
(एक)
नदियां अपना रास्ता मांग रही थी
जंगल अपनी जमीन मांग रहे थे
पहाड़ अपनी प्रकृति मांग रहे थे
मनुष्य सब कुछ छीन रहा था
और बता रहा था इस घटना को विकास
विकास ऐसा जो वास्तव में था विनाश
और ये विनाश
प्रकृति देख रही थी चुपचाप
नदियां बांधी जा रही थी
जंगल काटे जा रहे थे
पहाड़ तोड़े जा रहे थे
ऐसे में सबकुछ देने वाले
प्रकृति के ये अंग
काटे जा रहे थे मनुष्य के द्वारा
और हो रहा था पहाड़ का विकास
फिर एक दिन
नदियों ने ख़ुद बनाया अपना रास्ता
जंगल ने ढूंढ ली अपनी ज़मीन
और पहाड़ को मिल गई उसकी प्रकृति
इतना सबकुछ हुआ
बिल्कुल
प्रकृति के हिसाब से
फिर मनुष्य रोया बहुत रोया
और बताया इस घटना को
कुदरत का कहर
बदल गई विकास की परिभाषा
विकास मनुष्य को लगने लगा विनाश
सच में मनुष्य बहुत स्वार्थी है
क्योंकि मनुष्य हमेशा लेना जानता है
जबकि प्रकृति रही है
हमेशा से निस्वार्थ
हां नि:स्वार्थ
क्योंकि
इस प्रकृति ने हमेशा दिया है
मानवता को अपना सबकुछ
जी हां सबकुछ
***
(दो)
टूटता तारा गर ख़्वाहिशें पूरी करता
तो मनुष्य अपनी वैज्ञानिकी से बहुत पहले
तोड़ देता सारे आसमान के तारें
बना देता
उस आसमान को एक बेरंग बंजर ज़मीन
और ज़मीन पर पड़े होते टुकड़े
आकाशगंगा के
ठीक वैसे जैसे पड़े होते हैं
बड़े पत्थर के टुकड़े
एक महानदी के विकराल रूप के
सूख जाने के बाद
अच्छा है मनुष्य की समझ में ये एक अंधविश्वास है
मैं चाहता हूं कि ये अंधविश्वास बना रहे
इसी में पृथ्वी की भलाई है।
***
(तीन)
मैंने देखा है बहुत कुछ
मैंने पढ़ा है बहुत कुछ
मैंने सुना है बहुत कुछ
मैंने जाना है बहुत कुछ
अम्मा लेकिन सच बताऊं
बहुत कम लगता है मुझे
तुम्हारे आगे
अब तक का देखा अब तक का पढ़ा
अब तक का सुना और अब तक का जाना
जानती हो क्यों
क्योंकि
तुम अलग हो हर रिश्ते से
तुम्हारा स्नेह सींचता है
ईश्वर की बनाई इस देह को
और देता है अपनत्व तुम्हारे ममत्व का
अम्मा सुनो क्या कहूं अभी
बस इतना जान पाया हूं कि
आप पर कितना भी सुना जाए
कितना भी पढ़ा जाए
सब कम है
***
चंद्र शेखर (शेखर पाखी)
रुद्रपुर, उत्तराखंड
बहुत धन्यवाद anunnad
💐💐
अच्छी कविताएँ।
बधाई शेखर।
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खेमकरण ‘सोमन’