हिन्दी की दशा-दिशा — लिपिका भूषण की प्रचण्ड प्रवीर से बातचीत
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लिपिका : आज़ादी के ७७ साल बाद हिन्दी की स्थिति क्या है?
प्रचण्ड प्रवीर : हिन्दी भाषा आन्दोलन का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को दिया जाता है। आज जो कुछ भी हिन्दी है उनके ही कारण है। उस आन्दोलन का मौलिक उद्देश्य यह था कि विधि व्यवहार (कोर्ट आदि) मेँ एक आम भारतीय अपनी परिचित भाषा या मातृभाषा मेँ अपनी बात रख सके। मैँ समझता हूँ कि किसी भी देश के विकास का या सभ्यता का मूलभूत पैमाना यह होना चाहिए कि किसी जनसाधारण वादी को समुचित और ग्राह्य न्याय मिल रहा है या नहीँ। हिन्दी की स्थिति यह है कि हिन्दी भाषी राज्योँ के सरकारी कार्यालयोँ मेँ और पुलिस थानोँ मेँ हिन्दी का व्यवहार अनिवार्य है। यह संरक्षण न मिले तो सम्भव है हम कुछ दशकोँ मेँ वापस बोलियोँ या अङ्ग्रेजी पर चले जाएँ, किन्तु आन्दोलन से निकल कर आई हिन्दी भाषा बहुत- से लोगों को एक सूत्र मेँ बाँधती है, जो आज से दो सौ साल पहले तक संस्कृत का प्रमुख कार्य था। संस्कृत और फारसी जानने वाला किसी भी राज्य मेँ जा कर अपना काम चला सकता था। पढ़े-लिखे होने के लिए भारत मेँ संस्कृत का मानकीकरण हजारोँ साल तक चला। आज विधि व्यवहार का दायरा बढ़ा है और लोगों का आवागमन पहले से कहीँ अधिक हो गया है। इस नाते हिन्दी बहुउपयोगी है, किन्तु इसका अन्धकारमय पक्ष यह तथ्य है कि आज भी संविधान के अनुच्छेद ३४८ (१) के अनुसार भारत के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की भाषा अङ्ग्रेजी है। कुछ ही उच्च न्यायालयोँ मेँ हिन्दी का प्रयोग होता है। इसमेँ अविलम्ब परिवर्तन अपेक्षित है। आज एआइ और एलएलएम के युग मेँ हम अङ्ग्रेजी के मोहताज क्योँ रहेँ? सन् २०२३ से एआइ की सहायता से सर्वोच्च न्यायालय के बहुत से निर्णयोँ का कई भाषाओँ मेँ अनुवाद हो रहा है, किन्तु काम-काज अभी भी अङ्ग्रेजी मेँ ही होता है। मुझे लगता है यह आमजन को न्याय से दूर रखने का सुनियोजित ढाँचा है, जिस पर कोई ध्यान नहीँ देना चाहता। मैँ यह नहीँ कहता कि सर्वोच्च न्यायालय मेँ हिन्दी पूरी तरह लागू कर देनी चाहिए, मैँ यह कह रहा हूँ कि वादी के प्रान्तीय सम्बन्धानुसार, भारत के २२ राजभाषाओँ मेँ कम से कम ३-४ अन्य राजभाषाओँ मेँ कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए। इस मामले मेँ आधुनिक तकनीक माननीय न्यायाधीशोँ की सहायता कर सकता है।
लिपिका : हिन्दी को लेकर जो “हिन्दी बनाम अन्य भारतीय भाषाएँ” का विवाद है, वह असल मेँ कितना वास्तविक है?
प्रचण्ड प्रवीर: यह विवाद राजनैतिक है, जो जनमानस मेँ आर्थिक असुरक्षा की भावना आरोपित करने से उत्पन्न है। राजनीति वास्तविकता से भिन्न नहीँ होती। प्रश्न यह उठता है कि यह कितना महत्त्वपूर्ण है और कितना प्रासङ्गिक है। हम इसके परिमाण और सन्दर्भ पर विचार कर सकते हैँ। इस समस्या को हम पुराने चश्मे से नहीँ देख सकते। आज इण्टरनेट और विदेश से गत्यात्मक सम्बन्धोँ ने हिन्दी की महत्ता पहले से कम कर दी है और अङ्ग्रेजी ही वैश्विक भाषा बन गयी है, पर क्या यह सभी वर्गोँ के लिए एकसमान है? मैँ समझता हूँ कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गोँ मेँ अभी भी मातृभाषा और हिन्दी की एकसूत्रता की उपयोगिता क्षुण्ण नहीँ हुयी है। समस्या यह है कि हम सभी राज्य के विद्यार्थियोँ को एक तरह से ही पढ़ाना-लिखाना चाहते हैँ। हम यह चाहते हैँ कि एक ही राष्ट्रीय नीति से सभी कुछ निर्धारित हो। इसका नतीजा क्या हो रहा है? यही कि हमारे विद्यार्थी केवल नम्बरोँ के चक्कर मेँ पड़ेँ हैँ या असुरक्षित हो कर पढ़ाई-लिखाई को आर्थिक उपार्जन का साधन मात्र मानते हैँ। ज्ञान के प्रति ललक और समाज मेँ सुखिता की धारणा लुप्त है। इसका मूलभूत कारण यह है कि हम दूसरी भारतीय भाषा सीखना नहीँ चाहते। केरल, कर्णाटक, महाराष्ट्र के लोग मध्य-पूर्व, तमिलनाडु के लोग मलेशिया-सिंगापुर, पंजाब के लोग अमरीका-कनाडा, बाकी जिन्हेँ जहाँ मौका मिले भारत के बाहर ही अपना भविष्य और स्वप्नलोक ढूँढ रहे हैँ। एक तरफ भारत मेँ भारी बेरोजगारी है और दूसरी तरफ गुणवत्तापूर्ण कौशल की घोर कमी। यह कमी हमारे स्वार्थ और भाषा के प्रति अलगाव के कारण अधिक है।
आज आवश्यकता है, भारतीयोँ को आपस मेँ घुलने-मिलने की और सभी भाषाओँ के प्रति सहिष्णु होने की। अब कोई महाराष्ट्र मेँ नौकरी करने जाता है, तो वहाँ के राजनेता यह बताते हैँ कि बाहर वाला हमारे पेट पर लात मारने आया है, भले ही हम बाहर कनाडा और इङ्गलैण्ड जा कर बस जाएँ और वहाँ के मूल निवासियोँ के पेट पर लात मारेँ। जो जहाँ रहता है, वहाँ काम चलाने लायक स्थानीय भाषा सीख ही जाता है। भाषा सीखना प्राथमिक रूप से उपयोगितामूलक ही है। यदि कोई बिना हिन्दी सीखे, अङ्ग्रेजी मेँ ही काम चलाना चाहे तो चलाए। हमेँ याद करना चाहिए कि हिन्दी और समस्त भारतीय भाषाओँ की लिपि का उत्स ब्राह्मी लिपि से है। रामायण और महाभारत समस्त भाषाओँ की साझी विरासत है। मतभेदोँ के बावजूद भारतीय एक हैँ, इसलिए भाषा को लेकर विखण्डनवादी दृष्टि का कोई भविष्य नहीँ है। हमेँ तकनीक और भाषाओँ के परस्पर अनुवाद को लेकर आशान्वित रहना चाहिए कि भविष्य मेँ ऐसे आरोपित तथा विखण्डनवादी भेद कम होते जाएँगे।
लिपिका : क्या आज की हिन्दी मेँ संस्कृतनिष्ठ शब्दोँ का प्रयोग घट रहा है, और क्या यह प्रवृत्ति हमेँ सांस्कृतिक रूप से कमजोर कर रही है?
प्रचण्ड प्रवीर : बात केवल तत्सम शब्दोँ के प्रयोग की नहीँ है। संस्कृति मूल्योँ का वाहन करती है और सत्य से परिचित कराती है। हम आज हिन्दी ही ठीक से लिख-बोल नहीँ पा रहे हैँ। हम यदि केवल देशज और विदेशज शब्द का भी प्रयोग करेँ तो हमेँ सांस्कृतिक रूप से इतना खतरा नहीँ है। हमेँ अङ्ग्रेजी की चकाचौँध ने लगभग अन्धा कर दिया है। तत्सम शब्दोँ की अपनी सुन्दरता है। वहाँ बहुत से शब्द धातु, उपसर्ग, प्रत्यय आदि से बने हैँ और बहुत से शब्दोँ का विशद विवेचन है। उनकी उपयोगिता तभी है, जब हम हिन्दी को चिन्तन की भाषा बनाएँ। हम आज खिचड़ी से भी ख़राब बोलते हैँ। उदाहरण के तौर पर किसी ‘डॉग लवर’ को ‘कुत्ता प्रेमी’ कह के देख लीजिए। ऐसे सम्बोधन से पशुप्रेमियोँ का बुरा मानने का कारण, भाषा के अनुवाद से जुड़ा है। अनुवाद और मौलिक कहन मेँ बड़े आराम से भेद कर लिया जाता है। हर भाषा मूल्योँ को लेकर चलती है। भाषा का स्वरूप भी गत्यात्मक होता है। अभी हाल मेँ हिन्दी के कुछ साहित्यकार यह नारा लगा रहे थे कि तत्सम शब्दोँ का प्रयोग करने वाले साम्प्रदायिक हैँ। बात इतनी सी है कि उन्हेँ तत्समनिष्ठ हिन्दी नहीँ समझ आती और वे वैसी हिन्दी लिख ही नहीँ सकते। गौरतलब बात यह है कि उन्हेँ उर्दू और फारसी भी पढ़नी-लिखनी नहीँ आती जिसकी वे दबी जु़बान मेँ वकालत करना चाहते हैँ। ये प्रश्न निरर्थक हैँ क्योँकि इसकी उपयोगिता नहीँ है। कौन लिख रहा है तत्समनिष्ठ? मुझे तो किसी कथा-कहानी-उपन्यास मेँ नहीँ दिखता। कौन बोल रहा है शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी? मैँने किसी धारावाहिक या न्यूज चैनल या राजनेता के मुख से नहीँ सुना। साथ ही कौन समझ रहा है? और किसमेँ समझने की योग्यता हैँ? पहले तो हजार मेँ कोई बीस-तीस ही पढ़ने वाले होते हैं। उसपर यदि कोई तत्समनिष्ठ लिखता है तो उन सौ पढ़ने वालों मेँ नब्बे के कुछ पल्ले नहीँ पड़ता। चारोँ ही बाते हैँ। फिर भी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की महत्ता है, पर उसका क्षेत्र जनसाधारण न होकर उच्च चिन्तन और साहित्य है।
लिपिका : हिन्दी मेँ मौलिक लेखन कम और अनुवाद अधिक क्योँ दिखता है? इसे बदलने के लिए क्या होना चाहिए?
प्रचण्ड प्रवीर : सत्यनिष्ठता होनी चाहिए। हिन्दी मेँ मौलिक लेखन होता है पर अधिकांश पाठकोँ मेँ स्थान नहीँ बना पाते। बहुत से लेखक पत्र-पत्रिकाओँ के लिए लिखते हैँ, जो किसी बेसिरपैर के दिवास्वप्न से सम्मोहित हैँ और घटिया किस्म के राजनैतिक एजेण्डा से चल रहे हैँ। कोरोना के बाद, रील्स और यूट्यूब के दौर मेँ लगभग सभी पत्रिकाओँ ने दम तोड़ दिया है। अङ्ग्रेजी की शाख है कि कोई पढ़ा-लिखा है तो अङ्ग्रेजी ही बोलेगा-समझेगा। हिन्दी मेँ लिखने वाला होगा ही बेवकूफ। ऐसी मनमोहक छवि हम हिन्दी के साहित्यकारोँ ने बड़ी मेहनत से और अपनी अहमन्यता से पिछले चालीस सालोँ मेँ अर्जित की है।
इसे बदलने के लिए हमेँ कुदाल को कुदाल कहना चाहिए। हम जिन्हेँ श्रेष्ठ वक्ता या व्याख्याता कहते हैँ, वे जाक़ देरिदा के सामने घोर दरिद्र प्रतीत होते हैँ। हमारे विद्वानोँ की प्रतिष्ठा उनपर लगे जातिवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के आरोपोँ से विभूषित है। जिन्हेँ हम अच्छा सम्पादक कहते हैँ, उन्हेँ राजनैतिक एजेण्डा, वितण्डा और आपसी जूतम-पैजार से किसी महीने-साल फुरसत मिली हो, सञ्ज्ञान मेँ नहीँ आता। हमेँ बिना किसी शर्म के यह कुरूप सत्य स्वीकार करना चाहिए कि हिन्दी के समसामायिक प्रतिष्ठित साहित्यकार दोयम दर्जे का मौलिक लेखन करते हैँ। उसके बाद हमेँ अच्छे लेखन और मौलिक चिन्तन की तलाश करनी चाहिए। मैँ दावा करता हूँ कि समूचे हिन्दी साहित्य संसार मेँ दस-पन्द्रह लोग नहीँ मिलेँगे, जिन्होँने भारत के हिन्दी भाषी मौलिक चिन्तकोँ, जैसे यशदेव शल्य, गोविन्द चन्द्र पाण्डे, मुकुन्द लाठ, जड़ावलाल मेहता आदि को ठीक से पढ़ा होगा। हम हिन्दी भाषा के अध्ययन-अध्यापन मेँ भाषाविज्ञान को दुत्कार चुकेँ हैँ, दर्शन को निकाल बाहर कर चुके हैँ और साथ ही सौन्दर्यशास्त्र की हत्या कर चुके हैँ। हमेँ डॉ॰ नवजीवन रस्तोगी, डॉ॰ अम्बिकादत्त शर्मा जैसे विद्वानोँ को, उन्मीलन जैसी पत्रिकाओँ को गम्भीरता से पढ़ना होगा। हमेँ हिन्दी लेखन के समकालीन प्रतिमानोँ की सम्यक आलोचना करनी होगी कि वे उस स्थान पर नहीँ पहुँच पाए, जहाँ वे जा सकते थे या कहेँ कि जाना चाहिए था। साथ ही हमेँ शुचिता से स्वीकार करना होगा कि बहुत से बड़े नाम दरअसल खोखले और निरर्थक हैँ और अपनी जवानी के उन कामोँ की पेंशन आज भी खा रहे हैँ, जो कि कब के अप्रासङ्गिक हो चुके हैँ या अनुपयोगी सिद्ध हो चुके हैँ।
हिन्दी के लेखकोँ को सर्वप्रथम अपना नाम त्याग कर छद्म और बहुत से अनजाने नामोँ से लिखना शुरू करना चाहिए। निस्स्वार्थता और शुचिता ही साहित्य को ठीक कर सकती है। जिस दिन हम पुस्तकोँ को उनके नाम से, पत्रिकाओँ को उनके अङ्क से याद करने लगेँगे और साहित्यकारोँ को उनके नाम से नहीँ, बल्कि किसी रचना से सम्बद्ध होने से पहचानने लगेँगे, वही दिन बदलाव का होगा। हमेँ सभी पुरस्कारोँ को अविलम्ब रद्द करके, उन्हेँ व्यक्तिपरक न हो कर रचनापरक बना देना चाहिए। पुरस्कार की राशि प्रकाशक, प्रूफ रीडर, सम्पादक और आलोचकोँ मेँ बाँट देनी चाहिए। यदि इस बन्दरबाँट का लेखक भी याचक हो, तो उसे भी एक टुकड़ा दे देना चाहिए। इससे हिन्दी के साहित्य का विश्वसनीय तन्त्र बन सकेगा। दुख इस बात का है कि कोई भी इस बात के लिए तैय्यार नहीँ होगा और वे इस सुझाव को अपने स्वाभिमान के प्रश्न से जोड़ कर देखेँगे।
लिपिका : आज की पीढ़ी के लिए कठिन संस्कृत-उत्पन्न हिन्दी शब्दोँ को पुनर्जीवित करने का सबसे कारगर तरीका क्या हो सकता है?
प्रचण्ड प्रवीर : उसे पुनर्जीवित करके हम क्या कर लेँगे? बोझ ही बनाएँगे। सही प्रश्न तो यह होना चाहिए कि हिन्दी को विचार की भाषा कैसे बनाएँ? जब आप विचार के क्षेत्र मेँ आएँगे, तो कोरी लफ्फाजी से काम नहीँ चलेगा। उस समय आपको सम्यक और श्लिष्ट भाषा पढ़नी ही पड़ेगी। जब हम दर्शन की उपयोगिता और अनिवार्यता समझेँगे, तब हमेँ अच्छी हिन्दी की तरफ लौटना पड़ेगा। मैँ एक छोटा सा उदाहरण देता हूँ। आपने पढ़ा होगा कि ‘अ’ का दीर्घ उच्चारण ‘आ’ होता है। लेकिन हम कोशिश कर के देखेँ, ‘दीर्घ अ’ वस्तुतः ‘आ’ नहीँ है। यह छोटी सी लगने वाली बात बहुत गहराई लिए हुए है। भाषातत्त्व चिन्तन, सौन्दर्यशास्त्र, बौद्ध दर्शन, ज्ञानमीमांसा, नीति और धर्मशास्त्र (विधि-व्यवहार), काव्यशास्त्र, सङ्गीतशास्त्र, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेद जैसे तमाम ऐसे क्षेत्र हैँ, जिसमेँ हिन्दी के आचार्योँ ने, जैसे- वासुदेव शरण अग्रवाल, गोपीनाथ कविराज, कान्तिचन्द्र पाण्डेय, हरिशङ्कर जोशी, गोविन्द चन्द्र पाण्डेय ने बहुत सूक्ष्म विचार किए हैँ। वे पाश्चात्य चिन्तन और प्राच्य चिन्तन, प्राचीन और अर्वाचीन, दोनोँ पर अधिकार रखते थे। दुख की बात हैँ कि हिन्दी विभागोँ मेँ कोई इनका नामलेवा शेष नहीँ है।
तीव्र जिज्ञासा और हिन्दी व संस्कृत के श्रेष्ठ आचार्योँ के प्रति श्रद्धा – यह दो कुञ्जियाँ हैँ, जो हिन्दी के वैभव तक ले जा सकती हैँ। इसी से हिन्दी मेँ पुनर्जीवन आएगा।
लिपिका : हिङ्ग्लिश का बढ़ता प्रभाव हिन्दी की शक्ति को कम कर रहा है या यह सिर्फ उसका नया रूप है?
प्रचण्ड प्रवीर : यह हमारे समय की सच्चाई है। लेकिन इससे क्या हासिल होगा? ट्राञ्जैक्शनल लैङ्ग्वेज या भाषा की साधारण विनिमेयमूलक उपयोगिता हेतु हम शीघ्र ही अर्वाचीन तकनीक जैसे- कृत्रिम बुद्धिमता (एआइ) आदि पर निर्भर हो जाएँगे। उस स्थिति मेँ हम अङ्ग्रेजी का अधिक प्रयोग करेँगे। किन्तु यह हमारी मौलिक प्रवृत्ति से हमेँ दूर ले जाएगा। हम अपने स्वभाव से वशीभूत होकर भारतीय भाषाओँ मेँ वापस आ जाएँगे। हमारी यही गति है। इस उपक्रम मेँ हम अपना समय और चैन खोएँगे। उधार की भाषा से हम दोयम ही होँगे। प्रकट मेँ नहीँ, तो अवचेतन मेँ ही सही, पर गति यही है। जो पीढ़ी अपने माँ-बाप, दादा-दादी की भाषा और संस्कार से अपरिचित रहेगी, वह हीनता से ग्रस्त नहीँ होगी तो क्या होगी? हिङ्गलिश मानसिक दासता और भाषागत असमर्थता की पहली निशानी है। ना हम ठीक से हिन्दी बोल सकते हैँ और ना ही हमेँ अच्छी अङ्ग्रेजी आती है। न्यूज चैनल वाले यह बेशर्मी से चला रहे हैँ। मुझे लगता है कि सबसे पहले हमेँ तथाकथित मास-मीडिया की भाषा पर अङ्कुश लगाकर उसे दुरुस्त करना चाहिए। परन्तु यह एक राजनैतिक उपक्रम होगा। पता नहीँ इतनी इच्छाशक्ति किसी के पास है भी या नहीँ।
लिपिका : क्या साल मेँ एक दिन हिन्दी दिवस मनाना ही काफी है, या यह औपचारिकता बनकर रह गया है?
प्रचण्ड प्रवीर : सन् १९५३ से १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाना या सन् २००६ से १० जनवरी को विश्व हिन्दी दिवस मनाना, दोनोँ दिवसोँ के पीछे की भावना देखनी चाहिए। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन हिन्दी का सहारा लेकर क्रान्ति को जन-जन तक पिरो सका। इसके पीछे राष्ट्रीय एकता की भावना थी। आज विश्व हिन्दी दिवस मनाना, दासता से मुक्ति को याद करने का उपक्रम मात्र है, क्योँकि उसके निश्चित परिणाम प्रकट नहीँ होते।
सही मायने मेँ यदि हमेँ हिन्दी के लिए कुछ करना है, तो उसके भाषायी स्वरूप को ठीक करना चाहिए। लिखते समय सही वर्तनी जैसे- अनुनासिक स्वर के लिए चन्द्रबिन्दु, जहाँ अनुनासिक व्यञ्जन हो, तो तदनुसार अनुस्वार आदि का प्रयोग करना चाहिए। कमसे कम ‘हिंदी’ की सही वर्तनी ‘हिन्दी’ लिखेँ। जब हम इन छोटी बातोँ पर ध्यान देने लगेँगे, तब हम अपनी भाषा पर गर्व करेँगे। सही मायनोँ मेँ तभी हिन्दी दिवस मनाने का कोई औचित्य होगा, वरना यह वार्षिक आडम्बर मात्र है। वर्तनी के लिए उपर्युक्त महत्त्वपूर्ण और तार्किक संशोधन के लिए कोई हिन्दी संस्थान, पत्रिका, मंत्रालय या फाउण्डेशन कभी तैय्यार नहीँ होगा। इसके पीछे कारण केवल इतना है कि हम अपनी भाषा को कामचलाऊ या भ्रष्ट ही देखना चाहते हैँ। हम जितने भ्रष्ट हैँ, भाषा का उच्चारण और वर्तनी भी उतनी ही भ्रष्ट रखते हैँ और भ्रष्ट ही रखना चाहते हैँ। क्या आपने किसी अङ्ग्रेजी अखबार के अनुच्छेदोँ मेँ देवनागरी लिपि देखी है? क्या वहाँ वर्तनी की अशुद्धियाँ स्वीकार्य हैँ? क्या अङ्ग्रेजी न्यूज चैनल ख़राब भाषा बोलने की छूट ले पा रहे हैँ? वस्तुतः हम इतनी हीन भावना से ग्रस्त हैँ कि अङ्ग्रेजी भाषा के उपयोग मेँ अनुशासन, न्यायप्रियता, उच्च स्तर देखना चाहते हैँ और हिन्दी के स्वरूप को अधिकाधिक भ्रष्ट, कुरूप, अरुचिकर और अवैज्ञानिक बनाकर ही कृत्य-कृत्य हो रहे हैँ।
लिपिका : क्या हिन्दी साहित्य के दिग्गजोँ ने ही हिन्दी के प्रचार-प्रसार को सीमित कर दिया है? नए दौर के लेखक चलती फिरती हिन्दी का प्रयोग कर युवाओं को रिझाने का प्रयत्न कर रहे हैँ, इसे आप कैसे देखते हैँ?
प्रचण्ड प्रवीर : मैँ इसे भद्दा मज़ाक़ समझता हूँ। यह भी सही है कि मज़ाक़ करने के लिए, फूहड़ और अशिष्ट होने के लिए सभी स्वतन्त्र हैँ। कुछ हिन्दी की वेबपत्रिकाएँ फूहड़पन को अपनी मूर्खता और अहमन्यता के साथ स्थापित करने के लिए कटिबद्ध भी हैँ। कुछ प्रकाशन भी यही कर रहे हैँ। ऐसा नहीँ है कि यह पहले नहीँ होता था। पहले भी लुग्दी साहित्य बिकता था। तब मनोरञ्जन के साधन कम थे। लोग पढ़ कर अपना मनोरञ्जन करते थे। आज लिखना फैशन है। कोई पढ़ता भी है, तो फैशन की तरह ही पढ़ता है। मेरा अनुभव रहा है कि उच्च संस्थानोँ से पास करने वाले युवा, जो एमबीए या इंजीनियरिंग या मेडिकल या अर्थशास्त्र का कोर्स करके निकलते हैँ, वे ठीक-ठाक हिन्दी नहीँ लिख पाते हैँ। हम यह मानते ही नहीँ कि हमेँ हिन्दी सीखने की आवश्यकता है और क्योँ होगी, यदि उसके लिए कोई महत्त्वपूर्ण उपयोगिता ना हो तो? अब वही युवा शीघ्र यशलाभ के लिए चलती- फिरती हिन्दी लिख कर लेखक बनने का गौरव उठाना चाहते हैँ। सवाल यह है कि आप लेखक ही क्योँ बनना चाहते हैँ, रील्स वाले इन्फ्लुएंसर क्योँ नहीँ? तमाम नौकरशाह यह भ्रम पाल के रखते हैँ कि वे तो बड़े साहित्यकार होते, यदि वे ‘आत्मबलिदान’ देकर नौकरशाह नहीँ बने होते। हिन्दी ऐसे घटिया किस्म के नौकरशाही लेखन और आज के ज़माने के कॉरपोरेट के सफल युवा के चलते-फिरते लेखन से ग्रस्त और त्रस्त है।
हिन्दी के दिग्गज अपनी मूँछेँ और महत्त्वाकाङ्क्षी लेखकोँ को मदिरापान कराके मदहोश कर देने के बाद उनकी पूँछे ऐँठने मेँ लगे हैँ। साहित्य समारोहोँ मेँ खान-पान और मदिरापान बन्द कर दिया जाए तथा केवल साहित्य सेवा की सादी भावना से लोगों को बुलाया जाए, फिर देखना चाहिए कि कितने साहित्यकार ऐसे लिटरेचर फेस्टिवलनुमा मजमोँ मेँ तशरीफ लाते हैँ। अब साहित्यकार और साहित्यसेवी दिग्गज दोनोँ अपनी महत्त्वाकाङ्क्षा और आकुल-व्याकुल साहित्य सेवा हेतु बे-सिर-पैर के सङ्कल्पोँ के मारे हुए हैँ। सो वे अपनी ढ़पली पर अपना राग बजा रहे हैँ।
एक साधारण-सा सवाल आप किसी भी तथाकथित दिग्गज से पूछ कर देखिए कि पिछले पच्चीस सालोँ मेँ हिन्दी के पच्चीस महत्त्वपूर्ण उपन्यास या पुस्तकेँ कौन सी हैँ? सुनकर दिग्गज हड़बड़ा जाएँगे, क्योँकि ऐसी सूची उनके पास सहजता से उपलब्ध नहीँ है। यदि कोई याद करके कुछ कहेगा, तो अपने मानकोँ से जोड़-तोड़ कर कहेगा। उसके व्यक्तिगत मानक सही भी होँ, किन्तु क्या हम वैचारिक रूप से इतने दरिद्र हैँ कि महत्त्वपूर्ण पुस्तकोँ की कोई विश्वसनीय सूची बना नहीँ सकते? जब तक हम श्रेष्ठ का मूल्याङ्कन करके पटल पर सार्वजनिक नहीँ करते, हिन्दी का पाठकवर्ग कैसे मानेगा? एक उदाहरण लीजिए ‘रेत समाधि’ का। मैँने पुस्तक पढ़ी नहीँ है इसलिए उसकी गुणवत्ता पर नहीँ कह रहा। मेरा कहना है कि बुकर इण्टरनेशनल पुरस्कार मिलने के बाद पुस्तक बहुत बिकी, लेकिन हिन्दी की जनता ने उस पुस्तक को स्वीकार नहीँ किया। यह तथ्य है, इसे हमेँ भावुक हो कर झुठलाने का प्रयत्न नहीँ करना चाहिए। क्या हिन्दी का श्रेष्ठ लेखन ऐसा है कि वह साधारणीकरण को प्राप्त नहीँ कर सकता? इस साधारणीकरण के लिए चलती-फिरती हिन्दी वाले कटिबद्ध तो नज़र आते हैँ, किन्तु उनकी अर्थवत्ता सामान्य से भी कम स्तर की होती है।
सङ्क्षेप मेँ, हिन्दी साहित्य मेँ विश्वसनीयता का सङ्कट है। यदि हम सत्यनिष्ठ और विवेकी आलोचना का तन्त्र बना पाएँ, तो सम्भव है कि हिन्दी साहित्य का प्रचार-प्रसार हो सके। बिना साहित्य प्रसार के भाषा का प्रसार बहुत ज्यादा टिकेगा नहीँ।
लिपिका : हिन्दी को वैश्विक मञ्च पर प्रतिष्ठित करने के लिए हमेँ क्या ठोस कदम उठाने चाहिए?
प्रचण्ड प्रवीर : मुझे यह समझ नहीँ आता कि हम वैश्विक मञ्च पर अपनी पहचान बनाना ही क्योँ चाहते हैँ? तथाकथित वैश्विक नोबेल पुरस्कार यूरोप और अमरीका की मानसिकता से सञ्चालित है। वे कभी जयशङ्कर प्रसाद, महादेवी वर्मा और हजारीप्रसाद द्विवेदी को समझ ही नहीँ सकते। उनके सांस्कृतिक मूल्य इतने अलग हैँ कि वे अब्राह्मिक पन्थ के पूर्वाग्रहोँ से निकल ही नहीँ सकते। हमारे दर्शन और विचारधाराओँ को, या कहेँ हमारे भाषागत वैभव को समझने के लिए वे ना तो तैय्यार हैँ ना ही इच्छुक हैँ। आपके प्रश्न की धारणा यदि मैँ सही समझ रहा हूँ, तो वह स्वाभिमान की और हीनभावना से मुक्ति की है।
इसके लिए हमेँ हिन्दी के साथ-साथ अपनी बोलियोँ पर ध्यान देना होगा। जिस दिन हम अपनी बोलियोँ पर अभिमान करने लगेँगे, स्वतः ही हीनभावना कम होने लगेगी। फिर जब हमेँ गूढ़ चिन्तन करना होगा, तब हम अपनी परम्परा से जुड़ने पर मजबूर हो जाएँगे। तब संस्कृत और उसकी उत्तराधिकारिणी हिन्दी मेँ हम काम करने लगेँगे। जिस दिन हम काल, स्वभाव, पुरुषार्थ, न्याय, कर्त्तव्य, सुख-दुःख, जीवन का उद्देश्य जैसे विचारोँ पर घोर चिन्तन करेँगे, उस दिन हम अपने-आप हीनता को छोड़ कर प्रतिष्ठित हो जाएँगे। प्रतिष्ठित कौन होता है? वही जो समस्या का निराकरण कर सकता है। जो दुःख से मुक्ति दिला सकता है, दैन्यता पर विजय पा सकता है। यह सब बिना गहरे चिन्तन के कहाँ सम्भव है?
यदि हमेँ कोई ठोस कदम उठाना ही है, तो भारत के सभी विश्वविद्यालयोँ मेँ ज्ञानमीमांसा का पन्थनिरपेक्ष कोर्स तीन भाषाओँ मेँ अविलम्ब चलाना चाहिए। यह कोर्स भाषा निरपेक्ष नहीँ होना चाहिए। कम से कम हिन्दी भाषी क्षेत्रोँ मेँ किसी भी स्नातक स्तर के अध्ययन मेँ यह कोर्स अनिवार्य होना चाहिए। उसमेँ हमेँ षड्दर्शन, शैव दर्शन, अनालिटिकल फिलॉसफी, कॉण्टिनेण्टल फिलॉसफी, अब्राह्मिक पन्थोँ की ज्ञानमीमांसा – हर महत्त्वपूर्ण भारतीय और समकालीन वैश्विक वैचारिक सम्प्रदाय के छोटे-छोटे अध्याय हर एक विद्यार्थी को पढ़ाने चाहिए। ऐसी पन्थनिरपेक्ष या कहेँ, सर्वधर्मग्राही ज्ञानमीमांसा भारत के युवाओँ मेँ आमूलचूल परिवर्तन कर देगी। जिस दिन हम अपनी भाषा के साधारण शब्दोँ मेँ ज्ञान का अर्थ, उसकी व्यवस्था का अर्थ समझने लगेँगे, उस दिन हम प्रतिष्ठित हो जाएँगे। मैँ समझता हूँ, जिस दिन हम आत्मप्रतिष्ठित होँगे, उस दिन हम विश्वप्रतिष्ठित होँगे।
इसके अतिरिक्त दो व्यावहारिक और आसानी से अमल मेँ लाने वाले सुझाव हैँ: –
१. हमेँ भारत के समस्त सरकारी और निजी साइनबोर्ड, हर राज्य की दो सम्मत भाषाओँ मेँ लगाने ही चाहिए, चाहे वो महानगर ही क्योँ न होँ। इसके अन्तर्गत होटल, दुकान, मॉल, हर तरह की विक्रय हेतु वस्तु आ जानी चाहिए। ऐसा होने मेँ २-३ साल लगेँगे, लेकिन हमारी सभ्यता को दूरगामी परिणाम देखने को मिलेँगे। इससे हिंसा कम होगी और आपस मेँ लोग अधिक घुलेँगे।
२. भारत के निजी संस्थानोँ के कार्यालयोँ मेँ हिन्दी या भारतीय भाषाओँ का व्यवहार अनिवार्य नहीँ है। हम सभी जानते हैँ कि कार्यालयोँ मेँ कर्मचारियोँ के आपसी भावनात्मक जुड़ाव को बढ़ाने के लिए मानव संसाधन विभाग कितनी अधिक राशि व्यय करता है। यदि कार्यालयोँ मेँ मनाए जाने वाले मासिकोत्सव सम्बन्धी सूचना या वेतन पर्ची या छुट्टी के आवेदन जैसे छोटे-मोटे व्यवहारोँ मेँ हिन्दी या प्रान्तीय भारतीय भाषाओँ का अनुप्रवेश हो, उससे पूरे देश मेँ सभी देशज राजभाषाओँ को यथोचित सम्मान मिलेगा।
उपर्युक्त प्रस्तावोँ का विरोध कुछ और नहीँ बल्कि हमारी मानसिक दासता और अकर्मण्यता का परिचायक मात्र होगा।
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लिपिका भूषण एक अनुभवी मार्केटिङ् विशेषज्ञ हैँ, जिन्होंने प्रकाशन उद्योग मेँ अठारह साल से अधिक समय तक काम किया है। उन्होंने 2013 में ‘मार्केट माई बुक’ नामक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी की स्थापना की, जो लेखकों और प्रकाशकों के लिए सेवाएँ प्रदान करती है। वे ‘पेंगुइन रैण्डम हाउस’ के साथ भी समय-समय पर बतौर सलाहकार सेवाएँ देती रहीं हैं। इससे पहले, लिपिका हार्पर कॉलिन्स मेँ वरिष्ठ मार्केटिङ् प्रबन्धक के रूप में कार्यरत थीँ। उनकी विशेषज्ञता के कारण, उन्होंने कई लेखकोँ के साथ सफलतापूर्वक काम किया है, जिससे वे प्रकाशन क्षेत्र मे एक सम्मानित नाम बन गई हैँ। इन दिनोँ उनका पॉडकास्ट ‘द इण्डिक पेन’ चर्चा मेँ है। वे कई साहित्य समारोहों से जुड़ी हुई हैँ।
प्रचण्ड प्रवीर की ग्यारह पुस्तकेँ प्रकाशि हैं, जिनमेँ उल्लेखनीय कृतियाँ हैं: हिंदी उपन्यासिका ‘अल्पाहारी गृहत्यागी: आईआईटी से पहले’ (2010), सिनेमा पर कथेतर गद्य ‘अभिनव सिनेमा: रस सिद्धान्त के आलोक मेँ विश्व सिनेमा का परिचय’ (2016) और इसका अङ्ग्रेजी अनुवाद ‘सिनेमा थ्रू रसा’ (2021), कहानी सङ्ग्रह – ‘जाना नहीँ दिल से दूर’ (2016), लघु कथा सङ्ग्रह शृङ्खला – ‘कल की बात’ (2021), तथा हिन्दी उपन्यास ‘मिटने का अधिकार’ (2024)।
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