अनुनाद

अनुनाद

मराठी कविताएं-  चयन एवं  अनुवाद- विजय प्रभाकर नगरकर


 

     फकीरराव मुंजाजी शिंदे     

 मॉं

माँ एक नाम है 

अपने आप भरा पूरा

 घर में जैसे एक
 गाँव है
,

सभी में मौजूद रहती है

अब इस दुनिया से दूर है

लेकिन कोई मानता नहीं।

मेला खत्म हुआ, दुकानें उठ गई

परदेस में क्यों आंखे नम हुई,

माँ हर दिल में कुछ यादें छोड़ जाती
है

हर दिल जानता है माँ का दिल

घर में जब दीप जले

कोई नहीं देखता उसे

अंधरे में जब वह बुझ जाती है

तब समूचे मैदान में दिशाहीन

मन उसके लिए दौड़ता है,

कितनी फसलें, कितने फासले

मिट्टी की प्यास कब बुझ पाई है।

कितना खोदा है माटी को बार बार

नजर आता है कुआं 

मन के गहरे पाताल में,

इससे क्या अलग है माँ?

घर जब वह मौजूद नहीं 

किसके लिए गोशाला में गाय व्याकुल है

माँ का नाम क्या है

बच्चों की माँ है                                                 

बछड़ों की गाय है

दूध का माखन है

लंगड़े का पैर है

धरती का आधार है

माँ है जन्म जन्मांतर की रोटी है

ना कभी खत्म होती है

 

ना कभी बचती है

***

   शशिकांत शिंदे   

 

समर्पण

अनुभूतियों के सभी दरवाज़े

बंद करने के बाद

धीरे धीरे खुलने लगती है –

संदेह की पुरानी खिड़कियां

 

बहस-दर-बहस का मरहम लगाकर

मिटते नहीं कलह के घाव

बल्कि

और अधिक गहरे होते जाते हैं ।

 

ऐसे समय पोषित करें

मन के संयम के कमल

 

या छाँट दें वृक्ष की टहनी

जो बढ़ रही अनियंत्रित

 

पंछी के निष्कलंक हृदय को

बचाया जाए

निर्णय की कुल्हाड़ी के घात से

 

मैं उसके होने को महसूस करता हूँ

इसीलिए हृदय के द्वार खोलकर

वह मुझसे बातें करता है,

 

मैं उसे सदैव स्वीकार कर लेता हूँ

उसकी हर भूल अनदेखा करके

 

ऊपरी सपाट तल से

समुद्र की तह का पता नहीं लगता

हमें पनडुब्बी बनकर

उसकी तह तक डूबना पड़ता है

 

किसी को समझना

या न समझना

कभी अर्थहीन नहीं होता

या इतना आसान भी नहीं होता,

 

‘ हवा के झोंके पर पत्ता उड़ गया ‘

इस मामूली बात के पीछे

हवा ने समर्पित किया होता है

अपना समूचा अस्तित्व उस पत्ते को,

तब उस पत्ते को अर्थ प्राप्त होता
है

 

हवा के साथ उड़ने का,

 

यह ध्रुवसत्य है कि

समझ के सभी द्वार

समर्पण के आंगन में खुलते है ।

***

    अशोक नायगांवकर   

ज्‍योतिबा

ज्योतिबा

धन्यवाद।

आप उसे

दहलीज के

बाहर ले आये,

क ख ग घ

त थ द ध

पढ़ाया

और

कितना बदलाव आया है ,

अब उसे

दस्तख़त के लिए

बायी अंगुली पर

स्याही लगानी नहीं पड़ती ,

अब वह स्वयं

लिख सकती है ………

मिटटी का तेल स्वयं पर

छिड़कने से पहले

( उसके पीछे रहनेवाले बच्चों को ध्यान में रखकर)

” मैं अपनी मर्जी से

 

जल कर ख़ाक हो रही हूँ”

***

       इंद्रजीत भालेराव   

 

गौरेया

पिताजी कहते थे

काटे हुए नाखून

दरवाजे के सामने

कभी मत फेंकना,

दाना समझकर

चुन लेती है,गौरैया

और

पेट की अंतड़िया टूटकर

तड़पकर मरती है गौरैया,

 

फसल कटाई खत्म होते ही

पिताजी मंदिर जाकर

बंदनवार में अनाज के भुट्टे बांध देते
थे
,

फसल कटाई के दिन

उड़ा दिए गए पंछियों के लिए

पानी का भरा हुआ मटका टांग देते

और पुण्य कमा लेते थे,

 

पंछी होकर भी गौरैया जानती थी

पिताजी का मन

और

फसल कटाई खत्म होने पर भी

 

गौरैया डेरा डालती थी गांव घर आंगन। 

*** 

   ए. आर. देशपांडे ‘अनिल’   

 

आपातकाल

“आपातकाल”

कुछ राते इतनी अंधियारी थी

 

काजल बन जाता

समय ऐसा भी आया था

कुछ भी नहीं बचता,

 

तूफान ऐसा उठा था,

पतवार छूट जाती

तुन्द लहरों ने ऐसा घेरा था

जीवन नाव बच नहीं पाती

 

पागल बनकर कहीं बहक जाता

इतना नहीं था ध्यान

जलकर भस्म होता

किसी भी क्षण

 

हर दांव हार जाता था

मन करता फेक दूँ दाव

दिल पर इतने पड़े थे घांव

सोचता छोड़ दूँ तेरा गांव

 

कैसे निभाया कुछ पता नहीं

समझ आता नहीं था

मेरे पास कुछ नहीं था

सिर्फ तेरा हाथ मेरे हाथों में था।

***

 

3 thoughts on “मराठी कविताएं-  चयन एवं  अनुवाद- विजय प्रभाकर नगरकर”

  1. विजय प्रभाकर नगरकर

    मेरी अनूदित कविताएं प्रकाशित करने हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद।

  2. सुरेश पंत

    सुंदर चयन के लिए विजय जी को साधुवाद। भारतीय साहित्य का भारतीय भाषाओं में आदान-प्रदान सुखद है।

    1. डॉ महादेव एस कोलूर

      आदरणीय विजय नगरकर जी, बहुत सुंदर..,सारी अनुदित कविताएं मूल कविता समान बनी हुई है । हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।

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