
कमलजीत – मेरी समझ से इस दौर में हिन्दी साहित्य और न्यू मीडिया ने एक दूसरे को मंच बना लिया है। जब मैं ‘मंच’ कह रहा हूँ तो मेरे दिमाग में मंच की सकारात्मक और नकारात्मक छवियाँ कौंध रही हैं। जो हिन्दी साहित्यकार; छोटी-बड़ी सत्ताओं के साथ हैं, न्यू मीडिया उन्हें चर्चा, पद-प्रतिष्ठा प्रदान कर रहा है, और दूसरी तरफ न्यू मीडिया का प्रयोग करके; कुछ साहित्यकार प्रतिरोध की संस्कृति रच रहे हैं। वर्चुअल दुनिया के बिग बॉस की शिनाख़्त कर रहे हैं। यहाँ भी वर्ग-संघर्ष को देखा जा सकता है।
मेधा– सोशल मीडिया पर लेखकों की उपस्थिति से पाठकों की संख्या पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
कमलजीत – बहुत जबरदस्त प्रभाव पड़ा है, निःसंदेह इससे पाठकों की संख्या बढ़ी है। फिलहाल एक नया पाठक वर्ग ऑनलाइन पढ़ रहा है, आने वाले दिनों में यह किताबों की दुनिया का पक्का पाठक हो सकता है। मगर इन्हें अच्छी किताबों और धैर्य तक ले जाना आसान नहीं होगा।
मेधा– प्रचार एवं बिक्री के नए मंच न्यू मीडिया ने तैयार किए हैं। इस पर आपके क्या अनुभव हैं ?/सोशल मीडिया पर आपकी उपस्थिति का आपकी रचनाशीलता पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
कमलजीत – एकदम, इसने मंच तो तैयार किए हैं, मगर इन मंचों के माध्यम से ग़ैरज़रूरी और औसत से नीचे का साहित्य भी खूब फल-फूल रहा है या कहें कि बिक रहा है क्योंकि यह बहुत दिखाया जा रहा है। वैसे तीसरे और चौथे सवाल का उत्तर इसी में निहित है कि न्यू मीडिया ने लेखक, प्रकाशक और पाठक के सम्बन्ध में कुछ पारदर्शिता लाई है, इसे बदला है। बेस्ट सेलर जैसे शब्द गढ़कर प्रचार-प्रसार को तेज़ किया है। रील्स की दुनिया में ज़्यादातर किताबें और किताब वाले भी ग्लैमर से अछूते नहीं हैं। वे लिखने से अधिक दिखने में विश्वास कर रहे हैं। लेखक अब परफॉर्मर हैं, प्रकाशक विशुद्ध धंधेबाज़ हैं और पाठक ग्राहक हो गए हैं। इसी सन्दर्भ में किताबें बिकने से अधिक ऑनलाइन दिख रही हैं। आज भी सरकारी खरीद अधिक है। कविताओं को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए अनेक मंच हैं, मगर गद्य के सामने अनेक चुनौतियां हैं।
मेधा- सोशल मीडिया पर आपकी उपस्थिति का आपकी रचनाशीलता पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
कमलजीत- यह मामला व्यक्ति से व्यक्ति; अलग-अलग है। किसी लेखक/कवि पर कम और किसी पर अधिक प्रभाव डला है, मगर डला तो अवश्य है। एक ओर मुझे न्यू मीडिया ने नए पाठक दिए हैं तो दूसरी ओर मेरा समय भी नष्ट किया है। इस समय धैर्य की जगह; त्वरित ने ले ली है। इस त्वरित का सही-सही मूल्यांकन करना आसान नहीं है।
मेधा – हिन्दी की ई-मैगज़ींस और महत्वपूर्ण ब्लॉग्स पर प्रकाशन के अपने अनुभव साझा करने की कृपा करें।
कमलजीत- मेरी कविताएँ, आलेख और अनुवाद लगभग पचास-पचपन प्रिंट पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। लेखन की शुरुआत यानी 2008 में ही पत्रिकाओं में छपना शुरू हो गया था। 2013 तक फेसबुक और अन्य ऐसी किसी जगह पर नहीं था। फेसबुक पर 2013 में आया। 2018 में, जब नौकरी लगभग व्हाट्सएप पर निर्भर होने लगी तो ही इसे इनस्टॉल किया। इंस्टा आदि पर आज भी नहीं हूँ। मगर 2012 से अब तक अनेक ब्लॉग्स/ वेब पोर्टल/ई-मैगज़ीन पर भी लगातार प्रकाशित होता रहा हूँ, हो रहा हूँ। 2012-13 में पहली बार, प्रसिद्ध हिन्दी ब्लॉग ‘पहली बार’ पर, फिर सम्मानित मंच ‘अनुनाद’ पर, उसके बाद चर्चित ब्लॉग ‘जानकी पुल’, सिताब दियारा, तत्सम, बिजूका, INVC, आओ हाथ उठाएं हम भी, कृत्या, खुलते किवाड़ आदि पर प्रकाशित हुआ। इन मंचों से मिलने वाली पाठकीय और आलोचकीय प्रतिक्रियाओं/टिप्पणियों/स्नेह ने काफी बल दिया। 2016 में ‘अनुनाद-सम्मान’ योजना के अंतर्गत मेरा पहला कविता संग्रह, ‘हिन्दी का नमक’ अनुनाद ने ही प्रकाशित करवाया। बाद में हिन्दवी, कविता कोश और सदानीरा ने भी मेरे लेखन को रेखांकित किया। इस तरह; ऑनलाइन मंचों के कारण मेरे लेखन को खूब प्रचार प्रसार मिला। फिर भी मेरा मानना है कि प्रिंट में छपना आज भी ज़रूरी है। इससे अलग तरह का अनभुव होता है, और साहित्यिक बनने में मदद मिलती है। प्रिंट पत्र- पत्रिकाओं में छपी कविताओं पर मिली पाठकों की कुछ चिट्ठियां/ग्रीटिंग कार्ड्स/पोस्ट कार्डस मेरी स्मृति में दर्ज़ हैं।
यह ठीक है कि ऑनलाइन पत्रिकाओं ने साहित्यिक परिवेश को अधिक लोकतांत्रिक बनाया है। मगर इनमें भी छपना आसान नहीं होना चाहिए। गुणवत्ता पहली शर्त हो। साहित्य में किसी भी प्रकार के आरक्षण का पक्षधर नहीं हूँ।
मेधा– इन प्रश्नों के अतिरिक्त कोई विशेष अनुभव आप साझा करना चाहें।
कमलजीत– मुझे लगता है कि आने वाले दिनों में ए. आई. का न सिर्फ कला-साहित्य बल्कि अन्य क्षेत्रों पर भी बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अगर समय रहते इस पर अंकुश न लगाया गया तो एक ऐसी दुनिया बनने की संभावना है, जिसे हम मनुष्य नहीं, बल्कि रोबोट संचालित करेंगे। इस दुनिया में बची खुची नैतिकता और मूल्य भी नहीं बचेंगे। सभी एक दूसरे के गिरने पर हँस रहे होंगे, मुस्कुराहट सिर्फ नवजातों के पास बचेगी। अपने एक प्रकट भाव के हवाले से कहूँ तो, ‘स्मृति से भरी यह मशीनें तार्किक और ज्ञानी तो होंगी मगर इनके पास कोई सामूहिक सपना नहीं होगा। इनके पास नींद नहीं होगी, और मैं अपनी दुनिया को ऐसे जागने के हवाले नहीं कर सकता, जिसकी पलकें न झपकती हों।’
***
प्रिय अनुनाद, आदरणीया मेधा जी, धन्यवाद! नए अंक की बधाई!
शुभेच्छु,
कमल जीत चौधरी
वर्तमान दौर की दौड़ में मूल्यों के क्षरण को लेकर आपका सूक्ष्म चिंतन दिखाई देता रहा है। सामाजिक विघटन, नैतिक गिरावट और मानवीय संवेदनाओं की क्षीणता पर आप निरंतर सवाल खड़ा करते आएं हैं। भौतिकता की अंधी दौड़ में मानवीय मूल्य पीछे छूटते जा रहे हैं, जिससे समाज में संवेदनहीनता और आत्मकेंद्रितता बढ़ रही है। आप निरंतर युवा पीढ़ी को नैतिकता, करुणा और सामाजिक समरसता की ओर प्रेरित करते हो। सुंदर साक्षात्कार के लिए अनुनाद का आभार।
बधाई एवं शुभकामनाएं।