ठंड से नहीं मरते शब्द
वे मर जाते हैं साहस की कमी से
केदारनाथ सिंह के इन शब्दों को आलोचना के सन्दर्भ में देखना रोचक है। आशीष मिश्र ने युवा आलोचना में एक हद तक यह साहस संभव किया है कि शब्द बचे रहें। इस वर्ष अनुनाद सम्मान के ज्यूरी मेंबर सुबोध शुक्ल ने उनके नाम की अनुशंसा की और सर्वसम्मति से उनकी पुस्तक के प्रकाशन को अनुनाद सम्मान के लिए चुना गया। आशीष के इस साहस से कोई बचा नहीं है, बतौर कवि मैं भी नहीं, आशीष की आलोचना का यही पक्ष मुझे उनकी लिखत की ओर आकर्षित करता है। वे अपना मत निर्भीक हो व्यक्त करते हैं, उनके निष्कर्षों पर बहस हो सकती है। वे दरअसल बहस का आमंत्रण देते हैं। यहां पल-प्रतिपल के आलोचना अंक में छपे उनके लेख का पुन:प्रकाशन किया जा रहा है। कहना न होगा कि इस पर बहस अपेक्षित है।
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कत्लगाहों की तरफ़ फुसलाते शब्द
क़ाबा
एक ऐतिहासिक पत्थर है। बल्कि एक पत्थर मात्र है। इसकी ऐतिहासिकता कोई नितांत
भिन्नकारी वैशिष्ट्य नहीं है। तमाम पत्थर, तमाम चट्टानें हैं,
जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। यह विशिष्ट इस अर्थ में है कि विश्व-विस्तृत समुदाय की
आस्था का केन्द्र है। दुनिया भर में बसे हुए एक समुदाय को इस केन्द्र से अर्थ
मिलता है। और क़ाबा को इस विश्व-विस्तृत समुदाय से पहचान। इस केन्द्र के न होने से
इस समुदाय का वही अर्थ न रह जाएगा। यह पूरी संरचना इसी तरह के सत्ता-केन्द्रों का
संजाल है। भाषा इन्हीं सत्ता-केन्द्रों की एक संकेत-व्यवस्था है। प्रत्येक आस्थावन
मुस्लिम इस पत्थर की तरफ़ मुँह करके दिन में पाँच बार प्रार्थना करता है। इसके हर
सज़्दे के साथ यह पत्थर और भी ज़्यादा ताक़तवर होता जाता है। सज़्दा करता प्रत्येक
मुसलमान दिग्सूचक है। यह बताता है कि काबा किस दिशा में है। यह संकेत है कि क़ाबा
है। काबा और सज़्दा करता हुआ व्यक्ति एक-दूसरे को पहचान और अर्थ देते हैं। इसी तरह शब्द
हर समय सत्ताओं के सज़्दे में झुके होते हैं। सत्ताएँ शब्दों को अर्थ देती हैं और
शब्द उन्हें पहचान और स्थाईत्व। ये एक-दूसरे को छिपाते हैं,
एक-दूसरे का सार्वभौमीकरण करते हुए सामान्य बोध का हिस्सा बनाते हैं। अर्थ और
सत्ता का यह समंजन बच्चों को सुनायी जाती लोरी से लेकर हुंकार तक, समाचार से लेकर संगीत फैला होता है। हमारे स्वप्न,
हमारी चाहतें, उदासी, आनंद इसी से
समंजित हैं। हमारी चेतना इसी सत्ता और भाषा की संबद्धता का प्रभावोत्पाद है। हमारा
रोज-ब-रोज का सामान्य भाषिक व्यवहार इसी दायरे में, इसी के
दम पर, इसी को मज़बूत करता हुआ संभव होता है। हमारे द्वारा
दुहराया गया हर वाक्य इस उपलब्ध संरचना को मज़बूत करता है। उपलब्ध वाक्य को दुहराना
अतीत को दुहराना है। इस तरह हम हर दुहराव के साथ अपनी आत्मविरोधी दुनिया रचते जाते
हैं। और हर दुहराव के साथ इसे और मज़बूत करते हैं। किसी भी भाषिक सृजन का काम गहराई
में इस दुष्चक्र को तोड़ना है। शब्दों में कुछ पुरानी अर्थ-छवियों को पुनर्जीवित
करना या नई अर्थ-छवियां पैदा करना है। पुरानी लय को तोड़ना और नई लय पैदा करना है। शब्दों
को इस तरह का संदर्भ उपलब्ध करवाना जिससे उनके भीतर छिपा इतिहास दिखने लगे और
अर्थ-छवियों के गमन से उनके भीतर बनी राह खुल जाए। आपको यहाँ तक पहुँचने में समय
ज़रूर लगा परन्तु इस बिन्दु से ही सार्थकता, सम्प्रेषण और
लोकप्रियता जैसे तमाम मुद्दे जुड़ते हैं।
भाषिक
व्यवहार वर्तमान सत्ता संरचना, उसकी लय, उसकी विचारधारा के अनुकूल
है तो सम्प्रेषण और लोकप्रियता सहज संभाव्य है। परन्तु इस रास्ते सृजन और सार्थकता
संभव नहीं है। अतः कविता का संभव होना सार्थकता और सम्प्रेषण के तनाव पर ही निर्भर
है। एक कवि दुनिया में संवेदना के गमन के लिए नई जमीन तोड़ता है। उसे नया लय, नया भावावेग देना और साथ ही सृजन को संप्रेषणीय भी बनाना होता है। इसके
लिए मौजूद भाषिक संरचना का एक हद तक उपयोग भी करना होता है। वरना बात ही संप्रेषित
न होगी। अगर वह मौजूद भाषिक संरचना में ही क़ैद रह जाता है तो कविता संभव न होगी।
किसी कवि की जमीन, उसकी दिशा की पड़ताल करने के लिए यहाँ तक
आना ही होता है। अगर आप यहाँ नरेश सक्सेना की कविताएं लाएँ तो उनकी ताक़त और उनका
अधूरापन दोनों साफ़ हो जाएगा।
नरेश सक्सेना की कविताएं श्रुतिसुखद और सहज संप्रेषणीय कविताएं
हैं। जो तार्किक क्रम में आगे बढ़ती हुई एक लय और ठोस मुद्रा का रूप ले लेती हैं।
इस तार्किक रचाव के नाते कविताएं गठे हुए वाक्य-विन्यास के साथ बहुत सधी हुई लगती
हैं। इनमें सब कुछ बंधा-बँधाया और पूर्व निश्चित लगता है। नरेश सक्सेना के लिए
कविता सत्य को पाने की भाषा नहीं बल्कि पाये और जाने हुए की अभिव्यक्ति का माध्यम
है। इन कविताओं में तकनीक इतनी भारी है कि भाव-आवेग उसे लाँघ नहीं पाता। या भाव-आवेग
इतना मद्ध्म और अनुकूलित है कि वह कवि-कौशल के लिए चुनौती नहीं बन पाता। मुझे इस
संदर्भ में दूसरी बात ज़्यादा सटीक लगती है। उनकी एक लोकप्रिय कविता है- ‘कंक्रीट’। गिट्टी में रेत, रेत में सीमेंट, सीमेंट में पानी के लिए जगह होती है। इसलिए रिश्तों में जगह होनी चाहिए। यह
कविता बहुत गणितीय ढंग से आगे बढ़ती है। जैसे कोई प्रमेय सिद्ध किया जाए। विशिष्ट
से सामान्य निष्कर्ष तक निगमनात्मक तर्क-पद्धति का व्यवहार है। “रिश्तों में जगह
होनी चाहिए”- इति सिद्ध्म। अपनी इसी ठोस संरचना और बहुपरिचित कथ्य के कारण ही
कविता आसानी से संप्रेषित होती है। यह नरेश सक्सेना की रचना प्रक्रिया की सामान्य
विशेषता है। और उनकी मंचीय सफलता का कारण भी यही है। लेकिन दूसरी तरफ़ से यह सीमा
भी रच देती है। और कविता बहुवर्णी दुनिया से सहज भावात्मक संबंध और नैतिक व
सौंदर्यात्मक उपलब्धि के बदले ठस्स वास्तु रचते हुए आसान लोकप्रिय मुहावरे में चुक
जाती है। दाँतों के कीड़े, ईंटें, लोहे
की रेलिंग, पत्थर, पानी, सीढ़ी और तमाम कविताएं इसी तरह की कविताएं हैं। कविता तर्क-पद्धतियों और
शास्त्रों से बहिष्कृत दुनिया की पुनर्स्थापना है। नितांत तार्किक प्रक्रिया में
विविधवर्णी दुनिया और इसकी बहु आयामिता को नहीं समझा जा सकता। इस बात को गहराई से, दार्शनिक स्तर पर समझने के लिए फ्रेंकफुर्त स्कूल और क्रिटिकल थ्योरी को
समझना चाहिए। इस समय जबकि हमारे समाज पर फ़ासिज़्म की पकड़ बढ़ती जा रही है तो अपने
समयों में उसके महीन रेसों को पकड़ रहे दार्शनिकों को पढ़ना चाहिए। उद्धृत कविता
इतनी तेजी से संप्रेषित होती है तो इसके पीछे कारण यह तर्क पद्धति ही है। तर्क
पद्धति सामान्य बोध का हिस्सा होती है। बात सिर्फ एक पंक्ति की है और पूरी कविता
उसकी ‘पैराफ्रेजिंग’ है। हिन्दी कविता
में अधिकांश लोग बहुत शाहख़र्च हैं। जिनकी जेब से एक दमड़ी नहीं निकलती वे शब्दों को
पत्तों की तरह उड़ाते हैं।
“आपस
में सट कर फूटी कलियाँ
एक दूसरे के खिलने के लिए जगह छोड़ देती हैं
जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ
आपस में चाहे जितना सटें
अपने बीच अपने बराबर जगह
खाली छोड़ देती हैं
जिसमें भरी जाती है रेत
और रेत के कण भी
एक दूसरे को चाहे जितना भींचें
जितनी जगह खुद घेरते हैं
उतनी जगह अपने बीच खाली छोड़ देते हैं।
इसमें भरी जाती है सीमेंट
सीमेंट
कितनी महीन
और आपस में सटी हुई
लेकिन उसमें भी होती हैं खाली जगहें
जिसमें समाता है पानी
और पानी में, खैर छोड़िए
इस तरह कथा काँक्रीट की बताती है
रिश्तों की ताकत में
अपने बीच
खाली जगह छोड़ने की अहिमयत के बारे में।“
एक दूसरे के खिलने के लिए जगह छोड़ देती हैं
जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ
आपस में चाहे जितना सटें
अपने बीच अपने बराबर जगह
खाली छोड़ देती हैं
जिसमें भरी जाती है रेत
और रेत के कण भी
एक दूसरे को चाहे जितना भींचें
जितनी जगह खुद घेरते हैं
उतनी जगह अपने बीच खाली छोड़ देते हैं।
इसमें भरी जाती है सीमेंट
सीमेंट
कितनी महीन
और आपस में सटी हुई
लेकिन उसमें भी होती हैं खाली जगहें
जिसमें समाता है पानी
और पानी में, खैर छोड़िए
इस तरह कथा काँक्रीट की बताती है
रिश्तों की ताकत में
अपने बीच
खाली जगह छोड़ने की अहिमयत के बारे में।“
रिश्तों में थोड़ी व्यक्तिगत जगह भी होनी
चाहिए। दूसरे के व्यक्तित्त्व को फलने-फूलने भर हवा-पानी और आसमान होना चाहिए।
इसमें कोई नयापन नहीं है, यह सामान्य बोध का हिस्सा बन चुका
है। छठे दशक से यह बोध हा हिस्सा बनने लगता है। पिछले साठ वर्षों में न जाने कितनी
कहानियाँ, नाटक और कविताएं लिखी गयी हैं हिन्दी में। बल्कि
मीडिया ने तो इतना जगह पैदा कर दिया है कि आवाज़ भी पहुँचना मुश्किल है या फिर उसकी
ज़रूरत नहीं रही। दूसरे जिन माध्यमों से इस निष्कर्ष तक कविता में पहुँचा जा रहा है
उससे प्रेम का पदार्थीकरण हुआ है। गिट्टी, रेत और पानी हमारे
भावात्मक दुनिया का हिस्सा बनने के बजाए भौतिक तथ्य ही रह जाते हैं और उलटे प्रेम
का भी पदार्थीकरण होने लगता है।
नरेश सक्सेना अनुकूलित भाव-दृष्टि के कवि हैं। नवगीत की
आत्मबद्धता के दायरे को वे कभी तोड़ नहीं पाए। सर्जनात्मक उन्मेष उन्हीं कवियों में
दिखता है जो इस दायरे को तोड़ने में सफल रहे। जैसे केदारनाथ सिंह। यहाँ उद्देश्य
तुलना करना नहीं है। लेकिन दोनों कवियों को साथ देखते हुए कुछ नयी बातों तक पहुँच
सकेंगे। केदारनाथ सिंह आरंभिक दौर से ही अपने सघन अनुभवों से कविता रचने का प्रयास
करते हैं। अनुभवों को समझने और रचने के प्रयास में ही केदारनाथ सिंह नई दिशाओं की
तरफ़ बढ़ते हुए दिखते हैं। उनमें एक विकास है, जिसकी एक रेखा खीची जा सकती है। नरेश सक्सेना
की कविता में कोई विकास नहीं है- न आंतरिक भाव-सम्बन्धों के संयोजन में और न ही
भाषा में। वे पहले दिन से ही बहुत कुशल हैं! उनकी रचनात्मकता एक वृत्तीय गति का
आभास कराती है। इसका कारण यह है कि वे अनुभव के बजाय रचना में कारीगरी के विश्वासी
रहे हैं। जिस कवि में कोई विकास न दिखे उसके बारे में यह समझना चाहिए कि वह
पूर्वाग्रह, अवधारणा, और कारीगरी से कविताएं
गढ़ रहा है। इतनी अटल और अपरिवर्तनशील सिर्फ़ अवधारणाएँ और कारीगरी ही हो सकती हैं।
इससे यह समझना चाहिए कि कवि जीवन की गतिशीलता से छिटका हुआ अपने आत्मबद्ध दायरे
में क़ैद हो चुका है। नरेश सक्सेना का अनुभव-संसार बहुत सीमित है। वे हिन्दी के एक
मात्र कवि हैं जिनकी कविता में कोई परेशान मनुष्य नहीं दिखता, कोई संघर्ष करता हुआ इंसान मौजूद नहीं है। कहीं कोई अपराधबोध नहीं है, न किसी तरह का तनाव! नरेश सक्सेना का ‘कवि’ ही इस मटमैले कशमकश से भरी दुनिया का नहीं लगता। हम जिस तरह की दुनिया
में रह रहे हैं, वहाँ हर दिन तमाम समझौते करने होते हैं। हम
तमाम तरह के दबावों और अपराधबोध के बीच जिंदगी जीते हैं। एक कवि जो इन्हीं सब के
बीच रह रहा है परन्तु उसकी कविताओं पर इसका तनाव नहीं दिखता,
तो यह सामान्य स्थिति नहीं है। यह बोध अपने आपमें आत्मग्रस्तता का प्रमाण बन जाता
है। रूमानी और ‘ट्रिकबाज़’ कवियों के
लिए यह स्थिति अस्वाभाविक भी नहीं है। कविता अवधारणा और कवि की निजी छापों से बाहर
संसार की दत्तता का अनुभूति कराती है। अगर किसी कवि से यह संभव नहीं हो पा रहा है
तो इसका अर्थ यह है कविता उसके तईं अहम के आभूषण से ज़्यादा नहीं है।
नरेश सक्सेना के लिए कविता बहु-विमीय यथार्थ को उद्घाटित करने की
भाषा के बजाय उद्घाटित और दुहराये गए पक्षों को छविवान बनाने या इसके रहस्यकरण का
प्रयास है। इनकी लगभग कविताओं में एक सार्वभौमिक धारणा होती है। जिससे पाठक
सुपरिचित होता है- ठीक मिथकों की तरह। कविताएं भौतिकी के सार्वभौमिक धारणा/तथ्य से
शुरू होकर नीतिशास्त्र के किसी सामान्य सूक्ति तक जाती हैं। इसी के बीच नरेश
सक्सेना का कुल कवि कर्म है। शास्त्र और विज्ञान का सीमित देश-काल नहीं होता। आइंस्टीन
की सापेक्षता का सिद्धान्त हर जगह लागू होता है। यह यूरोप में भी सही है और इतनी
गरीबी के बावजूद एशिया में भी! हर जगह पानी हिमांक से नीचे जम जाता है। बर्फ कंबल
का काम करने लगती है और इसके नीचे अपेक्षाकृत तापमान ज़्यादा बना रहता है। इसलिए
मछलियाँ बची रह जाती हैं। चूँकि यह एक सामान्य प्रक्रिया है इसलिए सामान्य
पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी इसे समझ ही लेता है। नरेश सक्सेना इस तथ्य का रहस्यकरण करते
हैं और बताते हैं कि “पानी क्या कर रहा है”। पानी के कार्य को बताने के लिए एक
वैज्ञानिक प्रक्रिया का कविताकरण शुरू होता है-
“सतह का पानी ठंडा और भारी हो
लगाता है डुबकी
और नीचे से गर्म और हल्के
पानी को
ऊपर भेज देता है ठंड से
जूझने”
संवहन की इस प्रक्रिया का
जितना भी रहस्यकरण हुआ हो परन्तु इसमें मार्मिकता नहीं है। फिर पानी के जमने की
प्रक्रिया बताते हैं- “तीन डिग्री हल्का/ दो डिग्री और हल्का और / शून्य डिग्री
होते ही,
बर्फ बनकर / सतह पर जम जाता है”। तीन चौथाई कविता पानी के जमने की प्रक्रिया बताती
है और चूँकि सिर्फ प्रक्रिया वर्णन से कविता हो नहीं सकती थी इसलिए उसे किसी तरह
मानवीय संदर्भ से जोड़ देना है।
“पानी के प्राण मछलियों में
बसते हैं
आदमी के प्राण कहाँ बसते हैं?
नरेश सक्सेना की कविता तथ्य के रहस्यकरण की एक प्रक्रिया है। कुछ
जगहों पर कविता तथ्य से शुरू होकर सामान्य भाव-समवेदनाओं में घुल जाती है। परन्तु
अधिकांशतः यह इसी तरह कसरत होकर रह जाती है। वे कहते हैं कि कविता में उनकी दिशा
पदार्थ से जीवन की तरफ़ आने की है। लेकिन हैं ठीक इसके उलट- कविताओं में जीवन का
पदार्थीकरण होने लगता है। कुछ कविताओं में, जहाँ वे सहज हैं और संसार की दतत्ता को थोड़ा
भी महसूस कर पाते हैं, वहाँ अच्छी कविताएं संभव हुई हैं। इसी
तरह की एक कविता है – ‘उसे ले गये’। “अरे
कोई देखो / मेरे आँगन में गिरा कट कर /
गिरा मेरा नीम / गिरा मेरी सखियों का झूलना / बेटे का पालना गिरा / उड़ीं
उसकी चिड़ियाँ / देखो उड़ा उनका शोर / देखो एक घोसला गिरा / देखो / वे आरा ले आये ले
आये कुल्हाड़ी / और रस्सा ले आये उसे बांधने / देखो कैसे काँपी उसकी छाया / उसकी
पत्तियों की छाया / जिनसे घाव मैंने पूरे”। इस कविता में भी नवगीत वाली
आत्ममुग्धता है। पेड़ बिकने और कटने के लिए बाबा और बेटा जिम्मेदार है, कवि उसमें शामिल नहीं है। यह आत्ममुग्धता नवगीतों से साथ चली आयी और किसी
न किसी रूप में आज भी मौजूद है। परन्तु इस कविता में जो मार्मिकता है वह उनकी
किन्हीं और कविताओं में नहीं है। अधिकांश कविताएं मार्मिकता के अभाव में सरकस हो
गयी हैं। पहले संग्रह में रोशनी शीर्षक से एक कविता है। इसमें प्रकाश के तरंग और
कण वाले दोहरी प्रकृति के बारे में बताया गया है। तरंग हूँ तरंग हूँ कहती हुई /
कणों में कर सकती है संचरण/ और दोनों जगह अपने सही होने का/ दे सकती है प्रमाण”।
ऐसी कविताओं में भौतिक तथ्यों पर आरोपित मानवीकरण और रहस्यकरण हास्यास्पद हो जाता
है। जैसे एक जादूगर आता है। वह बच्चे को बॉक्स में छिपाकर सिर्फ चाकचिक्य और भाषिक
विस्फार के दम पर आपको किसी रहस्य का आभास कराना चाहता है। अगर आप इस ट्रिक को
समझते हैं, अगर आप जानते हैं कि बच्चा छिपा हुआ है, तो आपके लिए हास्यास्पद उछल-कूद है। यदि आप इस ट्रिक को नहीं समझते तो अज्ञानता
का अपना सुख होता ही है! भौतिक तथ्यों से कविता की शुरुआत करना और एक
मानवीय-संवेदनात्मक जमीन तक उतार देना एक बड़ी बात होती,
लेकिन इन कविताओं में यह नहीं है। इसके लिए मनुष्य और इस धरती के प्रति जिस अकूत
प्रेम की ज़रूरत होती है, वह कलेजे में नहीं है। पहले संग्रह
में एक कविता है – लालटेनें। इस कविता का ठीक से पाठ होना चाहिए। समुचित पाठ से आप
नरेश सक्सेना की कविताओं की बनावट समझ पाएँगे।
“रोशनी का नाम लेते ही
याद आता है सूरज
याद आती हैं बिजली की
बत्तियाँ और टार्चें
लेकिन अन्धे तहख़ानों
और जहरीली गैसों से भरे
मैनहोलों में
उतारी जाती हैं सिर्फ
लालटेनें
जो अक्सर वहाँ से बुझी और
तड़की हुई लौटती हैं
हमें ख़तरों का पता देती हुई
क्योंकि जहाँ जाकर लालटेनें
बुझ जाती हैं
वहाँ जाकर आदमी का दम घुट
जाता है।
आग को जलने के लिए ऑक्सीज़न की
आवश्यकता होती है। यह आप पहले से जानते होंगे। पुराने समय में ऑक्सीज़न की उपस्थिति
को जानने के लिए खानों में विशेष तरह की लालटेन ले जाया जाता था। जहाँ ऑक्सीज़न कम
हो जाती थी, वहाँ लालटेन बुझ जाती थी और लोग उसके आगे नहीं जाते थे। अब इस तरह के
तमाम आधुनिक यंत्रों की खोज हो चुकी है कि लालटेन गधा गाड़ी के जमाने की बात हो
गयी। पूरी बात सिर्फ ऑक्सीज़न और आग के सामान्य भौतिक संबंध की है। लेकिन इसके लिए
एक रहस्य बुना गया है और इसमें सूर्य से लेकर टार्च और बल्ब तक, सबकुछ शामिल कर लिया गया है। तब भी पाठक इसे किसी मानवीय भाव-संबंध से
नहीं जोड़ पाता। कोई मार्मिकता नहीं आ पाती। कविता का काम विज्ञान- उद्घाटित सत्य
के बजाए जीवन के रहस्य से प्रेम करना है। इसके लिए एक धड़कता हुआ हृदय चाहिए ट्रिक
और कौशल नहीं।
नरेश सक्सेना की अधिकांश कविताओं में ऐसी ही वैज्ञानिक अवधारणाएँ
हैं। वैज्ञानिक अवधारणाओं का कोई सीमित देश-काल नहीं होता। इनकी कविताओं से किसी
निश्चित भूगोल, स्पष्ट पारिस्थितिकी का आभास नहीं होता। कविता थल और काल के फ्रेम में
सीमित सत्य को पकड़ती है। नरेश सक्सेना का थल और काल दोनों ही पकड़ से बाहर है। और
आप देखेंगे कि नरेश सक्सेना की कविताओं में ऐतिहासिक समय नहीं अनैतिहासिक काल है। नरेश
सक्सेना की एक कविता है- पृथ्वी। यह कविता खगोल-विज्ञान समझाती है। “पृथ्वी अपने
केंद्र पर घूमती है / साथ ही एक और केंद्र के चारों ओर लगातार”। इस समझ के बाद कविता
स्त्री और धरती की पारंपरिक छवियों पुनरुत्पादित करती है- “पृथ्वी क्या तुम कोई
स्त्री हो/ तुम घूमती हो/ तो घूमती चली जाती हो”। यह
स्वाभाविक है। नरेश सक्सेना की कविताएं सामान्य वैज्ञानिक अवधारणओं को ही नहीं
बल्कि पारंपरिक भाव-बोध को भी पुनरुत्पादित करती हैं। पुंसवाद चीज़ों का एक बाइनरी
रचता है। उसके लिए सबकुछ एक द्वितत्व में है। पाप –पुण्य,
सही-गलत, स्त्री-पुरुष, धरती- सूर्य।
इसमें एक पक्ष कमतर या अवतर भी है। सूर्य ताक़तवर और केंद्र है। धरती उपग्रह है और
सूर्य के चारों तरफ़ घूमती है। स्त्री खेत है और पुरुष हलवाहा। वह बीज डालता है और
स्त्री और धरती एक पात्र है। यह प्रतीक बार-बार दुहराया जाता है। स्त्री चिंतकों
ने बार-बार इस तरह के प्रतीकों को ख़ारिज किया है। उन्होने इस सौंदर्य के पीछे की
राजनीति को उद्घाटित किया है। प्रसिद्ध समाज विज्ञानी लीला दुबे ने भारतीय स्तर पर
इसे समझने का प्रयास किया है। लेकिन सामान्य सौंदर्यबोध के पुनरुत्पादन को ही सृजन
समझने वाले व्यक्ति के लिए इस सबसे क्या? नरेश सक्सेना इसे
जस का तस उठा लेते हैं और चाहते हैं कि हम इसे सिर्फ सृजन ही न मान लें और उन्हें
सामाजिक न्याय का उदगाता भी समझें। इस तरह के तत्त्व ताली पिटवाऊ कविताओं की ख़ास
विशेषता है। ताली पिटवा लेना कोई बुरी बात नहीं है। दिक़्क़त तब होती है जब इन
तर्कों के आधार पर दूसरी तरह की कविताएं सिद्ध करने का प्रयास किया जाए। जब गधे के
गुणावगुण के आधार पर घोडा सिद्ध करने का प्रयास हो तो सारे तर्क हास्यास्पद हो जाते
हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण विष्णु खरे द्वारा नरेश सक्सेना पर लिखा गया लेख है।
नरेश सक्सेना की एक कविता है – छः दिसंबर। विष्णु खरे इसे इस विषय पर हिन्दी की
सर्वश्रेष्ठ कविता कहते हैं। मुझे पता नहीं उन्होने इस विषय पर हिन्दी की कितनी
कविताएं पढ़ी हैं। परन्तु यह कविता इस विषय पर औसत से भी नीचे की कविता है। “इतिहास
के बहुत से भ्रमों में से / एक भ्रम यह भी था / कि महमूद गजनवी लौट गया था। लौटा नहीं था वह / यहीं
था”। जब ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है कि उसका लौटना एक भ्रम था तो पुनः
नीचे “लौटा नहीं था वह यहीं था” से कौन-सा नया अर्थ पैदा हो
रहा है? तीसरे बन्द में फिर उसे मिलते-जुलते ढंग से दुहराया
गया – “सैकड़ों वर्ष बाद वह अचानक / प्रकट
हुआ अयोध्या में”। सिर्फ अंतिम बन्द के लिए ऊपर के तीन बन्द
जोड़े गये हैं। “सोमनाथ में उसने किया था / अल्लाह का काम
तमाम/ इस बार उसका नारा था / जय श्रीराम”। 6 दिसम्बर की घटना
से भारत का सामाजिक ढाँचा ढह गया। पूरी राजनीति बदल गयी। आतंकवाद नये-नये रूपों
में हमारे सामने बढ़ता जा रहा है। एक ऐसी घटना जिसने हमारे समाज की नींव हिला दी
उसे तुक और ट्रिक के जरिए इतने सपाट ढंग से कह दिया गया है! बार-बार दुहराई गयी
पंक्तियों में जरा भी मार्मिकता नहीं है। विष्णु खरे को युवा कवि अनिल कुमार सिंह
की ‘अयोध्या 1991’ शीर्षक कविता पढ़नी
चाहिए। यह चर्चित कविता है। इसे नामवर सिंह ने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया
है। खरे जी को चाहिए कि इस कविता पर नामवर सिंह का निर्णायक मत भी पढ़ें। इस विषय
पर तमाम कविताएं उद्धृत की जा सकती हैं और तुलना भी हो सकती है। लेकिन इसकी ख़ास
अवश्यकता नहीं है। इस तरह की कविताओं का भविष्य समय तय कर देता है। इसी तरह की
कविता है – गुजरात एक और गुजरात दो। यह कठकरेजपन स्वाभाविक है। इसकी अनुगूँज शुरू
से अन्त तक कविताओं में मौजूद है। कई बार वह चरित्र के स्तर पर सामने आ जाता है। यह
संभव नहीं है कि आप श्रीराम कविता पाठ में मुरली मनोहर जोशी के साथ कविता पाठ भी
कर लें और उसे संवेदनात्मक स्तर पर महसूस भी कर सकें। समझौते की कुछ क़ीमत तो होती
ही है। और यह क़ीमत कविता और मनुष्यता को सबसे ज़्यादा चुकानी पड़ती है। नरेश सक्सेना
“कविता की तासीर” को पके फोड़े को चीरने वाला चाकू कहते हैं,
जिससे वाह नहीं आह निकले। पर अपनी कविताओं में सबसे आसान वाह-वाह का रास्ता ही
चुनते हैं! एक कविता का शीर्षक है- दीमकें। “दीमकों को /
पढ़ना नहीं आता/ वे चाट जाती हैं / पूरी किताब”। पूरी कविता में पढ़ना और चाट जाना
दो पद हैं। इन्हीं दो पदों पर कविता पूरी तरह मुनहसिर है। दोनों का अलग- अलग
सामान्य अर्थ पहले से निर्धारित है। चाट जाना शब्द दीमकों के लिए ही व्यवहृत होता
है। उनके खा जाने को चाट जाना कहते हैं। कविता में इन पदों का सामान्य अर्थ ही
मुख्य है। इसमें कुछ जुड़ता नहीं। इसी तरह की कविता है ‘चट्टानें’। पत्थर, पानी, सीढ़ी तमाम
कविताएं इसी तरह की शाब्दिक खेल से गढ़ी गयी हैं। कोई कविता अगर अगर व्यवहृत पदों
का अर्थ नहीं बदल सकती तो वह कविता नहीं हो सकती। नरेश सक्सेना इसी तरह शब्दों से
कविता बनाते हैं। वे चाहते हैं कि इसे कविता मान लिया जाए (मनवाने के लिए जिन
भौतिक चीज़ों की ज़रूरत होती है वह उनके पास है ही – ज्ञानरंजन जैसे संपादक और
विष्णु खरे जैसे समीक्षक हैं।) और वाह भी नहीं आह! कहा जाए। यह कविता नहीं कविता
की दांडी मारना है। और सही कहा गया है कि दांडी मारने वाला बनिया पल्ला बहुत पीटता
है!
नरेश सक्सेना की तारीफ़ कुछ आलोचक इसलिए करते हैं कि उन्होने गिट्टी, मोरंग, बालू और तमाम ऐसी चीज़ों को कविता में जगह
दिया। यह सही है। नरेश सक्सेना ने पहली बार तमाम ऐसी उपेक्षित टूटी-फूटी चीज़ों से
कविता बनाया। लेकिन यह कहने के साथ अपने एक उम्रदराज कवि का मूल्याँकन भी होना
चाहिए। मुग्धता चिंतन के लिए सबसे सहज और घातक बात है। ध्यान इस बात पर भी होना
चाहिए कि ये तमाम चीजें मनुष्य की भावात्मक दुनिया का हिस्सा कितना बन पाती हैं।
दुनिया की प्रत्येक वस्तु अपने भौतिक गुणों के साथ सामाजिक – सांस्कृतिक और
ऐतिहासिक निर्मितियों का साझीदार भी है। कोई वस्तु कलात्मक सृजन का हिस्सा तब बन
पाती है जब वह सांस्कृतिक संदर्भ के साथ आए। नरेश सक्सेना के यहाँ अक्सर ऐसा नहीं
होता। वे चीज़ों के सांस्कृतिक सन्दर्भ के बजाय उसके भौतिक गुणों को ही रहस्य बनाने
लगते हैं। नरेश सक्सेना की कविता में विज्ञान-ज्ञान भी बहुत गहरा हो, ऐसा नहीं है। यह भौतिकी की अति सामान्य समझ पर आधारित है। अगर भौतिकी के
गहरे समझ का जरा भी अक्स होता तो यह कविता का ठस्स और चुस्त ढाँचा ढह जाता।
आधुनिकता के प्रारम्भिक दौर में भौतिकी ही चिन्तन का केन्द्र था। पूरी सृष्टि को
एक बड़ी मसीन समझा जाता था। और चिन्तन के स्तर पर स्वीकार किया जाता था कि भौतिकी
का सत्य इतिहास, संस्कृति और चेतना पर भी लागू होता है। आगे
यह नकार दिया गया। कार्ल पापर ने सिद्ध कर दिया कि विज्ञान का सत्य भी निर्मितियों
से बाहर नहीं है। अब विज्ञान को समझने के लिए खुद भाषा की तरफ़ लौटना पड़ता है। यह
स्वीकृत है कि तर्क के द्वारा हम बहुआयामी यथार्थ को नहीं पकड़ सकते। इसके लिए हमें
कलाओं की ओर लौटना पड़ेगा। लेकिन नरेश सक्सेना आधुनिकता के प्रारम्भिक निर्मितियों
से बाहर नहीं हो पाए हैं। यह सब कविता में बहुत गहराई से दिखता है। काव्यवस्तु में
समाजार्थिक तनावों का अभाव और वास्तु में शैलीगत यांत्रिकता से यही समझ बनती है।
आधुनिकता के भाव-बोध के जो भीषण परिणाम देखने को मिलते हैं,
उसका अक्स बहुत गहराई में नरेश सक्सेना के सौंदर्यबोध में भी झलक जाता है।
कविता का संबंध अनुभव से है और विज्ञान का तथ्य से। नरेश सक्सेना
तथ्य से अनुभव की तरफ आते हैं। लेकिन बहुवर्णी संसार से अपरिचय और अनुभव की क्षीणता
के नाते कविता तथ्य के चारों तरफ़ ही चक्कर काट के रह जाती है। कविता मनुष्यता के
सांस्कृतिक सन्दर्भ और उसके भावात्मक संसार को प्रदीप्त नहीं कर पाती। यह कविता
होने के बजाए तमासा हो जाती है। मन के उलझे हुए यथार्थ को अवधारणाओं में रचने
समझने का प्रयास निर्धारणवाद की तरफा ले जाता है। वे चिन्तन में भौतिकी से
प्रभावित हैं। और कविता में लय व कारीगरी को महत्त्वपूर्ण मानते हैं: ये दोनों ही बातें
अलग लग सकती हैं, लेकिन हैं नहीं। जिसके बोध का आधार भौतिकी
की यांत्रिक समझ हो उसके लिए कविता में मार्मिकता कोई महत्त्वपूर्ण तत्त्व नहीं है
तो यह स्वाभाविक है। वे सेना के अनुशासन से मोहित होते हैं और लेफ्ट-राइट में लय
खोजते हैं। और उसे सृष्टि की लय बताते हुए उसका ग्लोरीफिकेशन करते हैं। यह फ़ासिज़्म
की अनुगूँज है।
साहित्य में ही बहु-विमीय यथार्थ को खोलना संभव है। जहाँ
आधुनिकता द्वारा रूढ तार्किकता से एक अलग तरह के सार्थक अतर्क और काव्य-न्याय से
सत्य को पकड़ना और रचना संभव हो पता है। जीवन की यांत्रिक समझ और उसे समाजार्थिक
परिदृश्य से काट देना सेना की लय को सृष्टि की लय कहने की तरफ़ ही ले जाएगा। जो
सेना की इस लय की ताक़त को सत सत प्रणाम कहता है उससे हिन्दी के समझदार लोगों को
प्रणाम कर लेना चाहिए। कविता में फ़ासिज़्म तख़्ती लगाकर नहीं आता, इतने ही सौंदर्यात्मक
ढंग से आता है। इसे विश्लेषित करने और समझने की ज़रूरत पड़ती है।
“शनैः-शनै:
लय के सम्मोहन में डूब
सेतु का अन्तर्मन होता है आन्दोलित
झूमता है सेतु दो स्तम्भों के मध्य और
यदि उसकी मुक्त दोलन गति मेल खा गई
सैनिकों की लय से
तब तो जैसे सुध-बुध खो केन्द्र से
उसके विचलन की सीमाएँ टूटना हो जाती हैं शुरू
लय से उन्मत्त
सेतु की काया करती है नृत्त
लेफ़्ट-राइट, लेफ़्ट-राइट, ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे
अचानक सतह पर उभरती है हल्की-सी रेख
और वह भी शुरू करती है मार्च
लगातार होती हुई गहरी और केन्द्रैन्मुख
रेत नहीं रेत । लोहा, लोहा अब नहीं
और चूना और मिट्टी हो रहे मुक्त
शिल्प और तकनीकी के बन्धन से
पंचतत्त्व लौट रहे घर अपने
धम्म…धम्म…धम्म…धम्म…धम्म…धड़ाम
लय की इस ताक़त को मेरे शत-शत प्रणाम”
सेतु का अन्तर्मन होता है आन्दोलित
झूमता है सेतु दो स्तम्भों के मध्य और
यदि उसकी मुक्त दोलन गति मेल खा गई
सैनिकों की लय से
तब तो जैसे सुध-बुध खो केन्द्र से
उसके विचलन की सीमाएँ टूटना हो जाती हैं शुरू
लय से उन्मत्त
सेतु की काया करती है नृत्त
लेफ़्ट-राइट, लेफ़्ट-राइट, ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे
अचानक सतह पर उभरती है हल्की-सी रेख
और वह भी शुरू करती है मार्च
लगातार होती हुई गहरी और केन्द्रैन्मुख
रेत नहीं रेत । लोहा, लोहा अब नहीं
और चूना और मिट्टी हो रहे मुक्त
शिल्प और तकनीकी के बन्धन से
पंचतत्त्व लौट रहे घर अपने
धम्म…धम्म…धम्म…धम्म…धम्म…धड़ाम
लय की इस ताक़त को मेरे शत-शत प्रणाम”
धड़ाम से प्रणाम को मिलना चाहिए बकिया भाव और अर्थछवियां जाएँ भाड़
में। भाषा भेदिया होती है। वह अंदर का सारा पता देती है। नरेश सक्सेना का सारा
वाक्य-विन्यास बहु-प्रयुक्त और सामान्य है। इसका अर्थ यह होता है कि उनकी भावदृष्टि
भी सामान्य है। दूसरी बात यह कि उनकी भाषा का इतिहास-भूगोल बहुत सीमित है। इनके
साथ लिख रहे तमाम कवियों की भाषा का भूगोल इनसे बहुत विस्तृत है। यह सिर्फ भाषा और
शिल्प जैसा यांत्रिक मसला नहीं, भाव और संवेदना की सीमाओं को भी दर्शाता है।
***
आशीष जी , अच्छा लिखा है …
आप अपने लेखन से कुछ ताेड़ेंगे आैर जाेड़ेंगे . हार्दिक शुभकामनाएँ !!
– कमल जीत चाैधरी .
bahut sundar likha…