उम्र बिना बजी हुई।
इनमें से अनेक कविताएँ पाठक को बेचैन कर देती हैं और उसका पीछा करती हैं—अखंड दीप की तरह मेरे यातनागृह के अँधेरे में / बेटी की ध्वस्त गृहस्थी को देख वापसी की राह पकड़ता पिता/ऐसे असमय में हिचकोले खाते पानी का एक गीला घड़ा फूट गया…।
हिन्दी में प्रकाशित होकर श्रीधर नांदेडकर की ये कविताएँ सह्रदय पाठकों को एक बार पुन: मराठी कविता की ओर प्रेरित करेंगी। चंद्रकांत पाटील, निशिकांत ठकार, रणसुभे, थोरात सरीखे मराठी भाषी अनुवादकों के साथ अब तुषार धवल, सुनीता डागा जैसे हिन्दीभाषी अनुवादकों की सक्रियता मराठी के विविध महान काव्य रूपों से हिन्दी पाठकों को सम्पन्नता प्रदान करेगी। अनेकानेक पंखों की परछाइयाँ हमारे आँगन में उतरेंगी।
स्वागत श्रीधर नांदेडकर!
—अरुण कमल
मर्ढेकर की बकरी
कसाइयों की बस्ती लाँघकर
लंबी दूरी तक
पैरों को घसीटने के बाद
मिलता है
दुबारा
मर्ढेकर की बकरी को
चारा खिलाने वाले
कवि का घर
अपने पश्चात्
अपने मेमनों की खातिर
सहेज कर रखना होगा
घास के इस मीठे गट्ठर को
यह सोचते हुए
पढ़ाता है वह
अपनी बेटी को एक कविता
जो शामिल नहीं है
किसी पाठ्यक्रम में
ऐसी संझा होती नहीं है
ऐसा घर अब बचा नहीं है
ऐसा ओसारा ऐसा आँगन
ऐसा दरख़्त नहीं
जहाँ पर बैठकर
बच्चों के स्वप्न में
छोड़ा जा सके
मुक्ताई*की समाधि पर
उड़ती किसी तितली को
बेशक
यह एक बकरी है और
मैं चला आया हूँ
एक लंबी दूरी नापकर
लेकिन
मेरी पीठ पर जो थैला है
उससे ढो रहा हूँ मैं
आभासी दुनिया के
मुफ्तखोर दृश्यों में
मगन हो चुकी
व जुबान झड़ चुकी
एक पीढ़ी को दर्शाते
दु:स्वप्न को
लाँघता रहूँगा नदियों को
रौंदता रहूँगा
समन्दर के तट
पहाड़-खाइयाँ
लेकिन नहीं रुकेगा मेरा
अथक चलते रहना
बचे-खुचे कौवों के शगून
लपक पड़ेंगे तुम्हारी खातिर
तब खुली रखना अपनी खिड़की
हथेली पर चोंच गड़ाकर
उठाने देना भात के ग्रास को
अथाह नीले आसमान तले दौड़ते
स्कूली बच्चों की देह पर
छितराने देना
कविता के शब्द
आनेवाले मौसम में
कोई एकाध डाली भी
अगर लहलहा उठती है
बच्चों की खातिर
उतना ही पर्याप्त होगा
हमारे लिये
कोटर के अँधेरे में
संतोष से भरकर
गर्दन डाल देने के लिये
चलता रहता है जीवन का रेला
कभी टलती नहीं है
सूर्यास्त की बेला
लेकिन
बिदा लेते समय
तुम्हारे लिए
मन-ही-मन
इतना ही कहूँगा मैं कि
उठती रहे घास की महक हमेशा
तुम्हारे लिखनेवाले हाथों से
उसे छोड़ो इधर
गले से लिपटे हाथों को
तनिक हटा दो
परम्परा की आँखों में मुझे
गहरे झाँकने दो
आओ
कुलाँचे भरते हुए
दौड़ पड़ो मेरी दिशा में
तुम्हारे खूरों की मार सहकर
चरता रहूँगा मैं
भाषा की वनस्थली में
***
मीर भाई
एक छप्पर डालकर
चार दीवारें खड़ी कर
एक पेड़ उगाकर
एक पहाड़, एक नदी
जरा-सी चाँदनी, सूरज-चाँद
और रास्ता
इन सबसे
नहीं किया जा सकता है घर खड़ा
नहीं फैलती है छाँव
मीर भाई
क्या मुझे यह कहना होगा तुमसे कि
कविता का घर यूँ और
इतने भर से नहीं किया जा सकता है खड़ा
रात्रि के तीसरे प्रहर में
मित्र का आवेग से भरा फोन बज उठे
उसी भांति पड़ने चाहिए तुम्हारे थपेड़े
थपथप थपथप
एक-के-पीछे-एक
मेरे अनकहे शब्दों की खिड़की पर
इस खत्म होते जाते
रास्ते की शपथ का विस्मरण न हो अब
न बिलगना पड़े एक-दूजे से
इस गहन समय के मोड़ पर
किताब के पन्ने पर भी
वे एक-दूजे की पीठ पर
लटक जाती है
हम तो
हाड-मांस की घनिष्ठ कविताएँ हैं
मीर भाई
एक कविता का
दूजी कविता को सँभालने का यह प्रण
ऐसे अधूरा तो नहीं छोड़ सकते हैं न
छोटा भाई
बड़े भाई को पीठ पर लादे
इसमें केवल क्रमभंग हो सकता है
दुनियादारी का
कविता तो
इत्मीनान से बहती चली जाएगी
धारा के उस पार
और उस पार
नंगे बच्चों द्वारा छोड़ी हुई नावें
तेज गति से बहेगी पानी पर
धुँधली पहाड़ी से ढोल की गमक के साथ
एक आदिम झुंड
चलता जाएगा दूसरी पहाड़ी तक
उनकी मशालों के प्रतिबिम्ब
ढुलेंगे हमारे क़दमों के सामने
एक हाथ छोड़कर
तुम पानी पर छपाक से मारोगे
और आग बन उठेगा पानी
आग पर फैलेगी रोटी की महक
बुढ़िया के रोटी थापते झुर्रीदार हाथों पर
छप्पर के सुराखों से
छितरेगी चाँदनी
सूखे तिनकों के बिछौने पर
उनके बच्चे भी सो जाएंगे
सूरज की आहट से पहले ही
आंगन में उगाए पेड़ से
सफेद परिंदे उड़ जाएंगे
मीर भाई
अब ना मत कहना
आओ
डाल दो
निशंक होकर अपने हाथ
मेरे गले में
***
हमारे रास्तों ने निभाया वचन
हमें सँभालने की कसम थी
गहन रात्रियों को
बंद मुट्ठी खोलकर
मुझे एक इल्ली दिखानी थी
तुम्हें दिखाना था
हथेली पर जले कपूर का निशान
हमें सौगंध थी शब्दों की
इसलिए
समय-असमय बेपरवाह दस्तक दी हमने
एक-दूजे के आहत वर्तमान पर
अँधेरे में बारिश में भीगते
हरे दरख्तों पर के
सफ़ेद पंछी देखे
हमने जिन दिशाओं को रौंदा
उन सभी दिशाओं से
आकुल ध्वनियों को सुना
हमारे रास्तों ने
निभाया वचन
और अवगत कराया
हमें हजारों विकल दृश्यों से
हमें घर की सौगंध थी
इसलिए लौटना पड़ा
***
तरबूज़
ऐसा समय ऐसे दिन नहीं चाहिए थे कि
मेरे किसी भी शब्द से
समकालीन मित्रों को नहीं होता हो कोई बोध
ऐसा कोई बड़ा अपराध तो नहीं था कि
ऐसे निर्वासित होकर
पराये रास्तों को रौंदते भटकते रहे
अपने जादुई झोले में सिमटी
एक अदनी-सी दुनिया कभी भी
सीमित नहीं थी केवल अपने तक ही
पूरे मोहल्ले में किसी के पास न थी
ऐसी कमीज में छुपाई सुर्ख-लाल गेंद को
मित्रों को दिखाकर
अचानक चौंकाना था
लेकिन नहीं सम्भव हुआ
गाँव से बाहर का रास्ता बनाते
इस हवाई-पुल पर से एक गेंद
तैर रही है पहाड़ी के पीछे से
और बिछड़ चुके हैं अब सभी साथी भी
मेरे कदम तेजी से रास्ता नाप रहे हैं
केवल रास्ता ही नहीं
रास्ते के किनारे
पेड़ होगा तो पेड़
इन्सान होगा तो इन्सान
सभी मेरे अपने हैं
खुले रास्ते के किनारे टूटी खाट पर
सोया हुआ है मामू
कम्बल ओढ़कर
उठो मामू
ईश्वर के तरबूज़ का घेरा
पहाड़ी पर
अपना चट लाल रंग बिखेर रहा है
धूप देह पर छितर रही है
तुम्हारा कम्बल ओढ़ा हुआ सिर
ऐसे दिखाई दे रहा है
जैसे उग आई हो तरबूज़ को दाढ़ी
और किसी दूर-दूर तक फैले प्लेटफार्म पर
सोये हुए हो मनुष्यों के झुंड के झुंड
वैसे तुम्हारे सभी तरबूज़
ऊँघ रहे हैं एक कतार में
गहरी नींद में डूबे बच्चों पर
रात्रि में जग पड़ा पिता
ओढ़ाता है चद्दर ममता से भरकर
वैसे एक मैला कंबल
तुम्हारे तरबूजों पर भी ओढ़ाया हुआ है कि
उन्हें ठंड न लगे
मामू उठो
मुझे एक तरबूज दो
बोहनी करो
मेरे काम के घंटे खत्म हो जाएगे
मैं चला जाऊँगा रेल से उसके घर
एक समकालीन मित्र की कही बात
मेरे मन को
कब से टीस रही है कि
उसने छोड़ दिया था
माँ के इस दुनिया से चले जाने के बाद
उसका पसंदीदा तरबूज खाना !
***
इस भ्रम के पेड़ को लांघकर
इस उजाले की सीमा को लाँघते हुए
अभी विश्वास से नहीं कह पा रहा हूँ मैं कि
कौन है
कौन मेरी पीठ पर लदा हुआ है
साँप का डसा भाई या
यह कोई जख्मी कविता है ?
इए भ्रमित पेड़ को लाँघते हुए
नहीं जान पा रहा हूँ कि
यह अपनी ही पगडण्डी है
लालटेन के आगे-पीछे
थरथराते, तेजी से पड़ते क़दमों की
पत्थर-ढेलों से फिसलती आगे चलती
यह निष्प्रभ परछाई क्या अपनी ही है
नही समझ पा रहा हूँ
इस खून के सूखे रिश्ते-सी
नदी को लाँघते हुए
अभी नहीं अंदाजा आ रहा है कि
इस पत्थर पर से कलकल बहता पानी
फिसल रहा था तब
पानी पर ठीक कहाँ पर
यह चाँद का जानलेवा हँसिया ढुला था
उसे पकड़ने की खातिर
पानी के बहाव को तेजी से भेदते हुए
जिधर बहाव ले जाए
उधर ढलककर गई
यही वह जगह है या नहीं
नहीं साफ़ हो रहा है कि
उस पानी में चाँद का हँसिया गुम हुआ था या मित्र
उस पानी में चाँद का हँसिया डूबा था या मित्र
कोई थाह नहीं मिलती है
यह आग यह अरण्य लाँघकर
मैं फिर से इंसानों की बस्ती के निकट आ गया हूँ
यह एक और जाना-चीन्हा पेड़ है
और इस अंतिम छाँव में
मैं नहीं तय कर पा रहा हूँ कि
मेरी पीठ पर से
कुछ क्षणों के लिये मुझे
यहाँ पर क्या टिकाना है
नीले विष की गठरी या
एक जख्मी कविता ?
***
एक वृद्ध पंछी लड़खड़ाते हुए लपकेगा
अपने चूजों को दाना चुगाने की खातिर
टीसते पंखों के साथ घौंसले की तरफ
लपकते पंछी को किससे भय लगता है ?
घेरेदार गोल आँगन में
बारिश में भीगी देह से
पानी की बूँदे टपकने का ?
चकाचक घेरे में
अपने नाखूनों की अभद्र निशानियाँ
छप जाने का ?
पलकों के किनारे से
जिस पानी को लौटाया बार-बार
उसे बहने से रोक न पाने का ?
यह दिन तेजी से गुजर जाएंगे
जल्द ही दस्तक देगी बिछड़ने की बेला
बज उठेगी कोई घंटी इशारे की
तब सभी समझदारी से भरकर फड़फड़ाकर
अपनी-अपनी दिशाओं में लपक पड़ेंगे
सूर्यास्त की दिशा में
एक वृद्ध पंछी
लड़खड़ाते हुए लपकेगा
उसकी छोटी थरथराती परछाई
विलीन हो जाएगी
सांझ के धुँधलके में
बहुत आहिस्ता से
***
भूलन-बेल
कौन था ?
शायद ईश्वर ही होगा
अच्छा, मुँह छुपा रहा था !
वही होगा
सूरज का पहिया
जब फिसल रहा था पहाड़ी पर से
कैंसर अस्पताल के पिछवाड़े के आँगन के
पेड़ के नीचे खड़ा होकर
खिड़की से मेरे पिता को इशारे करता हुआ
और फिर
एक बार उसकी ओर
एक बार मेरी ओर देखते हुए
मुझे पिता दिखाई दिए
इन्सान वही होता है
अलग-अलग रिश्तों के नाम बदलकर
ईश्वर की भूलन-बेल से कोई टला है भला ?
रास्ते पर खड़े होकर
जाने-पहचाने सभी यात्रियों से
अपने ओसारे पर कुछ समय सुस्ताकर
फिर आगे प्रस्थान करने के लिए
कहनेवाला एक वारकरी*
ईश्वर की भूलन-बेल बन जाता है
और एक पताका फरफराती हुई
आँखों से ओझल हो जाती है
सूरज का पहिया खिसककर
कहाँ पर लुढ़क जाता होगा कि
समूचे आसमान से
ऐसी लपटें उठती हैं रंगों की ?
कौनसे नन्हे हाथ होंगे
जो आसमान को पोंछते हुए
अदृश्य ही बने रहते हैं
और घूमता रहता है अँधेरे का फलक
सभी दिशाओं से
मुझे इस हिलते फलक पर
नहीं लिखनी थी इतनी जल्दी
बिदाई की कविता
तुम्हारी खातिर कभी
नहीं ला पाया
ऐसा एक गर्म कोट
हाथ में लेकर
मैं खड़ा हूँ रास्ते पर
ठंड से ठिठुरते
किसी बेनाम इंसान की
खोज में
वारकरी – तीर्थयात्री*
***
कोई शाम होती ही है ऐसी निर्मम
कोई शाम होती ही है ऐसी निर्मम कि
गहरे-स्याह अपमान के बादल
एक-दूजे से टकराते हैं धड़धड़ाकर
फिर जो बिजली गिरती है
उसके रुपहले उजास में
दिखाई देता है
पथरीली सीढ़ी पर रखा
बुझ चुका एक रक्त का दीया
वही पथरीली सीढ़ी
जिस पर बैठकर पिता
निहारते थे मेरी राह
उनकी भीतर धँसी
बिदाई से भरी
आँखें पूछती थी –
फिर कब आओगे ?
मेरे कपकपाते हाथ जैसे कहते थे
आऊँगा लेकिन
पक्का नहीं कह सकता
इन्सान वास्तव में इन्सान
होता ही नहीं है
दो घरों के बीच की वह
एक अकुलाहट होती है
फिर अकस्मात किसी रात्रि में
अपना बहुत आत्मीय इंसान
आटे पर जलते दीये की मद्धिम लौ बना
टिमटिमाता रहता है
वहाँ पर भी कहाँ छूटती है
सहेजने की आस
एक पारदर्शी काँच ज्यों
रखी जाती है घेरा बनाकर
और दिन उगते ही
चोंच में एक सूखा तिनका लिये
उड़ जाती है चिड़िया
***
नदी माँ
किस बात पर इतनी नाराज हो
नदी माँ ?
तुम्हारी कोख में
पला-बढ़ा मैं
मैंने लगाई कई-कई डुबकियाँ तुम्हारे भीतर
मेरे सपनों को सींचकर
तुमने पवित्र बना दिया
तुम्हारी गोद में सिर रखकर
पिता ने आखिरी नींद ली
उनकी राख को तुम में ही
विलीन करते हुए
डबडबाई आँखों से कहा था मैंने
लो सँभालना इसे
मैं तुम्हारा आँचल
सुहागन की तरह
शगुन से भर दूँगा
तुम्हारी धारा में
हजारों दीपों की लड़ियाँ बहाऊँगा
तुम्हारी कावड़ को
ईश्वर के द्वार तक
ढो ले जाऊँगा
अपना रोष त्याग दो
नदी माँ
खुद को सम्भालो
तुम्हारा आवेग से भरकर
यूँ लबालब बहना
बहुत भयभीत करता है
किनारे पर बसे घौंसलों को
बाँध पर से हहराती गिरती हो तुम तब
तुम्हारे निनाद से
कांप उठता है कलेजा
नदी माँ
जिनके आँगन की चहचहाहट भी
अभी थमी नहीं है
जिसने मेरी पीठ पर पैर रखकर
इस जग को देखा है
उस निरीह इन्सान को
ऐसे असमय
मत आवाज दो तुम ।
***
नदी किनारे भटकते लोग
नदी किनारे भटकते लोग
हर समय एक चलते-फिरते घर से
डूबती शाम का आसमान देखते हैं
नीलाभ पर ऊगे किसी तारे को
बतौर निशानी
टोहकर रख लेते हैं
और जिस आँगन जाते हैं
वहाँ पर रख आते हैं दाना-पानी
किसी अनाम की खातिर
नदी किनारे भटकते लोगों को
नहीं हासिल होते हैं हर समय ही
उस पार ले जानेवाले पुल
आँखों-ही-आँखों में सूखा देना चाहते हैं वे
इस पार की अकुलाहट को
नदी किनारे भटकते लोगों को
याद आते हैं
पानी पर हिचकोले लेते
अस्थि-निर्माल्य और दीप
मृत्यु-आस्था तथा फड़फड़ाती जीवन-यात्रा के
प्रतिमानों के रूप में
नदी सूख जाती है तब इन्सान
छटपटाते हुए
अपनी ही रक्त-कोशिकाओं को टटोलते हैं
रेती उलीचते हैं
और नींद में
माँ माँ कहते हुए
चिल्लाते रहते हैं
नदी किनारे भटकते लोग कभी-कभार
रोटी की खातिर
भटक जाते हैं रास्ता
अनभिज्ञ होते हैं वे
सहमे-से खरगोशों की भांति ही
रास्ता लाँघने के नियमों से
उड़ान-पुल के नीचे झुक-झुककर देखते हैं वे
नदी के साथ उसके ही भाइयों ने किये
विश्वासघात के
स्याह-काले पानी को
ऐसे समय
जाहिर है
निवाला अटकता है गले में
बेटी की चौपट हुई गृहस्थी को देख
वापसी की राह पकड़ते पिता की तरह
अरण्य की राह पकड़ लेते हैं
नदी किनारे भटकते
उदास लोग
***
इल्ली चलाते इंसान का बच्चा
उम्र के नौवें वर्ष में
समझ नहीं थी इसलिए
चिल्लाया था मैं जोर से
‘कैटर-पिल्लर’, ‘कैटर-पिल्लर’
कुएँ के मुँह जितने पहिये
चट लाल रंग और दो लारी भरकर मिटटी
उलेचकर अंजुली में भर लेनेवाला
बाँध की यंत्र-सेना में
नया-नया शामिल
आँख झपकते ही सारी मिटटी छितराकर
धड़धड़ाता हुआ अदृश्य हो जानेवाला
एक स्क्रेपर
जिसके नाम का पता लगने पर
कई बार चिल्ला पड़ा हूँ मैं –
‘कैटर-पिल्लर’ ‘कैटर-पिल्लर’
फिर नौवीं कक्षा में
किसी अंग्रेजी कविता को पढ़ाते समय
कहा था मास्टरजी ने कि
‘कैटर-पिल्लर’ के माने इल्ली होता है
अब जीवन को बूझते समय
समझ में आ रहा है कि
मैं इल्ली चलानेवाले आदमी का बच्चा था
कितना पसीना बहाया
कितना गारा कितनी काली माटी
छहराई रात-दिन
तब जाकर
उग आई मुझसे टहनियां
मैं जिस जगह पर पला-बढ़ा
वहाँ के पंछियों को मैंने
हरे शब्दों से नहलाया
जिन्हें पाठ पढ़ाए
उन सभी बच्चों के स्वप्न में
इल्लियों को छोड़ने की
असहाय कवायद की
कसम से
एक तितली मुझे
इमरान के स्वप्न में भी
उड़ानी थी
उम्र को शैतानियों का शाप था
डायन जैसे हालात ने
उसके गले के
संस्कार के ताबीज को
निगल लिया था
और
उसकी कमीज पर
काले-ठस्स तीरों के चित्र थे
जिनकी नोंक पर बूँदे थी
टपकते हुए रक्त की
किसका बच्चा है इमरान
इसकी पड़ताल करने गया तब
लुकमान भाई
पेड़ के नीचे ट्रैक्टर खड़ा कर
बजरी से भरी ट्राली पर बैठकर
सब्जी के गहरे लाल झोल में
रोटी भिगोकर तोड़ रहा था
मेरे लाख मना करने के बावजूद
बेटे के मास्टरजी आये हैं
इस हुलास में उसने
मुँह के कौर को आधे में ही छोड़ दिया
मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया तब
गले से लिपटे मैले रुमाल से
तीन दफ़ा हाथों को पोंछने के बाद
मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर
वह अपनी ही रौं में
कुछ कहें जा रहा था
और मैं मन-ही-मन बुदबुदाता रहा कि
इन हाथों को गिट्टी पर पटक दूँ
ट्रैक्टर के मुँह पर लाल पोत दूँ
जिन उँगलियों में इतने वर्षों से
पकड़ा था चाक
उन उँगलियों से एक ही बार में चंगिटता हुआ
जोर से चिल्ला पडूँ –
‘कैटर-पिल्लर’ कैटर-पिल्लर’
***
बाँध-1
और इस नंगी-बूची वीरान
निर्जन टेकरी पर
पंछियों के सामने
धान के कनके फेंके जाए वैसे
घर चिन्हित हो गए
चाल का एक सुघड़ नक्शा चिन्हित हो गया
बाँध खड़ा करनेवालों की
यह नई बस्ती
गमक उठी
बच्चों-बुजुर्गों से, मेमनों-मुर्गियों से
स्क्रेपर-डोझर-टिपर
दिन-रात चक्कर काटने लगे
गढ़ी को बचाया गया
झोपड़ियाँ पानी के आने से पूर्व ही
बह कर चली गई
बड़े साहब ने
अज्ञात शक्ति से नियंत्रित हाथों से
बाँध की एक रेखा खिंच दी
और फिर
उस बाँध की विशाल छाया
जहाँ तक पहुँचने वाली थी
जिन पर छितरने वाली थी
जिनके पास जमीन का बित्ताभर टुकड़ा और
बर्तन-बासन थे टूटे-फूटे
जिनके पास केवल
लकड़ी छिलने केऔजार थे
जिनके पास लोहा गलानेवाली
केवल धौंकनी थी
जिनके पास मजदूरी करनेवाले
हाथ-पाँव तथा सिर थे
धूप-बारिश का स्वागत करती
झुग्गियाँ
और मात्र तन भर को ढक सके
इतने कपड़ों वाले बाल-बच्चे थे
उन सभी के लिये
एक मौत की रेखा खिंच दी गई
अपने घड़े-डेगचियाँ उठाएँ
यह उजड़ चुकी बस्ती नष्ट हो गई
बाया अंगूठा सरकारी कागज पर
टिकाकर
चार कौड़ी फटी जेब में डालकर
यह बस्ती गुम हो गई
पंछियों के सामने दाने फेंक दिए जाए वैसे
कुछ घर चिन्हित हुए
कुछ मिट गए
***
बाँध-2
यह करामात नहीं तो
और क्या है ?
एक नीले कागज पर
काली रेखाएँ खिंच दी जाती है
एक खूबसूरत दीवार का
रंगबिरंगी प्रारुप
काँच में सजाकर रखा जाता है
और जादूगर के हाथ पर का रुमाल
आँख झपकते ही जल जाता है वैसे
हाथ-पाँव सूखकर काँटा हो चुके
गरीब बाँध-ग्रस्त आदमी का भविष्य
निमिष मात्र में धूं-धूं कर जल जाता है
यह करामात नहीं तो
और क्या है ?
पाँच सौ साठ रुपये वेतन पानेवाले
किसी क्लर्क की
पुलिस की
तहसीलदार की
पत्नी
पूर्णिमा के दिन
जरी के नक्काशीदार मोर-बूटे की
रेशमी साड़ी पहनकर
बरगद की परिक्रमा लगाती हुई
हर जनम में
इसी पद पर आसन्न पति के
पाने की
कामना करती है
यह करामात नहीं तो
और क्या है ?
तुम्हारा घर पानी में डूबता नहीं है
तुम्हारी जमीन पानी में धँसती नहीं है
तुम्हारा गाँव से कोई नाता नहीं है
कहाँ पर है यह गाँव
पूछने पर तुम साफ़ अकबका जाते हो
किस आदिम आत्मीयता से
तुम्हें बाँध-ग्रस्त का सर्टिफिकेट
बहाल किया जाता है
और डी एड-बी एड की उपाधि पाकर
तुम्हारे शिक्षक बन जाने के पश्चात्
हजारों बच्चों के कल्याण के लिए
तुम अपने प्राण दाँव पर लगा देते हो
यह करामात नहीं तो और क्या है ?
अभी तक
इस बाँध की नींव का अता-पता नहीं है
और किस तरह से
पात्रता-मानदंड विभाग के
चपरासी
क्लर्क
निरीक्षक
कनिष्ठ अभियंता
वरिष्ठ अभियंता
कार्यकारी अभियंता
अधीक्षक अभियंता
सभी के
अपने-अपने गाँवों में
चमचमाते आलीशान
हवादार बँगले
ठाठ से खड़े हो चुके हैं
यह करामात नहीं तो और क्या है ?
तुम्हारे मैले
झुर्रीदार अंगूठों के
कई-कई दफा निशान लिये जाते हैं
जलते जख्मों पर स्याही उड़ेलने की भांति
तुम याचिका के कागजों के पुर्जें थामे
उधार लिये पैसों के सहारे
बसों से शहर के
अनगिनत चक्कर काटते रहते हो
हर बार तुम्हारे सामने नचाई जाती है
काम हो जाने की हरी झंडी
तुम लौट जाते हो
और फिर
तुम्हें घेरने लगता है
नई बसाहट
मंदिर
स्कूल
नए उगते पेड़ का
छाँव का
कोई ठंडा स्वप्न
तुम स्याह अँधेरे में
मेरा घर मेरा घर
कहते हुए चिल्लाने लग जाते हो
और नींद टूटने पर
जो अस्तित्व में नहीं है
उस घर के लिए
रो पड़ते हो
फूट-फूट कर
यह करामात नहीं तो और क्या है ?
***
वरना यह गाँव इस तरह धुँधलाता नहीं
विवशता की पीठ पर
बैठना पड़ा
रुक कहने पर रुकना पड़ा
चलो कहने पर चलना
फिर भी
इस अनचाही भटकन में
आँखें मिचकाते हुए
मित्रता कर ही ली दरख्तों से
पानी परोसनेवाले की आँखों में झाँककर
रीता होने दिया अँजुरी को
और प्यास को बचाकर रखा
दूरदराज की आँखों की खातिर
विवशता थी कि
कहो कहने पर कहा नहीं गया
पहरा था सभी दिशाओं से
इसलिए शब्दों को फरार होना नहीं आया
अनिवार्यता फैली थी आँगन में
इसलिए चार कदम लाँघकर
दानों को चुगा
और उपकार का बोझ ढोया उम्रभर
चारा नहीं था वरना
कौन घर छोड़कर जाना चाहता था
चारा नहीं था
वरना घर की दिशाओं में
कौन लौट आता
अपरिहार्यता ने चोंच ठूंग दी माथे पर
इसलिए जख्मी होकर छलाँग लगाई
तुम्हारे गाँव पर से
चारा नहीं था
इसलिए आँखें भर आई
वरना यह गाँव ऐसा धुंधलाता नहीं था
***
किसी समय के बछड़े का सींग
केवल समन्दर नहीं
नमक और पानी को लाँघकर
इस मिटटी से पीठ फेर लेनेवाले
किसी भी इन्सान को
अब पहले की तरह
उत्कटता से आवाज देने का
मन नहीं होता है
लेकिन रास्ते पर बिछी पलकों को
छुपाना मुश्किल
होता है
मेढ़ पर के आम का बौर
आज भी महमहाता
है
कैरियों का निशाना साधनेवाली
टोली का कोई सदस्य
मिलनेवाला
है आज
मात्र इतना
भर जान लेने से
हवाईजहाज से परिंदे उड़ते हुए
उतरेंगे अपने
आँगन में
इस आस से भरा
पके बालों वाला आदमी
झाँकता रहता है उदास खिड़की से
और तुम
यहाँ की धूल-गंदगी को
नाक-भौं सिकोड़ते हुए
ऐसे ठाठ से
आते हो
जैसे ठहरे
हुए हो किसी लॉज में
इस घर ने बिछाई हुई होती है
अपनी ऑंखें
तुम्हारे रास्ते पर
और तुम्हारे तेवर ऐसे
जैसे उतरे हो
किसी ग्रह पर से
ऐसे में लगने लगती है घुन
बूढ़े के स्वप्न में निद्रिस्त
पिता के नसीब को
और
पूरी उम्र
अपने खून को सूखा देने के बाद अब
उसी का किसी समय का बछड़ा
अपने धारदार सिंग लिये
तेजी से लपकता है
उसके थकेहारे कलेजे की दिशा
में
***
पंखों को ढूँढनेवाला इंसान
अपनी पसलियों को टटोलते हुए
पंख तलाशने वाले
उन्हें न पाने पर
हाथ को ही पंख की तरह
हिलानेवाले दुःखी इन्सान को
सम्मोहित करनेवाला आधा ग्लास आसव
और
अंजल भर सिगरेट का धुआँ
कबूल करना पड़ता है
उस धुएँ में टूटे पंख का
रेशमी फाया लहराता है तब
अपने हाथों की बर्फ की पेटी को खोलकर
सहेजकर रखना पड़ता है
मिटटी में सहजता से घुल जानेवाली
किसी प्रच्छन्न कविता को
अपने ही लोगों द्वारा घोंपे गए
इन्सान के दिखने पर
बहुत सावधानी से निकालना पड़ता है
उसकी पीठ में धँसे छुरे को
अंधड़-तूफान में फरफराती
मोमबत्ती के इर्दगिर्द
अँजुरी को धरा जाए
वैसे जी-जान से
सम्भालना पड़ता है
अपने आत्मीय कवि को
इस निर्मम
समय के अंधकार में
***
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