अनुनाद

मिलती रही मंज़िलों की खबर ग़म-ए- दौराँ की उदासियों से भी/शुभा द्विवेदी की कविताएं

 

  कुछ सीखें बच्‍चों की बड़ों के लिए                

 

कितना कुछ बचा लेते हैं

ये नन्हे-नन्हे हाथ:

धरती भर मानवता

अंबर भर संवेदनाएँ

वसंती हवा सी उदात्तता

बारिश भर स्नेह की फुहारें

दिये सी चमक आँखों की

खिलखिलाती मुस्कराती धूप सी हँसी

सपनीले इंद्रधनुष से सुनहले रंग

सुखद सपनों से दिन

बोझिल रातों की परछाइयों से विरक्तता

नाउम्मीदी में भी उम्मीदें,

 

 आरज़ुओं की फ़ेहरिस्त

अन्तः करण की निष्पक्षता

मृगशावकों सी नाजुकता

सहज कौतुहलों से भरा सुंदर मन

तितलियों सी सौन्दर्यबोधी दृष्टि

चंचलता गिलहरियों सी

तरलता मछलियों सी

कितनी ही तदबीरों और

तरकीबों से

ये खींच ही लाते हैं हमें

शोक,दुख, भय के तूफानों

से बाहर

ठोकरें खाते, गिरते-पड़ते,

आगे बढ़ते और

प्रति पल कलाबाज़ियाँ दिखाते

करते हैं जीवन को सर्वविध आह्लादित

जीवन की नेमतों को सँजोना

कोई इन हुनरमन्दों से सीखे!

***

   अनुभूतियां                

 

खुलते बंद होते दरवाज़ों के बीच

झाँकती रही रोशनी की उम्मीद।

चलते रहे जिन रास्तों पर बेख़ौफ़ सालती रही

उन पर रुक कर ठहरने की टीस।

एक बदमिज़ाज उफनतीं नदी सी थी ज़िंदगी की रफ़्तार

गूँजती रही कमी पल पल बिछड़ते रिश्तों की।

घने अरण्य में दमकते जुगनूओं सी

कोई तस्वीर उभरती रही किताबों के पन्नों पर।

मन के कोलाहल में रिसती रहीं कुछ यादें

झकझोरती रहीं शोख़ गुलाबों की ख़ुशबूएँ ।

उठते बढ़ते कदमों के बीच सिमटती रही ज़िंदगी

जादू और तिलिस्म से भरी दुनिया में खलती रही कमी सूरज
की।

ज़िद थी ख़ुद से ख़ुद तक पहुँचने की

मिलती रही मंज़िलों की खबर ग़म-ए- दौराँ की उदासियों
से भी

   मेरे शहर का मौसम पतझड़ है                


धीरे-धीरे नहीं,
और न ही किसी सुगबुगाहट के साथ
बल्कि,

मेरे शहर की सुबह होती है
एक धक्के से !
भाग-दौड़, थकान
ऊब, घुटन और कमतरी से भरा जीवन
जब अनायास
सकपकाते हुए लंबी लंबी
अलसाई सड़कों पर पसर जाता है
पौ फटते ही छात्र मज़दूर कलाकार
पेशेवर और बेरोज़गार
अपनी मजबूरियों और ख़्वाहिशों का बोझ लादे
टंग जाते हैं बसों, मेट्रो, ऑटो और साइकिलों के हत्थों से
शहरों के किनारे फूट पड़ते हैं
दूर दराज़ से बसों, ट्रकों, ट्रेनों, टेम्पो से आयातित
फल-सब्ज़ियों, भीड़, सामान और

 

विचारों को संभालते-सहेजते
धूल धुएँ गंदगी से धूसरित हो चुकी
इस शानदार शहर की भव्यता

क़िले, गुंबद, ऊँची-ऊँची मीनारों

और टीलों से छुपकर झाँकती

कोपलों में बयॉं होती है
दिन चढ़ते सर चढ़कर बोलने लगती हैं
लोगों की परेशानियाँ, ग़ुस्सा और लिप्साएँ

सांसारिकता और उपभोगवाद की मीठी नींद में डूबा यह शहर

बेसुध हो उठता है भूकंप तूफ़ान और

बेमौसम की बारिश की आहट मात्र से

इस शहर की रफ़्तार, शोर और अंधेरों के बीच

एक नदी अपने होने की संभावना तलाशती, बिसूरती है

जटिल आंकड़ों के संचयन

जीर्ण शीर्ण विरासत के संरक्षण

और हाशिये पर खड़े लोगों के स्वाभिमान और

 

सुरक्षा को सुनिश्चित करने का दम्भ भरते

तंत्र में साँस फूँकता यह शहर
रोता है किसी ग़ालिब ख़ुसरो और

निज़ामुद्दीन की ग़ैरमौजूदगी को
मरम्मत और पहचान को तरसती

आसमान के नीचे की यहाँ हरेक चीज़

यह एहसास दिलाती है कि

सुबह से शाम तक दौड़ते-फिरते शहर के

कभी न ख़त्म होने वाले घुमावदार रास्तों में

आत्मीयता और ईमानदारी खोकर रह गये हैं
कभी रोबदार रहे नीम बरगद

अशोक के पेड़ों की जगह

उजाड़ ठूँठों और बोनसाई ने ले ली है

मुसाफ़िरों और ख़ुशनुमा फ़िज़ाओं के

पैग़ाम लाने वाले परिन्दों की बाट जोहते पेड़ों के

ख़ाली कोटरों में अब हवा भी नहीं टिकती

 

 तमाशबीनों से भरा यह शहर हरेक दिन

एक नई संगीन वारदात को
ओढ लेता है

और अपने ईमान पर तमाम चोटों ज़िल्लतों को

बर्दाश्त कर के भी

ज़िंदा रहने की मिसाल कायम करता है
शाम होते ही बच्चे औरतें और वृद्ध

थके माँदे पशुओं की तरह
दिखते हैं गुमसुम असहाय और चुप
फिर कहीं शहर के बीचों-बीच से उठते

आरती अज़ान और गुरबानी के साझे मिले जुले स्वरों में
डूबता जाता है
सुबह का सूरज
इत्मीनान से
और साथ ही सिमटने लगते हैं

दरख्तों, नीड़ों, फुटपाथों
कोनों, बरसातियों और ठेकों में

बेचैन और बेसब्र लोग
भूख और आजीविका की जद्दोजहद से

 निकलकर

अपने ज़िंदा बचे रहने के क़िस्से बाँटते

अपनी धमनियों में अपनी मिट्टी से

बिछोह की कसक को महसूस करके भी

अपने वजूद को

इंडिया गेट पर

चाँद पर पहुँचने के जश्न

सुधरती जीडीपी और तमाम विनिंग मोमेंट्स

से फ़ील गुड कराते
तारों, फूलों और गाँव-वतन
से आती

ख़ुशबूओं से सराबोर करते

इन्तज़ार करते
पतझड़ के बाद
आने वाले वसन्त का…

***

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