अनुनाद

ये सच है कि अपना कागज़ और अपनी रौशनाई खुद गढ़नी होती है सबको – सपना भट्ट

यहीं तो था 

यहीं तो था

अज्ञात कूट संकेतों के 

अप्रचलित उच्चारणों में गूँजता 

तुम्हारी मौलिक हँसी का मन्द्र अनुनाद

यहीं रखे थे 

प्रागैतिहासिक अविष्कारों से पूर्व के शीत और ताप

यहीं राग, विराग और हठ थे

यहीं थे त्वरा और शैथिल्य भी

जब पावस ऋतु के 

आदिम रन्ध्रों की झीसियों से अविराम भीजती थी धरा 

कंपकपाते गात की सिहरन यहीं रखी थी

अच्छे भले तटस्थ दिनों में 

जब तब चली आती थी याद सुबकती हुई।

याद थी हठीली,

मौसमी बुखार की तरह देह को मथती

उस याद में भी 

तुम्हारे नाम की अचेत बुदबुदाहट यहीं तो थी

यहीं उत्सव थे, यहीं शोक

यहीं उन्माद था, यहीं संकोच 

यहीं क्षण क्षण कटता था मन , दुःख के सरौते से 

यहीं रेतघडी सा था जीवन 

प्रतिपल छीजता और रीतता हुआ

यहीं प्रेमिल संवाद थे, यहीं अभेद्य अकेलापन

ईर्ष्याएँ यहीं थीं अदम्य, भीतर तक पैठी हुईं

यहीं हास्य था, यहीं रुदन 

यहीं था अटूट वैराग्य, यहीं अकुंठ विलास

इसी विखंडित क्षितिज पर 

पराजय का टूटा हारा सूर्यास्त था

यहीं झिलमिल आशाओं का झीना मद्धम आलोक भी 

देह की इस बंजर भूमि में 

खनिजों  धातुओं और जीवाश्मों के अतिरिक्त था 

आकंठ प्रेम से भरा हुआ मन भी 

पुरातत्व वालों की काहिली देखो

उन्हें यहां न गाढ़े चुम्बन मिले 

न अंतरंग स्पर्श और न ही आकुल आलिंगन ही

तुम तो जानते हो  !

आत्मा के इस जीर्ण खोखल में ही तो रखी थी 

बिंब दोष से खंडित मेरी कच्ची पक्की कविताएँ !

यहीं थी न

तुम्हे खोजती, मेरी आर्त विह्वल पुकार !

भूगर्भशास्त्री कब के लौट गये

जबकि यहीं भग्न जीवन था, यहीं अटल मृत्यु

यहीं तो ….

***

पाब्‍लो पिकासो

अबोला 

मावठ के शैत्य का नहीं 

उसकी हिम सरीखी 

चुप का दुःख झेलना होगा इस निस्संग ऋतु भी 

इस ऋतु भी 

उनींदे स्वप्नों से टपका करेंगे 

उसके चुम्बन कुसुम अतृप्त आत्मा के निर्जन में

सहसा अनुपस्थित हो रहेगी

अंतरंग दृश्यों से गाढ़े परिचय की उष्ण छाया,

कांधे पर सर रखकर रो देने का अभ्यस्त युगल 

एक दूजे को विदा कहेगा 

सौरमण्डल के असंख्य 

चन्द्रमाओं की उपमा

मेरे म्लान मुख के अरूप सागर में गिरकर 

ध्वस्त हो जाएगी

तुम तो कामनाओं का संताप सह लेते हो न ?

यह वंध्या देह तुम्हारे ताप के कौतुक की साक्षी हो,

तो मौलिक स्पृहाओं का जल छू कर 

मेरे शुष्क कंठ में अपनी तृषा रख देना

पृथ्वी जब अपने स्थैर्य के आदिम संकोच पर 

प्रणय की निषिद्ध चाह की परिक्रमा करेगी

तुम्हारी चुप का हठीला सूर्य 

चुपचाप हृदय के पच्छिमी घाट उतरेगा

इधर तुमसे सहस्रों प्रकाश वर्ष दूर   

स्मृतियों की अतल खोह में 

लिप्साओं की जर्जर सांझ उतरेगी

मेरे प्यार की तरह निहत्थी और पराजित 

और इससे अधिक क्या ही होगा इस निठुर संसार में !

कि मन की उन्मन भीत पर

बिछोह का तुषार बरसा करेगा नित्य

मैं फिर भी 

किसी उदार ऋतु की बाट हेरती जीवित रहूंगी….

क्या हुआ जो अलाव काम न देंगे 

आलोक न होगा….

 अहर्निश कुछ नहीं रहता 

कविता में मृदु सहवास हो 

कि गद्य में कटु वैमत्य 

अहर्निश कुछ नहीं रहता जीवन में 

जैसे शेष नहीं रहती 

कोई यंत्रणा देह के शोकागार में 

कोई स्फुरण नाड़ी में देर तक नहीं टिकता

अनिष्ट घेरते तो हैं, भय अकुलाते तो हैं 

किन्तु अधैर्य का क्लेश

अधिक दिवस हृदय में अतिथि नहीं रहता 

सदा न रूप रहता है न लावण्य 

सुमुखी कहते थे जो प्रियजन मुझे,

आज श्वेत केशों से भेद लेते हैं पराजय के वृतांत

पीड़ाओं की अनुक्रियाएँ, 

कत्थई रक्त बहता है पाँच दिवस जिन दिनों 

गात के सबसे अंधेरे प्रतीकों से झरता है नैराश्य

खिन्नता किन्तु छठे दिन शेष नहीं रहती 

स्नानघर के दर्पण में 

चिपकाई हुई मेरी बिंदियाँ भी 

गिरती रहती हैं एक एक कर चीड़ के पिरूल की तरह;

सिंगार धूल में मिल रहता है 

सबसे प्रेमिल स्पर्श भी नष्ट हो जाते हैं 

वह सबसे कोमल संसर्ग 

जो नाभि में क्षण भर को ठिठकता है

वह भी लोटे भर जल से बह जाता है उपत्यकाओं में

विवेक भी कहाँ सदा रहता है !

मनोरोग की तरह वह भी सांकेतिक भाषा मे सर उठाता है 

तुम्हारे स्वरों के आभ्यंतरिक अंतर्वस्त्र पहने 

आत्मीय मृतकों और पूर्वजों से  

मोक्ष की दुर्बोध युक्तियाँ पूछती हूँ

किसी दिशा से कोई उत्तर नहीं आता 

एक ठंडी उसाँस भरकर

निकट के एक शवदाह गृह में 

अपनी सारी प्रेम कविताएँ छोड़ आती हूँ 

इतने विपुल संसार में 

प्यार का एक शब्द नहीं बचता 

आत्मा के सीले अंधेरे में राख गिरती रहती है …

***

पाब्‍लो पिकासो

 भूलना 

विस्मरण की गाढ़ी काली छाया 

ज्यों-ज्यों कषाय दोषों से घिरे मन पर पड़ रही है

मैं सब कुछ भूलती जा रही हूं

दिशाबोध होता तो जानती

कि कहाँ से उगता है यह अनन्त आंतरिक संताप ?

धैर्य का यह उद्विग्न गुड़हल 

आख़िर कहाँ अस्त हो जाता है हर साँझ !

उसका नाम याद नहीं तो क्या ! 

इस पीली जीर्ण देह पर कहीं हाथ धर दो

सब उसी की मोहर लगी हुई जगहें हैं

तिस पर ऐसी निरुपाय यातना 

कि उसके गर्म हाथों का स्पर्श भूल रही हूं।

अब ऐसी स्मृति का क्या ही करूँ

कि उसके आयताकार गल्पकक्ष का

स्मृति भूगोल बहुत साफ़ है मस्तिष्क में,

कहाँ दुःख रखा है, कहाँ रंग और याद,

कहाँ गड़ी है कील, 

कहाँ टँगा है वार्षिक कैलेंडर; सब याद है

ऐसे में क्या अजब नहीं 

कि उसकी भाषा और देहगंध भूल रही हूं

भले ही इस आदिम दुख के बाद 

राह तकता हो कोई दूसरा तरुण दुःख,

इस जीवन के बाद किन्तु कोई दूसरा जीवन नहीं।

मेरे किस काम आएगी 

यह प्रज्ञा, यह प्रकाश ?

कि दिगन्त तक गूंज रहे हैं पराजय के सौ सौ मंत्र 

ठठाकर हँस रहा है विस्मृति बोध मुझ पर 

मेरी समूची पृथ्वी से 

ओझल होता जा रहा है स्मृतियों का अबोध सौंदर्य

मुझ पर बन्द हो रहा है यह अनुरक्त संसार ;

उसकी सूरत भूल रही हूँ …

***

पाब्‍लो पिकासो

 प्रार्थना

जलसों की भीड़ में, ढूँढते कोई आसरा

निस्पंद हो चुके खोखले हृदयों तक

पहुँचे ईश्वर थोड़ी सी बारिश

थोड़ा स्पंदन दो ना उन्हें भी प्रभु! 

कोई परछाई  मिले उनकी भी देह को 

बस एक हरी पत्ती दो 

उनकी अंधी महत्वाकांक्षाओं को 

मर चुकी है उनके हिस्से की नदी 

कुछ दिखता नहीं उन्हें आसपास 

उन्हें एक नदी की याद तो दो परमात्मा, 

उनको आँख दो

कठोर बूटों और उनसे भी कठोर मुट्ठियों 

और उनसे भी कठोर उनकी नफरतों को 

आसरा दो अपनी उदारता में 

उनकी चीख़ को जगह दो अपने अनंत में

जहरबुझी फुसफुसाहटों को साफ हवा दो साँस भर

और दोष ढूँढती आँखों को थोड़ा पानी दो

देखो ना! कैसी सूख गई है उनकी पलकें!

कितना अकेलापन है वहाँ

कि प्यार के शब्द उन्हें बाण की तरह लगते हैं 

उनके मन के सुनसान में गूंजती प्रतिहिंसा को सोख लो 

उन्हें भविष्य का आश्वासन दो

ये सच है कि दुनिया पर राख बरस रही है, 

ख़ून, आँसू और करुण पुकारें हैं चारों ओर

नस्ल और रंग की नफरतों से 

जल चुके हैं आधी दुनिया के स्वप्न, 

रोज़ कत्ल की जा रही है औरतें तुम्हारी बनाई इस दुनिया में

उधर कुछ अपने चिथड़े समेट रहे हैं

कुछ  संजो रहे हैं अपनी नफ़रतें

इधर ख़त्म ही नहीं होता मेरा रुदन 

मेरे पास बार बार कहे गए शब्द हैं, 

राख के पहाड़ पर अनायास उग आया एक पौधा है, 

एक विह्वल पुकार की याद है

कितनी थोड़ी भाषा है मेरे पास

कितनी कमज़ोर मेरी आवाज़ !

मेरे हिस्से की भाषा 

और मेरी आवाज भी उन्हें दे दो 

कोई छंद दो उन्हें 

जो शायद किसी काली नदी में बह गया है

मैंने कमज़ोर कोशिशें कीं 

अपनी और सबकी आवाज़ बनने की 

सोचा कि कोई प्यार ही पढ़ पाए तो कमज़ोर न हो 

शायद थोड़ी आस जुटे एक सूक्ष्म कोशिका भर 

उन्हें सफ़हे पलटने भर का धैर्य दो 

धैर्य दो निर्णायक वाक्य कहने से पहले थोड़ा सोच लेने का

ये सच है कि अपना कागज और अपने रौशनाई 

खुद गढ़नी होती है सबको

वह कवि हो, बाग़ी हो या कोई ईर्ष्यालु हृदय

और ये भी सच है कि मेरी रौशनाई किसी काम की नहीं 

उनकी मज़बूत और धारदार कलमों के लिए

लेकिन कभी और रीत जाएँ उनके हृदय,उनकी दवात, 

उन्हें मेरे मुहावरे और रौशनाई भी दे दो 

मैं यहाँ इस निर्जन पहाड़ पर 

भाषाहीन रह लूँगी…

***

1 thought on “ये सच है कि अपना कागज़ और अपनी रौशनाई खुद गढ़नी होती है सबको – सपना भट्ट”

  1. यहीं तो था, अबोला, भूलना और प्रार्थना- सब एक से बढ़कर एक कविताएं , शुक्रिया कवि इसे रचने के लिए ❣️

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