पंखड़ी
हम जो नेह के पराग से सने फूल के केंद्र में पड़े थे
अन्वेषक बनते या यात्री सोचते रह गए
केंद्र से परिधी तक की यात्रा में सुगंधी धीमे – धीमे सिमट गई नाभि
में
वह सुगंधी कस्तूरी नही
हम बेकल मृग नही
प्रत्येक अन्वेषक यात्री होता है
प्रत्येक यात्री अन्वेषक नही होता
हाथों से पोछ देती हूँ तुम्हारी आँखों के नीचे उग आये अँधेरे काले
चाँद
उँगलियों में लगी उस कालिख का टीका किसी नवजात के गुलाबी गालों में
लगा देती हूँ
इतना यकसाँ है दिलों से निकलता अवसाद कि अब ख़्याल रखे जाने की
ताकीदें बेमानी हो गई है
पृथ्वी अंतिम सीमा पर ज्वालामुखी की दरारों में पैर लटकाये साथ बैठे
हम
देख रहे हैं अपने पैरों को धीरे धीरे
लावे की गिरफ्त में जाते
राख कहीं दूर नरसंहारों के अवशेष बने श्मशान में गिर रही है
हम लड़ना नही चाहते
हम भागना नही चाहते
हम मरना भी नही चाहते
हमारे पास लेनदेन के वास्ते दुरूह सौदागरों वाले हुनर हैं
रेगिस्तान में फंसे यात्रियों सा धैर्य है
हम कंदराओं में बंद कैदियों से निरीह भी हैं
गाँव जला दिए जाने के बाद बचे एकमात्र जीव से अकेले भी
हमारे खून में आतंकी चींटियाँ भी रेंगती है
संवेदनाओं का गाढ़ा शहद भी बहता है
आखें सबके सम्मिलित रुदन का महासागर भी होती है
गोलक निराशा की धूप से सूख कर दरकते भी हैं
हम एक समय में सबसे समृद्ध नागरिक हैं
ठीक उसी समय बहिस्कृत विपन्न कोढी भी
अविरल गति में तो हैं
समय ही शायद सभ्यताओं की मेढ़ लाँघता
में कहीं ठहर गया है।
खुद को रास्तों में बदलते देखना है
सुईयों से कालचक्र में बदलते जाना है
फिर भी मैंने तुम्हे एक निमंत्रण पत्र लिखा जिसमे पता नही था
मैंने आँखें बंद कर ली
की किस्तें बंद थी
तुम मेरे पास किसी बेकल खोजी की तरह आना
कल्पनाओं को हक़ीक़त में बदलने वाले कीमियागर की शक्ल लिए
हम इतिहास के अधूरे सपने को उन दराजों
में से निकालेंगे
जिसमे गुम कर दी गई सबसे पुराने विद्रोहों की कथा
हम विद्रोहों को डोर खोलकर आज़ाद कर देंगे
कल्पनाओं को भविष्य के सतरंगी चित्र में बदल देंगे
फिर तुम मेरे पास कामकाजी दिनों की व्यस्तता की तरह आना
मैं तुम्हारी उपस्थिति बेतरतीब फाइलों में समेट लूंगी
जब किसी रात खिडकी से आती तेज़ हवा बिखेर
देगी
तुम्हारी अनुपस्थिति समेटते मैं रख दूँगी उनपर
तुम गहरी नींद के सबसे उत्ताप स्वपन की तरह आना
स्वपन जो इतना तीक्षण हो कि वितृष्णा की परतें भेद सके
और समयों के अंत तक मैं उनपर शब्दों का चंदन लपेटती रह जाऊं
तुम्हारे स्पर्शों का ताप मध्यम करने के लिए
किसी दिन तुम मिलना ट्रेन के किसी लम्बे सफ़र में
अनजान पर अपने से लगते मुसाफिर की तरह
इस दौर में भी जब भरोसे भय बन गए हैं
मैं हिम्मत करके पूछ लूंगी तुमसे कॉफी के लिए
फिर हम दुनिया के दुःख सुख के जरा से साझेदार बनेंगे
जीवन भर साथ चलने के वादे तो जाया हुए
पर हम किसी सफर में कुछ घंटे साथ चलेंगे
फिर तुम तानाशाहों के मिटने की खुशनुमा खबर की तरह आना
जिससे मजलूमों के सुनहरे कल की कवितायी उजास छिटके
सदियों की चुप्पी तोड़कर तुम्हारे शब्द मैं अपने होठों पर रख लूँ
मेरी मुस्कराहट उसे तराश कर एक उजियारी रक्तिम सुबह में बदल दे
मैं जब अगली बार हँसू तो वे धरती के अंतिम छोर तक बिखर जाएँ
तुम आना ऐसे कि हम पूरा कर सके वह सपना
जिसमे पीस देते हैं हम अपना तन क्रूरताओं की चक्की में
न हम खून से प्रेम पत्र लिखते है न बृहद्कथा
चक्कियों से टपकते अपने रक्त को हम आसमानों में पोत देते हैं
कि उससे बना सकें एक नवजात सूरज
जो भेद सके किलेबंदियों के तमाम
अंधियारे
प्रेम की स्मृति इतनी बड़ी हो जाती है
बन जाता है भावों का हर
सम्भव अनुवाद
का चलताऊ अनुवाद होगा
डसेगा
गलियारों में भटकते हुए
से
भावनाओं का आना कविताओं का आना था
मुझे भय लगता रहा मन में कविता के आने से
कटुता और रुक्षता के रीत जाने से
तितलियों के रंगों से अधिक उनकी निरीहता से
फूलों की महक से अधिक उनकी कोमलता से
बारिश की धमक से अधिक ख़ुद भींग जाने से
क्षणों में एकाकी होना है
सर्वसुलभ होना है
बारिश का पानी प्रचंड वेग से बहता है
भूस्खलन के शिकार होते हैं
में बदलते हैं
बचे रहते हैं
सबसे पहले टूटते हैं
महानता के रंग -रोगन नही चाहिए थे मुझे
पर इंकार के सब मौके मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गए
घोषणापत्रों पर मुझे आवाह्न के नारों की तरह उकेर दिया गया
कोई व्यंग से हंसा मैं कालिदास हुई
हुई
किसी ने नफ़रत की मैं ईसा हो गई
जब – जब किसी ने अनुशंसा की
मैं सिर्फ शब्द बनी रही
जब भी मौसम ने दस्तक दी मैंने चक्रवात चुने
धूप भली लगी
गांव में माघ के जाड़ बाघ नियर)
सामर्थ्य नही था मुझमे पर विवशता में हिरण भी आक्रामक होता है
मुझे उदाहरण भी नही बनना था
बुद्धि कुंद कर दी
दिया गया
शुरुआत में बदल जाना था
महानताओं ने धीरे से क्षमा कर दी उसकी गलतियाँ
चुनौतीपूर्ण चयन अहम का आहार होता है
जिसकी बलि चढ़ा दी जाये वह समर्थ नही कहलाता
वरना समाज अभिमन्यु की जगह
***
“सम्पूर्ण प्रहसन” का सम्बोधन दिया
मैं मुस्कुराई कि हाँ यों तो मेरे अंदर सभ्यताओं के अंश शेष हैं
प्रहसन के लिए
मेरे अंदर युद्ध के बाद खंडहरों में तब्दील हुए शहरों के बियाबान
में रोते सियारों सा अपशगुन पैबस्त है
जो अँधेरे में नृशंस हत्याएँ करके भाग गए मेरे अंदर उनकी ग्लानि भरी
है
रोते – रोते जो गर्भपात कराए गए मैं ने भोजन के रूप में उन शिशुओं
की हड्डियाँ चबाई मेरे अंदर उनकी पीड़ा और वितृष्णा शेष है
अकाल में जो बेमौत मारे गए अक्सर उन धरतीपुत्रों की चित्कारें
कंठ छीलती रहती हैं
लेकिन यह बस प्रहसन का उत्तरार्ध है इसका पूर्वार्ध मैं आपको सुनाती
हूँ
मेरी सबसे पुरानी और भयावह स्मृतियों में मैं एक राह भटक गई बच्ची
हूँ
जो अँधेरे से लड़ते अपने घर तक पहुचती तो है पर रस्ते में ठोकर लग कर
उसके घुटने छील जाते हैं
यौनांगों पर पहला विजातीय स्पर्श याद करूँ तो देह पर रेंगते
अपरिचितों की उँगलियाँ कब्र बिज्जूओं का रूप लेकर मेरे शरीर का मांस कुतर कुतर कर
खाती हैं
मैं रोज रात बलात्कार के दौरान होती पीड़ा महसूसती हूँ और सुबह अपने
मांस के टुकड़े देह से जोड़ती विस्मृति का अभ्यास करती हूँ
मेरी कोमल देह की खरोंचे भर गई पर मन अब भी किसी की केकड़े सी
उँगलियों में है उससे खून रीसता रहता है
मेरी सबसे यातनापूर्ण कल्पनाओं में धरती पर प्रलय के बाद अकेले छूट
जाने का भय है
जबकि स्मृतिओं में दृश्य यह कि मेरे पिता अपनी नई साथिन के बच्चे को
कंधे में उठाकर चॉकलेट दिला रहे हैं
मैं निरीह आँखों से उन्हें देखती सिर्फ इस इच्छा से उनके पैरों से
लिपटी हूँ कि वे अपना हाथ मेरे सर पर फेर दें
फिर मैं खुद को दो दिन से भूखी देखती हूँ माँ से जिद करती कि मेरे
साथ एक हफ़्ते में बस दस मिनट बीता ले और वह जलसों का लुत्फ़ लेती मुझे दुत्कार देती
है
मेरी स्मृतियों में घर संबंधों का बूचड़खाना है फिर भी मेरे सबसे
पुराने अफसोसों में बुढ़ापे में घिसटते हुए घर तक न पहुँच पाने का काल्पनिक दंश है
जब मैं प्रेम कहती हूँ तो मुझे वह अर्धनारीश्वर शिव स्मृत होता है
जिसने हर क्षण अपनी महानता के लिए मुझे क्षतिग्रस्त किया
जब उसे मुझे चूमना होता वह कहता आओ तुम्हारे होंठों से थोड़ा ज़हर चख
लूँ
जब मुझे उसे उन्माद में प्रेम करना होता मैं कहती आओ तुम्हे छोटे
टुकड़ों में काट कर खा लूँ
प्रेम एक ही समय में आपका सृजक और विध्वंसक दोनों होता है
हम अलग हुये तब उसने आवेग से प्रेम करने की शक्ति खोई मैंने शांति
से विचार करने का शिवत्व
आपने देखा होगा समुद्र पानी उलीच देता है और कचड़ा लिए लौटता है
वह भी ऐसा ही था उसने मेरा मोह उलीच दिया और और विमोह लिए मेरी देह
से मुक्त हो गया
आत्मकथ्य कहते हुए आप केवल नौसिखिये लेखक होते हैं
जबकि केवल बाते करते वक़्त आप अनचाहे ही समय द्वारा मोल लिए कथावाचक
हो जाते हैं
उद्देश्यपरक होना प्रपंच का कुशल नीतिज्ञ बनाता है
उद्देश्यहीनता आपको कमअक्ल अवसरवादी भीड़ बनाती है
लेखक का घोषित आत्मकथ्य सत्य –असत्य का मिश्रण
होता है
जबकि लेखक की कहानियों में उसका आत्मकथ्य पैबस्त होता है
तो जैसा की बीथोफ़न ने मरते वक़्त कहा था “दोस्तो,
ताली बजाओ, प्रहसन अब पूरा हुआ”
सामयिक विषम हालात से आगाह कराती और उनसे संघर्ष की चेतना से लबरेज लवली की इन कविताओं के बीच से गुजरना एक जीवंत अनुभव है। इन कविताओं में जहां जीवन के प्रति जिस गहरे प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है, वहीं पीड़ित जन के प्रति गहरी सहानुभूति, अमानवीय स्थितियो के समक्ष एक संवेदनशील कवि की बेचैनी, उसकी आत्मिक छटपटाहट और हालात से अनवरत जूझते रहने की जिजीविषा जिस भाषिक संवेदना में व्यक्त हुई है, विलक्षण है, इन कविताओं का असर देर तक पाठक के मन-मस्तिष्क पर बना रह सकता है।
अभी बस अभी लवली की ये पाँच कवितायें पढ़ी हैं। त्वरित रूप से इन पर कुछ कह पाना सरल नहीं मेरे लिए। यह इसलिए कि इनमें जो कुछ भी है वह वही है जो सतह पर कुछ और दिखता है तल में , अतल में एक सम्मिश्रण है कई – कई चीजों , स्थितियों , अनुभूतियों और संवेदना की विभिन्न परतों का। कवि की सोच और कहन बहुत प्रभावशाली है सचमुच। इन कविताओं को आज प्रिन्ट कर पढ़ना है कम से कम दो – तीन बार , आज ही। शुक्रिया अनुनाद ।
तारीफ का शुक्रिया भाई साहब।
आभार नन्द जी.
लवली जी की कविताओ का इस ब्लॉग पे मिलना एक ख़ज़ाने जैसा है कल से खोज रही हूँ कविताओ के विषय में कुछ कह पाना कठिन है बस इतना ही की अरसे बाद कुछ बहुत बेहतर मिला है पढ़ने को। धन्यवाद अनुनाद।
बहुत सुन्दर लवली जी
कवितायें पढना ऐसा है..कि कोई टूटता हुआ भरोसा फिर से मिल रहा है ..गहरा Observation और सुलझा मस्तिष्क …