अनुनाद

आख़ि‍री रंग – प्रतिभा गोटीवाले

courtesy : google

बहुत दिनों से वह अपनी नींद ढूँढ रहा था  …

कभी कभी वह अपनी रातों की नींद ढूँढ़ते हुए मेरी दोपहर में आ जाता और मेरी दोपहर एक अलमस्त ख़ुमारी से भर उठती  ..

वह कहता … उसकी नींद के भीतर हलके चॉकलेटी रंग वाले फ़्रांजीपानी का एक पेड़ है।

फिर देर देर तक मेरी दोपहर के सैकड़ों हेक्टेयर में फैले सुनसान में वह देर तक उस पेड़ को ढूँढ़ा करता। 

वह उस पेड़ की बातें करते करते इतना खो जाता कि लगता जैसे वह ख़ुद ही पेड़ में बदल गया है। ख़ुद सारा का सारा फूलों से भर कर महकने लगता। मेरी दोपहर की खुमारी इतनी व्यापने लगती कि खिड़कियों से बाहर रिस पड़ती  ..

इतनी रिसती कि गली में आते जाते लोग रुक कर खिड़की की तरफ देखने लगते। मेरा रंग लाल पड़ जाता  …

बोलते बोलते उसका गोरा रंग हल्का सा चॉकलेटी हो जाता, जरा जरा सा उन चॉकलेट फ़्रांजीपानी रंग के फूलों सा या शायद मुझे ऐसा आभास होता।

कई बार उबल पड़ती  -“‘आखिर ऐसा क्या है उस पेड़ में, जो तुम जागते हुए लोगों के बीच भी नींद को ढूँढ़ते रहते हो ?

और सच में तुम्हें ढूँढना क्या है ? पेड़ या नींद ?”

” दोनों, उसके बिना नींद का कोई मतलब नहीं है, उसके होने से रात भर मेरे ख़ाली ख़ाली सपनों में फूल झरते रहते है, उन फूलों का स्पर्श नितांत तुम जैसा है। “

मैंने अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया ” तुम उन फूलों के बहाने मुझे ढूँढ़ते हो, लेकिन जब मिलती हूँ तो सारा समय उनकी बातें करने में व्यतीत कर देते हो! तुमनें अपनी रातें भी उन फूलों को दे रखी हैं और मेरे दिन भी !”

वह मेरे हाथ को सहलाता हुआ बोला – ” मैं तुम्हारे लिए उन्हीं फूलों के रंग की एक साड़ी लेना चाहता हूँ।”

“रंग बता देने से भी साड़ी मिल सकती है, उसके लिए ज़रूरी नहीं की फूल सामने ही हो।”

” मैं एक रत्ती भर भी फर्क नहीं चाहता।”

“नहीं होगा ” कहते हुए मैंने उसके सीने पर अपना सिर रख दिया। उसके सीने में वायलिन की मधुर धुन बज रही थी।

मैंने उसे छेड़ते हुए कहा – “यहाँ कभी मृदंग भी बजता है  या  …. “

वह खिलखिला कर हँसा, उसकी हँसी देखना नीलकुरिंजी देखने जैसा दुर्लभ था। 

“रात में बजता है, जब उस पेड़ के नीचे फूलों के बीच तुम मेरे साथ होती हो।”

और फिर हँसना बरक़रार रखते हुए बोला -“फिर मैं इस डर से जागता रहता हूँ की कही तुम उस इनुइट लोककथा द स्केलेटन वुमन की तरह मृदंग को खींचकर बाहर न निकाल लो।”

हँसी बारिश की रुकी हुई बूंदों की तरह देर तक झरती रही यहाँ वहाँ से।

कुछ देर पश्चात मैंने रुकी बारिश के बाद की चमकदार धूप सी आवाज़ में कहा “कही और भी तो होगा वैसा पेड़, चलो नर्सरी चलकर पता करते है।”

मुझे लगा कि शायद उस रंग की साड़ी वह मुझे पहने हुए देख लेगा, तो उसकी पेड़ की तलाश ख़त्म हो जाएगी।

“तुम्हें क्या लगता है ? मैंने कोशिश नहीं की ! लेकिन उसके जैसा रंग कही नहीं दिखा मुझे।”

अब मुझसे रहा और सहा नहीं जा रहा था। ऐसा लग रहा था, जैसे सारा संसार उस एक रंग के बवंडर में ख़त्म होता जा रहा है।

मैं झल्लाई  … “गाहे बगाहे तो मुझे यूँ लगता है, जैसे तुम्हें मुझसे प्रेम है ही नहीं। तुम्हारी कल्पना में मेरी जो छवि है तुम केवल उसे प्रेम करते हो। मेरे साथ होते हुए तुम्हें बस एक आकार मिल जाता है, जिसमें तुम अपने तसव्वुर को रख सको, आख़िर तुम मुझसे क्या चाहते हो ?”  

बहुत देर तक हवा और चुप आपस में फुगड़ी खेलते रहे, फिर हमारे बीच एक लम्बे रास्ते की तरह बिछ गए।

दिन चुप की रेलगाड़ी में बैठ कर दूर निकलते रहे  .. रातें चुप के समंदर में व्हेल की तरह तैरती रहीं

हम साथ चलते रहे लेकिन कही एक दूरी भी पल रही थी हमारे बीच। धीरे-धीरे मुझे उस रंग से ही घबराहट होने लगी।

मैं यथासंभव कोशिश करती कि ऐसी कोई बात ही न निकले, जिसमे ख़ुश्बू का ज़िक्र हो या फूलों का ज़िक्र हो

या पेड़ों का

या नींद का

या सपनों का।

मैं रंगों से बचने लगी थी। मैं उसकी आँखों से बचने लगी थी, मैं अपनी आँखों से बचने लगी थी।

उसे शक होता था कि सबकी आँखों में उसी की नींद है  .. वह सीधा आँखों में उतरता।

वह देखता तो लगता मैं चारों तरफ से बारिश से घिरी हुई हूँ, जैसे कई दरिया उफनते हुए मुझे लील जाने को आगे बढ़ रहे हैं

मैं किसी ओट की तलाश करने लगती … अपने हाथों से अपनी देह पर बहता पानी हटाने लगती। फिर वह ऐसे देखता कि मैं नज़रें ही नहीं मिला पाती।

समझ नहीं आता था उसे ऐसा एतिक़ाद क्यों था कि मेरे पास उसका कुछ है ! क्या करूँ अगर मेरे पास नींद थी ..सपनें थे !

मैं उसे अपनी नींद का कुछ हिस्सा दे सकती थी, बल्कि देना चाहती थी। लेकिन उसे तो केवल नींद नहीं वह पेड़ भी चाहिए था। मैं कहाँ से लाती वह पेड़ जिसे मैंने देखा तक नहीं था।

फिर उसे कुछ दिनों के लिए बाहर जाना पड़ा  …

कुछ दिनों के लिए मैं अपने भीतर चली आई  …

ऐसे ही अनमने दिनों में एक दिन मैंने तय किया कि उसके लौटने के बाद मुझे उसकी एक रात के भीतर जाना है। उसी रात मैं उसकी नींद में लगे उस पेड़ को काट दूँगी। उसकी स्मृतियों में स्पर्श के फूल भर दूँगी, ताकि चॉकलेट फ़्रांजीपानी रंग की सारी यादें उन के नीचे दफ़न हो जाए।

कल वह आने वाला था और आज उसकी नींद के क़िस्से मेरे सपनों में खुलने लगे।

उसकी जो बातें मेरे भीतर उतर गई थी, उन बातों की एक पहेली सी तैयार होने लगी, जिसके केंद्र में एक क्यारी बनने लगी।

और मैं हड़बड़ा कर उठ बैठी।

ऐसे लगा जैसे मैं हारने लगी हूँ  ..जैसे मेरे मन ने सारी भाषाएँ भूल जाने का प्रण ले लिया है। किसी भी भाषा में कितना समझाऊँ लेकिन वह किसी अनजानी सी अबूझ भाषा में फिर उसी की बात करने लगता।

कई बार तो अपने आपसे, उसके लिए मन में पलते प्रेम से, चाहनाओं से घबराकर सोचा, कि अँधेरे में सपने लिखने वाला ये कौन है भीतर, जो मेरे ख़िलाफ़ ख़ूबसूरत साज़िशे रच रहा है !

कही यह शख़्स उसकी आँखों से उतरकर ही तो नहीं आ गया है मेरी नींदों तक ! उसका मुख़बिर !

उसी के पक्ष में दलीलें बुनता हुआ !

आज मिले तो उससे नींद बनाने वाले का पता पूँछ लू  …. कारीगर को उसका पता दे दूँ, जिससे उसकी रात के विस्तार में नींद बुनी जा सकें। कैसा ही होगा वह, जो हाथ को हाथ न सुझाई देने वाले अन्धकार में इतने सटीक बिम्ब, इतने मुनासिब रंग, ऐसी मनहर ख़ुश्बू कौन बनाता होगा। 

कितनी ख़ुश्बू फैली है यहाँ ! 

कहाँ ? ?

कौन देता है वह सतह, जिस पर बुने जाते हैं सपने, कौन कातता है वह सूत

कहा लपेटकर रख दिया जाता है सारा वितान सुबह होते ही!

बाज़दफ़ा कोई टुकड़ा फंसा रह जाता है हाथों में उजाला होने तक, लेकिन बुनाई तब भी अबूझ बनी रहती है। 

क्या नींद का बनाया शिल्प है सपना ?

नींद !

किसकी नींद ?

क्या नींद भी रातों से ऊबकर इसी तरह समय व्यतीत किया करती है ?

क्या नींद भी शापित है रात होते ही सीपियों में बंद हो जाने के लिए ?

यदि सचमुच ये नींद का शिल्प है तो ये फ़्रांजीपानी का पेड़ यहाँ क्या कर रहा है !

वह भी चॉकलेट फ़्रांजीपानी !!

मैं घबराकर जागी  …. चॉकलेट फ़्रांजीपानी !!!

अब क्या करूँ ?

क्या ही करूँ ?

क्या उसका शक़ सही था ?

मैं जल्द से जल्द नींद से बाहर आकर उसे बताना चाहती थी कि वह पेड़ मुझे मिल गया है  …. मैं नींद में दौड़ पड़ी।

यह उसका इंतज़ार था, जिस पर नींद से बाहर आते ही मैं पाँव रखा करती थी।

लेकिन आज नींद के बाहर वह नहीं था। मैं नींद से जाग कर उतरना भी चाहूँ, तो कोई जगह नही थी जहाँ उतरा जा सके।

और उसकी रात एक बड़े सूने स्टेशन सी, जहाँ नींद की ट्रेन कबसे आना छोड़ चुकी थी।

फिर दिन सदियों से गुज़रने लगे  …..

वह कही दिन में भटकता रहा, मैं नींद में ही जागने से सहमी सी उसकी राह देखती रही। 

उसके आभासों सी स्मृतियों की भीड़ बढ़ती गई और इस लगातार बढ़ती भीड़ में उसे पहचान लेने के लिए अब मेरे पास केवल एक चीज़ थी  ..

चीज़ क्या थी जीवन में बचा रह गया एक आख़िरी रंग था   …

चॉकलेट फ़्रांजीपानी  ..

***

 

2 thoughts on “आख़ि‍री रंग – प्रतिभा गोटीवाले”

  1. प्रेम सरल और प्रेम की भाषा जटिल , पढ़ कर प्रेम की उस अनसुलझी पीड़ा को महसूस किया जा सकता है, और धीरे धीरे एक ऐसी दुनिया में पहुंच जाते है जहां नींद, सपने, कल्पना, रंग और प्रेम आपस में घुल मिल जाते है ।

    शुभकामनाएं प्रतिभा !!

  2. संध्या

    खो जाने और पाने की तलाश के बीच सपनो के धागों की बनावट खोजती कहानी , रंग मिल जाएगा फिर वो भी ..

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