मैं सम्राट अशोक का स्तम्भ-लेख हूं। उसके कई स्तंभ-लेखों में से एक। मैं इलाहाबाद में अकबर के क़िले में स्थापित हूं। पहले यहां नहीं था। यहां से कोई पचास किलोमीटर की दूरी पर कौशाम्बी में था, जो मगध का भाग होने के पूर्व, वत्स राज्य की राजधानी हुआ करता था। तत्कालीन महाजनपदों में से एक। मुझे यहां सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु स्थापित करवाया गया था। मुझमें बौद्ध धर्माधिकारियों के लिए कुछ निर्देश उत्कीर्ण करवाए गए थे। देवताओं के प्रिय, प्रियदर्शी राजा कहते हैं- राज्याभिषेक के छब्बीस वर्ष बाद मैंने ये धर्म-लेख लिखवाए। स्पष्ट है कलिंग में हुए रक्तपाती विजय के बाद ही, बौद्ध धर्म अपनाने के अनन्तर ही अशोक ने, लगभग तीन सौ ईस्वी पूर्व यह लेख मुझमें उत्कीर्ण करवाया होगा। मैं धम्म के लिए देवानां प्रिय अशोक के अनुदेशों को धारण कर दिवस, मास, वर्षानुवर्ष शताब्दियों तक खड़ा रहा हूं। अपने स्थापित होने के लगभग छः सौ वर्ष बाद, 300-400 ईस्वी के बीच, गुप्तकाल में, मुझमें हरिषेण द्वारा लिखित सम्राट समुद्रगुप्त की प्रशस्ति उत्कीर्ण कराई गई। मैं सम्राट द्वारा किये आर्यावर्त व दक्षिणापथ राज्यों के विजय-अभियानों का साक्ष्य-पटल बना। देवाधिदेव द्वारा शक, मुरूण्डों पर की गई विजय-गाथा मुझ पर उत्कीर्ण की गई। कुछ आरम्भिक पंक्तियों को छोड़कर शेष में मैं विजय, पराजय, शरण, प्रणाम,युद्ध सदृश शब्दों का उत्कीर्ण समुच्चय था। इतिहास के गलियारों में इसे ‘प्रयाग प्रशस्ति’ कहा गया। मैं अब दो सम्राट-कालों के उत्कीर्ण लेखों के साथ खड़ा था। शताब्दियों तक खड़ा रहा।
एक दिन मुझे कौशाम्बी से प्रयाग ले आया गया। कौन कब लाया, इस बारे में मतैक्य नहीं। और पत्थरों की अपनी कोई जुबान होती नहीं। यह समुद्रगुप्त का काल हो सकता है या फिर चौदहवीं शताब्दी में फ़िरोजशाह का काल। या फिर बाद का। बहरहाल गुप्तकाल के बाद एक लंबे अंतराल के पश्चात मेरी पुष्ट देह पर राज्य सत्ता द्वारा फिर कुछ उत्कीर्ण किया गया। मुगल बादशाह जहांगीर के समय में, जो सन् 1605 में अकबर की मृत्यु के बाद तख़्त-नशीं हुआ था।
कभी-कभी सोचता हूं इस लंबे अंतराल में कई सम्राट आए-गए। मुझ पर क्या किसी की दृष्टि नहीं पड़ी? इसी बीच तो फाहियान और ह्वेनसांग जैसे जिज्ञासु चीनी बौद्ध यात्री आये।एक सम्राट चंद्रगुप्त के शासन काल में आया, दूसरा हर्षवर्धन के काल में। प्रमुख बौद्ध केंद्र होने के कारण वे कौशांबी आए ही होंगे। फाहियान ने तो उत्तर भारत में कौशांबी के क्षरित होते वैभव और कन्नौज के उन्नयन को लक्षित किया ही था। और ह्वेनसांग तो डेढ़ दशक से अधिक अवधि तक भारत में रहा। सम्राट हर्ष द्वारा हर पांचवे वर्ष प्रयाग में आयोजित की जाने वाली, छठी दान-सभा में वह उपस्थित भी था। उनके विवरणों में भी मेरी देह पर किसी नई उत्कीर्णता के संकेत नहीं दिखते। मेरे जीवन के लगभग दो हजार वर्षों में जहांगीर तीसरा शासक था जिसने मेरी देहयष्टि का उपयोग किया। मुझ पर अन्य बातों के साथ-साथ जहांगीर के राज्यारोहण की इबारत अंकित की गई। हां, जहांगीर के ही तो शासन काल में अंग्रेजों को भारत में व्यापार की अनुमति प्रदान की गई थी। मुग़ल काल के अवसान काल तक यही अंग्रेज व्यापारी से शासक बन गए थे। जिस मुगल बादशाह से उन्होंने भारत में तिजारत की अनुमति ली थी कालांतर में उसी के वंशजों को उन्होंने भारत से निर्वासित किया। अब भारत के विशाल भू-भाग पर उनका शासन था। अंग्रेजों की निगाह मुझ पर भी पड़ी। मैं अबतक जर्जरावस्था में पहुंच चुका था। अंग्रेज जगह-जगह चर्च खड़े कर रहे थे। दमन नीतियों के बावजूद उन्होंने सन् 1838 के आसपास मेरी मरम्मत की। इलाहाबाद को उन्होंने बाद में कई वर्षों तक संयुक्त प्रांत की राजधानी भी बनाया। उनके जाने के बाद स्वतंत्र भारत में मैं आज भी खड़ा हूं।
आज सोचता हूं क्या-क्या देख लिया मैंने अपने जीवन में। मैं ईसा पूर्व व पश्चात के कालखण्डों का साक्षी हूं। मैंने कई धर्म देखे और कई भाषाएं। मुझे मौर्य-सम्राट अशोक ने स्थापित किया था। वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया था। सम्राट समुद्रगुप्त वैष्णव था। और बादशाह जहांगीर इस्लाम का अनुयायी। मेरी देह ने मसीही स्पर्श भी पाया। मुझमें कई धर्मों की थापें हैं। मुझमें कई-कई भाषाओं की थापें हैं। सम्राट अशोक के आदेशों की भाषा प्राकृत में उत्कीर्ण है तो समुद्रगुप्त की प्रशस्ति-भाषा संस्कृत में। जहांगीर काल की इबारत फ़ारसी में उत्कीर्ण है। कोई मुझे बताए कि मुझ पर किस धर्म, किस भाषा का मालिकाना हक़ है। आज जब धरती का उत्खनन कर धार्मिकता की शिनाख़्त की जा रही है, कोई ज़मीन के उपर साढ़े दस मीटर खड़े स्तंभ की ओर क्यों नहीं देखता। मुझमें कई धर्मों, भाषाओं व लिपियों की त्रिवेणियां और संगम बह रहे हैं। जैसे मुझमें कई धर्मों, भाषाओं-लिपियों की परतें उत्कीर्ण हैं वैसी ही परतें तुम्हें ज़मीन के नीचे मिलेंगी। सबसे उपर की पर्त में आज़ाद भारत के विनिर्माण मिलेंगे और फिर गुलाम भारत के। तुम्हें अंग्रेजों के साथ-साथ फ्रांसीसियों व पुर्तगालियों के कतिपय विनिर्माण और खण्डहर मिलेंगे। सिक्ख, मुस्लिम व हिंदू शासकों के मिलेंगे। बाद की परत में बौद्ध, जैन और फिर और भी अतीतगामी होते हुए वैदिक, पूर्ववैदिक, सिंधु घाटी, और फिर धर्म-भाषाओं से परे, मूल निवासियों, आदिवासियों और गुफाओं में अंकित चित्र लिपियों तक यह जाएगा। जाने कितने प्रस्तर, काष्ठ, ताम्र या लौह-युगों से तुम्हें गुजरना होगा। ज़ाहिर है किसी भी पर्त को अंतिम पर्त नहीं माना जा सकता। जहां भी कोई कहेगा-यह मैं हूं उसके नीचे कोई और सर उठा रहा होगा।
एक बार फिर मेरी ओर देखो। मैं एक निरा स्तंभ नहीं हूं। मैं घोषित श्रेष्ठताओं के बीच समावेशी उपस्थिति का हरकारा हूं। मैं ही नहीं दुनिया में और भी कई लक्षित-अलक्षित उदाहरण मेरी तरह मिल जाएंगे। अब इस्तांबुल के हागिया सोफ़िया मस्जिद को ही लो। मेरे सामने ही तो बाईजेंटियन सम्राट जस्टिनियन प्रथम के काल में सन् 631 के आसपास एक इमारत बननी शुरू हुई थी। 637 ईस्वी में यह एक गिरजाघर के रूप मे खड़ी थी । तब इस्तांबुल भी कुस्तुंतुनिया था। एक लंबे समय तक यह इसाइयों की प्रार्थनाओं और गुनाहों का आत्मस्वीकार स्थल रहा। 1453 ईस्वी में इसे तुर्क शासक सुल्तान मोहम्मद फ़तेह द्वारा कैथेड्रल से मस्जिद में बदल दिया गया और इसके वास्तुशिल्प में इस्लामिक संस्कृति के सांचागत व कलागत परिवर्तन लाए गए। फिर एक दीर्घ अंतराल के बाद 1935 में राजनैतिक शिल्प में बदलाव के साथ मुस्तफा कमाल अतातुर्क/कमाल पाशा/ ने इसे एक संग्रहालय में बदल दिया और इसके दरवाजे सभी धर्मों और सभी राष्ट्रों के लिए खोल दिए। यह राजनीति में धर्म निरपेक्षता का शिल्प था। दुनियाभर में इसका स्वागत हुआ। यहां भारत में भी। जानते हो उस वक़्त अल्मोड़ा जेल में बंद इतिहास-चेता नेहरू इस भवन के सफर को किस तरह याद कर रहे थे।
इसका भाग्य क्या था?……..नौ सौ वर्षों तक इसने ग्रीक सेवाओं को देखा और ग्रीक पूजा में उपयोग की जाने वाली सभी धूपों को सूंघ लिया। फिर चार सौ अस्सी साल तक इसने अरबी में अज़ान सुनी और नमाज़ के लिए श्रद्वालुओं की कतारें इसके फर्श के पत्थरों पर खड़ी रही…….और अब एक दिन 1935 में इस वर्ष कुछ ही महीने पहले गाज़ी मुस्तफा कमाल द्वारा यह निर्णय लिया गया कि इसे एक संग्रहालय में बदल दिया जाए।
लगभग 85-86 वर्ष बाद इस संग्रहालय को फिर से एक मस्जिद में बदल दिया गया है। हालाकि दर्शनार्थ यह अभी भी पूरी दुनिया के लिए खुली है और इसके भीतर बने इसाई भित्ति-चित्र यथावत हैं।
मैं कहना चाह रहा हॅूं कि सबकुछ अनन्तिम है और इस अनन्तिमता का आदर किया जाना चाहिए।
मेरी इस आत्मकथा में देश-काल परक कुछ इतिहासगत विचलन हो सकते हैं। पर मेरी मंशा में रत्ती भर विचलन नहीं है ।