अनुनाद

ईजा / गिरीश अधिकारी

पिंटरेस्‍ट से साभार

अरे ईजा! तू तो बहुत दुबली पतली हो गई , क्या हुआ तुझे?” पूरे दो साल बाद दिल्ली से गांव आया दिनेश अपनी पीठ और कंधे पर टंगे बैगों को दीवाल पर रखते हुए बोला। 

उधर आंगन के दूसरे कोने में गाय को पानी दिखाती ईजा ने एक बार भी पलट कर दिनेश की तरफ नहीं देखा। गाय पानी पी रही थी और पास में ही बंधी उसकी प्यासी बछिया बाल्टी की ओर लपकने की कोशिश करने लगी।

तब तक दिनेश ईजा के करीब आ चुका था और उसमें भाँप लिया था कि ईजा बहुत गुस्से में है।  

जब गाय ने बाल्टी से अपना मुंह हटा लिया  तो कुछ और हिम्मत जुटाकर वह फिर से बोला- ” ईजा ला बछिया के लिए पानी मैं भर के ला दूं।”

 ‘”छोड़ मि कर ल्यूल सब,के जरवत न्हें, दुबइ है गैछै कूंणौ, तुम पसर रओ दिल्ली में, गोर, बाछ, गाड़, भिड़ सब म्यारै भाग भा्य, म्यर नहीं भौय क्वै… कहते-कहते ईजा ने पास के नल से स्वयं पानी भरकर बछिया के सामने रखा और गाय की रस्सी खूंटी से निकालकर गोठ बांधने के लिए ले जाने लगी। गाय को गोठ की तरफ जाते देखती उसकी बछिया अपनी रस्सी को जोर-जोर से खींच कर अपने कीले के चारों तरफ गोल-गोल घूमने लगी। दिनेश मूक  होकर यह सब देख रहा था, ये दृश्य वह बहुत समय बाद देख रहा था किंतु यह सब उसके लिए अनदेखा नहीं था। 

गाय को गोठ में बांधने के बाद ईजा बछिया की भी रस्सी निकाल कर गोठ की तरफ ले जाने लगी किंतु जल्दी से अपनी मां के करीब जाने को आतुर  बछिया को सचमुच ईजा गोठ की तरफ ले जा रही थी या बछिया ईजा को खींचे ले जा रही थी यह दिनेश की समझ से भी परे था। दिनेश जाकर चुपचाप आंगन की दीवाल में बैठ गया और अपने पुस्तैनी घर के पाखे की दन्यार को निहारने लगा, बारिशों में जहां से गिरती बंधार में वह अपने बचपन में कई बार नहाया हुआ था।

गाय को घास डाल गोठ के दरवाजे बंद करके ईजा दूसरे गोठ रसोई में चली गई और गोबर से लीपे चूल्हे में सोई बिल्ली को भगाकर छिलुके बालकर आग जलाने लगी। 

दिनेश ने इस बीच अपना एक बैग खोला और उसमें से दिल्ली से पड़ोसियों की बहू बेटों की ओर से अपने -अपने ईजा बाबू के लिए भेजे गये सामान को उनके घर पहुंचाया और वापस आकर दीवाल में बैठ गया ।

इधर ईजा रसोई से चाय के दो गिलास लेकर निकली।

गुड़ की एक डली के साथ चाय का एक गिलास दिनेश की तरफ रखकर स्वयं मुंह पलटाकर इजा दीवाल में बैठकर धोती से  गिलास पकड़ कर गुड़ के कटके के साथ चाय सुड़कने लगी।

चाय पीते- पीते दिनेश एक बार फिर हिम्मत जुटाकर बोला – ” ईजा मैं बच्चों को नहीं ले जाता पर क्या करूं उनकी पढ़ाई की खातिर हमें…

दिनेश अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि ईजा बोल उठी-

मी तुमुकैं पडूहैं अमरिका जै के ल्ही गोईं, सब बहा्न छिन तुमार, आफण ऐश खुशील रओ,

म्यर भाग में बौले भय। लागलि – मेरी हा्य जरूर लागलि, ईजा बोलती जा रही थी –

ठीक कुछी मुनुलि- “ईजा म्यर ब्या हूण दे फिर देखिये के गत हैं तेरि..म्यर क्वै नि भौय,म्यर क्वै….

 दिनेश को लगा इजा जैसे रो रही हो वह बोल उठा-

 ”ईजा तू छोड़ दे ना सारा काम, बेच दे गाय, तेरी क्या कमी हो रही है, मैं पैसे भेज दिया करूंगा।”

ईजा बोली- सब बा्ंज पड़ि गो, चार गा्ड़ मील खनि खनि बे बो रखिन उनुकैं लै छोड़ दे कूणौंसब जा्ग झौ, सिसूण जाम जा्ल तब हलौ भौलछोड़ि दे कूणौं.. पछताला तुम जरूर पछताला।”

ईजा की खिच- खिच सुनकर दिनेश को अपनी पत्नी कमला की कही हुई एक-एक बात याद आने लगी “अरे मत जाओ, ईजा की आदत खराब है, तुम्हें बातें सुनाएगी। मोहन चाचा जा तो रहे हैं, उनके हाथों थोड़े पैसे, एक बनियान और एक चवनप्राश का डब्बा भेज दो।” किंतु दिनेश ने उसकी बात नहीं मानी और ईजा को भेटने स्वयं गांव आ गया और अब ईजा का व्यवहार देखकर पछता रहा था।

 अगले कुछ दिन तक दिनेश गांव में ही रहा दोस्तों से मिला, पहाड़ के इस अल्प प्रवास के दौरान बात-बात में  ईजा ने उसे खरी खोटी सुनाई, वह झेलता रहा। इन दिनों में ईजा दिनेश से सीधे मुंह एक पल के लिए भी नहीं बोली किंतु कड़वा -कड़वा बोलकर ही सही उसने दिनेश को इन चार-पांच दिनों में भट्ट की चुटकाणीडूबके,चैंसी, गाय के दूध कीखीर, गडेरी की सब्जी के साथ-साथ और भी वह सब खिलाया जिसकी यादें दिनेश के बचपन से जुड़ी हुई थी।

गांव और ईजा से उसका बैर नहीं था, वह बचपन में इसी आंगन, खेत, खरकों में खेला करता था,लेकिन देखते ही देखते परिस्थितियां बदल गई, पिता चल बसे और वह रोजी रोटी के लिए दिल्ली चले आया।

विवाह के चार वर्ष तक तो कमला घर में रही किंतु पत्नी की जिद के कारण वह एक दिन गांव से बच्चों को भी दिल्ली लेकर चला गया। ईजा घर में अकेली रह गई। 

 इस बार वह पूरे दो साल बाद घर आया था, वह भी अकेले किंतु ईजा का व्यवहार उसे दुखी कर रहा था।

दिनेश ने अगले दिन घर से दूर अपने बंजर खेत देखें, जिसमें वह कभी अपनी बहनों और ईजा के साथ मिलकर रोपाई करता था और असोज समेरने में उनकी मदद करता था। उसकी नजर घर के आसपास के छोटे-छोटे खेतों, क्यारियों पर भी गई  जिनमें से कुछ ईजा के श्रम के कारण अभी भी हरे भरे थे। एक खेत की कई क्यारियों में  क्रमशः पालक, मेथी, मूली, लाई आदि लगा था किंतु उपयोग न होने के कारण उनमें डंठल आ गए थे। उसने देखा केले की बड़ी-बड़ी चाकें,जिनमें से कुछों में कई केले पीले भी हो गए थे जिन्हें चिड़ियाँ खा रही थी। लगभग दस दिन के लिए गांव आये दिनेश ने ईजा का उससे एक पल के लिए भी सीधा मुंह नहीं बोलने के कारण लगभग खिन्न होकर आठवें दिन वापस जाने का कार्यक्रम बना लिया। अगली सुबह हाथ मुंह धोते हुए दिनेश ईजा से बोला- 

आज मुझे जाना है।

ईजा बोली –  “जा, म्यर क्वे नि भौय द्वि साल में आ उलै एकलै, जा.. मील रोकि जै के रखौ। 

दिनेश ने कपड़े पहने,बैग कंधे पर लटकाकर ईजा के सामने आ गया, उसने देखा ईजा मुंह छुपा कर रो रही थी।

सात दिनों की बेरुखी और उलाहना का आदी हो चुके दिनेश ने ईजा को दूर से ही पैलाग कहा और जाने से ठीक पहले हिम्मत जुटा कर बोला-“इजा थोड़ा भट..

 ईजा फिर वही पुराने अंदाज में बोल उठी- “करला ना तो आल का बटी के न्हैतिन भट वट। 

दिनेश की अब और कुछ कहने सुनने की हिम्मत नहीं थी। सड़क में खड़ी मैक्स हॉर्न दे रही थी,वह बैग पकड़ कर चल दिया। जाते-जाते उसका मन पास में ही नींबू के पेड़ से दो नीबू तोड़ने का जरूर हुआ किंतु उसे ईजा से अब और कुछ नहीं सुनना था ।

 मैक्स में बैठा दिनेश माँ के निर्दयतापूर्ण व्यवहार के बारे में बार-बार सोच रहा था। अनेक प्रश्न उसके मन में उठ रहे थे। 

लगभग आठ घंटे बाद हल्द्वानी पहुंच कर उसने गाड़ी बदली। उत्तराखंड परिवहन निगम की बस में चढ़कर टिकट लिया। आठ बजे रात बस चली दी।

दिनेश माँ को अकेले छोड़ना नहीं चाहता था और माँ सब कुछ छोड़कर उसके साथ आने को भी राजी नहीं थी, किंतु इस बार माँ के व्यवहार से वह सचमुच दुखी था, इसी उधेड़बुन में खोए दिनेश की आँख लग गई और जब आँख खुली तो उसने सुबह चार बजे अपने आप को आनंद विहार बस अड्डे पर पहुंचा हुआ पाया, जहां से कैब करके छह बजे वह अपने कमरे में था। रवि और रीना पढ़ रहे थे। कमला किचन में बच्चों के स्कूल के लिए नाश्ता तैयार कर रही थी। दिनेश कमरे में जाकर बैग फर्श पर रखकर स्वयं बैड पर बैठ गया ।

कमला ने पास आकर कहा- “आ गये ईजा कैसी है ?

घर में सब ठीक तो है ना? 

दिनेश ने गहरी सांस ली और लगभग उदासी भरे भाव से बोला -” हां सब ठीक है। 

क्यों क्या हुआ, ऐसे उदास उदास क्यों बोल रहे हो ?

ईजा बहुत गुस्से में थी, उसने बहुत सुनाया, दिनेश बोला।

मैंने पहले ही कहा था मत जाओ, उनकी तो आदत ही ऐसी है, वह हमें अच्छा नहीं मानती, खार खाती है हमसे, कहते-कहते कमला ने दिनेश को चाय दी और बैग उठाने लगी किंतु उसे लगा एक बैग कुछ अधिक ही भारी है, तुरंत बोली “अब इसमें क्या भर के लाए हो?

गाड़ी में अपने ऑफिस के कार्यों को सोचता हुआ दिनेश ईजा के गुस्से और कदाचित उससे खरी खोटी सुनने के बाद स्वयं को आए गुस्से से जला भुना हुआ सा यह नहीं भाँप पाया था कि उसके बैग कुछ भारी भी हैं।

पता नहीं, क्या रखा है, देख ले कहते-कहते दिनेश उनीदी आँखों से चाय की चुस्कियां लेने लगा।

 कमला ने एक बैग की चैन खोली और एक-एक करके सभी सामान फर्श पर रखने लगी। सबसे ऊपर गाय के घी का डब्बा था जो प्लास्टिक की पन्नी में बंधा हुआ था, फिर निकली एक थैली जिसमें काले भट भरे हुए थे। इधर रवि और रीना भी बैग को घेरे खड़े हो गए। भट के नीचे की पन्नी में दबी थी दो गडेरी। एक अन्य थैले में लहसुन, एक में गहत, एक में बड़ी, गन्ना, माल्टा ….

कमला ने दूसरा बैग खोला, सबसे ऊपर  दिनेश के कपड़े, उसके नीचे पुरानी सफेद धोती की छोटी-छोटी कई गांठें ….

कमला ने एक-एक गांठ को खोलकर देखना शुरू किया। दिनेश भी चाय खत्म करके यह सब देख रहा था। पहली गांठ में मिला बग्वाली का च्यूड़ा, दूसरी गांठ में गांव में हुई रामायण का प्रसाद, एक गांठ में भांग का नमक जो कमला को बहुत पसंद था। किसी गांठ में सूखी हुई जौ, किसी में जागर के मोत्यूं, किसी में होली का गुड़, किसी में बिंदी का पैकेट, किसी में भभूत, किसी में हरेला ….. गांठ दर गांठ खुलती रही कुछ ना कुछ निकलता रहा। दिनेश यह सब देखकर पहली बार महसूस कर रहा था की ईजा के मन की वे बेरुखी की गाठें बहुत मजबूत दिख रही थी पर थी नहीं, उन गाठों में मारगांठ नहीं था। कमला सामान को समेटकर यथास्थान रखने लगी, तभी अंदर के कमरे से एक आवाज सुनाई दी कड़ाक… 

दिनेश और कमला ने घबराते हुए अंदर जाकर देखा तो पाया रवि ने दरवाजे के कब्जे में फंसा कर अखरोट तोड़ा था, उसके ऊपर की जेब में घुघुते  भी भरे हुए थे। पास में ही खड़ी रीना खजूर खा रही थी। यह सब देखकर कमला बोली “कहां से लाया?

 रवि बोला “दादी ने भेजा था मैंने पहले ही निकाल लिया था।

 उस दिन दिल्ली में पहाड़ की खुशबू से किराए के उन कमरों का भौतिक वातावरण महक उठा था।

बदलाव मानसिक वातावरण में भी हुआ। रवि और रीना अखरोट, गुड़,खजूर आदि की खुशबू और स्वाद से अभिभूत थे। कमला को अपराध बोध महसूस हो रहा था। दिनेश के पश्चाताप के आंसू छलक पढ़ने को आतुर हो रहे थे, और इधर दूर पहाड़ के किसी गांव में सदा की रहवासी एक बुढ़िया आज भी बेचैन थी क्योंकि वह एक बोतल में छांछ भेजना भूल गई थी। धिनाली के बक्से में एल्युमिनियम के दुदान में भरी छाछदेहरी के खुटकौंण में छांछ भेजने के लिए कल का धोया बिसलरी का बोतल उसे काट खाने को आ रहा था।

 ***

7 thoughts on “ईजा / गिरीश अधिकारी”

  1. डॉ0 कृष्णा राणा

    आपको कविताओं को तरह कहानी भी पूरा पहाड़ समेटे हुए हैं सर। पहाड़ की बुजुर्ग स्त्री की ममतामई भावनाएं उसके संघर्ष की गाथाएं और आधुनिक पलायन का दर्द आपने बहुत कम शब्दों में बखूबी समेटा है।

  2. डॉ0 दीपा जोशी पाण्डेय

    एक बोतल छाछ भेजना भूल गई…. माँ सिर्फ देना जानती है… हमेशा की तरह उसकी बेरुखी दिखाने को होती है
    🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

  3. सर ये कहानी हर वो बेटा पढ़े ताकि अपनी मां की मेहनत और प्यार को समझे। उसका दिल कभी न दुखाए। पलायन बूढ़े मां बाप के आसू की पोटली है इसे न अपनाएं ।

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