आरती के पश्चात
घाट पर
हमारे बैठे-बैठे
गंगा से डाल्फिनें ग़ायब हो गईं
गुम हो गई उस पार की हरियाली
और गंगा भी मटमैली
आरती होने लगी
जिसकी दिव्यता
भारत-भर में फैली
पुरानी और सँकरी काशी को तोड़-फोड़
लम्बा-चौड़ा कॉरीडोर निकला
आरती के पश्चात
कॉरीडोर से
हम सब अपने-अपने घर गये
***
वो चॉंद ही देखिए
हम बैठे हैं
संत रविदास घाट पर
जो लग रहा है कि
चल रहा है
जबकि घाट नहीं
लहरें चल रहीं
पतित पावन गंगा की,
घाट अपने ठाँव है
अँधेरे-उजाले में डूबे
पानी पर लंगर डाले
वह एक नाव है
और यह दृष्टि का छलाव है
कि वह जूता लग रही
किसी विशाल देव के एक पाँव का
मरम्मत के लिए रखा
रविदास जी के मंदिर के सामने
और वो चाँद ही देखिए
सोने का कंगन नज़र आ रहा है
***
अंतिम और पहली गली
किसी क़स्बे की गली-सी
यह काशी की अंतिम गली है
इसके बाद
शाही नाला
गंगा में गिरने वाला
कृष्णमूर्ति फाउंडेशन के टीले से लगी
यह गली
विरक्त साधुओं की है
इसमें गृहस्थों के घर नहीं
विरक्तों के घेरे
और डेरे हैं
टीले की मिट्टी,
झाड़ियों और लताओं के बीच से
झाँकती अत्यंत पुरानी ईंटें
बता रही हैं वे काशी नरेश के
प्राचीनतम क़िले की हैं
जहाँ से भीष्म ने
उनकी तीन कन्याओं का हरण किया था
महाभारत की तरफ़ से इसमें दाख़िल होइए तो
यह काशी की पहली गली है
***
मणिकर्णिका घाट
निरन्तर जलते
हवन कुण्ड हैं
निरन्तर जलती चिताएँ
और भस्म होते मुण्ड हैं
निरन्तर बहती गंगा
निरन्तर दाने चुगते
कबूतरों और गौरैयों के झुण्ड हैं
निरन्तर लोग रस्मों में लगे हैं
निरन्तर चर्चाओं में रमे हैं
शोक में कोई नहीं दिखता
यहाँ वह भी
जो शोक-गीत लिखता
***
यह अवसर शिव है
शव न हो जीवन
इसलिए उत्सव होने चाहिए
हर जगह
हर समय
जहाँ अवसर मिले
जब अवसर मिले
अवसर का लाभ लेना चाहिए
उत्सव भाव से
नहीं देखना चाहिए कि महाश्मशान है
नहीं देखना चाहिए कि
गणिकाओं का मचान है
अवसर विशेष है
चैत नवमी में दो दिन शेष है
आपके सामने उत्तेजक और
उल्लसित नृत्य-अदाएँ भी हैं
आपके सामने
धू-धू जलती चिताएँ भी हैं
और है
अँधेरे-उजाले में बहती गंगा
और अट्टालिकाओं के ऊपर
आधा चाँद टिमटिमाता
यह अवसर शिव है
साल-भर में एक बार आता
जिसके पीछे
गणिकाओं की
मोक्षगत मान्यताएँ भी हैं
***
साइबेरियन पंछी
पंछी नहीं हैं हम
हमें पासपोर्ट चाहिए
हम उनकी भूमि पर नहीं उतर सकते
बिना पासपोर्ट के
वे हमारी गंगा में
अठखेलियाँ कर रहे हैं
वे उन्मुक्त
हैं
लेकिन उनके यहाँ के लोग नहीं
उनके यहाँ के लोग भी
हमारी तरह ही बँधे हैं
ग़नीमत है कि
उनके यहाँ के लोगों की तरह
हम नहीं
युद्ध में
फँसे हैं
गुनगुनी धूप में
काशीराज का क़िला देखते
आराम से
घाट पर बैठे हैं
***
खुल जा सिमसिम और रिमझिम
स्मारक का फाटक बंद
शोध संस्थान के प्रवेश द्वार पर ताला
घर पर साँकल
लेकिन कुएँ के
चबूतरे पर बैठ सकते हैं सानंद
यह चबूतरा
और कुआँ
” ठाकुर का
कुआं ” लिखने वाले
महान कथाकार का है
और यह
पूस की एक धूप-सुहानी दोपहर
खुल जा सिमसिम
और रिमझिम का दिन है
इकतीस जुलाई
***
नागरी नाटक मंडली
बहुत दिनों से
कुछ नहीं हुआ
नाट्यशाला में
न ठहाके लगे
न आंसू झरे
लोग डरे-डरे
घरों में
बंद रहे
एक लम्बा कर्फ़्यू
कोरोना वायरस के विरुद्ध
लोग घरों से
निकलने लगे हैं
लेकिन नाट्यशाला तक
पहुँचने में समय लगेगा
जिस पर बारिश गिर रही है झमाझम
संगीत के साथ
प्रांगण के पौधों के बीच
नृत्य कर रही हैं जल की बूँदें
और पीपल के भारी-भरकम पेड़ पर
प्रेम-संवाद बोल रही हैं कोयलें
***
बनारस के गॉंव
कच्चा मकान
और मिट्टी का दुआर
नीम और आम के साथ
पशु और नाद के साथ
कुछ ही दिखते हैं
बाक़ी पक्के घर हैं
जो शहरों की पाश कालोनी
या पुराने मुहल्ले से
उठाकर लाये गये लगते हैं
जिनमें रहने वालों को
शहर भी उठा ले गये हैं
रोज़गार का प्रलोभन भेज
गाँव-गाँव
यही दृश्य है व्याप्त
समाप्त होते प्रेमचंद के लमही से
गेहूँ के छोटे-छोटे पौधों से लहलहाते
धूमिल के खेवली समेत
***
कल्पना
गेदें के फूलों में
लाली वही है
सरसों के फूलों में
पियराई वही है
हरियाली वही है
गेहूँ के पौधों में
जो हम देखते आये हैं
जाड़ा-दर-जाड़ा
लुभावने हैं खेत
चित्ताकर्षक है वरुणा नदी का घुमाव
इन्द्रधनुषी त्रिकोण रचता
भारत के नक़्शे-सा
सर्व सेवा संघ राजघाट के टीले के नीचे
कृष्णामूर्ति न्यास के पीछे
मैं कल्पना करता हूँ
इस त्रिकोण में
जो ख़ूबसूरत दुनिया आबाद है
उसे आबाद रखते हुए
कैसी-कैसी दुनिया बसायी जा सकती है
मैं कल्पना करता हूँ
यह भारतमाता उद्यान है
जैसे भारतमाता मंदिर है
काशी विद्यापीठ कला संकाय परिसर में,
जिसके निर्माण में
कुछ नहीं करना है
ख़ाका तैयार है
केवल भरना है
हर प्रदेश के भूगोल से
उसके लोक से
इतिहास से
पत्थरों, काष्ठ और घास
से
किसके वश
जो पूरा भारत घूम ले
उसे देख-पढ़ ले
लेकिन सबके वश में हो जायेगा
मुझे उम्मीद है
यदि इस कल्पना को
कोई गढ़ ले
लेकिन सोचता हूँ
हवा में महल बनाने जैसा है
इसको गढ़ना
इसलिए छोड़ता हूँ
कल्पना करना
क्योंकि क्या होगा
कल्पना करके
की तो थी
मोतीझील को लेकर
कवि ज्ञानेन्द्रपति के साथ
कहाँ है अब वो
कब की पट चुकी है वो
कंक्रीट के ढाँचों से
इसलिए छोड़ता हूँ
कल्पना करना
और बात का रुख़
गेंदे के फूलों की ओर मोड़ता हूँ
जिनमें अभी वही लाली है
जबकि नदी
आज और काली है
***
निर्मलीकरण
जिस मेहनत से नाविक नाव खे रहा है
वह़ हमें अस्सी घाट पहुँचा देगा समय से
मणिकर्णिका और हरिश्चन्द्र घाट
निकल गए पीछे
और हम आ पहुँचे
गायघाट से तुलसी घाट
जिसके आगे है बस अस्सी घाट
जिस मेहनत से वह नाव खे रहा है
उस मेहनत से निर्मलीकरण काम करता तो
निर्मल हो गई होती गंगा
गंगासागर तक
लेकिन कहते हैं कि
बीच में कोई सारा पैसा खा गया
अस्सी घाट आ गया
***
नर्तकी
वह इधर से जाते हुए
ढलान का रास्ता
और उधर से आते हुए
चढ़ान का रास्ता
पत्थरों से जड़ा
जिस पर बरसात का पानी
झरने की तरह बहता है
किसी-किसी शाम
मुझे बुला लेता है
और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की
छोटी-सी मूर्ति के आगे
उतार देता है
गाँधी विद्या संस्थान के
निष्क्रिय पड़े परिसर में
जहाँ से मैं वरुणा के किनारे पहुँच जाता हूँ
उसी पर लौटते हुए एक दिन
धुंधलके में
मैंने देखा जो
अपने पाँवों के नीचे
देखता रह गया हैरत से
मेरा सामना था एक औरत से
एक ख़ूबसरत नर्तकी
जो अपनी लम्बी-लम्बी
पतली-पतली बाँहें फैलाये
और पैर
नृत्य की मुद्रा में लाये
लुभा रही थी
मुस्कुरा रही थी
मनमोहक अंदाज़ में
किनारे जड़े
एक पत्थर पर उकेरी हुई
कभी इसकी चर्चा नहीं सुनी थी
जबकि यहीं हूं कई साल से
कभी इसे देखा नहीं था
जबकि इसकी बग़ल से कितनी बार गुज़रा
शायद इसके ऊपर से भी
उन हज़ारों लोगों की तरह
जिनमें जननेता भी थे
सामाजिक कार्यकर्ता भी
विद्वान भी
आमजन और पी ए सी के जवान भी
वह सबके पाँवों में रही
और सबकी नज़रों से छुपी रही
हैरत है
वह एक जीवंत औरत है
जो नाच रही है
इस हाल में भी
अपने पत्थर पट पर
और मेरे ख़याल में भी
है कोई उपाय
उसे यहां से निकालकर
भारत कला भवन भिजवा दिया जाय ?
विकास कथा
जिस महावन में
बुद्ध विचरे
बचा था वह
ढाई एकड़
नगर बीच स्थित
परित्यक्त राजकीय शिक्षक शिक्षण केंद्र के
परिसर में
जहाँ विवेकानंद कोठी
और विनोबा कुटी
बदल गई है खंडहर में
आज सहसा
मुझे विश्वास नहीं हुआ
मैं हैरान था
वन सिर्फ़ आधा एकड़ बचा था
उसके आगे सिर्फ़ मैदान था
जहाँ एक नये निर्माण की
तैयारी चल रही थी !
***
दो नदियॉं
दो नदियाँ
जो एक-दूसरे से मिलती हैं
दोनों की दशा
एक जैसी होती है
जब बाढ़ आयेगी तो
दोनों में आयेगी
जब सुखायेंगी तो
दोनों सुखायेंगी
प्रदूषित होंगी तो
दोनों होंगी
लेकिन जब निर्मलीकरण की
बात होगी तो
हम गंगा को ले लेंगे
वरुणा को छोड़ देंगे
वरुणा को छोड़ देंगे
गंगा फिर भी नहीं निर्मल
***
अपना बनारस
निकला था
सारा शहर घूमने
जिसमें घूमने
सारा देश आ रहा है
विदेश आ रहा है
मगर यह नई बात नहीं है
नई बात है
शहर को अपूर्व किया जा रहा है
इसे नया रूप दिया जा रहा है
मगर इसके रस पर ध्यान नहीं है
जो सदियों से इसका प्रमुख तत्व बना रहा
उसकी जगह
पा महत्व रहा
विकासवादियों का
कोकाकोलाई जल्वा
***
क्या चाहूँ, कहाँ जाऊँ
घाट के किनारे बैठा
साइबेरियन पंछियों को देख रहा हूँ
और चेकोस्लोवाकिया के आदमी से
बतिया रहा हूँ
गंगा की डाल्फिन के बिना भी
पारदर्शी पानी के बग़ैर भी
अद्भुत है काशी
अद्भुत हैं घाट
पथरीले सौंदर्य से भरे
गुनगुनी धूप में ध्यानमग्न
बैठी हैं गाएँ
भारतीय संस्कृति की
पवित्र आत्माएँ
क्या चाहूँ
महत्वाकांक्षाएँ खोकर
कहाँ जाऊँ
यहाँ का होकर
***
मेहमान
दूध में नहायी
संगमरमर की प्रतिमा-सी
वह नहीं कोई भारत की बेटी है
बल्कि एक विदेशी लड़की
सुन्दर, उन्मुक्त
और गरिमायुक्त
जो आ लेटी है
हमारे सामने विशाल पत्थर पर
वक्षों को अपने उतान किये
उन पर
नरम-नरम धूप का
गरम-गरम आसमान किये
भारतीय जाड़े की
यह ख़ूबसूरत रुत
जैसे उसे भी
उसके बर्फ़ीले वातावरण से
बनारस में खींच लायी है
और साइबेरिन पंछियों की तरह
वह भी चली आयी है
गंगा किनारे
हवा में उसके सुनहले केश हौले-हौले उड़ रहे हैं
उसके गुलाबी कपोल गुलाबों से ज़्यादा खिल रहे हैं
मगर उसके वक्ष-पुष्पों के लिए
मुझे शब्द नहीं मिल रहे हैं
जिन पर फुदक रही है
एक तितली
वह सौंदर्य , शैली और
स्वतंत्रता की
एक जीती -जागती तस्वीर है प्यारे
लेकिन उसे और निहारना इस तरह से
एक तरह की असभ्यता होगी छिछली
वह महान है
देश की मेहमान है
***
साइबेरियन परिंदे
परिंदों ने जान लिया
मौसम बदलने वाला है
बर्फ़ पड़ने वाली है
परिंदों ने जान लिया
कहां धूप खिली है
कहां गंगा बह रही है
अर्धचंद्राकार होकर
परिंदों ने जान लिया
और प्रस्थान किया
साइबेरिया से
और रूस, चीन, पाकिस्तान के
आसमान पार करते हुए
आ गये यहां
हिंदुस्तान में
जहां गंगा बह रही है
अर्धचंद्राकार होकर
और धूप खिली है
सोनल-सोनल
बिना पारपत्र के
साधिकार
बिना नक़्शे के
जिसकी उन्हें कोई ज़रूरत नहीं है
उनके लिए
कोई सरहद नहीं है
ग़ैर-कुदरती
वसुधैव कुटुंबकम्
समस्त धरती
***
खोज
बम्बई के
समुंदर तट
मुम्बई के
समुंदर तट
हो गये
और फिर
कुछ ऐसा हुआ कि
काशी के घाटों से गया
मित्र
फिर काशी के घाटों पर
लौट आया
काशी के घाट नहीं बदलेंगे
लेकिन काशी के घाट
क्या देंगे किसी को ?
अफ़सोस,
आदमी को
मस्ती और मुक्ति के अलावा भी
कुछ चाहिए
जिसे वह मुम्बई के समुंदर तट पर
छोड़ आया
मित्र
विश्व के नक़्शे में
खोज रहा है
वह स्थान
जहाँ मुम्बई के
समुंदर तट भी हों
और काशी के घाट भी
आइए
हम सब मिलकर
उसकी मदद करें
खोजने में !
वरुणा तट : शास्त्री घाट
इस नदी को
बहुत पहले चाहिए था
ऐसा घाट
खुले नाट्यांगन-सा
और विराट
जो इसे अब मिला है
चमकीले, चिकने
पत्थरों का
यह भव्य कलात्मक ठाठ
जब यह कर रही है
अपना अंतिम लहर-पाठ
लेकिन, चलो कि इसके
बाद
कम से कम यह घाट
दिलाता तो रहेगा इसके पानी की याद
जैसे ताजमहल
एक प्रेम कहानी की याद
इस समय बनारस में धूल
बनारस में
यह सूखे सावन का समय है
झुग्गियाँ उजाड़ी जा रही हैं
भवन गिराए जा रहे हैं
ग़रीबों को भगाया जा रहा है
गाँधीवादियों को खदेड़ा जा रहा है
इस समय बनारस में धूल
मडुआडीह की ओर से नहीं
राजघाट की तरफ़ से
उठ रही है
मगर किसी की जीभ
किरकिरा नहीं रही है
बुलडोजर और बन्दूक़
एक ही बात पर अड़े
विकास के लिए जगह चाहिए
विरोध के लिए वजह चाहिए
***
बाज़ार, गलियॉं, घाट
महीनों बाद मैं
इन बाज़ारों में आया हूँ
इन गलियों में
इन घाटों पर
सब कुछ एक साथ
इतना नया
और पुराना लग रहा है
गोया, मैं महीनों
बाद नहीं
कई जनम पीछे से आया हूँ
और सेंट्रल जेल रोड से नहीं
साइबेरिया से
मेरे साथ
मेरे दो मीत हैं
इनके अलावा
वर्तमान और अतीत हैं
साथ चल रहे मेरे
अगल-बग़ल हुजूम है
सर्वदेशीय चेहरों का
मगर कहीं नहीं लंठई है
हमने पी रखी ठंडई है
हम देखी हुई गलियों में
भटक जा रहे हैं
गंगा को ठहरी
और घाट को चलता पा रहे हैं
हमें इल्हाम आ रहे हैं
बाज़ार में कबीर
हमीं है
***
आरती के पश्चात
घाट पर
हमारे बैठे-बैठे
गंगा से डाल्फिनें ग़ायब हो गईं
गुम हो गई उस पार की हरियाली
और गंगा भी मटमैली
आरती होने लगी
जिसकी दिव्यता
भारत-भर में फैली
पुरानी और सँकरी काशी को तोड़-फोड़
लम्बा-चौड़ा कॉरीडोर निकला
आरती के पश्चात
कॉरीडोर से
हम सब अपने-अपने घर गये
***
वो चॉंद ही देखिए
हम बैठे हैं
संत रविदास घाट पर
जो लग रहा है कि
चल रहा है
जबकि घाट नहीं
लहरें चल रहीं
पतित पावन गंगा की,
घाट अपने ठाँव है
अँधेरे-उजाले में डूबे
पानी पर लंगर डाले
वह एक नाव है
और यह दृष्टि का छलाव है
कि वह जूता लग रही
किसी विशाल देव के एक पाँव का
मरम्मत के लिए रखा
रविदास जी के मंदिर के सामने
और वो चाँद ही देखिए
सोने का कंगन नज़र आ रहा है
***
अंतिम और पहली गली
किसी क़स्बे की गली-सी
यह काशी की अंतिम गली है
इसके बाद
शाही नाला
गंगा में गिरने वाला
कृष्णमूर्ति फाउंडेशन के टीले से लगी
यह गली
विरक्त साधुओं की है
इसमें गृहस्थों के घर नहीं
विरक्तों के घेरे
और डेरे हैं
टीले की मिट्टी,
झाड़ियों और लताओं के बीच से
झाँकती अत्यंत पुरानी ईंटें
बता रही हैं वे काशी नरेश के
प्राचीनतम क़िले की हैं
जहाँ से भीष्म ने
उनकी तीन कन्याओं का हरण किया था
महाभारत की तरफ़ से इसमें दाख़िल होइए तो
यह काशी की पहली गली है
***
मणिकर्णिका घाट
निरन्तर जलते
हवन कुण्ड हैं
निरन्तर जलती चिताएँ
और भस्म होते मुण्ड हैं
निरन्तर बहती गंगा
निरन्तर दाने चुगते
कबूतरों और गौरैयों के झुण्ड हैं
निरन्तर लोग रस्मों में लगे हैं
निरन्तर चर्चाओं में रमे हैं
शोक में कोई नहीं दिखता
यहाँ वह भी
जो शोक-गीत लिखता
***
यह अवसर शिव है
शव न हो जीवन
इसलिए उत्सव होने चाहिए
हर जगह
हर समय
जहाँ अवसर मिले
जब अवसर मिले
अवसर का लाभ लेना चाहिए
उत्सव भाव से
नहीं देखना चाहिए कि महाश्मशान है
नहीं देखना चाहिए कि
गणिकाओं का मचान है
अवसर विशेष है
चैत नवमी में दो दिन शेष है
आपके सामने उत्तेजक और
उल्लसित नृत्य-अदाएँ भी हैं
आपके सामने
धू-धू जलती चिताएँ भी हैं
और है
अँधेरे-उजाले में बहती गंगा
और अट्टालिकाओं के ऊपर
आधा चाँद टिमटिमाता
यह अवसर शिव है
साल-भर में एक बार आता
जिसके पीछे
गणिकाओं की
मोक्षगत मान्यताएँ भी हैं
***
साइबेरियन पंछी
पंछी नहीं हैं हम
हमें पासपोर्ट चाहिए
हम उनकी भूमि पर नहीं उतर सकते
बिना पासपोर्ट के
वे हमारी गंगा में
अठखेलियाँ कर रहे हैं
वे उन्मुक्त
हैं
लेकिन उनके यहाँ के लोग नहीं
उनके यहाँ के लोग भी
हमारी तरह ही बँधे हैं
ग़नीमत है कि
उनके यहाँ के लोगों की तरह
हम नहीं
युद्ध में
फँसे हैं
गुनगुनी धूप में
काशीराज का क़िला देखते
आराम से
घाट पर बैठे हैं
***
खुल जा सिमसिम और रिमझिम
स्मारक का फाटक बंद
शोध संस्थान के प्रवेश द्वार पर ताला
घर पर साँकल
लेकिन कुएँ के
चबूतरे पर बैठ सकते हैं सानंद
यह चबूतरा
और कुआँ
” ठाकुर का
कुआं ” लिखने वाले
महान कथाकार का है
और यह
पूस की एक धूप-सुहानी दोपहर
खुल जा सिमसिम
और रिमझिम का दिन है
इकतीस जुलाई
***
नागरी नाटक मंडली
बहुत दिनों से
कुछ नहीं हुआ
नाट्यशाला में
न ठहाके लगे
न आंसू झरे
लोग डरे-डरे
घरों में
बंद रहे
एक लम्बा कर्फ़्यू
कोरोना वायरस के विरुद्ध
लोग घरों से
निकलने लगे हैं
लेकिन नाट्यशाला तक
पहुँचने में समय लगेगा
जिस पर बारिश गिर रही है झमाझम
संगीत के साथ
प्रांगण के पौधों के बीच
नृत्य कर रही हैं जल की बूँदें
और पीपल के भारी-भरकम पेड़ पर
प्रेम-संवाद बोल रही हैं कोयलें
***
बनारस के गॉंव
कच्चा मकान
और मिट्टी का दुआर
नीम और आम के साथ
पशु और नाद के साथ
कुछ ही दिखते हैं
बाक़ी पक्के घर हैं
जो शहरों की पाश कालोनी
या पुराने मुहल्ले से
उठाकर लाये गये लगते हैं
जिनमें रहने वालों को
शहर भी उठा ले गये हैं
रोज़गार का प्रलोभन भेज
गाँव-गाँव
यही दृश्य है व्याप्त
समाप्त होते प्रेमचंद के लमही से
गेहूँ के छोटे-छोटे पौधों से लहलहाते
धूमिल के खेवली समेत
***
कल्पना
गेदें के फूलों में
लाली वही है
सरसों के फूलों में
पियराई वही है
हरियाली वही है
गेहूँ के पौधों में
जो हम देखते आये हैं
जाड़ा-दर-जाड़ा
लुभावने हैं खेत
चित्ताकर्षक है वरुणा नदी का घुमाव
इन्द्रधनुषी त्रिकोण रचता
भारत के नक़्शे-सा
सर्व सेवा संघ राजघाट के टीले के नीचे
कृष्णामूर्ति न्यास के पीछे
मैं कल्पना करता हूँ
इस त्रिकोण में
जो ख़ूबसूरत दुनिया आबाद है
उसे आबाद रखते हुए
कैसी-कैसी दुनिया बसायी जा सकती है
मैं कल्पना करता हूँ
यह भारतमाता उद्यान है
जैसे भारतमाता मंदिर है
काशी विद्यापीठ कला संकाय परिसर में,
जिसके निर्माण में
कुछ नहीं करना है
ख़ाका तैयार है
केवल भरना है
हर प्रदेश के भूगोल से
उसके लोक से
इतिहास से
पत्थरों, काष्ठ और घास
से
किसके वश
जो पूरा भारत घूम ले
उसे देख-पढ़ ले
लेकिन सबके वश में हो जायेगा
मुझे उम्मीद है
यदि इस कल्पना को
कोई गढ़ ले
लेकिन सोचता हूँ
हवा में महल बनाने जैसा है
इसको गढ़ना
इसलिए छोड़ता हूँ
कल्पना करना
क्योंकि क्या होगा
कल्पना करके
की तो थी
मोतीझील को लेकर
कवि ज्ञानेन्द्रपति के साथ
कहाँ है अब वो
कब की पट चुकी है वो
कंक्रीट के ढाँचों से
इसलिए छोड़ता हूँ
कल्पना करना
और बात का रुख़
गेंदे के फूलों की ओर मोड़ता हूँ
जिनमें अभी वही लाली है
जबकि नदी
आज और काली है
***
निर्मलीकरण
जिस मेहनत से नाविक नाव खे रहा है
वह़ हमें अस्सी घाट पहुँचा देगा समय से
मणिकर्णिका और हरिश्चन्द्र घाट
निकल गए पीछे
और हम आ पहुँचे
गायघाट से तुलसी घाट
जिसके आगे है बस अस्सी घाट
जिस मेहनत से वह नाव खे रहा है
उस मेहनत से निर्मलीकरण काम करता तो
निर्मल हो गई होती गंगा
गंगासागर तक
लेकिन कहते हैं कि
बीच में कोई सारा पैसा खा गया
अस्सी घाट आ गया
***
नर्तकी
वह इधर से जाते हुए
ढलान का रास्ता
और उधर से आते हुए
चढ़ान का रास्ता
पत्थरों से जड़ा
जिस पर बरसात का पानी
झरने की तरह बहता है
किसी-किसी शाम
मुझे बुला लेता है
और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की
छोटी-सी मूर्ति के आगे
उतार देता है
गाँधी विद्या संस्थान के
निष्क्रिय पड़े परिसर में
जहाँ से मैं वरुणा के किनारे पहुँच जाता हूँ
उसी पर लौटते हुए एक दिन
धुंधलके में
मैंने देखा जो
अपने पाँवों के नीचे
देखता रह गया हैरत से
मेरा सामना था एक औरत से
एक ख़ूबसरत नर्तकी
जो अपनी लम्बी-लम्बी
पतली-पतली बाँहें फैलाये
और पैर
नृत्य की मुद्रा में लाये
लुभा रही थी
मुस्कुरा रही थी
मनमोहक अंदाज़ में
किनारे जड़े
एक पत्थर पर उकेरी हुई
कभी इसकी चर्चा नहीं सुनी थी
जबकि यहीं हूं कई साल से
कभी इसे देखा नहीं था
जबकि इसकी बग़ल से कितनी बार गुज़रा
शायद इसके ऊपर से भी
उन हज़ारों लोगों की तरह
जिनमें जननेता भी थे
सामाजिक कार्यकर्ता भी
विद्वान भी
आमजन और पी ए सी के जवान भी
वह सबके पाँवों में रही
और सबकी नज़रों से छुपी रही
हैरत है
वह एक जीवंत औरत है
जो नाच रही है
इस हाल में भी
अपने पत्थर पट पर
और मेरे ख़याल में भी
है कोई उपाय
उसे यहां से निकालकर
भारत कला भवन भिजवा दिया जाय ?
विकास कथा
जिस महावन में
बुद्ध विचरे
बचा था वह
ढाई एकड़
नगर बीच स्थित
परित्यक्त राजकीय शिक्षक शिक्षण केंद्र के
परिसर में
जहाँ विवेकानंद कोठी
और विनोबा कुटी
बदल गई है खंडहर में
आज सहसा
मुझे विश्वास नहीं हुआ
मैं हैरान था
वन सिर्फ़ आधा एकड़ बचा था
उसके आगे सिर्फ़ मैदान था
जहाँ एक नये निर्माण की
तैयारी चल रही थी !
***
दो नदियॉं
दो नदियाँ
जो एक-दूसरे से मिलती हैं
दोनों की दशा
एक जैसी होती है
जब बाढ़ आयेगी तो
दोनों में आयेगी
जब सुखायेंगी तो
दोनों सुखायेंगी
प्रदूषित होंगी तो
दोनों होंगी
लेकिन जब निर्मलीकरण की
बात होगी तो
हम गंगा को ले लेंगे
वरुणा को छोड़ देंगे
वरुणा को छोड़ देंगे
गंगा फिर भी नहीं निर्मल
***
अपना बनारस
निकला था
सारा शहर घूमने
जिसमें घूमने
सारा देश आ रहा है
विदेश आ रहा है
मगर यह नई बात नहीं है
नई बात है
शहर को अपूर्व किया जा रहा है
इसे नया रूप दिया जा रहा है
मगर इसके रस पर ध्यान नहीं है
जो सदियों से इसका प्रमुख तत्व बना रहा
उसकी जगह
पा महत्व रहा
विकासवादियों का
कोकाकोलाई जल्वा
***
क्या चाहूँ, कहाँ जाऊँ
घाट के किनारे बैठा
साइबेरियन पंछियों को देख रहा हूँ
और चेकोस्लोवाकिया के आदमी से
बतिया रहा हूँ
गंगा की डाल्फिन के बिना भी
पारदर्शी पानी के बग़ैर भी
अद्भुत है काशी
अद्भुत हैं घाट
पथरीले सौंदर्य से भरे
गुनगुनी धूप में ध्यानमग्न
बैठी हैं गाएँ
भारतीय संस्कृति की
पवित्र आत्माएँ
क्या चाहूँ
महत्वाकांक्षाएँ खोकर
कहाँ जाऊँ
यहाँ का होकर
***
मेहमान
दूध में नहायी
संगमरमर की प्रतिमा-सी
वह नहीं कोई भारत की बेटी है
बल्कि एक विदेशी लड़की
सुन्दर, उन्मुक्त
और गरिमायुक्त
जो आ लेटी है
हमारे सामने विशाल पत्थर पर
वक्षों को अपने उतान किये
उन पर
नरम-नरम धूप का
गरम-गरम आसमान किये
भारतीय जाड़े की
यह ख़ूबसूरत रुत
जैसे उसे भी
उसके बर्फ़ीले वातावरण से
बनारस में खींच लायी है
और साइबेरिन पंछियों की तरह
वह भी चली आयी है
गंगा किनारे
हवा में उसके सुनहले केश हौले-हौले उड़ रहे हैं
उसके गुलाबी कपोल गुलाबों से ज़्यादा खिल रहे हैं
मगर उसके वक्ष-पुष्पों के लिए
मुझे शब्द नहीं मिल रहे हैं
जिन पर फुदक रही है
एक तितली
वह सौंदर्य , शैली और
स्वतंत्रता की
एक जीती -जागती तस्वीर है प्यारे
लेकिन उसे और निहारना इस तरह से
एक तरह की असभ्यता होगी छिछली
वह महान है
देश की मेहमान है
***
साइबेरियन परिंदे
परिंदों ने जान लिया
मौसम बदलने वाला है
बर्फ़ पड़ने वाली है
परिंदों ने जान लिया
कहां धूप खिली है
कहां गंगा बह रही है
अर्धचंद्राकार होकर
परिंदों ने जान लिया
और प्रस्थान किया
साइबेरिया से
और रूस, चीन, पाकिस्तान के
आसमान पार करते हुए
आ गये यहां
हिंदुस्तान में
जहां गंगा बह रही है
अर्धचंद्राकार होकर
और धूप खिली है
सोनल-सोनल
बिना पारपत्र के
साधिकार
बिना नक़्शे के
जिसकी उन्हें कोई ज़रूरत नहीं है
उनके लिए
कोई सरहद नहीं है
ग़ैर-कुदरती
वसुधैव कुटुंबकम्
समस्त धरती
***
खोज
बम्बई के
समुंदर तट
मुम्बई के
समुंदर तट
हो गये
और फिर
कुछ ऐसा हुआ कि
काशी के घाटों से गया
मित्र
फिर काशी के घाटों पर
लौट आया
काशी के घाट नहीं बदलेंगे
लेकिन काशी के घाट
क्या देंगे किसी को ?
अफ़सोस,
आदमी को
मस्ती और मुक्ति के अलावा भी
कुछ चाहिए
जिसे वह मुम्बई के समुंदर तट पर
छोड़ आया
मित्र
विश्व के नक़्शे में
खोज रहा है
वह स्थान
जहाँ मुम्बई के
समुंदर तट भी हों
और काशी के घाट भी
आइए
हम सब मिलकर
उसकी मदद करें
खोजने में !
वरुणा तट : शास्त्री घाट
इस नदी को
बहुत पहले चाहिए था
ऐसा घाट
खुले नाट्यांगन-सा
और विराट
जो इसे अब मिला है
चमकीले, चिकने
पत्थरों का
यह भव्य कलात्मक ठाठ
जब यह कर रही है
अपना अंतिम लहर-पाठ
लेकिन, चलो कि इसके
बाद
कम से कम यह घाट
दिलाता तो रहेगा इसके पानी की याद
जैसे ताजमहल
एक प्रेम कहानी की याद
इस समय बनारस में धूल
बनारस में
यह सूखे सावन का समय है
झुग्गियाँ उजाड़ी जा रही हैं
भवन गिराए जा रहे हैं
ग़रीबों को भगाया जा रहा है
गाँधीवादियों को खदेड़ा जा रहा है
इस समय बनारस में धूल
मडुआडीह की ओर से नहीं
राजघाट की तरफ़ से
उठ रही है
मगर किसी की जीभ
किरकिरा नहीं रही है
बुलडोजर और बन्दूक़
एक ही बात पर अड़े
विकास के लिए जगह चाहिए
विरोध के लिए वजह चाहिए
***
बाज़ार, गलियॉं, घाट
महीनों बाद मैं
इन बाज़ारों में आया हूँ
इन गलियों में
इन घाटों पर
सब कुछ एक साथ
इतना नया
और पुराना लग रहा है
गोया, मैं महीनों
बाद नहीं
कई जनम पीछे से आया हूँ
और सेंट्रल जेल रोड से नहीं
साइबेरिया से
मेरे साथ
मेरे दो मीत हैं
इनके अलावा
वर्तमान और अतीत हैं
साथ चल रहे मेरे
अगल-बग़ल हुजूम है
सर्वदेशीय चेहरों का
मगर कहीं नहीं लंठई है
हमने पी रखी ठंडई है
हम देखी हुई गलियों में
भटक जा रहे हैं
गंगा को ठहरी
और घाट को चलता पा रहे हैं
हमें इल्हाम आ रहे हैं
बाज़ार में कबीर
हमीं है
***
***
बहुत-बहुत हार्दिक आभार इन कविताओं को प्रेम, सम्मान और कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करने के लिए!