अनुनाद

ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताएँ की ख़राब भूमिका- अम्‍बुज कुमार पाण्‍डेय

कवियों का दुःख

संसार का कठोरतम जीव मुझे कवि समझ में आता है। देसी भाषा में कहूँ तो बिलकुल ‘कठ करेज’। और हो भी क्यों न? आख़िर सर्वाधिक वज्रपात भी उसी पर हुआ है, सर्वाधिक उपेक्षा भी उसी ने झेली है। प्लेटो से लेकर इलियट तक और भरतमुनि से लगायत अ-कविता तक कवियों ने जितना ताप सहा है, यह सोचकर जी काँप उठता है। बाप को बेटे से, गुरु को शिष्य से, पत्नी को पति से, निवेशक को मार्केट से और प्रजा को राजा से जितनी अपेक्षा होती है, उससे ज़्यादा अपेक्षा लोगों ने कवि और कविता से पाल रखी है। इस अपेक्षा और अधीरता ने कवि को दिन-ब-दिन स्वेच्छाचारी और अराजक बनाया है। समाज में जितना ही कवि को नकेल पहनाने की कोशिश की गयी, कवि उतना ही उच्छृंखल और बदमिज़ाज़ सिद्ध हुआ है। उसे जितने बंधनों में बाँधने की कुचेष्टा की गयी वह उतना ही अराजक सिद्ध हुआ है। कहना न होगा, नियामकों और कवियों का यह देवासुर संग्राम अहर्निश जारी है।

        इस संग्राम में कवि कवि से, कवि पाठक से, कवि लेखक से, कवि जनता से, कवि आलोचक से और कवि प्रकाशक से हर मोर्चे पर युद्धरत है। लोगों को लगता है कि कवि लाइन पर आ जाएँ तो दुनिया की विद्रूपता खत्म हो जाए, सारी समस्याएँ छू-मंतर हो जाएँ, और इधर कवि को लगता है, अनदर मैन इज़ हेल! वह अपनी धुन में मस्त रहने वाला अलमस्त फक्कड़ है।

        फक्कड़पन कवि की संजीवनी शक्ति है। इसी शक्ति से वह संचालित होता है। महाकाव्य रचते हुये वह अपने को ‘मंदः कवि: यशःप्रार्थी’ घोषित कर सकता है। वह प्रसन्न रहे तो सर्वगुण संपन्न होकर भी विनयातिरेक में कह बैठता है – कवित विवेक एक नहीं मोरे। वह अपमानित हो तो सीधे सुल्तान को ललकार सकता है – मोंहि हँसेहि कि कोहरहि? वह गर्वीला हो तो अकुंठ आत्मवक्तव्य में बोल सकता है – मैं कवि हूँ पाया है प्रकाश। यदि वह प्रसन्न रहे तो खीर, चरखा, कुत्ता और ढोल पर भी तुरफ-फुरत में कविता बनाकर सबको प्रसन्न कर सकता है। वह आत्मस्थ हो तो सीकरी को भी ठेंगा दिखा सकता है – संतन को कहाँ सीकरी सो काम? और यदि वह दयार्द्र हो उठे तो उसके कंठ से फूट पड़ता है – मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

        बहरहाल, परंपरानुमोदित वह ‘निरंकुशयः कवयः’ है। उससे लोग अपेक्षा पालें, उसकी भर्त्सना करें अथवा उसे सिर पर बिठाएँ। वस्तुतः अपने रचना संसार का वह आप ही प्रजापति है। उसका कोई बाल-बाँका भी नहीं कर सकता। वह जिस पर रीझ जाय उस पर पुष्प वर्षा कर सकता है, जिससे रूठ जाय उसे दोजख में धकेल सकता है।

        इतने वैशिष्ट्य को समेटे हुये अधिकांश कवि भीतर ही भीतर तिल-तिल करके गल रहे हैं। एक अंतहीन प्रतीक्षा में उस मसीहा की बाट जोह रहे हैं जो एक न एक दिन आएगा और इन कवियों को यथेष्ट मान देकर इनकी कविताओं की क्रांतिकारी व्याख्या और मीमांसा करेगा। इस प्रत्याशा में कवियों की न जाने कितनी पीढियाँ चुक गयीं लेकिन वह मसीहा नहीं आया। यहाँ सैमुअल बेकिट का एब्सर्ड सटीक बैठता है – नाइदर गोदो कम्स, नॉर वेटिंग एंड्स!

        ख़ैर, जो भी हो। कवि अनवरत लिख रहा है। उसके सामने कस्मै देवाय हविषा विधेमः जैसी किंकर्तव्यविमूढ़ता और विकल्पहीनता नहीं है। वह कभी स्वांतःसुखाय लिखेगा, कभी प्रकृति प्रेम में संसार का वरण करते हुए कहेगा – बाले तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन? जब वह कल्पनातिरेक से वह उद्विग्न होगा तो कहेगा – सत्य हुआ मुखरित जीवन में, मत सपनों के गीत सुनाओ। जीवनोल्लास से प्रेरित हो वह कविता को जगती के प्रांगण में जीवन की किलकारी भी घोषित करेगा। कवि तुकांत और अतुकांत, छंदबद्ध और छंदमुक्त, कविता – अकविता, राग-विराग, कामना और उच्चाटन से प्रेरित हो कर काव्य रचना करता रहेगा। रचे बिना उसे मुक्ति नहीं। क्या पता, रचने पर भी उसे मुक्ति मिलती है या नहीं? लेकिन रचकर कुछ पल के लिए उसे आत्मतोष ज़रूर होता होगा। रचने हेतु उसके सामने समूचा संसार है। प्रेय और श्रेय, दो छोरों के बीच वह मुसलसल झूल रहा है।

पाठकों का दुःख

हमेशा दर्शन और कथा साहित्य में निमग्न रहने वाले भाई ‘ऋष्यशृङ्ग’ ने अपनी कविताओं का एक संग्रह मुझे भेजा तो मैं आवाक् रह गया। मुझे पता भी न था कि एक कथाकार के भीतर घात लगाए कोई कवि भी बैठा है। क्षण भर के लिए मैं भूल गया था कि यह युग सोशल मीडिया का है। क्या कहूँ, सोशल मीडिया के प्रकोप ने एक से बढ़कर एक कवि तैयार किए हैं। हर आदमी कुछ न कुछ लगातार कविता में लिख रहा है। भीड़ इतनी ठसाठस है कि नागरिक और कवि में भेद करना मुश्किल हो गया है। यदि किसी विशिष्ट विधि से गणना कराई जाय तो देश में नागरिक कम और कवि ज़्यादा निकल कर आएँगे। इतने के बावज़ूद वो तमाम कवि और लेखक गुमनाम हैं जो सार्वजनिक शौचालयों में एकाकी और स्वांतःसुखाय साहित्य साधना कर रहे हैं। संचार क्रांति के इस युग में भी उनकी गुप्त साधना श्लाघ्य है। उनका योगदान ऋषियों से तनिक भी कम नहीं है जो प्राचीन काल में भोजपत्रों पर अज्ञातकुलशील बन कालजयी रचना कर विदा हो गये।

        क्या कहूँ, आठों याम जनता-जनार्दन कविता को अपनी छींक और खाँस से नया परवाज दे रही है। यदि कोई काव्य रसिक इन कवियों पर नकारात्मक टीका-टिप्पणी कर दे तो उसकी खैर नहीं।

        कविता में लिरिक्स, यति, रस, अलंकार और व्यंजना ढ़ूँढने वालों का डिज़िटल जेनोसाइड किया जा रहा है। अब ऐसे में यदि ऋष्यशृङ्ग जैसा संघर्षशील कथाकार काव्य रचना करता है तो उसका स्वागत होना चाहिए।

        हमारे यहाँ परंपरा रही है कि कवियों को अपनी योग्यता सिद्ध करने हेतु गद्य के बीहड़ में उतरना पड़ता है, लेकिन संघर्षशील कथाकार कथा साहित्य की सिद्धि प्राप्त करके कविता में उतरे हैं। काव्य रचना के पीछे की उनकी मनोवृत्ति स्पष्ट तो नहीं है लेकिन शीर्षक से उनके संकेतार्थों को समझा जा सकता है।

        ‘ऋष्यशृङ्ग’ जैसे पौराणिक चरित्र के नाम पर काव्य संकलन का होना सांकेतिक व्यञ्जना तो करता है, लेकिन ‘ख़राब’ विशेषण किसी सुसंगत निष्कर्ष पर पहुँचने में अवरोध उत्पन्न करता है।

        काव्य संग्रह के अंतःसाक्ष्य से यदि मदद ली जाय तो सबसे पहले उस वक्तव्य पर दृष्टि पड़ती है जो कवि ने समर्पण में लिखा है, ‘प्रिय मित्र नितेश पाण्डेय के लिए जिन्हें ख़राब कविताओं से सख़्त नफ़रत है।’

        इस समर्पण में एक विरोधाभास है। इससे यह अर्थ उद्घाटित होता है कि नितेश पाण्डेय या तो कवि के प्रिय मित्र नहीं हैं या फिर कवि उनसे किसी बात का प्रतिशोध लेना चाहता है और उन्हें ख़राब कविताओं का संग्रह समर्पित करता है।

        यदि उपरोक्त निष्कर्ष ग़लत है तो यह माना जा सकता है कि नितेश पाण्डेय निश्चित रूप से कवि के प्रिय मित्र हैं और उनसे मिलीभगत करके बड़े सधे-बधे तरीके से कवि ख़राब कविता लिखने वाले ख़राब कवियों का उपहास करना चाहता है। दोनों स्थितियों में वर्ण्य विषय और चिंता की बात ख़राब कविताएँ ही हैं और इसी व्याज से एक बार फिर कवियों को कटघरे में खड़ा करके उन्हें प्रश्नांकित किया जा रहा है।

 ख़ैर, संघर्षशील कथाकार के काव्य संग्रह का नाम है ‘ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताएँ’। वे ख़राब कविताओं की मीमांसा और आलोचना से बचने हेतु ख़राब कविताओं की एक अलग ही भित्ति निर्मित करते हैं। उनका मानना है, ‘लोहे को लोहा काटता है, हीरे को हीरा काटता है। इसलिए ख़राब कविताओं की काट ख़राब कविता ही है।’ ऊपरी तौर पर देखने से सहसा यह कीचड़ को कीचड़ से साफ़ करने जैसा लगता है लेकिन कलात्मक भंगिमा या व्यंग्योक्ति के माध्यम से समझा जाय तो यह अर्थपूर्ण आलंकारिक कथन प्रतीत होता है। क्योंकि ख़राब कविताओं की बात करता कवि अपनी ज़द में न जाने कितनी बातों को समेट लेता है। एक सवाल के जवाब में वह कहता है, ‘आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि हमारे शहर की तरफ चलने वाली रेलगाड़ियों में ख़राब चाय बिकती है। यह बकायदा बहुत ही जनप्रिय नुस्खा है। आम जनता ख़राब चाय पीती है और मज़ाल है कि कभी किसी ने उसकी बुराई की हो? कैसे करेंगे अगर वह बेच ही ख़राब चाय रहा हो तो? ख़राब कविता का गुण है कि वह समय ख़राब करने के अलावा और कुछ नहीं ख़राब करती। गौर से देखिए तो हमारी सरकार ख़राब, सड़कें ख़राब, पुल ख़राब, इन्जीनियर ख़राब, शिक्षा व्यवस्था ख़राब, फ़िल्में ख़राब, गाना ख़राब, खाना ख़राब – फिर इस ख़ानाख़राब की ख़राब कविताओं की ख़राबी और क्या ख़राब कर सकती है?’

        ऊपरी तौर पर गुदगुदाता यह प्रतिप्रश्न एक टीस पैदा करता है कि यदि लोगों को चतुर्दिक फैले ख़राब सिस्टम में कोई ख़राबी नज़र नहीं आती तो आख़िर ख़राब कविता से कौन सा आसमान टूटा जा रहा है। इस ख़राब आलम में थोड़ी जगह ख़राब कविताओं को भी मिलनी चाहिए। कवि ख़राब कवियों को एकजुट होने का न केवल आह्वान करता है, बल्कि वह पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों से ख़राब कवियों हेतु एक कोने में आरक्षण की भी माँग करता है।

        ख़राब कविताओं का महिमामंडन नवाचार नहीं है। कभी भवानी प्रसाद मिश्र ने ‘गीत फ़रोश’ लिखकर ऐसी शैली का सूत्रपात किया था। भवानी प्रसाद मिश्र की ‘गीत फ़रोश’ ताबदार कालजयी कविता सिद्ध हुई। उसे हिन्दी की श्रेष्ठ कविताओं में गिना जाता है। वह कविता अपनी व्यंजना और अर्थ गांभीर्य के लिए प्रतिमान बन गयी। कविता को तिजारत समझने वालों की जैसी ख़बर भवानी प्रसाद मिश्र ने ली है, वह हिन्दी साहित्य में अप्रतिम है। कविता की अवनति करने वाले कवियों को खरी-खोटी न सुनाकर कवि सीधे आत्मपरक शैली में उतरता है और साहित्य जगत का समूचा विद्रूप समाज के सामने रख देता है। यहाँ फ़ैशनेबल और व्यावसायिक कवि सबसे वेध्य हैं। सनद रहे, गीत फ़रोश का लेबल लगाकर भवानी प्रसाद मिश्र ने ईमानदार प्रतिदर्श प्रस्तुत किया है। अपनी ही कृति को निंद्य कहने का साहस और निहितार्थ हो न हो इसी मनोवृत्ति की उपज हो।

कथाकार का कवि के भीतर परकाया प्रवेश रोचक है। रही बात ख़राब विशेषण की, तो उसे अधुनातन विज्ञापन की भाषा में ध्यानाकर्षण और कौतुक से जोड़ा जा सकता है। कवि चाहता है कि येनकेनप्रकारेण ख़राब कविता पर बहस हो। दरअसल चारो ओर ख़राब कविताओं का एक बेतरतीब सा जंगल पसरा है। यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है। इसने इतना स्थान आच्छादित किया है कि अच्छी कविताओं के लिए जैसे जगह ही न बची हो।

        आख़िर ख़राब कविता कहते किसे हैं? ख़राब कविता के लिए भाषा को दोष दिया जाय या भाव या शिल्प को अथवा वर्ण्य विषय या शैली को?

        कविताओं के मूल्यांकन हेतु काव्यशास्त्रीय निकष पुराने ज़माने की बात हो चुकी है। काव्यशास्त्र और उसके संप्रदाय साहित्य की कक्षाओं से इतर अप्रासंगिक हो चुके हैं। रस, ध्वनि और वक्रोक्ति के दर्शन यदि कहीं हो जाएँ तो इसे पाठक का उद्यम माना जाएगा, न कि कवि का। कविता में इसका प्रयोग कवि अनजाने और अहैतुक भाव से कर दिया करते होंगे। इसे लेकर गहरी अभिरुचि किसी कवि में दिख जाय तो उसे भी अपवाद ही समझा जाना चाहिए। लक्षणा और व्यञ्जना तक में अधिकांश कवि मग़ज नहीं खपाना चाहते। वे फास्ट फूड की तरह कविता तैयार करते हैं और थोड़ी ही देर में वह कविता बासी हो जाती है। न उसमें वक्रता होती है, न ही ध्वन्यात्मकता, न उसमें गेयता होती है, न ही बहु स्तरीयता। पाठक भावबोध और रसाभास हेतु सिर धुन कर रह जाता है और कवि को लगता है, मुआ ज़माना इतना मूढ़ है कि उसकी कविता किसी के पल्ले ही नहीं पड़ती।

        साहित्यिक स्पर्धा और काव्यात्मक होड़ को लेकर समाज में कई जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। एक जनश्रुति है कि आचार्य केशवदास ने गोस्वामी तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ को अतिक्रमित करने हेतु ‘रामचन्द्रिका’ का विद्वतापूर्ण प्रणयन कर डाला था। उनकी गर्वोक्तियों को पढ़कर पाठक समुदाय हँसता है। रामचरितमानस की तुलना में रामचन्द्रिका को पाठकीय मान कभी न मिल सका। उल्टे रामचन्द्र शुक्ल ने केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत कह डाला। ख़राब कविताओं की होड़ में ‘ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताएँ’ कहाँ ठहरती हैं, यह परीक्षण के बाद ही पता चल सकेगा। मान कर चला जा सकता है कि अच्छी कविता के नाम पर यदि ख़राब कविताएँ पढ़ी और सराही जा सकती हैं तो पहले से ही कविता को ख़राब मान कर पढ़ लेने में भी ज़्यादा हर्ज़ नहीं होना चाहिए। हो सकता है कि इसके पीछे कवि की शुभेच्छा काम कर रही हो और वह गुणात्मक और मूल्यवान कविताओं का सृजन कर रहा हो।

समस्या ही समाधान है

आर्किमिडीज़ का सिद्धांत जानने वाला ज़रूरी नहीं कि अच्छी तैराकी भी जानता हो, और एक तैराक को आर्किमिडीज़ के सिद्धांत में मग़ज खपाने की भी कोई ज़रूरत नहीं होती। सिद्धांत के अनुरूप व्यवहार की तार्किक व्याख्या तो की जा सकती है लेकिन उससे मनोनुकूल परिणाम हस्तगत हो सके यह आवश्यक नहीं। काव्यशास्त्र का ज्ञान और साहित्यालोचन का दम भरने वाला आलोचक कितना ही विचक्षण हो, वह कविता नहीं करता और आज का कवि सिर्फ कविता करता है, शास्त्रीयता और उपयोगितावाद को वह परे धकेल देता है। ये उसके काम की बातें नहीं हैं। क ख ग अथवा एक्स वाइ ज़ेड वह जो भी लिखेगा, आत्मरंजित होकर लिखेगा। पाठक झख मारकर उसके पास आना चाहें तो आएँ, या जाएँ भाड़ में। उसे किसी की परवाह नहीं।

        एक दृष्टांत से इस बात को समझा जा सकता है। पुराने समय में अध्यापक वर्तनी, वाक्य संयोजन और शुचिता पर बहुत ध्यान देते थे। ग़लत वर्तनी और व्याकरणिक अशुद्धि पर उनकी भौंहें टेढ़ी़ीब हो जाया करती थीं, नथुने फड़कने लगते थे और उनकी शुचिता के हवन कुंड में सब कुछ जलकर भस्म हो जाता था। कालांतर में वर्तनी और व्याकरणिक दोष की वर्जनाएँ टूटीं। जो छात्र थे वो आचार्य बनकर ग़लत वर्तनी और दोषयुक्त भाषा के साथ कक्षा में नमूदार होने लगे। कुछ प्रकाशक बने, कुछ प्रूफ़ रीडर बने और कुछ संपादक के पद पर विराजमान हुये। इससे शुद्धतावाद का उन्मूलन हुआ और समस्या को ही समाधान बना दिया गया। रस, ध्वनि, व्यञ्जना और सौंदर्यबोध तलाशने वाले साहित्य रसिकों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। शुद्धतावादी इन अनाहूत साहित्यिक नियामकों के बूटों तले रौंद डाले गये। जो कुछ बचे थे उनका समूल नाश किया सोशल मीडिया ने। सोशल मीडिया के उदय ने संगीत और चित्रकला में कैसा विचलन पैदा किया यह तो नहीं मालूम, लेकिन कविता और पत्रकारिता में इससे सुनामी आ गयी। आज का कवि सच्चे अर्थों में अपने रचना संसार का प्रजापति बना। उसने साहित्य की संपूर्ण स्वायत्तता की घोषणा कर डाली। अब वह स्वयं काव्य सर्जक है, प्रूफ़ रीडर है और आप ही प्रकाशक और प्रचारक है। रचना के क्षण, अनुभूति, आस्वाद, प्रतिभा, हाइपर क्रिएटिविटी और तमाम उसूलों पर कवि पालथी मारकर बैठ गया। अब उसके भार और दूषित अपानवायु कविता के शिल्प, कथ्य और प्रतिमान बने। आज का कवि एब्सॉल्यूट पॉवर का स्वामी है। उसे कहने की जरूरत नहीं –

        लेकर रचना लौटी उदास,

        ताकता हुआ मैं दिशाकाश!

        न उसे संपादक की आवश्यकता है न प्रकाशक की। सबको धकिया कर उसका काव्य कुसुम खिलखिला उठता है।

        सोशल मीडिया जनित कविता का प्रसार पाठकों के बीच संक्रामक गति से होता है और कविता चल निकलती है।

इतने इंतिज़ामात के बाद कविता का लोकप्रिय होना तय है। फॉलोअर आह! और वाह! करने के लिए पहले से उतावले बैठे हैं। कभी-कभी कविता का पाठ करने में पाँच मिनट लगते हैं लेकिन ढाई मिनट में ही कविता पर पाँच सौ लाइक बरस चुके होते हैं। यदि अब भी कविता हिट नहीं हुई तो कवि और कवयित्रियाँ ब्यूटी क्लिनिक से निकलकर अपनी सुदर्शन तस्वीरें कविता के साथ चिपकाकर अपने रचना कर्म से पूर्णतया फारिग हो जाते हैं। चित्र के साथ कविता का शिल्प पक्ष और भाव पक्ष एकाकार होकर अद्भुत रूपक की सृष्टि करते हैं। कवि और कविता दोनों प्रत्यक्षतः अपने सौंदर्य की मुनादी करते हैं। सबकुछ खोलकर रख देते हैं। नेपथ्य में कुछ भी शेष नहीं बचता। अब भी कुछ गोपन लगे तो पाठक अपनी स्क्रीन को ज़ूम करके रेशे-रेशे की शिनाख़्त कर सकता है, चेहरे की छिपी हुई झुर्रियों और दमकते ग्लो की कार्बन डेटिंग कर सकता है। यहाँ कोई लाल डोरे देखता है, कोई ताज़ा चेहरे पर बासी उबासी देखता है, कोई रहस्योन्मुख उदासी तलाशता है, कोई कहता है आपने तो कलेजा निकालकर ही रख दिया, तो कोई कहता है मैं कविता को लेकर जा रहा हूँ एकांत में और कई बार इसे देखूँगा, पढूँगा और आत्मसात करूँगा।

सनद रहे, अज्ञेय ने इक्वेरियम में क़ैद हाँफती मछली को देखकर कविता लिखी थी और रूप तृषा और जिजीविषा का संधान किया था। मैं सोशल मीडिया के इक्वेरियम में हाँफती कविता का संधान करता हूँ और मछली की कलाबाजियाँ देखकर चुप बैठता हूँ। बाबा नागार्जुन कालिदास से बारंबार पूछते हैं तुम रोये या अज रोया था?

मैं भी कविता का रुदन देखता हूँ लेकिन मेरे भीतर कवित्व शक्ति नहीं है इसलिए कविता के रुदन पर मैं प्रश्न नहीं पूछ सकता।

        एक बात और, कवियों और पाठकों के बीच का पारिभाषिक संबंध अब पुरातन और अप्रासंगिक हो चुका है। आज के ट्रेंड में प्रत्येक कवि पाठक है और प्रत्येक पाठक कवि। दूसरे की कविता पढ़‍िए और अपनी पढ़ाइए। दूसरे की समीक्षा कीजिए और अपनी कराइए। यही एकमात्र युग धर्म है और यही समाधान भी। आलोचकों की मुखापेक्षिता का दौर ख़त्म हो चुका है। सहकारिता के इस गुर को जो सीख गया वह दोनों हाथ से लूट और लुटा रहा है। जो इस हुनर को नहीं जानता वह आग का दरिया पार करने का आर्तनाद कर रहा है। न उसे कोई पढ़ता है न कोई उसका नामलेवा है।

        हिन्दी के बड़े आलोचकों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा और नामवर सिंह तक, सभी ने अपनी साहित्यिक यात्रा काव्य लेखन से की थी और अंततः आलोचना में उतर कर ‘कविता क्या है’ विषय पर विचारोत्तेजक मीमांसा की है। सुमित्रानंदन पंत ने भी छायावाद की स्थापना हेतु पुराने संस्कारों से संवलित कवियों को बहुत खरी-खोटी सुनाई थी। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नयी कविता के कवियों ने भी गद्यावतार लेकर अपने काव्य मर्म, भाषा और शिल्प को लेकर कई तरह की तार्किक विवेचना की थी।

लेकिन पिछले कई दशकों से इस विषय पर गंभीर चर्चा नहीं हुई। ऐसा जान पड़ता है जैसे आज का आलोचक भी फुल फ्लेज़्ड कविता में ही अपना कॅरियर तलाश रहा है। इस परिदृश्य में विशुद्ध आलोचक या कवि की तलाश बेमानी है।

ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताएँ

नब्बे पृष्ठ के काव्य संग्रह में कुल चौंतीस कविताएँ संकलित हैं। कथ्य, भाव और भाषा के आधार पर ये कविताएँ ख़राब कविताएँ तो बिलकुल नहीं जान पड़तीं लेकिन कवि का पूरा ज़ोर है कि इन्हें ख़राब कविताओं की श्रेणी में रखा जाय। ख़राब शब्द की बारंबार पुनरूक्ति, पाठकों की दुर्गति और भर्त्सना से कवि अपने अभिप्रेत की सिद्धि भले चाहता है, लेकिन काव्य रचना की गुणवत्ता से बार-बार वह अपनी सामर्थ्य और समझदारी का परिचय भी देता जाता है। वह अपनी सुरुचि को न तो छिपा पाता है, और न ही पाठकों को भ्रमित करने में सफल हो पाता है। ख़राब कविताएँ पढ़ते हुये बहुत बार कवि की कलई खुल जाती है। व्यंग्य और विट का अचूक प्रयोग कवि की ख़राब कविताओं का पर्दाफाश कर देता है।

        ‘आपकी तारीफ कर रहा हूँ और आप नाराज़ हो रही हैं?’ कविता में ॠष्यशृङ्ग उन उपमानों का प्रयोग करता है जो अमूमन अशोभन माने जाते हैं। ये उपमान सौंदर्य बोध को कसैला कर देते हैं। पाठक के चित्त पर इन कविताओं का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह उपमेय को निस्सार और कुरूप समझने लगता है। इस काव्य व्यापार और अनर्गल शब्दाडंबर से वह दिखाता है कि ऐसी कविताएँ त्याज्य हैं। ये न तो उपमानों के साथ न्याय कर सकती हैं न ही कुछ नयी सृष्टि करती हैं –

        आपकी तारीफ कर रहा हूँ और आप नाराज़ हो रही हैं? ऐसा क्यों?       

         क्या ग़लत कहा मैंने जब मैं यह कहता हूँ कि

        आपकी गालों की लालिमा

        बंदर के नितंब की तरह है।

        यह छांदोग्य उपनिषद में प्रयुक्त उपमा है।

        क्या ग़लत कहा मैंने जब मैं यह कहता हूँ कि

        आपकी हर्षध्वनि

        मेढकों के टर्राने जैसी है!

        यह दार्शनिक और वैदिक उपमा है।

        क्या ग़लत कहा मैंने जब मैं यह कहता हूँ कि

        आपका रंग

        कोयल की तरह आकर्षक है!

        यह रंगभेद विरोधी मौलिक उपमा है।

        क्या ग़लत कहा मैंने जब मैं यह कहता हूँ कि

        आपकी उलझी जुल्फें

        एक राजनैतिक पार्टी के चुनाव चिन्ह जैसी हैं!

        यह ईमानदारी की ठप्पे वाली उपमा है।

ऋष्यशृङ्ग का यह काव्य कौतुक देखकर रीतिकालीन कवि ठाकुर की कविता याद आती है जिसमें उन्होंने ऐसे कवियों को खूब खरी-खोटी सुनाई थी जो शब्दाडंबर से काव्य निर्माण करते थे और उन्हें लगता था कि उन्होंने बहुत अर्थगर्भ भावप्रवण काव्य सृजन कर दिया है। ऋष्यशृङ्ग के समानांतर कवि ठाकुर की कविताओं को रखकर देखने से बहुत कुछ साफ़ हो

जाता है –

        सीखि लीनो मीन, मृग, खंजन, कमल, नैन,

          सीखि लीनो जस औ प्रताप को कहानी है।

          सीखि लीनो कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिंतामनि,

          सीखि लीनो मेरु औ कुबे गिरि आनो हैं।

         ‘ठाकुरकहत याकी बड़ी है कठिन बात,

          याको नहीं भूलि कहूँ बाँधीयत बानो हैं।

          डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,

          लोगन कबित्त कीबो खेल करि जानो हैं।

            मांस की गरेथी कुच कंचन-कलस कहैं,

             मुख चंद्रमा जो असलेषमा को घर है।

         दोनो कर जुगल मृनाल, नाभि कूप कहैं,

         हाड़ हो को जंघा ताहि कहै रंभा तर है।

         हाड़ को बसन ताहि हीरा, मूँगा, मोती कहैं,

         चाम को अधर ताहि कहैं बिंबाधर है।

         एती झूठ जुगति बनावै औ कहावै कवि,

         ताहू पे कहै कि हमें सारदा को बर है।”

        रोजनामचा कविता का विषय नहीं हो सकता है जब तक उसमें कुछ वैशिष्ट्य न हो। वैशिष्ट्य इस अर्थ में कि कविता से किस प्रकार के मूल्यों का सृजन हो रहा है अथवा उसमें कौन सा नूतन सौंदर्य विधान है। जिस काव्य में वाग्वैचित्र्य, नाटकीयता, ध्वन्यात्मकता या रसोद्बोधन की क्षमता न हो वह त्याज्य है। नियमित दिनचर्या लिखने वाला भी यदि अपने आप को कवि मान ले तो यह उसकी आत्ममुग्धता ही कही जाएगी। बड़े और समर्थ कवियों में भी कभी-कभी यह दोष देखने को मिलता है कि वे इतवृत्त को ही काव्य का उद्देश्य समझ लेते हैं और तमाम अनुपयोगी बातों का उल्लेख करके कविता को बोझिल और लैथार्जिक बना देते हैं। इस प्रसंग में जायसी और मैथिलीशरण गुप्त जैसे सचेत और प्रतिभासंपन्न कवि भी समीक्षकों की आलोचना से नहीं बच पाये हैं। वही निराला जैसा कवि अपनी बेटी की मृत्यु पर शोकगीत लिखता है और वह कविता साहित्य की धरोहर बन जाती है। अभिनवगुप्त की मान्यता है, प्रतिभा अपूर्व वस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा।” प्रतिभावान कवि में वह क्षमता होती है कि वह अपनी सामर्थ्य से ऐसी निर्मिति करता है जो सबके लिए संभव न हो।

        ऋष्यशृङ्ग अपनी कविता ‘आशंका है कि’ में इसी प्रवृत्ति और काव्य मोह का दृष्टांत प्रस्तुत करता है। ऋष्यशृङ्ग उक्त कविता में अनागत प्रेयसी के आगमन में उत्पन्न होने वाली नाना कठिनाइयों और ऋतुओं की फेहरिस्त बनाता है और अंत तक आते-आते मारण दशा की कल्पना तक कर डालता है। उसे लगता है अपनी आतुरता और पीड़ा को अभिव्यक्त करने का एक मात्र माध्यम कविता है। यह कविता पाठक के लिए कितनी मूल्यवान है वह इससे अनभिज्ञ है। कविता का अंत कुछ यूँ होता है –

        आशंका है कि

        इस साल भी पिछले साल की तरह मैं अपने गुनाहों को गिनूँगा

        शतरंज के खेल में तुमको शह और खुद को मात दूँगा

        सन्नाटे में खुद से खेलता हरदम हारता जाऊँगा

        तुम यकीन मत करना, जल्दी ही मैं मर जाऊँगा।

        ऋष्यशृङ्ग के सोचने का तरीक़ा अलहदा है। वह संसार को अलग नज़रिये से देखता है। वह एकाकी रहता है। इसी एकाकीपन और प्रतीक्षा से उपजी कविता है – ‘ऋष्यशृङ्ग एक कमरे में रहता है’। अनागत की प्रतीक्षा और आतुरता ने ऋष्यशृङ्ग को शिथिल और उदास बना दिया है। उसका दरवाज़ा सबके लिए खुला है। वह सबकी आवाभगत के लिए तैयार है। वह किसी का अनादर नहीं करना चाहता। यही कारण है कि उसके कमरे में जड़-चेतन, धूप, धूल-मिट्टी, बरसाती कीड़े और घोंघा व कपास सब चले आते हैं। वह अशरण शरण है। लेकिन जिसके आगम की उसे प्रतीक्षा है, वह नहीं आती। ऐसे में वह अपने प्रिय के आगमन पर किसी तरह का जोख़िम नहीं लेना चाहता जिससे वह चली जाय। इसी दुश्चिंता में वह अपने कमरे का

दरवाजा हमेशा खुला रखता है –

        इतना कहता है कि

        कभी वह लौटेगी तो

        बन्द दरवाज़ा देख कर

        निराश न हो जाए।

        प्रस्तुत कविता में एक गूढ़ रूपक है जिसमें रहस्यात्मकता है। जैसी रहस्यात्मकता महादेवी वर्मा की कविताओं मे मिलती है। ‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल’ से इसका साम्य मेल खाता है।

        ऋष्यशृङ्ग दुनिया भर का सार्थक-निरर्थक चिंतन करता रहता है। इसी मनोदशा की उपजात कविता है – ‘और सोचता रहता है’। क्या उपयोगी है, क्या अनुपयोगी, इसकी परवाह किये बिना वह तरह-तरह के विषयों पर सोचता रहता है। उसके चित्त में जितनी तरंगें उठती हैं, सब को वह कविता का वर्ण्य विषय बनाता चला जाता है। रक्तदान करने वाला, बूढ़ा आत्मकथा लेखक, पैसे वाला दानदाता, घरेलू औरत और ख़राब कवि से लेकर सच्चे मनुष्य तक सब उसके भाव जगत और कविता में स्थान बनाते जाते हैं। वह एक-एक कर के सबके भीतर प्रविष्ट होता है और उनके जीवन के महत्तम कार्यों का अंतर्द्वंद्व कविता में रचता है। उक्त कविता कथ्य में तो मौलिक है लेकिन प्रस्तुति में सपाट और अभिधात्मक। वह पाठक के मन पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाती।

        ऐसी ही एक कविता है – ‘चलिए आपको बताता हूँ’। यह कविता कवि के उद्विग्न चित्त दशा का नाटकीय प्रतिफलन है। कवि अपने नितांत निजी जीवन में जिन परिस्थितियों और अंतर्द्वंद्वों से घात-प्रतिघात करता है, बाहरी समाज उसे और ‘डेस्परेट’ करता है। हर व्यक्ति दूसरे के जीवन में ताक-झाँक और आवाजाही का अभ्यस्त है। वह तनिक परवाह नहीं करता कि उसके इस व्यापार से सामने वाला और चिड़चिड़ा हो जाएगा। इसी चिड़चिड़ेपन से कवि उकता जाता है और कहता है – ‘चलिए आपको बताता हूँ’। एक ही बात को ऊर्ध्वाधर और आड़ा-तिरछा करके कवि आत्मालाप करता है। आत्मलाप कवि का है और संबोधित किया जाता है एक ऐसी स्त्री को जो कवि की पत्नी के अलगाव को लेकर अत्यंत जिज्ञासु है। कविता का पर्यवसान व्यंग्य में होता है और कवि सामने वाले को निष्कवच कर देता है –

        चलिए आपको बताता हूँ

        झूठ भी उतना ही है चटपटा

        जितना सच मज़ा देता है

        फर्क बस इतना है कि

        मेरा झूठ आपको उघार देता है।

        ‘आपको कुत्ता काट लेगा’ संग्रह की सर्वाधिक मारक कविताओं में से एक है। व्यंग्य का ऐसा अचूक निशाना कि कविता की ज़द में आने वाला तिलमिला जाय और कुछ भी न कर सके। कवि कहता है –

        लोहे को लोहा काटता है

        हीरे को हीरा काटता है

        आप बच के चलिए

        आपको कुत्ता काट लेगा।

        समान गुण-धर्म के आधार पर कवि अन्योक्ति का चयन करता है और व्यक्ति में कुत्ते का आरोपण कर देता है। कविता कुछ आगे चलकर अधिक मुखर होती है और कवि प्रश्नाकुल हो पूछ बैठता है –

        कोई जब घूमता है सुबह सवेरे

        कुत्ते के साथ-साथ

        कौन किसको घुमाता है

        नहीं समझ आती है बात।

    ‘आपको कुत्ता काट लेगा’ पढते हुये धूमिल की कविता ‘मोचीराम’ की स्मृति ताज़ा हो उठती है। मोचीराम समाज की नवैयत और मुनष्य की फितरत का अचूक पारखी है। उसकी निगाह गामा किरणों की तरह अचूक और वेधक है। वह अपनी वाग्मिता से सामने वाले का कायांतरण जूते में कर देता है –


       
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में

        न कोई छोटा है

        न कोई बड़ा है

        मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है

        जो मेरे सामने

        मरम्मत के लिये खड़ा है।

        साहित्य का इतिहास बताता है कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कवियों ने भी अपने जीवन में तमाम औसत और सामान्य कविताओं की निर्मिति की है। उनकी प्रत्येक कविता न तो उत्कृष्ट का उदाहरण है और न ही कालजयी का मानक। ठीक इसी तरह तमाम औसत कवियों ने भी अपने जीवन में कुछ न कुछ उत्कृष्ट रचा अवश्य है। लेकिन जैसे नामवर कवियों की औसत रचनाओं की चर्चा नहीं होती, उसी तरह औसत कवियों की अच्छी रचनाएँ भी गुमनामी में धकेल दी जाती हैं। ऋष्यशृङ्ग इस कसौटी के द्वन्द्व और भँवर से ख़ुद को उबार लेता है। वह पहले से ही ख़राब कविताओं का कवि होने की निर्भ्रांत घोषणा करके कवि के भारयुक्त योग-क्षेम से ख़ुद को मुक्त कर लेता है – कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ

        ध्यातव्य है कि जिस समाज में हर दूसरा व्यक्ति गले में तख्ती डाल कर अपने कवि होने का विज्ञापन कर रहा हो, वहाँ कवि होने का लोभ संवरण करने वाला ऋष्यशृङ्ग विलक्षण गुणों का स्वामी जान पड़ता है। उसके कवि व्यक्तित्व का साक्षात्कार करके अष्टावक्र की कथा याद आती है। अष्टावक्र को देखकर जो लोग हँस पड़ते थे, वही लोग अष्टावक्र के तर्क और वैदुष्य के आगे नतशीश हो जाया करते थे। उनकी समझ में आ जाता था कि काया को देखकर मनीषा और प्रज्ञा का अनुमान ग़लत हो सकता है।

         ऋष्यशृङ्ग बकैत है, बकैती करता है। तुकबाज है, तुकबंदी करता है। लेकिन इसी बकैती और तुकबंदी के संधिबिंदु पर चमत्कृत करने वाला वह कुछ ऐसा कह जाता है जो औसत व्यक्ति की सोच से परे है। उसकी व्यञ्जना इतनी धारदार होती है कि उसके पल्लवन हेतु हज़ारों शब्दों का निबंध भी छोटा पड़ जाय। उसके तुकबंदी और अनर्थकारी शाब्दिक विपर्यय से जो ध्वन्यार्थ निकलता है वह विस्मय से भर देता है –

        देख रही थी टीवी

        खिलखिलाती थी मेरी बीवी

        बीच में एक प्रचार आया

        हमने पूछा कि कौन है?

        क्रिकेटर ये भारी है!

        हमने दोहराया, क्या कहा

        भेस बदला जुआरी है!

        कर रहा था कोई अभिनेता घोटाला

        इलायची के नाम पर थमाता था पानमसाला

        बीवी ने कहा महानायक हैं

        हम समझे सबसे बड़े नालायक हैं।

        ‘उजाले में’ शीर्षक की यह कविता इस काव्य संग्रह की प्रतिनिधि और सबसे प्रदीर्घ कविता है। कहना न होगा कि ऋष्यशृङ्ग इस कविता में अपने शिल्प, कथ्य और काव्य कला के चरम पर है। क्रिकेट आज के युग का सबसे बड़ा जुआ है। सबसे बड़ा जुआ इसलिए क्योंकि इसे वैश्विक समाज और लब्धप्रतिष्ठ नियामक संस्थाओं का विधिक अनुमोदन प्राप्त है। यह विश्वव्यापी ऐसी अपसंस्कृति है जिसने सबकी चेतना का हरण कर लिया है। क्रिकेट के पीछे चल रहा समूचा व्यापार आम प्रशंसक और क्रिकेट प्रेमियों से छिपा नहीं है। लेकिन अब भी इसे कुलीनों का खेल कह कर संबोधित किया जाता है और आबालवृद्ध, नर-नारी सब पूरी तल्लीनता और स्पिरिट से क्रिकेट में आकंठ डूब उतरा रहे हैं। यदि सारे धतकर्म और अनाचार के बाद भी यह कुलीनों का खेल है, तो ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताएँ अपने ध्वन्यार्थ और व्यञ्जना में सार्थक और मूल्यवान हैं।

        क्रिकेट, सिनेमा और समाचार ने टीवी स्क्रीन का आधा वक़्त अख़्तियार कर रखा है। सिनेमा यदि काल्पनिक झूठ है, तो समाचार करीने से तराशा गया ताज़ा झूठ। उस पर विचारधारा का चमकदार मुलम्मा चढा कर बेचा जा रहा है। जिस पूत के पाँव पालने में ही देखकर सुधीजनों ने बुद्धू बक्सा कहकर अभिहित किया था, अब वह तरुणाई पार कर अलमस्त यौवन में गोते लगा रहा है। इसी स्क्रीन पर इलायची का नाम लेकर पान मसाला बेचते नायक-महानायक हमारे समाज का मानक तय कर रहे हैं। इनमें न शील है, न संकोच। ईमानदारी स्क्रीन के पीछे बेचते हैं और प्रॉडक्ट स्क्रीन पर।

        यही संदर्भित कविता का कथ्य है। कविता अपनी व्याप्ति में समाज का बहुत कुछ समेट लेती है। ऋष्यशृङ्ग सबको स्कैन करता है। सब भेष बदले जुआरी और नालायक हैं। खिलाड़ी, अभिनेता और महानायक होना इनका कॅमोफ़्लॉज़ है।

         ऊपर से वाचाल दिखने वाला ॠष्यश्रृंग आभ्यांतर से चेतना संपन्न और सूक्ष्म पर्यवेक्षण वाला है। वह सिद्धांत और अनुभूति के मध्य फैले अंतराल को बखूबी टटोलता है, फिर निष्पत्ति तक पहुँचता है। वह जानता है, अब कविता से समाज का कायापलट नहीं हो सकता है। यह एक सुपरफ़िसियल विधा बनती जा रही है। इससे बहुत उम्मीद करना अतिशय आशावाद के अलावा कुछ भी नहीं है। जैसे हर हाथ में मोबाइल है, वैसे ही हर व्यक्ति कवि है। जैसे वह रील्स बनाता है, नाना व्यापार करता है, वैसे ही कविता भी लिख देता है। उसके लिए विधा और माध्यम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। सबकुछ उसके अल्टर ईगो के शमन का साधन है। इन कविताओं में अनुभूति की तीव्रता न्यूनतम है। इन कवियों का टास्क बहुत लंबा चौड़ा है। कोई कविता से सरकार बना रहा है, कोई गिरा रहा है, और कोई छीछालेदर कर रहा है। जो कवि सुबह बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा के नीचे पद्मासन में बैठकर विपश्यना कर रहा है, शाम होते ही वह मटन की रेसेपी का वीडियो लेकर हाज़िर हो जाता है और अगली सुबह पश्मिना शॉल ओढ़े मेमने के साथ गलदश्रु कविता लिखकर महफिल लूट लेता है। एब्सर्ड और विवेकशून्यता कवियों की दिनचर्या है और वही सब कविता में बेतहाशा नुमाया हो रहा है। इस नुमाइश में जो जितना सफल है, वह उतना ही बड़ा कवि है।

        ऋष्यशृङ्ग कहता है –

        सत्य का विलोम

        और सत्य का पर्याय

        महत्त्वपूर्ण नहीं

        क्योंकि

        सच समझना

        सच कहने से कहीं मुश्किल है।

        ऋष्यशृङ्ग की ऐसी तमाम कविताएँ हैं जो आम जनमानस में पसरे हुये अनीति और आचार को उजागर करती हैं। आम बोलचाल की भाषा में संवाद करती ये कविताएँ उस तिलिस्म तक ले जाती हैं जिसकी पड़ताल कुलीन, लोकप्रिय, गुट में बँटा हुआ और विचारधारा का पट्टा बाँधकर चलने वाला पेशेवर कवि नहीं कर सकता। कवियों के अपने प्रपंच हैं। अपना संगठन और अपनी चौहद्दी है। वे भी सिस्टम में एक पुर्जे की तरह काम करते हैं जहाँ से उन्हें अनेक सहूलियत प्राप्त होती है। उन्हें प्रकाशित होने और पुरस्कृत होने का भी सरंजाम जुटाना होता है। ऐसे में वे किसी को नाखुश करने का जोखिम नहीं लेना चाहते। इस लिहाज से ऋष्यशृङ्ग ही ऐसा है जो जोड़-तोड़ और तमाम बातों की परवाह न करके सब कुछ उघाड़ कर रख देता है।

         ख़राब कवि के रूप में ऋष्यशृङ्ग का उदय कोई बड़ी साहित्यिक परिघटना भले न हो, लेकिन वह ख़राब को ख़राब कहने का माद्दा जरूर रखता है। जैसे अच्छे को अच्छे की तरह जानने की प्रविधि है, उसी तरह ख़राब को ख़राब की तरह समझने का भी एक पैमाना होना चाहिए और इस पैमाने पर ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताएँ अपने प्रयोग और प्रयोजन में सफल हैं।

 ***

                                                                                                                                                                                                            

 

डॉ. अम्बुज कुमार पाण्डेय
असि.प्रो. हिन्दी विभाग,
के.बी.पी.जी. कॉलेज मीरजापुर
उ.प्र. 231001
mailtoambuj@gmail.com
mob. 9451149575

1 thought on “ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताएँ की ख़राब भूमिका- अम्‍बुज कुमार पाण्‍डेय”

  1. आलोचना के व्यक्तिवाद से गुज़रता समीक्षक कविता से मोह नहीं छोड़ पाता!
    लेख काव्य यात्रा का मोहक चित्रण करता हुआ चला है। रोचकतापूर्ण गांभीर्य!
    कवि होना सरल नहीं है किंतु आलोचक होना कठिन है और इसी कठिनता को आपने सरलता से लक्ष्य भेद किया है।
    वंदन एवं अभिनंदन!!

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