अनुनाद

कुमाउनी लोक-साहित्य में घुघुत- संजय घिल्डियाल

पाश्चात्य ज्ञान मीमांसा मुख्य रूप से सामाजिक परिदृश्य तथा प्राकृतिक क्षेत्र के मध्य विरोध पर आधारित है।1 ऐसा विरोध पारिस्थितिक परिप्रेक्ष्य को नितांत रूप से दरकिनार कर देता है। किसी सामाजिक समूह के अध्ययन के दौरान उसके सामाजिक/सांस्कृतिक क्षेत्र की व्याख्या में सामान्यतः पारिस्थितिक ढाँचा/ ताने बाने- पादप, जन्तु, जल, मृदा-आदि का अंकन नहीं के बराबर होता है। फिर भी, हाल के वर्षों में सामाजिक सिद्धान्त ने सामाजिक यथार्थ के निर्माण में पारिस्थितिक यथार्थ को जोड़ने की आवश्यकता /अनिवार्यता को जागृत किया । सामाजिक यथार्थ के निर्माण में पारिस्थितिक आधारभूत ढाँचा/ ताना-बाना सामाजिक-सांस्कृतिक व वैचारिक प्रवृत्तियों को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण सूत्र प्रदान करता है । सामाजिक यथार्थ को समझने के लिए सामाजिक पारिस्थितिकी ने स्वयं को पाँचवें आयाम के रूप में स्थापित किया है। अन्य चार आयाम हैं- सामाजिक संरचना, अर्थव्यवस्था, राज्यतंत्र व संस्कृति (गुहा 1989: 4-5 )।

सामाजिक अभिव्यक्ति व उसकी पारिस्थितिकी वास्तविकता के अनुपूरक पहलू हैं। सामाजिक पारिस्थितिकी को किसी समाज व उसके पारिस्थितिक आधारभूत ढाँचे को  स्वतंत्र तटस्थ अस्तित्व के रूप में देखने के बजाय दोनों को एक अंतर्क्रियात्मक सिलसिले के रूप में देखा जाना चाहिए एक ऐसा सिलसिला जो दोनों (पारिस्थितिक ढाँचा एवं समाज) को ही परिवर्तित/अनुकूलित करता है। लोकसाहित्य2, एक सामाजिक अभिव्यक्ति के सदृश, को इसलिए उसके मूल स्थान से पृथक नहीं किया जा सकता । लोकसाहित्य को साहित्य, जो दैरिदा के शब्दों में ‘लेखन क्रिया व अध्ययन क्रिया का एक सिलसिला है’ (दैरिदा, जे. 1992: 2)3, के रूप में नहीं देखा जा सकता है। वस्तुतः यह समुदाय के साझे अनुभवों की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। किसी क्षेत्र का लोकसाहित्य अपने पारिस्थितिक ताने-बाने के सन्दर्भों, रूपक व प्रत्यक्ष दोनों से लबरेज़ होता है।

यहाँ हमारा प्रयास कुमाऊँ के लोकसाहित्य में घुघुत पक्षी व घुघुत के माध्यम से किए गए निरूपण को चिन्हित करना है।4 यदि हम गाडगिल व गुहा के जनसंख्या के वर्गीकरण का अनुसरण करें तो कुमाऊँ क्षेत्र की आबादी को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। – पारिस्थितिक जन (ecological people) व पारिस्थितिक शरणार्थी (ecological refugees)।5 क्षेत्र के सामाजिक राज्यतंत्र का पारिस्थितिक जन स्त्री प्रधान है।6 हिमालयी क्षेत्र में महिलाएँ ही प्रकृति तथा इसके संरक्षण के लिए चिंतनशील हैं, जबकि पुरुष रोजगार के लिए दूरस्थ स्थानों पर चले जाते हैं (द्विवेदी 2000 : 17-18)। अत: हिमालयी क्षेत्र में पुरुष अधिकांश रूप से पारिस्थितिक शरणार्थी की श्रेणी में आते हैं।7

गुगल से साभार

कुमाउँनी लोकसाहित्य में अनेकानेक पक्षियों का उल्लेख है। उदाहरणत: मोनाल8, तीतरी, शुक, कव्वा, गौतेली, कफुआ, हुट-हुटिया आदि।9 इस क्षेत्र में घुघुत (भारतीय चितकबरा फाख्ता, पेडुकी) की बहुलता तथा विस्तृत क्षेत्र उपलब्धता के कारण शायद कुमाउँनी लोकसाहित्य में इसका उल्लेख खुल कर हुआ है। इसके प्रतिनिधित्व का वर्ण पट काफी विस्तृत है – दार्शनिक मसलों से लेकर सांसारिक मसलों तक।10

क्षेत्र के लोकगीतों में घुघुत के काफी संदर्भ प्राप्त होते हैं।11 एक लोकगीत में पृथ्वी तथा आकाश के निर्माण सम्बन्धी विचार मिलता है: 

घुघुत रौत्याली द्वि भाई बहिनीं पंखी पंख्यानी

भाई स्‍ले लै पंख्यानी को गरभ सिटझो

अन्ड दीनीं को महिनाँ ऐग्यो, पेड़ दरसन नीं भयो,

पंख्यानी असन्द आई ग्यो ।

सतयुग में सब सतबन्दी थिया,

पंख्यानी लै सत् फुकार् यो ।

पंख्यानी सत लै बीच तलों में गोगिना डाली उपजिग्यो,

यो पंख्यानी लै द्वी हाड़ो टोरी बेर टन-मन बनायो

एक अण्ड पैद करी बेर भगीवान कैं चड़ायो ।

दुसरो अन्ड पैद करी पानी में गिरी ग्यो ।

अन्डो त्रुटी बेर दो कुपिया होइग्यो-

माथ को कुपिया आसमान बनियो

मुनिको कुपिया पिरथी बनियो ।

(जोशी 1971 : 41 )

 निर्माण की धारणा निम्नवत् है:

देवताओं के बारम्बार प्रयासों के बाद भी पृथ्वी तथा आकाश का निर्माण नहीं हो सका। दो घुघुत पक्षी सहोदर थे। नर की छाया से मादा गर्भवती हुई। प्रसव काल नजदीक आया, अण्डे देने के लिए वृक्ष की आवश्यकता हुई। पर वहाँ अण्डे देने के लिए कोई स्थान नहीं था। क्योंकि यह सतयुग था, सभी प्राणी निर्मल व धार्मिक थे। मादा घुघुत ने सत् का आहवान किया, जिसके फलस्वरूप शून्य से शाखाएँ उत्पन्न हुई। मादा ने दो शाखाएँ तोड़ीं और घोंसले का निर्माण किया। पहला अंडा प्रथम / आदि पुरूष को उपहार स्वरूप दिया। दूसरा अंडा नीचे गिरा और दो भागों में विभक्त हो गया। ऊपरी भाग से आकाश का और निचले भाग से पृथ्वी का निर्माण हुआ ।

इस निर्माण के मिथक में घुघुत की भूमिका महत्व की है। इस निर्माण के मिथक की सादृश्यता मनुस्मृति में उल्लेखित ब्रह्माण्ड (golden egg) के साथ-साथ विश्व अण्ड (world egg) के हेलिनिस्टिक मत से भी है। प्रत्येक में दार्शनिक / सांकेतिक मत है -शून्य से अस्तित्व का प्राक्ट्य । अतः भारतीय शास्त्रीय परम्परा तथा कुमाउँनी लोक परम्परा के मध्य एक समानान्तर सम्बन्ध है ।12 इस विचार में भी घुघुत के संदर्भ में तथ्यपूर्ण ज्ञान गढ़ा हुआ है, अर्थात् ये दो ही अण्डे देता है व इसका घोंसला शाखाओं का

एक ढीला मंच है

कुमाउँनी लोकसाहित्य के ऋतु गीतों में के घुघुत के सर्वाधिक संदर्भ मिलते हैं, यथा:  

ए निं बासा घुघूति रून झून,

म्यारा मैती का देसा रून झून,

 मेरी ईजु सुणैली रून झून,

 ए निं बासा घुघूति रून झून।

 पारा धारा का रूखा का मूंणी 

कै चाणैछी पगली तु ऊड़ी

 तेरि दासा देखी लागि जांछौ,

 मैं निसासा घुघूति रून झून ।

 ए निं बासा घुघूति रून झून,

 काटि खांछ गाड़ को सुसाट,

 मैं चानै रै गयूं वीको बाट,

 वे उठी छ परान सुवै की,

मैं उदासा घुघूति रून झून।

 ए निं बासा घुघूति रून झून।

 मेरि ईजु सली रून झून ।

 म्यारा मैती का देसा रून झून । 

खेड़ि खांछी भागी तेरि बांणी,

 वेइ मरी इकली परानीं,

 को बतालो मेरी हइ गेछ,

 कसि दासा घुघूति रून झून 

ए निं बासा घुघूति रून झून,

म्यारा मैती का देसा रून झून,

 मेरी ईजु सुणैली रून झूना ।

 (जोशी 1971 : 175-177)

यह लोकगीत एक कुमाऊँनी स्त्री की अपने मायके के प्रति व साथ ही साथ अपने अस्तित्व की कठोरता के प्रति उत्कण्ठा को प्रकट करता है। इस गीत में एक विवाहिता घुघुत से निवेदन करती है कि उसके मायके में अपनी रूदन भरी आवाज न करे जिससे उसकी माँ उदास हो जाएगी। वह उससे (घुघुत) पूछती है कि वो देवदार के चारों ओर क्यों मंडरा रही है । क्या है जिसे वह ढूँढ रही है? वह महिला कहती है कि घुघुत के दुःख से वह उदास हो जाती है, और उसका हृदय दुःख से भर जाता है। छोटी पहाड़ी जल

धारा का कल्लोल हृदय विदारक है। महिला चैत्र (मार्च-अप्रैल) के महीने में अपने भाई की प्रतीक्षा करती है परन्तु वह दिखाई नहीं पड़ता। महिला विलाप करती है: मेरी माँ को कौन मेरी दयनीय दशा बतलाएगा। इससे पूर्व कि हम पूर्व में कहे गए लोकगीत पर टिप्पणी करें इसी क्रम में दूसरे ऋतु गीत को देखते हैं जो इसी कला पक्ष का है: 

हो घू घू घू घू, घुघुति चड़ी।

तेरि माया लै यो खाइ परानिं मेरी ।

घुघुति चड़ी, हो घुघुति चड़ी।

तेरी माया लै यो खाई परानिं मेरी ।

डाना काना उड़ उड़ जंगल गजायो ।

फूलि गेछ देना बैना म्योर भायो निं आयो ।

हो घू घू घू घू घुघुती चड़ी।

तेरी बात मैलै सुणी तू सिती भै भूको ।

भायो आयो भिटौली ल्यायो, तीलै वो निं देखो।

घु घू घू घू घुघुति चड़ी।

घुघुति चड़ी हो घुघुति चड़ी,

तेरी माया लै यो खाइ परानिं मेरी ।

उड़ उड़ दूर दूर घुर घुर घुरैछी ।

टुइ लगेंछी आग भुर भुरा भुरैंछी ।

हो घू घू घू घू, घुघुति चड़ी।

तेरी माया लै यो खाई परानिं मेरी ।

घुघुति चड़ी हो घुघुति चड़ी।

निंगले कि मांनि भागी, निंगले की मांनी।

दुखिया परानिं तेरी उदासिली बानीं ।

हो घू घू घू घू घुघुति चड़ी।

तेरी माया लै यो खाइ परानिं मेरी ।

घुघुति चड़ी चड़ी हो घुघुति चड़ी।

निंगले कि मान भागी, निंगले की मानी ।

दुखिया परानिं तेरी उदासिली बानीं ।

हो घू घू घू घू घुघुति चड़ी।

तेरी माया लै यो खाइ परानिं मेरी ।

घुघुति चड़ी चड़ी हो घुघुति चड़ी।

निंगले कि मान भागी, निंगले की मानी ।

दुखिया परानिं तेरी उदासिली बानीं ।

घुघुति चड़ी हो घुघुति चड़ी।

 तेरी माया लै यो खाइ परानिं मेरी।

(जोशी 1971: 177-178)

इस लोकगीत में एक विवाहिता विलाप करती है कि सरसों खिल चुकी है परन्तु उसका भाई अभी तक भिटौली (चैत्र-मार्च/अप्रैल और बैशाख – अप्रैल मई के महीने में मायके से भेजा जाने वाला उपहार) लेकर नहीं आया। घुघुत की रूदन भरी आवाज़ उसकी भाई से मिलने की उत्कण्ठा को और बढ़ा  देती है।

उपरोक्त दोनों ही ऋतु लोकगीत और इस कला पक्ष के अन्य लोकगीत इस लोक विश्वास पर आधारित हैं कि घुघुत उस बहिन की भटकती आत्मा है, जो सोई रह गई जब उसका भाई भिटौली लेकर आया था। उठने पर उसे एहसास होता है कि उसका भाई आया और चला गया। उससे न मिल पाने और उसका सत्कार न कर पाने के दुःख में उसकी मृत्यु हो जाती है। घुघुत के रूप में वह पुनर्जीवित होती है। चैत्र मास में ही घुघुत का मैदानी क्षेत्र से पर्वतीय क्षेत्र की ओर प्रवसन होता है।

यहाँ पारम्परिक / शास्त्रीय हिन्दू मान्यता में आत्मा के देहान्तरण सम्बन्धी अर्थात् पूर्वजन्म की लालसाओं के कारण आत्मा को निचले दर्जे जैसे पक्षियों, पौधों आदि में अधोपतन के साथ एक स्पष्ट समानान्तर सम्बन्ध जान पड़ता है।13 इसके अतिरिक्त, हिमालयी क्षेत्र में स्त्रियाँ केवल खेती में ही प्रमुखता से संलग्न नहीं हैं वरन अकेले ही गृह सम्बन्धी, भोजन, ईंधन, चारे व जल संग्रह करने जैसे कार्यों में भी संलग्न हैं। पुरुष प्रधान यूरोपीय खेती के ठीक विपरीत कुमाऊँ के अर्थतंत्र में स्त्रियों की प्रमुख सहभागिता से विदेशी यात्री तक प्रभावित हुए (कैनेडी, जेम्स 1884 : 239 ) । अतः वह प्राथमिक वृत्तियों (जैसे – जुताई, रोपाई तथा कटाई आदि) में प्रमुख भूमिका तथा अन्य वृत्तियों (जैसे- शिशुओं का लालन-पालन, खान-पान, जल तथा चारे का संग्रह आदि) में अनन्य भूमिका का निर्वहन करती हैं (एम्बर आदि 2000: 325-341 ) । निर्मोही पतियों तथा निर्दयी सासों ने उसकी दशा को और दयनीय किया।14

बैठि घुघुति वै, तु किले घुरैछी

तेरी घुर घुर मैं किले रूलैंछी

बता कब म्यारा स्वामी घर आला हो

घुघुति उडिबेर बता कब म्यारा स्वामी घर आला हो

 इस लोकगीत में एक स्त्री घुघुती से पूछती है कि वो उड़ कर बताए कि कब उसके पति घर आऐंगे। पर्वतीय पुरुष समूह का रोजगार की तलाश में मैदानों की ओर का प्रव्रजन उनके गृह से उनके पार्थक्य का कारण है। औपनिवेशिक काल के दौरान उन्नीसवीं सदी के मध्य में उत्तराखण्ड में सेना में भर्ती शुरू हुई, जिसके कारण बड़े पैमाने पर बतौर सिपाही पुरुषों का प्रव्रजन हुआ (गुहा, आर. 1989: 23 ) । प्रव्रजन की यह प्रक्रिया आज भी विभिन्न स्वरूपों में जारी है।

कुमाउँनी स्त्रियों का जंगल से गहन संबंध है।15  यह जंगल दैनिक अनिवार्य वस्तुएँ ही नहीं प्रदान करते वरन् घरेलू कार्यों को अतिसंलग्नता से उलट एकान्त भी प्रदान करते हैं। यहाँ इसी जंगल से वह अपनी दयनीय दशा की अभिव्यक्ति के लिए रूपक चुनती है। घुघुत इन अलंकारिक अभिव्यक्तियों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह ध्यान दिया जाना अत्यंत दिलचस्प है कि अधिकांश लोकगीतों में दयनीय दशा की अभिव्यक्ति का रूपक घुघुत की रूदन भरी आवाज है जो स्त्रियों की दयनीय दशा का प्रतिनिधित्व करती है। अतः पर्वतीय भू-भाग की स्त्रियों के अस्तित्व की कठिन परिस्थितियों को यहाँ के लोकगीतों में घुघुत करीब-करीब अनन्य रूप से प्रतिबिम्बित करता है। पुरूष / महिला के प्रकृति के साथ अंतर्संबंधों / अंतर्क्रिया में विभेद दिखाई पड़ सकता है ।16 कुमाउँनी लोकगीतों की वर्णनात्मक पारिस्थितिकी (narrative ecosystem)17  में पर्वतीय स्त्रियों की दुर्दशा की अभिव्यक्ति के वाक्य विन्यास में घुघुत एक रूपग्राम (morpheme) के रूप में पाया जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कुमाउँनी भाषाई संकेतकी में घुघुत का अभिप्राय रूदन भरी आवाज़ से है।

पुरुष द्वारा अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए घुघुत रूपक का प्रयोग विरले ही लोकगीतों में हुआ है। मेला (उत्सव) गीतों के वर्ग में से एक ऐसे ही लोकगीत का दृष्टांत इस प्रकार है:-

ओ तारा का खामा भितेर बण घुघुति को घोल ।

भैंसें की ओसेरि हुनीं त्वे लिजानी मैं लै मोल।

ओ मेरी पराणा, त्वे लि जानी मैले मोल।

खेलि हालीं दांणि सुवा, बण घुघुति को घोल ।

भैंसे की ओसेरि हुन गोठै दिनों पांणी ।

 (जोशी 1971: 251)

यहाँ पुरुष, जो एक स्त्री से विवाह करने का इच्छुक है, घुघुत के घोंसले को देखकर अधीर हो उठता है। वह कहता है कि यदि वो ओसारी होती तो उसे खरीद कर ले जाता और अपने गोठ में पानी देता।

लोकगीतों में घुघुत रूपक का प्रयोग स्त्रियों द्वारा प्रयुक्त रूपक की तुलना में लोकगीतों में पुरुषों द्वारा घुघुत रूपक के प्रयोग से सर्वथा भिन्न है। जबकि स्त्रियों के लिए घुघुत अपने मायके / पति के प्रति विरह वेदना का प्रतिनिधित्व करता है, पुरुषों के लिए घुघुत घोल (घोंसला ) प्रेम का प्रतीक हो जाता है। अतः कुमाऊँ की वर्णनात्मक पारिस्थितिकी में घुघुत की अर्थवेत्ता स्त्री / पुरुष अभिव्यक्तियों में रूदन / प्रेम के अनुरूप पृथक पृथक है।

कुमाऊँ की वर्णनात्मक पारिस्थितिकी में घुघुत मुहावरों/ लोकोक्तियों रूपी अभिव्यक्ति में भी चिन्हित होता है। ऐसे प्रतीकात्मक वर्णन (symbolic narrative) में सामाजिक परिदृश्य प्रतिबिम्बित होता है और ये अभिव्यक्ति को अनुप्राणित कर देते हैं। जोशी, (1971), पाण्डेय, (1985), पालीवाल (1985) एवं काण्डपाल व काण्डपाल (2002) द्वारा कुमाउँनी लोक परम्परा में प्रयुक्त मुहावरों/ लोकोक्तियों को सूचीबद्ध किया गया है। साथ ही इन्हें क्षेत्र के सामाजिक परिदृश्य में जोड़ने का प्रयास भी किया गया ( जोशी, कृष्णानन्द, 1971:36-37, 379-400; पाण्डेय, त्रिलोचन, 1985 : 222-259)18 

कई लोक कहावतों में पक्षी प्रतीकों का उपयोग अभिव्यक्ति के लिए हुआ है।19 घुघुत के प्रतीक के रूप में प्रयोग के हम तीन उदाहरण प्रस्तुत करते हैं: ‘गौणी घुघुती’ अर्थात् व्यक्ति की गौण स्थिति/निरर्थकता (पालीवाल 1985 : 87 ) । यह कहावत शायद किसी वस्तु की प्रचुरता (जैसे इस क्षेत्र में घुघुत की) की साइकिक प्रवृत्ति से उपजती है कि जो प्रचुर है वह कम महत्वपूर्ण है अर्थात किसी वस्तु की प्रचुरता / दुर्लभता उसके निरर्थक / सार्थक होने का प्रतीक है। लोक अभिव्यक्ति में घुघुत का दूसरा उदाहरण है: ‘घुघुताक मुनल फुटन’ अर्थात् दुरूह परिस्थितियों से परिपूर्ण जीवन। घुघुत जैसा कि हम पहले कह चुके हैं दुःख का प्रतीक है। अन्तिम उदाहरण है: ‘घुघुत जी उड़ खाँण’ अर्थात् घुघुत जैसा नोच के खाना / निर्दयता पूर्वक कार्य करना (काण्डपाल व काण्डपाल 2002: 224 ) । अतः घुघुत लोकमन की अभिव्यक्ति का महत्त्वपूर्ण भाग है।

लोकसाहित्य में पक्षियों को प्रतीक के रूप में उपयोग करने या उससे सम्बन्धित अनेक आख्यान कथाएँ मिलती हैं। एक लोककथा ‘घुघुति मैं सिती’ का कथानक एक लोकगीत, जिसका ज़िक्र किया जा चुका है, से मिलता है (पाण्डेय, 1977 : 275)। यही लोक कथा एक अन्य शीर्षक ‘भाई भूखों मैं सिती’ (अर्थात् भाई भूखा लौटा मैं सोई रह गई ) से भी जानी जाती है (जोशी, 1971:360-363)। ‘ज्यूं हो’ शीर्षक वाली एक कथा का ज़िक्र पहले किया जा चुका है (देखें टिप्पणी संख्या 14 ) ।

कुमाऊँ के लोकसाहित्य में विभिन्न गीत गाथाएँ मिलती हैं।20  कुमाउँनी लोकसाहित्य में सर्वाधिक ज्ञात लोकगाथा मालूशाही है। क्षेत्र में इस लोकगाथा के विभिन्न वर्णन मिलते हैं ( पाण्डेय, 1985 162) और यह शायद पारिस्थितिक स्थानीकरण (अर्थात क्षेत्र की पारिस्थितिकी के अनुरूप वर्णन में विभिन्नता)21  का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसका मुख्य विषय है मालूशाही राजकुमार और एक वणिक कन्या राजुला के मध्य प्रेम । राजुला और मालूशाही दोनों का जन्म एक स्थानीय देवता बागनाथ की कृपा से हुआ बताया जाता है। बागनाथ दोनों प्रेमियों की माताओं के स्वप्न में एक ही समय प्रकट हुए और उन्हें निर्देशित किया कि वो संतान प्राप्ति के लिए उनके मंदिर के दर्शन करें ( यह दिलचस्प है कि देवता ने माताओं को निर्देश दिया कि जो भी पहले पहुंचेगा उसे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त होगा, अतः पुत्र प्राप्ति, अन्तर्निहित तौर पर, कन्या की तुलना में एक बेहतर प्रस्ताव है)। यह प्रेमियों के पार्थक्य की कथा है। गीत गाथा के एक वर्णन में दोनों प्रेमी अनेकानेक प्रयत्नों के बावजूद नहीं मिल पाते और घुघुत व घुघुति में कायान्तरित हो जाते हैं। दूसरे वर्णन में जब मालूशाही अपनी प्रेमिका की तलाश में निकलता है तो वह घुघुत का रूप धारण करता है। इस गीत गाथा के अन्य वर्णनों में भी घुघुत चिन्हित है ( उपाध्याय, 1979 146-184 ) । जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, कुमाउँनी लोकसाहित्यिक सांकेतकी में घुघुत का अभिप्राय रूदन से है। इसका एक उदाहरण मालूशाही से भी उद्धृत किया जा सकता है:

मुखड़ी चमकण लागी, पुन्यू कसी जून।

पालंग की आंठी जसी, पीरू कसी बून,

हिसालू की तोषी जसी, फ्यां जसी पोली

हंस की गरदन वीकी, घुघुती चारी रोली ।

यौवनावस्था में राजुला के रूप का वर्णन उपमालंकार के माध्यम से किया गया है। उसका मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान चमकने लगा है, उसका शरीर पालक के गठ्ठे के समान है तथा चीड़ के छोटे पादप के समान है। वह हिसालू के फल के समान है तथा फ्यां की कलियों के समान है। उसकी ग्रीवा हंस के समान है तथा उसका रोना घुघुती के समान है। (उपाध्याय, 1979 379-80 ) ।

घुघुत कुमाऊँ क्षेत्र में प्रचुरता से पाया जाता है और कुमाउँनी लोकसाहित्य के भाषायी संकेत में घुघुत के संदर्भों की भरमार है। लोकसाहित्यिक परम्परा में यह उस धारणा की अभिव्यंजना करता है जो उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि पृथ्वी और आकाश की रचना साथ ही साथ किसी निरर्थकता की भी, जैसाकि उक्ति ‘गौणी घुघुति’ संकेत करती है। सर्वाधिक संदर्भों में, यद्यपि, यह रूदन, निराशा, लालसा और भय, खास तौर पर स्त्रियों के लिए, की अभिव्यंजना करता है। संस्कार गीतों, जो नामकरण, विवाह आदि में गाये जाते हैं, में घुघुत की अनुपस्थिति को देखा जा सकता है और इसका जिक्र मेला गीतों में दुर्लभता से मिलता है।

टिप्पणियाँ

1. 2002 दिसम्बर 4.7 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में Environmental History of Asia पर आयोजित सेमीनार में प्रस्तुत किये गये लेख का हिन्दी रूपान्तरण। अनुवाद : डॉ. आशुतोष प्रताप पाण्डे ।

2. व्यक्ति अथवा समूह को विश्लेषण की इकाई मानने के संदर्भ में सामाजिक सिद्धान्त में मतैक्य है। एमील दुरखीम (1858-1917),आधुनिक समाजशास्त्र के एक जनक, का मत है कि सामाजिक तथ्य का निरूपण अन्य सामाजिक तथ्यों के सापेक्ष किया जा सकता है। अर्थात् सामाजिक व्याख्या के लिए सामाजिक तथ्य पूर्ण है।

3. लोकसाहित्य एक विस्तृत वर्ग है जिसमें किसी सांस्कृतिक समूह के सभी मिथक, पौराणिक कथाएँ, गीत गाथाएँ, कूट प्रश्न, जनोक्ति तथा अंधविश्वास निहित हैं (इन्ड्स, एलन 1989: viii) । लोकसाहित्य/लोकवार्ता (folklore) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम विलियम जे. टौम्स के लन्दन के एथेनोम में 22 अगस्त, 1846 को प्रकाशित एक पत्र में हुआ (हर्सकोवित्स (1955) 1995: 265)1

4. यह नहीं कहा जा सकता कि साहित्य के प्रकरण कुमाउँनी लोकसाहित्य का हिस्सा नहीं हैं, उदाहरणत: जैसा कि देखा गया है कि घटनाएँ एवं पात्र रामायण/ महाभारत से संबंधित हैं, फिर भी कुमाउँनी लोक परम्परा ने वाक् परम्परा के माध्यम से जनप्रिय उपभोग के लिए इन्हें उपलब्ध कराया है।

5. पक्षी हर काल व क्षेत्र की संस्कृति, साहित्य व लोकसाहित्य में उल्लिखित किये गये हैं। फ़ाख़्ता / पडुकी/घुघुत कई संस्कृतियों में प्रतीक चिन्ह के रूप में जाना जाता है। मैसोपोटामिया की सभ्यता में मातृत्व, ग्रीक में औरेकल, इस्लाम में यह मुस्‍लिम को इबादत के लिये बुलावे और ईसाई धर्म में वर्जिन मैरी से सम्बद्ध माना जाता है। यह पिकासो के प्रसिद्ध चित्रांकन The Dove of Peace में शान्ति दूत के रूप में दर्शाया गया है, वहीं प्राचीन जापानी सभ्यता में यह युद्ध सन्देशवाहक के रूप में देखा गया है।

6. गाडगिल और गुहा ने भारतीय आबादी को सर्वहारी (शहरवासी, आधुनिक सुविधाओं जैसे बिजली, पानी, टी.वी. आदि का उपभोग करने वाले), पारिस्थितिक जन (ग्रामीण तथा अधिकांश निरक्षर, बृहत परिवार वाले, स्त्रियों का अधिकांश समय ईंधन तथा चारे की तलाश में व्यतीत होता है) और पारिस्थितिक शरणार्थी (मुख्यतः पुरुष, जो शहरों को काम की तलाश में जाते हैं) में विभाजित किया है ( गाडगिल व गुहा 1995 : 3-5 ) ।

7. यह शायद उत्तराखण्ड के चिरपरिचित चिपको आंदोलन में स्त्रियों की प्रमुख भूमिका की व्याख्या करता है। वृक्षों को कटान से बचाने के लिए स्त्रियां  वृक्षों से लिपटने को तैयार हो गईं। महिलाओं के पारिस्थितिकी के बावत पारम्परिक ज्ञान के पराभव के संबंध में वंदना शिवा का मत है कि महिलाओं द्वारा चार पांच हजार वर्षों में संचित खेती संबंधी ज्ञान को पाश्चात्य वैज्ञानिकों द्वारा दो दशकों से भी कम के अंतराल में खत्म कर दिया गया। इससे पारिस्थितिक असंतुलन में तेजी आई (शिवा, वंदना 1989 : 105)।

8. एस. डी. पन्त ने अपने महत्वपूर्ण कार्य हिमालय की सामाजिक अर्थव्यवस्था में हिमालयी स्त्रियों की दशा का उल्‍लेख किया है (पन्त, एस. डी. 1935)।

9. मोनाल हिमाचल तथा उत्तराखंड का राज्य पक्षी और नेपाल का राष्ट्रीय पक्षी है।

10. रामायण के अरण्यकाण्ड में सीता ने विभिन्न रूपकों का प्रयोग कर राम एवं रावण के मध्य भेद किया है, जिसमें से कुछ पक्षियों के रूपक हैं। वह दोनों के मध्य विभेद के लिए द्विक पक्षी समूह, जो बुराई और अच्छाई के प्रतीक हैं, का दृष्टान्त देती है : तुम्हारे (अर्थात रावण) और श्रीराम के मध्य उतनी ही विषमता है जितनी कि एक कव्वे और गरूड़ के मध्य, एक जलकाक और मोर के मध्य, तथा एक गिद्ध और हंस के मध्य (रूक्मणि, टी. एस. 2000 : 108) ।

11. कुछ प्राक्-गुप्त काल की पंक्तियां, जो चीनी भाषा में संकलित हैं, उस काल के लोकगीत प्रतीत होते हैं। इनमें से एक घुघुत से संबंधित है: मेरी चिड़िया, पडुकी, तुम तिल के बीज, चावल, ज्वार और शेष वस्तुओं का संग्रह अपने लिए कर लो उन्हें किसी पहाड़ी की चोटी पर उगे वृक्ष पर ले जाओ और उस पर अपने लिए ऊँची और उज्ज्‍वल नीड़रूपी गुहा बनाओ, जब विधाता वर्षा ऋतु देंगे, तब तुम निवास, भोजन और जल के विषय में विश्वस्त रहोगी (बाशम, ए. एल. 1972: 414 )।

 12. सामान्यतः प्रसंग के आधार पर लोकगीतों का वर्गीकरण किया जाता है जैसे धार्मिक संस्कार, ऋतुगीत, कृखेती उत्प अथवा पर्व, मेला, न्योली, जोड़, बालगीत इत्यादि। अधिक जानकारी के लिए देखें पाण्डेय, (1985 75-151), जोशी, (1971)1

13. वैदिक मतानुसार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक प्रजननात्मक घटना है (ऋग्वेद ग, 129) और इसकी उत्पत्ति हिरण्यगर्भ से हुई (ऋग्वेद ग, 121)। ऋग्वेद की प्रसिद्ध उत्पत्ति सम्बन्धी ऋचा (ग, 129) में शून्य से प्राक्ट्य का वर्णन है (बाशम, ए एल. 1984: 249-250)। कुमाऊँनी लोकसाहित्य में निर्माण की यह अवधारणा गरूड़ व गरूड़ी के माध्यम से भी कहीं गयी है ( पाण्डेय 1985 211-212 )।

(अ) 1927 में बेलजियन पादरी व खगोलशास्त्री जॉर्ज लैमात्र ( 1894-1968) ने ब्रह्माण्ड की रचना एक आदि आग्नेय पिंड से होने की बात कही थी। यही प्रतिपादन बाद में बिग बैंग सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत हुआ (कुशिंग, जे. टी. 1998: 263)। बिग बैंग की व्याख्या में हमें शून्य के सिद्धान्त की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है (हैलिडे, रैस्निक व वालकर 2001 : 1137 ) ।

(ब) कार्लो गिंजबर्ग के कार्य में मैनोशियो को, अन्य कार्यों के अतिरिक्त, इस बात के लिए भी आरोपित किया गया कि वो बह्माण्ड की उत्पत्ति का आधार सड़न व गलन की प्रक्रिया को मानता था ( गिंजबर्ग, काल 1980 xi ) ।

14. देहान्तरण व पुनर्जन्म संबंधी हिंदू मान्यताओं के लिए देखें (बाशम, ए. एल. 1975: 76-82 ) । 15. कई लोककथाओं में निर्दयी सासुओं का जिक्र किया गया है। उदाहरण के लिए लोक कथा ‘ज्यूं हो’ (अर्थात् ‘मैं जाऊ’) उस स्त्री की कथा है जो अपनी सास से मायके जाने के लिए आज्ञा चाहती है। सास कहती है वह घरेलू कार्यों को निपटा कर जा सकती है लेकिन साथ ही साथ विभिन्न तरीकों से कार्यों के पूर्ण होने को दुष्कर बना देती है। दिन के खत्म होते-होते स्त्री दुःख से प्राण त्याग देती है व एक पक्षी के रूप में पुनर्जीवित होती है जो ‘ज्यूं हो ज्यूं हो’ के स्वर का उच्चारण करती है ( पाण्डेय, 1985 : 205)।

16. विद्वानों द्वारा अब अरण्य व जंगल जैसी शब्दावली के सूक्ष्म, किंतु सारगर्भित अंतरों को चिन्हित किया जाने लगा है। जिमरमान के जंगल / अरण्य संबंधी विभेद से सहमत होते हुए भी डव (1998) द्वारा जिमरमान के जंगल संबंधी एकात्मक सिद्धान्त के विपरीत जंगल समाज की द्वंद्वात्मकता पर बल दिया गया है।

17. स्त्रियों व पुरुषों के बीच संबंधों को मुद्रा अर्थव्यवस्था के प्रवेश ने विशिष्ट रूप से प्रभावित किया है। इससे उनके प्रकृति के साथ संबंधों में एक द्वंद्वात्मकता उत्पन्न हुई है। पुरुष, महिलाओं की तुलना में, मुद्रा अर्थव्यवस्था में अधिक संलिप्त हैं। स्त्रियां अभी भी गैर मौद्रिक, बायोमास आधारित पारम्परिक अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं। कई दृष्टांतों में एक ही परिवार में मौद्रिक लाभ के लिए पुरुष प्रकृति के अंधाधुंध दोहन में संलिप्त है जबकि यह स्त्रियों की दैनिक ईंधन व चारे की आवश्यकता की पूर्ति को और दुष्कर कर देता है (अग्रवाल, अनिल 1998: 364)। लोक परम्परा का एक उद्गामी पहलू भी है (बोमैन 1992: 29-40 )। इस संदर्भ में यह अत्यधिक रूचिकर है कि पर्वतीय पुरुषों की मद्यपान की प्रवृत्ति, जिससे स्त्रियों की दुर्दशा और बढ़ी है, ने इस उक्ति को जन्म दिया: सूर्य अस्त पहाड़ी मस्त ।

18. वर्णनात्मक पारिस्थितिकी (narrative ecosystem) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम फिलिप ल्यूजेनड्राफ (2000) द्वारा किया गया है।

19. लोकोक्‍तियों के वर्गीकरण के लिए देखें पाण्डेय, (1985: 160-161, सारणी 222 ) 1

20. उदाहरणार्थ – काव जै शिकार मार लुन त बाज को पालन ( यदि कव्वा शिकार मार सकता तो बाज कौन पालता ) (पाण्डेय, 1985: 253)। काव खाणि मन एै तितरि बतै (पालीवाल 1985: 361) (अर्थात इच्छाओं को परोक्ष रूप से व्यक्त करना, तितरी बताना जबकि इच्छा कव्वा खाने की है)। चारो खै गै तितुर चाखुर, जिबाव पड़ मुसभ्याक्कुर (चारा तो चुग गए तीतर, चकोर, आदि, जाल में आ फंसा मुसभ्याक्कुरा (एक छोटा चंचल पक्षी), अपराध किसी का सजा कोई भुगते) (जोशी, 1971: 385 ) ।

21. गीत गाथाओं के वर्गीकरण के लिए देखें पाण्डेय, (1985), उपाध्याय, ( 1979: 26-28)।

 22. कुमाऊँनी लोकसाहित्य में किसी प्रसंग के पारिस्थितिक स्थानीकरण के कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। यथा, रामायण के मूल वर्णन में सीता हरण संबंधी घटना का स्थान निर्वासित राम का आश्रम है वहीं कुमाउँनी रामायण में यह पनघट में परिवर्तित हो जाता है व सीता को एक स्थानीय युवती के रूप में दर्शाया गया है। इसी प्रकार महाभारत के मूल वर्णन में पांडवों तथा कौरवों के बीच उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ। वहीं कुमाउँनी महाभारत के एक विवरण में युद्ध का कारण पांडवों की बिल्ली द्वारा कौरवों की पहाड़ी मुर्गी को मारा जाना बताया गया है (उपाध्याय, 1979: 241-283; पाण्डेय, 1985 :171-179)।

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पहाड़ पत्रिका-18 से साभार

मूल लेख 

Indian Spotted Dove in Kumauni Folklore : Man In India, Vol 89, no 4. pp. 637-646: ISSN 0025-1569

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