अनुनाद

हिन्दी साहित्य और न्यू मीडिया- लीलाधर मंडलोई से मेधा नैलवाल का साक्षात्कार

मेधा नैलवाल – हिंदी साहित्य और न्यू मीडिया के संबंध को आप किस तरह देखते हैं ?

लीलाधर मंडलोईहिन्‍दी और न्‍यू मीडिया के संबंध में सबसे प्रमुख बात जो उभर कर आ रही है, वह यह है कि न्‍यू मीडिया ने हिन्‍दी के प्रचार-प्रसार में वैश्विक स्‍तर पर बहुत ही सकारात्‍मक भूमिका निभाई है। जैसे – हिन्‍दी के बहुत सारे फॉन्‍ट आ गये, हिन्‍दी के बहुत सारे सॉफ्टवेयर आ गये, गूगल के माध्‍यम से आप हिन्‍दी का कई रूपों में मुद्रण कर सकते हैं, टंकण कर सकते हैं, बोलकर कर सकते हैं। इसके अलावा और भी कई नई विधियां आईं हैं, जिनके हिसाब से हिन्‍दी और न्‍यू मीडिया के संबंध लगातार प्रगाढ़ होते जा रहे हैं। समग्रता में यही कहा जा सकता है कि न्‍यू मीडिया ने हिन्‍दी के प्रचार-प्रसार में और उसको विश्‍वव्‍यापी बनाने में और उसको को अंतरभाषीय बनाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई है, उसका कारण यह है कि आज मलयाली के, कश्‍मीरी के, बांग्‍ला के लोग भी अपनी रचनाओं को हिन्‍दी में लाना चाहते हैं और उनके पास लाने का एक ही ज़रिया है- देवनागरी फॉन्‍ट में लाना। अब उसमें कुछ काम करवा के बड़ा मार्केट, जो हिन्‍दी का है, उसमें भारतीय भाषाओं के और विश्‍व भाषाओं के लोग प्रवेश कर सकते हैं। न्‍यू मीडिया ने या जिसको कहें न्‍यू टेक्‍नोलॉजी ने सॉफ्टवेयर के साथ यह सुविधा उपलब्‍ध कराई है।  

मेधा नैलवाल –  सोशल मीडिया पर लेखकों की उपस्थिति से पाठकों की  संख्या पर क्या प्रभाव पड़ा है ?

लीलाधर मंडलोईसोशल मीडिया में यदि आप ये सोचें, जो बहुत गंभीर क़‍िस्‍म के लेखक हैं,उनकी कोई उपस्थिति है, तो वह  बहुत कम है और फेसबुक हो, ट्विटर हो, इंस्‍टाग्राम हो, इस पर जो सीनियर और गंभीर लेखक हैं, जिनका कि नाम है हिन्‍दी साहित्‍य में, वो तो वहां उपस्थित नहीं हैं। आते कौन हैं- जो तीसरी पीढ़ी के लेखक हैं या एक दम नई पीढ़ी के लोग हैं, जिनको अपनी किताबें छपवानी हैं, जिनको लेखक बनना है और जो इस प्रक्रिया में आना चाहते हैं, वो मूल रूप से सोशल मिडिया पर हैं। सोशल मिडिया एक ऐसा माध्‍यम है, जहां आपको ना संपादक की आवश्‍यकता है, किसी से कोई अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं है, जो आप लिख रहे हैं, वो डाल दीजिए यानी लेखक भी आप हैं, संपादक भी आप हैं, कॉपीराइट भी आपका है और तमाम चीज़े आपकी हो गई, लेकिन आप जो लिख रहे हैं, उसका जो मूल्‍यांकन है, वो तो आपने कह‍ीं किया नहीं। उर्दू में इस्‍लाह होती है कि उस्‍ताद से आपको अपना लिखा हुआ जँचवाना पड़ता है और हिन्‍दी में भी कम से कम इतना तो होता ह‍ी है कि आप जिन वरिष्‍ठ लेखकों के साथ बैठते हैं, उनके साथ अपना लिखा साझा करते हैं और उनसे पूछते हैं। ये सारी परम्‍पराएं न्‍यू मीडिया आने के साथ ही बंद हो गयी हैं, इसलिए चाहे भाषा अच्‍छी हो, चाहे ना हो, रचना अच्‍छी हो ना हो, सोशल मिडिया पर है, तो जो पाठक आ रहे हैं सोशल मिडिया पर, वो उसी तरह के हैं, जो इस तरह के साहित्‍य को पसंद कर रहे हैं, क्‍योंकि वो किसी गंभीर साहित्‍य के साथ कभी जुड़ नहीं पाए।  और ये मार्केट का प्रमोशन है, जिसकी वजह से लेखक भी प्रमोट कर रहा है अपनी रचना को , अपनी किताब को और उसने ये कला समझ ली है कि उसको अपने पाठकों तक कैसे पहुंचना है। फेसबुक पर जाने के बाद यदि उसे अपनी पोस्‍ट बूस्‍ट करनी होती है तो वह उसका पेमेंट भी करता है, जितने कॉन्‍टेक्‍ट ग्रुप हैं, उसमें अपनी रचना शेयर भी करता है। तो सोशल मीडिया में जो पाठक आ रहा है, जो गंभीर पाठक नहीं है, जो इन रचनाओं से जुड़कर  अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा रहे हैं, ताकि उनका भी नोटिस लिया जा सके कि वो बहुत अच्‍छे पाठक हैं या वो एक लेखक बनने की प्रक्रिया में हैं। ऐसे लोग वहां आ रहे हैं, जिनका कोई न कोई इंटरेस्‍ट है। बिना इंटरेस्‍ट के तो कोई नहीं आता, क्‍यों आयेंगे वो आपके या मेरे कहने पर, जब वो साहित्‍य पढ़ते ही नहीं रहे  आप उनको बुला रहे हैं, तो उसमें उनको एक ग्‍लैमर दिख रहा है कि इस मीडिया में आप जो लिखेंगे या लाइक करेंगे पूरी दुनिया में जायेगा, लेखक के अलावा, प्रकाशक के अलावा। यह जो आकर्षण है इस वजह से जो आ रहे हैं, वो पाठक नहीं हैं, वो एक तरह के कस्‍टमर हैं, रचना के कस्‍टमर हैं, मूल लेखक या प्रकाशक रचना को इसलिए डाल रहा है क्‍योंकि उसको क्‍लाइंट चाहिए, वो सब्‍सक्राइब करेगा, तो उसे गूगल से विज्ञापन मिलेंगे ।

मेधा नैलवाल –  प्रचार एवं बिक्री के नए मंच न्यू मीडिया ने तैयार किए हैं। इस पर आपके क्या अनुभव हैं ?

लीलाधर मंडलोई- इसमें अनुभव ये हैं कि न्‍यू मीडिया में तो अपार संभावनाएं हैं और वो एक कॉमर्शियल वर्ल्‍ड है। आप उसे कितना एक्‍सप्‍लॉइड कर सकते हैं, कितना समझते हैं ; ये आप पर निर्भर करता है। सारी चीज़े जाकर एक जगह रुक जाती हैं कि जो प्रकाशक है, जो बेचना चाहता है, उसकी पूंजी कितनी है? वो कितना इन्‍वेस्‍ट कर सकता है? तो यह एक तरह का दो ध्रुवों के बीच में कॉमर्शियल प्रपोजिशन है। एक जिसको बेचना है और दूसरा जो पैसा लेकर अपने क्‍लाइंट तक पहुंचाता है। तो इन दोनों के बीच में जो संबंध है, उससे प्रकाशक खुश भी नहीं है, क्‍योंकि वो अभी फ्लिपकार्ट को इसके अलावा अमेजॉन को उपयोग में ला रहा है, वहां आपकी किताब का लगभग जो मूल्‍य है, उसका 70 प्रतिशत इन लोगों के पास चला जाता है।  भंडारण के नाम पर चला जाता है और उनके जो कमीशन हैं, उसके नाम पर। पोस्‍टेज हैं, उसके नाम पर चला जाता है। तो उसके कई तरह के मॉड्यूल हैं। उस मॉड्यूल में अब किसी को अपनी किताब बेचनी है और उसके पास कोई दूसरा विकल्‍प नहीं है, सोशल मीडिया के अलावा, तो जो 70 प्रतिशत का पेमेंट उसे फ्लिपकार्ट को या अमेजॉन को करना होगा, तो ये पैसा आयेगा कहां से?  किताब की कीमत को बढ़ाकर। जिस किताब की कीमत 100 रूपये है, उसको जब तक 200-250 आप नहीं करेंगे तो आप बिक्री साइट्स को पेमेंट नहीं कर सकते हैं। तो इस तरह से ये न्‍यू सोशल मीडिया है, न्‍यू मार्केटिंग एजेंसी हैं, उनके और प्रकाशक के बीच में ये जो एक रिश्‍ता है, वो कैसे पूरा होगा? क्‍योंकि आपको अपनी किताबों की कीमत बढ़ानी पड़ेगी, उसके लिए रीजंस क्रियेट करने पडेंगे, तभी जाकर उसका ख़रीददार भी मानेगा कि ये कीमत सही है। यह एक बहुत ही द्वन्द्धात्‍मक स्थिति है आज के मार्केटिंग वर्ल्‍ड में मीडिया, प्रकाशन और मार्केटिंग को लेकर ।       

मेधा नैलवाल – लेखक, प्रकाशक और पाठक किताब की इस आधारभूत संरचना में न्यू मीडिया ने नया क्या जोड़ा है ?

लीलाधर मंडलोई- इसमें जोड़ने की जो बात है, तो पाठक के लिए सूचना को जोड़ा, प्रकाशक के लिए व्‍यापार को जोड़ा, व्‍यापार की संभावनाएं बढ़ गईं। प्रकाशकों को नए प्‍लेटफॉर्म मिल गए बेचने के, पहले तो ऑनलाइन ही बेचते थे, अब तो किंडल इत्‍यादि कई जगह हैं, जिनमें एक ही रचना को आप लेखक से ख़रीद रहे हैं  रॉयल्‍टी के आधार पर, लेकिन जितने प्‍लेटफॉर्म पर प्रयोग कर रहे हैं, उन प्‍लेटफॉर्म्स की रॉयल्‍टी तो दे नहीं रहे हैं। रॉयल्‍टी तो वही 7.5, 10 या 15 प्रतिशत है। आप रॉयल्‍टी तो वही दे रहे हैं, जो प्रिंट माध्‍यम के लिए तय है, लेकिन आप ऑनलाइन माध्‍यमों  में भी बेच तो रहे हैं, तो उसका पैसा तो लेखक को मिल ही नहीं रहा है। तो ये जो संबंध है, ये अपने आप में बहुत रहस्‍यात्‍मक है, जो लोगों को मालूम ही नहीं है। मैंने अपनी रचना आपको दी और मैंने कहा कि ये रचना सिर्फ़ प्रिंट के लिए नहीं है, जितने भी ऑल न्‍यू मीडिया राइट्स हैं, उसके हिसाब से मेरा कॉन्‍ट्रेक्‍ट बनाओ, तब मैं साइन करूंगा। वो कोई प्रकाशक करता ही नहीं, क्‍लॉज रहता है, लेकिन उसका कोई भुगतान नहीं होता, क्‍योंकि उसमें स्‍पेसिफाई नहीं किया गया है कि ये जो आपको रॉयल्‍टी दी जा रही है प्रिंट की और  प्रिंट मीडिया के अलावा जो अन्‍य प्‍लेटफॉर्म हैं, उसकी कितनी रॉयल्‍टी देंगे आप, तो उसका स्‍टेटमेंट ही नहीं बनेगा। लेखक को ये सारी चीज़े मालूम नहीं, इसलिए लेखक इसी बात पर प्रसन्‍न हो जाता है कि चलो किताब छप गयी, लेकिन उसको अपने राइट्स के बारे में पता ही नहीं है, ये मूल बात है ।    

मेधा नैलवाल –  क्या न्यू मीडिया ने पुस्तकों के कॉपीराइट पर कोई प्रभाव डाला है ?  सोशल मीडिया और ब्लॉग पर कॉपीराइट अधीन साहित्य बिना पूर्वानुमति या पारिश्रमिक के छपता है, इससे प्रकाशन के हितों पर क्या प्रभाव पड़ा है।

 लीलाधर मंडलोई-  ये जितना भी ऑनलाइन व्‍यापार है, यहॉं तक कि यूट्यूब, गूगल इत्‍यादि। इन माध्‍यमों पर जो कुछ भी हम डालते हैं, वो अवेयर हैं क्‍योंकि वह ग्‍लोबल प्‍लेटफॉर्म हैं। ग्‍लोबल में हिन्‍दुस्‍तान के या थर्ड वर्ल्‍ड देशों के अलावा अन्‍य सारे देश बहुत स़ख्‍त हैं अपने कॉपीराइट को लेकर। जब कोई एग्रीमेंट होता है और लेखक को ही नहीं मालूम तो उसमें ऐसे प्रोवीजन डाल दिए जाते हैं कि वो फिर सि‍र्फ़ ऑपरेटिव होता है प्रिंट के लिए। और हिन्‍दुस्‍तान में जब तक आप यह ना कहें कि आपको इस बात की जानकारी है, तब तक वो चीज़ आपके एग्रीमेंट में उस तरह से नहीं आयेगी और यदि आपका एग्रीमेंट साफ नहीं होगा तो कोर्ट भी आपके साथ नहीं होगा। ये जो एक तरह की डायलेक्टिक्‍स है, उसको लेखक, प्रकाशक और पाठक में सि‍र्फ़ प्रकाशक समझता है, लेखक और पाठक समझता ही नहीं है । पाठक को तो इससे कुछ लेना-देना ही नहीं है, पाठक तो पैसा खर्च करके किताब ले रहा है। लेखक अपनी किताब दे रहा है, उसको सबसे ज्‍़यादा सावधान होना चाहिए, चूंकि उसकी किताब छप भी नहीं रही है या कई दूसरे कारण हैं, तो वह किसी भी स्थिति में जाकर अपनी किताब छपवाने में इंटरेस्‍टेट रहता है। वो ये क़ानून, रॉयल्‍टी के चक्‍कर में नहीं पड़ता, इसलिए उसको कुछ मिलता नहीं है।  

मेधा नैलवाल –  ई-पुस्तकों के प्रकाशन का आपका अनुभव कैसा है। इन पुस्तकों को कितने पाठक मिलते हैं? इनका भविष्य क्या है।

 लीलाधर मंडलोई–  ई-बुक्‍स तो ग्‍लोबल मार्केट है  और ई-बुक्‍स को लोग क्‍यों पढ़ते हैं ? उसका कन्‍टेंट, उसकी मार्केट में स्थिति क्‍या है? वो कितना पॉप्‍युलर है, वो कॉमर्शियल कैटेगिरी में आता है कि नॉन कॉमर्शियल? वो लिटरेरी है कि कल्‍चरल है? और इस विषय पर यदि कुछ नहीं लिखा गया है, तब ख़रीददार आकर्षित होता है ई-बुक पर, लेकिन जो उसने पढ़ा हुआ है या जिसके बारे में उसे जानकारी है, उसके लिए वो आकर्षित नहीं होगा। तो ई-बुक में आप क्‍या नया लेकर आते हैं, जो मार्केट से अलग है, जो आकर्षित करने वाला है और उसका जो प्रमोशन या एडवर्टिजमेंट आप डालेंगे, लोग सबसे पहले उसको देखेंगे, फिर आप किस तरह से उसका प्रमोशन करते हैं, आप उस किताब पर एक पेज या आधा पेज डेडिकेट करते हैं प्रमोट करते समय, तो आज के लिटरेरी वर्ल्‍ड में उस किताब का कन्‍टेंट कितना नया है? कितना अलग है या कितना कंट्रोवर्शियल है? कंट्रोवर्शी भी पे करती है। तो वो सारी चीज़े वैसी ही रहती हैं अब उसके हिसाब से जो करता है,  बिक जाता है और जो उसके हिसाब से नहीं करता है, तो आपका जो क्‍लाइंट है, क्‍लाइंट को कुछ नहीं मालूम है, वो अंधेरे में है। उसमें आपने कवर डाल दिया, शीर्षक डाल दिया, आपने लेखक का नाम डाल दिया, इससे वो आकर्षित नहीं होता, वो आकर्षित होता है कि उसमें है क्‍या?  आप कुछ कर पा रहे हैं कि नहीं कर पा रहे हैं ? और हिन्‍दी के प्रकाशक ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं कि किसी की किताब में जो विशिष्‍टता है, जो प्‍वाइंट ऑफ पर्चेज है उसको इनबिल्‍ट कर सकें ।

मेधा नैलवाल- ऑडियो बुक्स की शुरुआत भी इधर हिन्दी में हुई है। इस क्षेत्र में आपका अनुभव और राय क्या है ?

लीलाधर मंडलोई-   एक नया मीडिया फॉर्मेट जो भी होता है, उसमें आपको जाना पड़ता है। आपको इसलिए जाना पड़ता है, क्‍योंकि वर्ल्‍ड का जो रिकॉर्ड है, क्‍योंकि हिन्‍दुस्‍तान या थर्ड वर्ल्‍ड में कोई भी चीज़ बहुत देर में आती है। इसके अलावा दुनिया के अन्‍य जितने भी देश हैं, उनमें तो ये चल ही रहा है। वहां उनका रिजल्‍ट, इसलिए अच्‍छा होता है कि वो कंपनीज़, जो ऑडियो बुक्‍स का काम कर रही हैं, स्‍थापित हो चुकी हैं, उनका प्रमोशन अच्‍छा है, उनका प्रॉफिट हो गया है,  वो इंवेस्‍ट भी कर सकते हैं। आपके यहां ऑडियो बुक्‍स पहले- पहल आ रही हैं। पहले तो ऑडियो बुक्‍स को प्रमोट कैसे किया जाय, इसी की जानकारी नहीं है लोगों को। जो डबिंग आर्टिस्‍ट होते हैं उनसे प्रोडक्‍शन करवाते हैं, तो किसी अंतरराष्‍ट्रीय भाषा की चीज़ को अपने यहां डब करना और अपने यहां की मूल भाषा को ऑडियो बुक में प्रस्‍तुत करना, दोनों में तो बुनियादी फ़र्क़ है, चूँकि यहां के पब्‍लिशर्स के पास पैसा होता नहीं है, इसलिए वो  किसी से भी कुछ भी करवा के लगा देते हैं, तो उसका मार्केट तैयार नहीं होता है। उनको लगता है कि हमने 50 रूपये खर्च किए और हमको 100-150 रूपये भी मिल गये तो हमारी जेब से क्‍या गया? मार्केटिंग का एक जो विज़न है, अभी बनना है हिन्‍दी में । लोग पॉडकास्टिंग कर रहे हैं, ऑडियो बुक्‍स कर रहे हैं लेकिन न्‍यू मीडिया का जो टोटल बजट है, जो प्रकाशक को मिलता है, आज भी 2 या 3 प्रतिशत ही न्‍यू मीडिया से मिलता है, बाक़‍ि अभी भी सब परम्‍परागत चल रहा है ।

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