
“हम छवियों के युग में रह रहे हैं। छवियों के युग में रहने के कारण कलाकृतियों को देखना आसान और मुश्किल दोनों हो गया है।”- प्रयाग शुक्ल
कवि, कथाकार, निबंधकार, अनुवादक, कला व फ़िल्म समीक्षक और चित्रकार प्रयाग शुक्ल साठ साल से कला की दुनिया में हैं। कला जगत से उनका गहरा जुड़ाव है। अपने दैनंदिन व्यवहार और चिंतन में वे कला संसार की विविध छटाएँ खोजते और रचते रहे हैं। वे हुसैन और सुज़ा की पीढ़ी से लेकर लगातार आज की युवा पीढ़ी के संपर्क में रहते आए हैं। कला पर उनकी तीन-चार पुस्तकें हैं, जिनमें ‘आज की कला’, ‘कला की दुनिया में’, ‘हेलेन गैलनी की नोटबुक’, और ‘स्वामीनाथन: एक जीवनी’ शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने रामकुमार, हुसैन, और मनजीत बावा पर छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी हैं, जो क्रमशः इस प्रकार हैं-‘हुसैन की छाप’, ‘रामकुमार: कला कथा’, और ‘मनजीत का चित्र संसार’। वे उन लेखकों में से हैं जो कला के साथ अन्य विधाओं पर भी लिखते रहे हैं।
कला जगत में उनकी भूमिका और लेखन के बारे में हुई बातचीत का मर्म और उसके निहितार्थ गंभीर और नए अर्थ खोलने वाले हैं। उनका मानना है कि अच्छा कला समीक्षक बनने के लिए सभी विधाओं को जानना ज़रूरी होता है। इसी कारण उनकी रुचियाँ लगातार बढ़ती गई हैं और वे उसका आनंद उठाते रहे हैं। प्रयाग जी के कला संसार में मनुष्य और प्रकृति, जीव-जंतु, वनस्पति, ग्रह-नक्षत्र से भरा-पूरा ब्रह्मांड है। प्रयाग जी की उपस्थिति हमें समृद्ध करती है। पिछले चार वर्षों से वे लगातार चित्र बना रहे हैं और हम उनकी यात्रा को देख रहे हैं। अपने अंदर के चित्रकार को खोजने, रचने और पाने की उनकी इस यात्रा को प्रश्नोत्तर के माध्यम से जानने की कोशिश की गई है। उनकी यह जो नई रचनात्मक यात्रा है, उस कोशिश में कशिश है, जिसे इस साक्षात्कार में भी देखा जा सकता है।

शर्मिला : कला की ओर आपका रुझान कैसे हुआ?
प्रयाग शुक्ल : चित्रकला की ओर मेरा रुझान किशोर दिनों से ही था। मैं अपने ज़िले का मानचित्र बनाता और उसमें रंग भरता था। यह मेरी पहली स्मृति है। उसके बाद मैं पंडितों को कुंडलियाँ बनाते हुए देखता था। जन्म कुंडली मुझे बहुत आकर्षित करती थी। चित्रों से पहला परिचय तो वही था।
फिर जब मैं कोलकाता और दिल्ली में था, चित्रों की किताबें, कैटलॉग देखता और इस तरफ़ ध्यान गया कि चित्रों की एक दुनिया है। चित्र मुझे हमेशा आकर्षित करते थे।
23 साल की उम्र में मैं कल्पना में था और हुसैन से मुलाक़ात हुई। यह एक बहुत बड़ा कारण बना चित्रों की तरफ़ मेरे रुझान का। उन दिनों विनोद बिहारी मुखर्जी, हुसैन, रामकुमार के चित्र आवरण पर छपा करते थे। धीरे-धीरे मुझे समझ में आने लगा कि चित्रों का बहुत बड़ा संसार है।
शर्मिला : चित्र बनाने की तरफ़ आप कैसे आए? उसके पीछे की स्थिति और मनोदशा क्या थी? पहले रेखांकन किया या वॉटरकलर?
प्रयाग शुक्ल : मैंने चित्र बनाना शुरू किया, इसका एक कारण यह है कि 2020 में मेरी छोटी बेटी वंशिता कैंसर से चली गई। मैं उसके ऊपर कुछ लिखना चाहता था, पर जब लिखने बैठता, अक्षर नहीं बनते थे, फूल-पत्ती बनने लगते थे। न जाने कैसी मन:स्थिति रही थी उन दिनों।
मुझे लगा, यह कोई संकेत है। उसके बाद कोविड पीरियड में घर में रखे हुए कागज़ों पर कलम और पेंसिल से रेखांकन शुरू किए। वे सैकड़ों में हैं। वे सारे काम ब्लैक पेंसिल से किए हुए हैं।
कुछ मित्रों से रंग सामग्री मंगवाई। कोविड का समय था, तो मेरे मित्र सिक्योरिटी गार्ड को रंग दे जाते थे। फिर अपने मित्रों से बनाए हुए चित्र साझा करता था।
मेरे एक मित्र भोपाल में विवेक टेंडे हैं, और कुछ अन्य मित्र भी थे। एक मित्र जो अब नहीं रहे, वे बुद्धिजीवी चित्रकार थे। कुछ समय जाने के बाद मित्रों ने कहा कि अब आप कलर में आ जाइए, पेस्टल, वॉटरकलर कीजिए, और मैं पेस्टल और वॉटरकलर करने लगा। चित्र बनने लगे, फ्रेम होने लगे, और दिखाए भी जाने लगे। पहले कलम से रंग करता था, फिर पेस्टल को फ़िक्स करने लगा। इस तरह से मैं रंग सामग्रियाँ लाने लगा और मुझे धीरे-धीरे आनंद आने लगा।
फिर एक घटना घटी। तीन साल पहले, 2021 में ‘धूमिमल आर्ट गैलरी’ के डायरेक्टर उदय जैन का एक दिन मैसेज आया—“मैं आपका शो करना चाहता हूँ।” मैंने उनके पिता रवि जैन को स्वामीनाथन की जीवनी समर्पित की है।
शर्मिला : उस समय क्या आपके पास इतने काम थे कि वे एक प्रदर्शनी के लिए पर्याप्त थे?
प्रयाग शुक्ल : उस समय मेरे पास दो-तीन सौ काम थे। मैं लगातार काम करता रहा था। कोई दिन ऐसा नहीं जाता कि मैं ड्रॉइंग या पेंटिंग नहीं करता। यहाँ तक कि यात्रा में, फ्लाइट में भी। आज जो मैंने पोस्ट किया है, वह कल रात का किया हुआ काम है।
शर्मिला : ज़्यादा रेखांकन करते हैं या पेस्टल और वॉटरकलर?
प्रयाग शुक्ल : दोनों करता हूँ। दोनों का अनुपात बराबर होगा। यात्रा में मार्कर रखने में आसानी होती है। छोटे-छोटे बॉक्स रखता हूँ—पेस्टल और एक्रेलिक कलर के ।
शर्मिला : आप चार वर्षों से लगातार काम कर रहे हैं, आपको कभी ऐसा लगा कि विधिवत शिक्षा होती तो अच्छा होता? विधिवत शिक्षा जैसी कोई चीज़ होती है?
प्रयाग शुक्ल : क्यों नहीं होती! अब मान लो, आकृतिमूलक काम जो करते हैं, जो आत्मविक्षिप्त होते हैं, वे भी कई बार सीख लेते हैं चित्र बनाना- चेहरा बनाना, आकृति बनाना। जैसे फ़िगरेटिव काम है, स्टिल लाइफ़ है, यह तो लोग सीखते ही हैं।
लेकिन एक बात और याद आती है, अंबादास कहते थे कि जब मैं अपना काम करने लगा, अपना एक्सप्रेशन ढूँढने लगा, तो जो सिखाया गया था, वह सब मुझे भूलना पड़ा।
बड़े चित्रकारों का काम यह बताता है कि वह एक नई शुरुआत है। जो सीखा था, उसे भूलकर हम अपनी भाषा ढूँढ रहे हैं। सीखते तो रहे ही हैं लोग। रज़ा ने, रामकुमार ने पेरिस में शिक्षा ली थी। दुनिया भर के तमाम चित्रकार शिक्षा लेते हैं। घर में देखते हैं।
अब पिकासो के साथ क्या हुआ? उनके पिता चित्रकार थे। 14 साल की उम्र में बड़े-बड़े कलाकारों की चीज़ें वह कॉपी करने लगा था। कोई कह नहीं सकता था कि ओरिजिनल पेंटिंग नहीं है। इस तरह की कई कहानियाँ हैं।

शर्मिला : आपके काम का स्वभाव क्या है?
प्रयाग शुक्ल : मुझे ख़ुद पता नहीं होता। जब मैं कोई लाइन खींचता हूँ तो इसकी शुरुआत क्या है! क्या निकलने वाला है! फिर वह मुझे गाइड करना शुरू करता है- चलो इधर चल पड़ो, चलो उधर चल पड़ो। मैं देखता हूँ, एक इमेज बनने लगती है, संयोजन होने लगता है। जब लगता है पूरी हो गई तो मैं रोक देता हूँ, बस इतना ही है।
इसके पीछे स्मृतियाँ हैं, अनुभव हैं, मनःस्थितियाँ हैं, रंगों से लगाव है, प्रकृति है, कोई नहीं जानता क्या है। यह तो मैं हर चित्रकार के बारे में कहूँगा कि वह जानता होता कि वह क्या कहना चाहता है, तो वह लिखकर बता देता, वह लेखक होता, चित्रकार नहीं होता।
शर्मिला : यानी रचना प्रक्रिया बताना मुश्किल है?
प्रयाग शुक्ल : रचना प्रक्रिया हर चीज़ की बताना मुश्किल है। रचना प्रक्रिया काम में दिखती है। मैं यह भी मानता हूँ, कोई भी काम ख़राब नहीं होता। कैसे कह दें कि किसी का काम ख़राब है, किसी का बनाया हुआ फूल ख़राब है। बात यह है कि उसने जमा क्या किया है।
सूरजमुखी तो कोई भी बना सकता है, लेकिन वान गॉग का सूरजमुखी—दुनिया उसकी तरफ़ क्यों आकर्षित होती है? क्योंकि वहाँ कुछ जमा हुआ है- देखने के हिसाब से, बनाने के हिसाब से, रंग को बरतने के हिसाब से, सैकड़ों तरफ़ के हिसाब से।
सबका अपना स्वभाव है, सबकी अपनी दुनिया है। वही तो सामने आती है। सबसे बड़ी चीज़ तो मैं स्मृति को ही मानता हूँ। बिना स्मृति के ना तो कल्पना संभव है, ना लिखना संभव है, ना बनाना संभव है। कोई भी मनुष्य जिसके पास कोई स्मृति नहीं है, वह क्या बनाएगा?
शर्मिला : आप जब काम करते हैं, तो आप किस रंग को पहले उठाते हैं? क्या आपके प्रिय रंग चटख हैं या हल्के?
प्रयाग शुक्ल : जो भी सामने होते हैं, जो मुझे सबसे ज़्यादा खींचता है। मैं यह नहीं सोचता कि हरा लगाना है या लाल लगाना है। इसका कोई नियम नहीं है। जिसको आप पैलेट कहते हो, उसमें सभी रंग रखे हुए होते हैं। रंग सामग्री भी विविध होती है—पेस्टल, चारकोल, रंगों के स्ट्रीक्स। कई बार ऐसा भी होता है कि कई चीज़ें सामने पड़ी होती हैं, आप कभी कलम उठा लेते हैं, कभी रंग।

शर्मिला : स्मृतियाँ अतीत की मौजूदगी तो होती ही हैं कला में, लेकिन जो आप जी रहे हैं वह किस रूप में आता है? क्या आता है?
प्रयाग शुक्ल : क्यों नहीं आता? आता ही है। जो कालखंड जी रहा हूँ, वह तो दिखेगा ही। वह तो इसलिए भी दिखेगा कि आपके अपने समय की जो चीज़ें होती हैं, उनका प्रभाव आप पर रहता है। मैं मिनिएचर नहीं बना रहा हूँ। मैं जिस तरह की कला बना रहा हूँ, उसमें अमूर्तन है, वस्तु रूप है, पेड़-पौधे हैं।
हाँ, एक चीज़ मेरे बारे में लोग कहते हैं कि मैं पेड़-पौधे बहुत बनाता हूँ- फूल, पत्ते इत्यादि। वह इसलिए कि एक कलाकार ने मुझसे पूछा था कि आप इतने पेड़ बनाते हैं? तो मैंने कहा कि पेड़ कभी भी अकेला नहीं रहने देता। अगर कोई मकान है और उसके आसपास पेड़ नहीं हैं, तो आप बहुत अकेला महसूस करेंगे, लेकिन अगर वहाँ पेड़ हैं तो आप अकेला महसूस नहीं करेंगे।
शर्मिला : काम करने के लिए क्या आप किसी क्षण का इंतज़ार करते हैं, या कभी भी बैठ जाते हैं?
प्रयाग शुक्ल : क्षण का तो इंतज़ार इस तरह से करता हूँ कि कभी मेरे सोने का समय होता है। मैं कुछ पढ़ रहा हूँ, और सामने स्केचबुक दिखाई पड़ती है, तो मैं मार्कर उठा लेता हूँ। फिर अपने कमरे में जाकर थोड़ी देर बैठता हूँ। कुछ करने का मन होता है, तो कर लेता हूँ। सचमुच जब बहुत मन हो जाता है कि कुछ करना है, अंदर से ऐसा लगने लगता है, तो कुछ बन जाता है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि रंग सामग्री लेकर बैठता हूँ और कुछ नहीं होता, लेकिन एक नियम यह है कि काम के बिना मैं नहीं रह पाता। कई बार तो ऐसा होता है कि बिना मुँह-हाथ धोए ही काम करने बैठ जाता हूँ। ज़रूरत सी बन गई है।
शर्मिला : हर कलाकार की जाने-अनजाने एक शैली बनती जाती है। कई बार ऐसा भी लगता है कि वह शैली आड़े आने लगी है। क्या ऐसी किसी स्थिति से आप गुजरे हैं, या यह अभी आपका शुरुआती दौर है?
प्रयाग शुक्ल : मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी है कि लोग अब कहने लगे हैं कि मैंने अपनी एक चित्रभाषा बना ली है। चित्रभाषा कोशिश करके नहीं बनाई जा सकती, लेकिन बन तो गई है। इसलिए मेरे काम को देखकर लोग दूर से पहचान जाते हैं कि यह प्रयाग का काम है। यह मेरे जीवन की एक बड़ी घटना है कि मुझे शैली बनानी नहीं पड़ी और बन भी गई।

शर्मिला : आपने जब काम शुरू किया तो क्या आकृतिमूलक (फ़िगरेटिव) काम नहीं किया?
प्रयाग शुक्ल : बेटी के न रहने के बाद जब मैंने ड्रॉइंग और स्केचेस बनाए, तो मुझसे अपने-आप एक बच्चा बन जाता था। वह कैसे बनता था, मुझे खुद नहीं पता। उसमें उसकी कोई शक्ल नहीं होती थी। कई लोगों ने मुझसे सवाल किया और कुछ लोगों ने कहा कि यह आपकी बेटी की प्रतिछवि है। कभी-कभी अपने-आप आकृति बन जाती है। एक स्त्री खड़ी होती है। मेरी कई ड्रॉइंग्स में आकृतियाँ बन गई हैं।
शर्मिला : चित्रकला के रास्ते में कोई चुनौतियाँ या संघर्ष?
प्रयाग शुक्ल : मेरे ख़याल से इस प्रश्न का कोई विशेष अर्थ नहीं है। जीवन में कोई भी काम सहजता से नहीं होता। रचना का मतलब ही है कि आप कुछ तलाश रहे हैं। तलाश का मतलब है कि आप चल रहे हैं।
काम करने का मन होगा, तो करेंगे ही।
चित्र बनाना कोई प्रतियोगिता नहीं है। बाकी जो चीज़ें होती हैं, वे सबके जीवन में होती हैं। काम कैसे प्रदर्शित हो? कहाँ हो? कैसे बिके? लेकिन मैं इस मामले में बहुत भाग्यशाली हूँ। अहमदाबाद में जो शो हुआ था, उसमें काम तुरंत बिक गए। अभी बेंगलुरु गया था। वहाँ मेरे पास काम नहीं थे, क्योंकि मैं अहमदाबाद से आ रहा था। एक मित्र ने कहा कि हम अपने शो में आपके काम लगाएंगे। मैंने रात को दो बजे तक तीन काम किए। वहाँ जाकर उन्हें फ़्रेम करवाया, और उनमें से एक बिक भी गया। अब मेरे साथ ऐसा होने लगा है कि 99% में अपनी इच्छा मात्र से बनाने लगता हूँ और दो-तीन काम के बाद कोई एक काम ऐसा बन जाता है जिसे मेरा मन होता है कि दिखा दूँ। वह प्रदर्शित करने के योग्य होता है। कई बार ऐसा भी होता है कि काम को एक सिरे से ख़ारिज कर देता हूँ।
शर्मिला : अब तक आपके कितने एकल प्रदर्शन और ग्रुप शो हो चुके हैं?
प्रयाग शुक्ल : पहला एकल प्रदर्शन धूमिमल गैलरी ने दिल्ली में किया। दूसरा बनारस में हुआ। मदनलाल हमारे मित्र हैं, उनके यहाँ हुआ। उनके कैटलॉग्स अलग-अलग बने हैं। तीसरा प्रदर्शन दिल्ली में हुआ, जिसका उद्घाटन रघु राय और जतिन दास ने किया। चौथा शो अहमदाबाद में हुआ, जिसका मेरे आग्रह पर गुजराती के एक बड़े कवि ने उद्घाटन किया। वहाँ कविता पाठ हुआ। और एक बड़ौदा में। ग्रुप शो तीन-चार हो चुके हैं- बेंगलुरु, गुड़गाँव की दो गैलरीज में और उत्तराखंड में मेरे एक मित्र थे वे ले गए थे। पहले लोग यह मानकर चल रहे थे कि मैं लेखक हूँ और चित्र भी बनाता हूँ, लेकिन अब मुझे चित्रकार के रूप में स्वीकार करने लगे हैं। अब लोग कवि-लेखक-चित्रकार के रूप में मेरा नाम लिखते हैं, जिसके बारे में कभी मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। ‘अहमदाबाद नी गुफा’में जहाँ कभी हुसैन, मंजीत बाबा के शो हुए, वहीं मेरा शो हुआ और 10 काम बिक भी गए।
शर्मिला : कई लोग जो चित्र बनाते हैं, वे अन्य विधाओं से भी प्रेरणा लेते हैं। जैसे-संगीत और नृत्य आदि।
प्रयाग शुक्ल : यह बहुत अच्छा प्रश्न है। मैंने ‘कल्पना’ पत्रिका में काम किया। ‘समकालीन कला’, ‘रंग-प्रसंग’ और ‘संगना’ तीन पत्रिकाओं को शुरू किया और कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन और संपादन-सहयोग किया है। हमारी ट्रेनिंग ही ऐसी हुई थी कि सभी कलाओं को गुनते थे। सभी कलाओं में अंतर्संबंध है। मेरे लिखने में सभी कलाओं का योगदान है। इसके साथ ही मेरे काम में यात्राओं का भी बड़ा असर पड़ा है। मैंने लगभग पूरा भारत देखा है। शहरों, जगहों आदि का प्रभाव भी मन पर पड़ता है।
शर्मिला : जब आप चित्र बनाते हैं, तब किसी विशेष कलाकार की याद आती है? कोई चित्रकार आपको प्रेरित करते हैं?
प्रयाग शुक्ल : मैं अपना काम अपनी तरह से ही करता हूँ, लेकिन कुछ लोग हैं जो ध्यान में बने रहते हैं। कुछ लोगों ने कहा कि मेरे काम में पॉल क्ली झाँक रहे हैं, रामकुमार झाँक रहे हैं। कुछ न कुछ ऐसा सबके साथ होता है, बस उतना ही है। अब यह सब तो मेरे भीतर बसे हुए हैं।
किसी भी कलाकार के भीतर बहुत सारे कलाकार होते हैं। मैंने तो इन साठ वर्षों में लाखों काम देखे हैं- देश-विदेश के संग्रहालयों में, कलाकारों के स्टूडियो में, कला मेलों में, कहीं किसी के निजी संग्रह में। कई पर लिख भी रहा हूँ और कई पर सार्वजनिक तौर पर भी चर्चा कर रहा हूँ। युवा कलाकार अपने चित्र भेजते हैं, व्हाट्सएप पर भी। मैं बेंगलुरु गया था, वहाँ एक गैलरी में भी गया जो नई और अच्छी है। वहाँ 34 कलाकारों के काम देखे और कैटलॉग में देखता हूँ, किताबों में काम देखता हूँ।
शर्मिला : इन दिनों कला की दुनिया को देखने-समझने में आपको क्या चीज़ें बदली हुई लगती हैं?
प्रयाग शुक्ल : जब हम लोग किशोर थे, अखबारों में श्वेत-श्याम चित्र छपते थे। वे भी दो-चार से ज्यादा नहीं होते थे। हमें शहरों में ज्यादा से ज्यादा फिल्मों के होर्डिंग दिखाई पड़ते थे। आज की स्थिति यह है कि जब हम सुबह उठते हैं सैकड़ों की संख्या में व्हाट्सएप पर तस्वीरें देखने लगते हैं। इसी तरह हम अखबारों में बीसियों-पचासों तस्वीरें देखते हैं।
फिर हम टीवी देखते हैं। इसमें भी इमेज होते हैं। हम छवियों के युग में रह रहे हैं। छवियों के युग में रहने के कारण कलाकृतियों को देखना आसान और मुश्किल दोनों हो गया है। मुश्किल इस अर्थ में हुआ है कि अब मैं किसी प्रदर्शनी में जाता हूँ, तो दिन भर की देखी हुई, या कई दिनों की, कई वर्षों की देखी हुई छवियों के साथ भी जाता हूँ। तो कला को, रचना को अलगाना मुश्किल हो रहा है। क्योंकि यही चीज़ें आपको किसी कलाकृति में दिखाई पड़ सकती हैं।
कई बार किसी चित्र को, तस्वीर को लोग होर्डिंग के लिए इस्तेमाल करते हैं। बहुत सारे कलाकार यह काम कर रहे हैं, जिसे मिक्स मीडिया कहा जाता है।
हम छवियों से घिरे हुए समय में रह रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि बहुत सारे लोगों के देखने की भूख ऐसे ही तृप्त होती रहती है। इसलिए हम इन छवियों से अलग कुछ देखें, जो हमको नया करे, उसी के लिए पहले से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है कि हम कलाकृतियों को देखें। जब मैं जामिनी राय की कोई कृति देखने लगता हूँ, तो उसमें नई-पुरानी दोनों तरह की छवियाँ शामिल हैं।
हम देखते हैं कि लोग अपने घरों की, खाने-पीने की, पहनावे की छवियों को, विज्ञापनों को साझा करते रहते हैं, लेकिन उसके अतिरिक्त वह क्या है जो हमारी आँखों को अच्छा लगे? आज नई-पुरानी सब तरह की कलाकृतियों की नए स्वाद के लिए ज़रूरत बहुत बढ़ गई है। छवियों के इस युग में, संग्रहालयों, गैलरी में जाना, वहाँ कलाकृतियाँ देखना उसकी चुनौती थोड़ी बढ़ गई है कि हम कैसे समझेंगे कि यह कला है!
शर्मिला : आप जैसे काम कर रहे हैं वैसे ही करते रहना चाह रहे हैं या आप कोई प्रयोग करना चाह रहे हैं? कोई योजना है?
प्रयाग शुक्ल : योजना बनाकर काम नहीं होते। वह अपनी इच्छा से होते हैं। प्रयोग भी क्या होते हैं? प्रयोग को तो मैं सिरे से ख़ारिज करता हूँ। जब आप प्रयोग करने चलते हैं, तो प्रयोग नहीं कर पाते हैं। मान लो लेखन में हमने तय किया कि उपन्यास में प्रयोग करूँगा। लेकिन आप क्या प्रयोग करोगे अगर आप लिख ही नहीं पाओगे? प्रयोग नाम की चीज़ का बहुत ग़लत अर्थ लिया गया है। प्रयोग क्या है! शेखर कोई प्रयोग था! वह प्रयोग लगने लगते हैं कि भाषा में उन्होंने प्रयोग किया है। निर्मल वर्मा कोई प्रयोग कर रहे थे? किसी भी लेखक का, कवि का, कलाकार का नाम लो, कोई प्रयोग नहीं करता। यह ज़रूर होता है कि उसकी थीम्स बदलती हैं, उसकी दुनिया बदलती है। उसके अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग रूप सामने आते हैं।
मैं प्रयोग करूँगा, मैं प्रयोग कर रही हूँ, योजना बना रही हूँ- ऐसा कभी नहीं होता। लेकिन आप रचनात्मक व्यक्ति हैं तो वह चेतन ढंग से नहीं होता है। वह अवचेतन ढंग से ही होता है। चेतन और अवचेतन का जो मिला-जुला रूप है वही कला-साहित्य और सभी कलाओं की दुनिया का मूल है। जो चेतन में है, वह अवचेतन में है। दोनों का मिश्रण है।
मैं यह भी कहूँगा कि आपने काम करना शुरू किया, लिखना शुरू किया तो आपको पता नहीं है कि आप क्या लिख रहे हो। अब यात्रा-संस्मरण ही है या किसी व्यक्ति को लेकर संस्मरण है। तब आप चेतन ढंग से काम करते हैं। लेकिन अवचेतन से भी कितना कुछ बाहर निकल आता है। तभी तो वह अच्छा बनता है। यह सरल सी बात है। उलझने की बात नहीं है। यह चेतन और अवचेतन का खेल है। स्मृतियों का बहुत ग़ज़ब का खेल है। हमारा जो गाँव मिट गया था, स्मृति में वह आज तक वैसा ही साबुत बचा हुआ है।
शर्मिला : चार साल हो गये आपको काम करते हुए। अपने काम में क्या कोई बदलाव नज़र आ रहे हैं?
प्रयाग शुक्ल : वह रोज़ नज़र आते हैं। मैं रोज़ रात को एक चित्र बनाता हूँ। कल रात में मैंने एक काम किया, उसे देखकर मैं चकित हो गया कि यह कहाँ से निकल आया?
शर्मिला : किन चित्रकारों का काम आपको प्रभावित करता है? किसे आप विशेष रूप से सराहते हैं?
प्रयाग शुक्ल : इसकी कोई श्रेणी नहीं है। युवा कलाकारों में बहुतेरे हैं जिनके काम को मैं पसंद करता, सराहता हूँ। यह देश बहुत बड़ा देश है। अभी लाखों की संख्या में लोग काम कर रहे हैं। कोलकाता, शान्तिनिकेतन,बड़ौदा, दिल्ली, चेन्नई, बेंगलुरु, और कितने विश्वविद्यालय, कितने कॉलेज, कितने कला संकाय हैं, फिर कला मेले में लोग आते हैं। यह इतनी बड़ी संख्या हो चुकी है कि उसमें यह पहचानना बड़ा मुश्किल है कि कौन-सा कलाकार विशेष कलाकार है और मैंने सबको देखा है। यह कहना भी मुश्किल है। लेकिन संयोग से जिनको देखने का अवसर मिला है उनमें एक हैं राजा बोरो। वे शान्तिनिकेतन के पढ़े हुए प्रिंटमेकर हैं। उनका एक काम खरीदा था। जब मैं शान्तिनिकेतन गया तो उनसे भेंट हुई। उनके स्टूडियो में गया। उनकी साथिन स्वीटी चकमा बहुत सुंदर काम कर रही हैं।
इस समय मूर्तिशिल्प में और चित्रकला में एक तरह से प्रतिभा का विस्फोट है। यह बात मैं ही नहीं कहता, एक बार अशोक वाजपेयी ने भी यह बात कही थी।
कुछ वर्षों से रजा फ़ाउंडेशन सौ कलाकारों की या पचास, साठ कलाकारों की हर वर्ष एक वरिष्ठ कलाकार से प्रदर्शनी को क्यूरेट करवाते हैं। इन प्रदर्शनियों के माध्यम से बहुत सारे नए लोग प्रकाश में आ रहे हैं। अपनी ही कहूँ तो कुछ दिनों पहले आनंद डबली नाम के चित्रकार को ढूंढा। उनसे फ़ोन पर बात हुई और संपर्क हुआ। इस तरह के उदाहरण बहुतेरे हैं।
इस प्रसंग में यह भी लगता रहता है कि बहुत से ऐसे कलाकार हैं, जो स्वयं को प्रचारित नहीं करते, पर किसी भी संयोग से अपनी तरफ ध्यान दिलाना चाहते हैं। जब मुझे अवसर मिलता है मैं उनका काम देखता हूँ। इसी सिलसिले में एब्स्ट्रेक्ट पेंटर निर्मला सिंह का नाम लूँगा, जो अच्छा काम कर रही हैं।
शर्मिला : आप यह कहना चाह रहे हैं कि भारत में युवा कलाकारों की विशाल संख्या के बीच किसी विशेष कलाकार की पहचान करना चुनौतीपूर्ण हो गया है। एक बात बताएं कई कलाकार बहुत काम करते हैं और कई बार उनके कामों में विचार और बहस की कमी होती है। जबकि कुछ कलाकार कम काम करके भी सार्थक और विचारोत्तेजक काम करते हैं।
प्रयाग शुक्ल : ऐसा तो बराबर होता रहता है। ऐसा भी होता रहता है कि किसी के काम को आप बहुत प्रॉमिसिंग काम के रूप में देखते हैं लेकिन वह काम करना छोड़ देता है। कोई बड़ा नाम बनता है, सुबोध गुप्ता।
1994 में मैंने जब प्रदर्शनी की थी तब सुबोध का नाम किसी ने नहीं सुना था। उसके लिए पहला ग्रुप शो था, जिसमें हुसैन, रामकुमार, के. सुब्रमण्यम थे। सब बड़े नाम थे। कभी-कभी ऐसा भी होता है, आप किसी को पहचानते हैं। मूल बात यह कि प्रतिभा छिपती नहीं है। मैं देखूँ या कोई और देखे।
शर्मिला : कला जगत में प्रतिभा का विस्फोट है, आधुनिक कला की गतिविधियाँ बढ़ रही हैं और दर्शक भी।
प्रयाग शुक्ल : कला जगत में दर्शक बढ़े हैं। दिल्ली में आजकल यह दिखाई पड़ता है। पहले दिन जब प्रदर्शनी का उद्घाटन होता है, तब कलाकार के मित्र आते हैं, परिवारजन, पड़ोसी आते हैं। वे ही सौ, पचास लोग होते हैं। किसी कलाकार का कला की दुनिया में आना, काम की दुनिया में आना, वैसे ही सौ लोगों को जोड़ देता है। युवा कला संग्राहक की संख्या भी बहुत बढ़ी है। मैं तो देश भर में बहुत घूमता हूँ। अहमदाबाद में देखा इतने युवक संग्रहकर्ता मेलों में दिखाई पड़ते हैं। वे जिनके पास पैसे हैं, वे काम खरीदते हैं। इस समय कला की दुनिया ही वह दुनिया है जो समाज में सबसे अधिक स्थापित हुई है।
यह पहली बार हुआ है कि भारत की झुग्गी-झोपड़ी से लेकर हर घर में रंग मिलेंगे। कैमल के कलर को देखो। यह सच्चाई है कि किसी भी घर में चले जाओ, बच्चे जहाँ स्कूल में पढ़ते हैं, वह कोई भी स्कूल हो, प्राइमरी स्कूल, नवोदय विद्यालय, ज़िला स्कूल, डी.पी.एस., सेंट जेवियर्स , किसी भी बच्चे के पास चले जाओ, उनके घरों में चले जाओ, वहाँ रंग मिलेंगे। स्टेशनरी की दुकानें इतनी ज़्यादा बढ़ी हैं, जहाँ रंग बिक रहे हैं। सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित तो कला की दुनिया ही हुई है। कैटलॉग जो बिक रहे हैं, उसे लोग ले जाते हैं। अपने घरों में चित्र लगाते हैं। यह भी तो एक नई चीज़ हुई है। किसी भी घर में जाओ तो पाँच-सात किताबें भी ना मिलें लेकिन एक-दो चित्र तो मिल ही जाएँगे। यह दर्शाता है कि कला की दुनिया बहुत बड़ी हो रही है और समाज का ध्यान उसकी तरफ जा रहा है।
सांची, खजुराहों, कोणार्क गया। इतने युवा लोग गहरी दिलचस्पी से स्मारक को देख रहे हैं। तरह-तरह के संग्रहालय, विक्टोरिया मेमोरियल का हो या म्यूज़ियम्स, कहाँ भीड़ नहीं बढ़ रही है? पहले इतने म्यूज़ियम नहीं थे। अब भारत कला भवन, चेन्नई में मॉडर्न आर्ट का म्यूज़ियम, मुंबई में मॉडर्न आर्ट का म्यूज़ियम है, एक नया म्यूज़ियम अभिषेक पोद्दार, जो बड़े कलेक्टर हैं, उन्होंने बनाया है। मैं अपने खर्चे पर सिर्फ़ उस म्यूज़ियम को देखने के लिए गया था। ‘म्यूज़ियम ऑफ मॉडर्न आर्ट एंड फ़ोटोग्राफ़ी’ बेंगलुरु का एक छोटा सा म्यूज़ियम है। ग्राउंड फ्लोर, फर्स्ट फ्लोर। लेकिन वह इतना सुंदर है कि क्या कहा जाए। तरह-तरह की चीज़ें हो गई हैं। एक गैलरी में गया ‘आर्टिस्ट शेरा’ नाम की, उसे देखकर मैं चौंक गया। वह इतनी बड़ी जगह पर बनाई गई है। इतने मन से बनाई गई है। एक युवा आदमी है वरुण बाटलीवाला। दिल्ली के हैं, बेंगलुरु आ गए हैं। मैं हैरान हो गया हूँ, बहुत बड़ी दुनिया हो रही है। यह क्या संकेत है। मैं सचमुच हैरान हूँ कि कला जगत में दर्शकों की दुनिया बहुत बड़ी हुई है।
शर्मिला : स्वामीनाथन पर हाल में जो आपने और श्रुति लखनपाल टंडन ने मिलकर पुस्तक संपादित की है, इसके बारे में कुछ बताइए।
प्रयाग शुक्ल : स्वामीनाथ के साथ बहुत समय बिताया है। उनसे बहुत मिला हूँ। देश के अन्य कलाकारों पर पुस्तक आ चुकी थी, लेकिन स्वामीनाथन पर अभी एक छोटी सी भी किताब नहीं थी। मन में आया कि यह काम तो मुझे करना ही चाहिए। इसके पहले मैंने स्वामीनाथन की जीवनी लिखी है। उनको एक ट्रिब्यूट देना चाहता था। तो मैं और श्रुति लखनपाल टंडन ने धूमिमल आर्ट गैलरी के लिए एक पुस्तक संपादित की। नाम है ‘एरा ऑफ़ जगदीश स्वामीनाथन’।
केवल स्वामीनाथन ही नहीं, वह पूरा युग इसके माध्यम से समझा जा सकता है। इसमें बहुत लोगों के लेख हैं। इसका कई जगहों पर लोकार्पण हुआ है। यह पुस्तक बहुत सराही जा रही है। इसके कारण मैं बहुत प्रसन्न हूँ।
शर्मिला : पुरस्कारों का क्या योगदान है?
प्रयाग शुक्ल :किसी पुरस्कार की लालसा, किसी नाम की लालसा सब मटियामेट कर देती है। जो अपने आनंद के लिए काम करते हैं, अंत तक वे कुछ न कुछ कर ले जाते हैं। यह एक साधारण मंत्र है, लेकिन इसे सब नहीं अपनाते। जिनमें प्रतिभा होती है, वे नहीं अपनाते। इससे क्या होता है कि आप एक छोटी दुनिया में रह जाते हैं, और जो आनंद के लिए करते हैं उनका आकाश बड़ा होता जाता है। वे दूसरी दुनिया में चले जाते हैं और लोग छोटी-छोटी चीज़ों में सिमटकर रह जाते हैं कि कौन सी गैलरी प्रमोट करेंगी।
जो दूसरे तरीके अपनाते हैं, वे कहीं न कहीं जाकर रुक जाते हैं, फँस जाते हैं। यह हम सब ने देखा और सब ने जाना है। मुक्तिबोध क्या थे! कबीर क्या थे! शमशेर जी क्या थे! शमशेर जी से ज़्यादा बड़ा तो कोई व्यक्ति हमारे आधुनिक काल में हुआ ही नहीं। जिनको न पुरस्कार की चाह रही, न नाम की चाह रही। उन्होंने लिखा है:
“सब कुछ तो दे दिया, जब मुझे मेरे कवि को बीज दिया कटु तिक्त।”
इतने गहरे कोई उतर जाता है सेंस ऑफ़ बिलॉन्गिंग में, तो बात बनती है। तब लोग ढूँढ-ढूँढकर पढ़ते हैं। अशोक सेकसरिया को लोग ढूँढ-ढूँढकर पढ़ते हैं न।
**********************************

शर्मिला बोहरा जालान– कथाकार
sharmilajalan@gmail.com
– शर्मिला जालान ने कोलकाता विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. और कृष्णा सोबती के उपन्यासों में परिवार और स्त्री विषय में एम.फिल. किया है। उनकी प्रकाशित कृतियों में दो उपन्यास और तीन कहानी संग्रह हैं जो इस प्रकार हैं—उपन्यास: शादी से पेशतर, उन्नीसवीं बारिश।
कहानी संग्रह: बूढ़ा चाँद, राग विराग और अन्य कहानियाँ। माँ, मार्च और मृत्यु, बूढ़ा चाँद कहानी पर मुम्बई, पटना, जबलपुर आदि देश भर में कई जगहों पर मंचन हो चुके हैं।
शिरकत: युवा रज़ा फ़ाउंडेशन 2018, आजतक साहित्य उत्सव-2018, रज़ा फ़ाउंडेशन 2019, गाँधी जयंती।
पुरस्कार एवं सम्मान: कृष्ण बलदेव वैद फ़ेलोशिप 2019, कन्हैयालाल सेठिया सारस्वत सम्मान 2017, भारतीय भाषा परिषद ‘युवा पुरस्कार’ 2004, कलकत्ता।