मेधा : हिंदी साहित्य और न्यू मीडिया के संबंध को आप किस तरह देखते हैं ?
देवेश : हिंदी साहित्य का न्यू मीडिया से संबंध इस बदलते तकनीकी युग में लगभग दशक भर पहले चीन्ह लिया गया था। इसमें अप्रत्याशित प्रगाढ़ता कोविड काल के दौरान आई है।
मेधा :सोशल मीडिया पर लेखकों की उपस्थिति से पाठकों की संख्या पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
देवेश : मुझे लगता है कि सोशल मीडिया से आधार बनाने वाले कवियों को सबसे अधिक लाभ हुआ है। लेकिन यह लाभ केवल पहचान का है, आर्थिक नहीं है। कविता पुस्तकों की बिक्री में कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा है। यदि सोशल मीडिया से आर्थिक लाभ किसी तरह के लेखकों को हुआ है तो वह तथाकथित ‘नई हिंदी‘ के लेखकों को हुआ है।
मुख्यधारा के गद्यकार (नई हिंदी से इतर) कुछ हद तक पाठकों को अपनी किताबों तक ले जाने में सफल रहे हैं। लेकिन उतना नहीं जितना उन्हें होना चाहिए। पुस्तक का प्रचार लेखक अपने दम पर करता है। यह प्रकाशक का भी काम है। कुछ प्रकाशक इसे ठीक से करते हैं लेकिन ज्यादातर नहीं।
मेधा : प्रचार एवं बिक्री के नए मंच न्यू मीडिया ने तैयार किए हैं। इस पर आपके क्या अनुभव हैं?
देवेश : जैसा मैंने पहले कहा- अभी गंभीर साहित्य को अपने प्रचार मॉडल पर और काम करने की ज़रूरत है। उनके पाठक मौजूद तो हैं लेकिन उन तक प्रकाशक अभी पहुंच नहीं पा रहे हैं।
मेधा : लेखक, प्रकाशक और पाठक किताब की इस आधारभूत संरचना में न्यू मीडिया ने नया क्या जोड़ा है ?
देवेश : हिंदी का आम लेखक जो अब तक पोस्टर, रील, लाइव जैसे शब्दों से अनभिज्ञ था, वह अब इन्हें बहुत सहजता से लेने लगा है। यहां तक कि फेसबुक भी कुछ लोगों के लिए बहुत जटिल प्लेटफार्म हुआ करता था। लेकिन बदलते वक़्त ने उसे लोगों के लिए जरूरत बना दिया है। साहित्यकार भी इसके अपवाद नहीं हैं।
मेधा : सोशल मीडिया पर आपकी उपस्थिति का आपकी रचनाशीलता पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
देवेश : मेरे लिए सोशल मीडिया पर उपस्थित रहना एक संतुलन बनाए रखने का प्रयास है। बतौर लेखक मेरी पहली कोशिश तो यही होती है कि मैं फेसबुक की ‘मांग और आपूर्ति‘ श्रृंखला का शिकार ना हो जाऊं। मैं उन कवियों में से नहीं होना चाहता जो रोज एक कविता लिखते हैं। मुझे उनसे शिकायत नहीं जो ऐसा करते हैं लेकिन मेरी अपनी शैली उस तरह के लेखन के अनुरूप नहीं है। मेरी एक अन्य कोशिश औसत लेखन के प्रभाव से बचने की होती है।
एक और बिंदु जिससे बचना चाहिए वह साहित्य की टुच्ची राजनीति है। इससे हमेशा बचना संभव नहीं हो पाता। तो इसे मैं अपनी कमी के तौर पर लेता हूँ कि मैं संवेदनशील होकर कभी-कभी इसका शिकार हो जाता हूँ।
मेधा : हिन्दी की ई-मैगज़ींस और महत्वपूर्ण ब्लॉग्स पर प्रकाशन के अपने अनुभव साझा करने की कृपा करें।
देवेश : मुझे लगता है कि ई- मैगज़ींस और ब्लॉग्स के ऊपर रचनाएं प्रकाशित करने की कोई बंदिश नहीं है। ऐसा नहीं कि हर महीने अंक लाना है या हर रोज एक रचनाकार को प्रकाशित करना है। इसलिएऑनलाइन माध्यम कितनी भी कम या अधिक रचनाएं गुणवत्ता और संपादक की सहूलियत के आधार पर प्रकाशित कर सकते हैं। एक बात मैं जोड़ना चाहूंगा कि अधिकतर ऑनलाइन माध्यम अभी एक या दो व्यक्तियों के प्रयास से चल रहे हैं इसलिए उनके पास वर्कलोड बहुत हो जाता है। संपादक के व्यस्त होने पर कभी-कभी काम इसीलिए ठप भी पड़ जाता है। यदि संपादक मंडल में चार-पांच साहित्यकारों को जोड़ा जाए तो मुख्य/प्रधान संपादक को सहूलियत रहेगी और रचनाकारों को भी अधिक मौका दिया जा सकेगा। नए रचनाकारों के लिए तो यह वरदान होगा क्योंकि प्रिंट पत्रिकाओं में उनके प्रकाशित होने के अवसर कम होते हैं। कई बार नए रचनाकार के पास भी इतना सब्र नहीं होता कि वह अपनी अप्रकाशित रचनाओं को प्रिंट पत्रिका के पास साल भर रखा छोड़ सके।
मेधा : इन प्रश्नों के अतिरिक्त कोई विशेष अनुभव आप साझा करना चाहें।
देवेश : जैसे-जैसे समय आगे बढ़ेगा, ऑनलाइन माध्यमों का महत्व भी बढ़ता जाएगा। आने वाले दशकों में तो वही मुख्यधारा हो जाएंगे। इसलिए ज़रूरी है कि ऑनलाइन माध्यम (वे वेबसाइट भी जो भविष्य में अस्तित्व में आएंगी) अपनी जिम्मेदारी को भली-भांति महसूस करें और कोशिश करें कि संकुचित स्वार्थों से दूर रह सकें। मठाधीश होने की लालसा से बचा रहना जरूरी है।
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