अनुनाद

कृष्ण कल्पित की बारह कविताएं

कवि कृष्ण कल्पित भारतनामा शीर्षक से कविता की एक सिरीज़ लिख रहे हैं। उनके जन्मदिन के अवसर पर बधाई देते हुए इसी सिरीज़ से बारह कविताएं। ये कविताएं उसी क्रम में नहीं हैं, जिसमें कवि द्वारा इन्हें प्रस्तुत किया गया है। वहां कविताओं की संख्या सौ पर पहुंचने को है, मैंने बारह का चयन किया है। 

1
कभी
का धूल-धूसरित हो जाता यह देश

बिखर
जाता


टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त हो जाता

लेकिन
इस महादेश को

अभावों ने कसकर थाम रखा था

ग़रीबों
की आहें

हमारी प्राण-वायु थी !

***
2
खेत
जोतने वाले मज़दूर

लोहा गलाने वाले लुहार
बढ़ई मिस्त्री इमारतसाज़
मिट्टी के बरतन बनाने वाले कुम्हार
रोज़ी-रोटी के लिये
पूरब से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण

हर सम्भव दिशा में भटकते रहते थे

ये
भूमिहीन लोग थे

सुई की नोक बराबर भी जिनके पास भूमि नहीं थी

बस-रेलगाड़ियाँ
लदी रहती थीं

इन अभागे नागरिकों से

अब
कहीं दूर-देश जाने की ज़रूरत नहीं थी

अपने ही देश में
निर्वासित थे करोड़ों लोग !

***
3
मैं
बहुत सारी किताबों की

एक किताब बनाता हूँ

मैं
कवि नहीं

जिल्दसाज हूँ

जो बिखरी हुई किताबों को बांधता है

किताबें
जलाने वाले इस महादेश में

मैं किताब बचाने का काम करता हूँ !

***
4
वरमद्य
कपोत: श्वो मयूरात् !

( आज प्राप्त कबूतर कल मिलने वाले मयूर से अच्छा है ! )

वरं
सांशयिकान्निष्कादसांशयिक: कार्षापण:

इति लौकायतिका: !
( जिस सोने के मिलने में सन्देह हो
उससे वह ताम्बे का सिक्का अच्छा जो असन्दिग्ध रूप से मिल रहा हो । यह लौकायतिकों
का मत था ! )

अलौकिक
लोगों के अलावा इस देश में

लौकिक लोग भी रहते थे

***

 
5
ख़ामोश
हो गया हूँ

अपने ही देश में

जब-जब
खोलता हूँ ज़बान

बढ़ती जाती है दुश्मनों की कतार

कहाँ
से लाऊँ प्रेम की बानी

अपनी
आत्मा के दाग़ लेकर

किस घाट पर पर जाऊँ
किस धोबी किस रजक के पास

मेरी
चादर मैली होती जाती है !

***

6
किसी
ने मेरे भारत को देखा है

किसी ने

एक
फटेहाल स्त्री

इस महादेश के फुटपाथों पर भटकती थी
अपने भारत को खोजती हुई

जैसे
अपने खोये हुये पुत्र को !

***

7
आज
भारतवंशी करोड़ों जिप्सी

यूरोप से लेकर सारी दुनिया में भटकते हैं

उनके
क़ाफ़िले बढ़ते ही जाते हैं

एक
पढ़-लिख गये जिप्सी ने

बड़ी वेदना से 1967 में अपने देश को याद करते हुये
अपनी डायरी में यह दर्ज़ किया :

हम अपने छूटे हुये देश को कितना याद करते हैं लेकिन लगता है हमारा
देश हमें भूल गया है । कितनी हसरत से मैं जवाहरलाल नेहरू लिखित
डिस्कवरी ऑफ इंडियाख़रीद कर लाया लेकिन उसमें हमारे
बारे में
, अपने विस्मृत बंधुओं के लिये, एक शब्द भी नहीं है


बंजारो

ओ जिप्सियो
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ मेरे बिछुड़े हुये भाइयो

इस
महादेश का एक कवि

अश्रुपूरित नेत्रों से तुमको याद करता है !

***

8
इब्न
बतूता मोराको से हिंदुस्तान आया था

 

उसने अपने प्रसिद्ध यात्रा-वृत्तांत में
अपने ख़ैर-ख़्वाह मुहम्मद तुग़लक़ के बारे में लिखा है :
शायद ही कोई दिन जाता हो कि
बादशाह किसी भिखमंगे को धनाढ्य न बनाता हो
और किसी मनुष्य का वध न करता हो

प्रसिद्ध
दानवीरों ने अपनी समस्त आयु में

इतना दान नहीं किया होगा
जितना तुग़लक़ एक दिन में करता था

ऐसा
न्यायप्रिय और आदर-सत्कार करने वाला

कोई दूसरा मुहम्मद तुग़लक़ की बराबरी नहीं कर सकता

कोई
सप्ताह भी ऐसा नहीं बीतता था जब यह सम्राट ईश्वर-भक्तों माननीयों धर्मात्मा सैयदों
वेदान्तियों साधुओं और कवियों-लेखकों को न बुलवाता हो

और उनका वध करके
रुधिर की नदियाँ न बहाता हो

विद्वानों
कवियों लेखकों विचारकों को

मुहम्मद तुग़लक़ ईनाम देकर मार देता था
या तेग़ से उनका सर काट देता था

मुहम्मद
तुग़लक़ उनको दोनों तरह से मार देता था !

***

9
इस
देश के बंजारे

जिप्सियों का भेस धरकर
पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं



सिकंदर
लोदी के समय

जिन्हें खदेड़ा गया था अपने देश के बाहर

कल
के बंजारे

आज के जिप्सी
 

उतने ही चंचल मदमस्त
गीत गाते हुये परिव्राजक

उनकी
दृढ मान्यता है कि

अंतिम जिप्सी व्यक्ति
पाश्चात्य दुनिया के बिखरे हुये खंडहरों से
अपना रास्ता खोजते हुये
अपने खोये हुये देश भारत लौटेगा

यह
महादेश

निर्वासित बंजारों का गंतव्य है !

***

10
शताब्दियों
बाद आज भी

वह पुष्करणी प्रवाहित है
जिसमें कभी वैशाली की नगरवधू
अपने चरण पखारती थी

खरौना
पोखर की निर्मल जल-धारा में

आज भी आम्रपाली की
देह-गंध बसी हुई है

वह
अपार-सौंदर्य

बुद्ध की अपार-करुणा के सिवा कहाँ समाता

और
काल की क्रूर सड़क पर

साइकिल का चक्का दौड़ाता हुआ
वह नंग-धड़ंग बच्चा !

***

11
इस
देश का समस्त प्राच्य-साहित्य

उत्कृष्ट श्रेणी की मेधा
और उत्कृष्ट श्रेणी की ठगी के मिश्रण से बना

बेसुध कर देने वाला आसव है

यह
कोई कम करामात नहीं कि

शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ-याग को
कितनी कुशलता से रंग-राग में बदल दिया गया है :
हे गौतम स्त्री अग्नि है उसकी इन्द्रियाँ समिधा है लोम धुंआ है योनि
लौ है सहवास अंगारा है और आनन्द चिंगारियाँ हैं

इस अग्नि में देव वीर्य आहुति से पुरुष उत्पन्न होता है जब तक आयु
है जीता है

मरने पर उसको अग्नि तक ले जाते हैं

इस
महादेश में कामक्रीड़ा भी एक तरह का यज्ञ थी

और यज्ञ भी एक तरह की कामक्रीड़ा !

***

12
कितने
रजवाड़े मिट गये

कितने साम्राज्य ढ़ह गये
कितने राजप्रासाद ढ़ेर हो गये

कितने
राजा बादशाह सामन्त सुलतान शहंशाह वज़ीरे-आज़म और राष्ट्राध्यक्ष

इस महादेश की मिट्टी में मिल गये

फिर
आता है कोई नया तानाशाह

सत्ता-मद में चूर
लोकतंत्र का नगाड़ा बजाता
भड़कीले वस्त्रों में भड़कीली भाषा बोलता हुआ

जिसे
देखकर डर लगता है

कलेजा कांप जाता है
उसका भयानक हश्र देखकर

किसी
से भी पूछकर देखो

इस देश की गली-गली में भविष्य-वक्ता पाये जाते हैं !

***

0 thoughts on “कृष्ण कल्पित की बारह कविताएं”

  1. शानदार कविताओं के लिए धन्यवाद। कविता मात्र कविता नहीं एक गहन शोध है एक छुपा इतिहास है और लज्जित वर्तमान भी। बहुत कुछ है इन कविताओं में।

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