अनुनाद

भैया मत पूछो अब आगे की कहानी /हरे प्रकाश उपाध्‍याय


 

    कहे पत्रकार भोले   

 

शहर के सेठ का निकलता है अख़बार

उसका नाम कितना प्यारा – जनता का समाचार

सेठ जी का नाम बड़ा दारू का व्यापार

वही लगा हूँ आजकल मैं बना पत्रकार!

 

हर माह के पंद्रह हजार मैं पाता हूँ

क्या बताऊँ कैसे घर-परिवार चलाता हूँ

अपनी बाइक में तेल बीडीओ से डलवाता हूँ

पान तो मैं हरदम दरोगा का ही खाता हूँ

 

मेरे अख़बार का शहर में बजता रहता डंका

जो हमसे चले टेढ़ा उसकी तो हम लगाते लंका

ख़बर हम पहले छापते जहाँ हो क्राइम की शंका

ईमानदार के नाती कप्तान का रहता माथा ठनका

 

शहर के सारे गुंडे और रंगदार मेरे यार

अपनी जान से अधिक करते मुझे प्यार

ख़बरें तो वहीं बताते असली धमाकेदार

मेरी ख़बरों पे हरदम चौंके पांडे थानेदार

 

शाम का इंतज़ाम कर देता तहसीलदार

परब-त्यौहार पर रहता लिफ़ाफ़ा भी तैयार

सप्लाई इंस्पेक्टर करता रहता अपना बेड़ा पार

रुआब मेरा इतना घर में दंग रहती है मेरी नार

 

सच तो यह भैया हम ही कमाकर अख़बार भी चलाते हैं

सेठ ससुर होंगे बड़े आदमी पर हमारी कमाई ही खाते हैं

हम डरते किसी के बाप से नहीं सेंध पे बैठ बिरहा गाते हैं

आना देखना होली दीवाली कैसे नंग नाचते खाते-चबाते हैं

 

सेठ जी मेरे जलवे देख मुझे क्रीम लोशन लगाते हैं

जब कहूँ प्रमोशन और वेतन हजार पाँच सौ बढ़ाते हैं

कुत्ता उनका बहुत प्यारा अपन उस पर जान लुटाते हैं

बिस्कुट लेकर रहता तैयार जब उसे आफिस वे लाते हैं

 

एक दिन सेठ मुझे बड़े अदब से बुलाए, बोले

तुम्हारी मेरिट का हम भी मानते लोहा भोले

एक कविता बनाओ जिसे मैं गाऊं हौले-हौले

कवयित्री है डीएम उसे सुन वह मेरे पीछे डोले!

 

 

   मुन्‍नी बाई का गॉंव    

 

 

बिहार में जिला रोहतास ब्लॉक दिनारा गाँव नटवार

मुन्नी बाई से मिलने गए पूछते-पाछते इक इतवार

 

एक आदमी हँसकर बोला

बस्ती से बाहर है नटों का टोला

दबाकर बाईं आँख दाईं को कुछ ज्यादा ही खोला

बचाकर रखना भैया ज़रा तुम अपना झोला

 

मिला टोले में सबसे पहले ही मुन्नी बाई का घर

वहाँ का हाल जो लिखूँ किस्सा नहीं कहर

बाबू लोग बैठे थे था समय दिन का दोपहर

संगीनों के साये में गुड़िया नाचे कांपती थर-थर

 

मुश्किल से सौ-पचास लोगों की बस्ती थी

नाच-गाना खाना-पीना ऊपर से ज़रा मस्ती थी

अंदर गए भीतर झांका दिखती साफ़ पस्ती थी

कपड़े-लत्ते बरतन-बासन हारी-बीमारी हालत उनकी खस्ती थी

 

था नहीं बस्ती में कोई वैसा पढ़ा-लिखा

हर आदमी झूलता-झामता लचर-फचर दिखा

जीने हेतु औरतों ने नाचना मर्दों ने चुप्पी सिखा

पता नहीं कैसी बिजली मुझे तो आशंकाओं का बादल दिखा

 

बाबू लोग बडी जात उनके पानी से डरते थे

पर अनूठी बात उनकी बालाओं पर मरते थे

अपनी ताकत से उन पे मनमर्जी करते थे

उनके बच्चों को चोर उचक्का कहते थे

 

बड़े लोग ही नाच पार्टी चलाते थे

उसमें मुन्नी बाई उसकी बहनों को नचाते थे

जब जवानी ढली तो मार के भगाते थे

रूहानी-ज़िस्मानी संबंधों की कीमत इस तरह चुकाते थे

उनके बच्चे किसके बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते थे

 

मुन्नी बाई समझकर पुलिस या पत्रकार

मुझसे कुछ लेने को करने लगी इसरार

बोली रात यही बिताइये

मँगाती हूँ दारू ब्रांड बताइये

खड़े मसाले का मुर्गा भात पकाती हूँ खाइये

बरतन अलग रखा है आप लोगों का मत घबराइये

पूरी रात ये और वो बात ठहरकर आराम से बतियाइये!

 

   नाच    

 

 

छुपाना क्या

छुपाने से होगा भी क्या

सुन लीजिए साँच

 

चले गए देखने एक दिन नाच!

 

नाच हो रहा था काराकाट बाज़ार में

नाच आया था पैंसठ हजार में

नाच की चर्चा थी सारे गाँव जवार में

लाउडस्पीकर की आवाज जा रही आँगन-बधार में!

 

नाच देखने लोग दूर-दूर से आये थे

कोई कांधे पर लाठी

तो कोई कांधे पर ही बंदूक लटका लाये थे

 

महज सोलह साल की है मुन्नी

नाचती है कमर पे बाँध के चुन्नी

 

हँस-हँसकर मुन्नी गाना

बंद कमरेवाला ही सब गा रही है

जोकर के गंदे इशारे पे

तनिक नहीं शरमा रही है

देखो ज़रा सी लड़की को

कैसे बुढ़ऊ का मजाक उड़ा रही है

चौकी के किनारे पहुँचा मंटू तिवारी

उसके दाँतों से रुपैया दाँतों से खींचकर जा रही है

 

नाच बड़ा हाहाकारी था

लगता वहाँ बच्चा से बूढ़ा तक

सब ही बलात्कारी था

कोई सीटी मारता

 

कोई शामियाने में तो कोई चौकी पर नाचता

न किसी को लाज लिहाज था

सबका ही गजब मिजाज था

 

दूल्हा भी एकटक ताकता मुन्नी को

दूल्हा का बाप भी ताकता मुन्नी को

कन्या का भाई

चौकी पर चढ़के खींचता मुन्नी के चुन्नी को

 

हर कोई था मुन्नी का प्यासा

कहना कठिन है ज़रा कविता में

कैसी बोल रहे थे लोग भाषा

 

मुन्नी सबसे छोटी थी

एक ज़रा उमरदराज़

दो थोड़ी-थोड़ी मोटी थी

नाचने वाली थी कुल चार

मगर मुन्नी का नशा सब पर सवार

 

लोग मुन्नी को बुला रहे थे बारंबार

नाचती रही मुन्नी पूरी रात लगातार

 

लोग बीच-बीच में उठ-उठकर जा रहे थे

बड़ा लज़ीज़ भोज था चटखारे लेकर खा रहे थे

कोई गाँजा कोई बीड़ी कहीं-कहीं जला रहे थे

कोई खटिया पर लेटकर कोई सामियाने में बैठकर

सब ही जैसे जी चाहे अपना मन बहला रहे थे

 

मुन्नी नाचती रही

नाचते-नाचते हो गई भोर

अचानक गोली चली मच गया शोर

लगा गाँव में आया हो कोई चोर

 

अरे!

दिल्ली से दिहाड़ी कमाकर

पेट काटकर पैसे बचाकर

मंटू जो आया था ममेरे भाई की शादी में गाँव

रात भर पीता रहा सुबह खा गया ताव

वही दुष्ट चौकी पर टंगे परदे के पीछे

कर चुका था जघन्य कारस्तानी

 

भैया मत पूछो अब आगे की कहानी !

 

   मेरी भीषण पीर   

 

न जाने कौन देवता कौन फकीर

वहीं हरते रहते मेरी भीषण पीर

कह रहे ओला बाइक चलाते सुधीर

सर मन हो जाता है कभी बहुत अधीर

 

पहले एक सिक्यूरिटी कंपनी में गुड़गांव जाके कमाते थे

उसके पहले एक फैक्ट्री में पानी की टंकी बनाते थे

सब खर्चा काट पीट कर महीने का पाँच हजार बचाते थे

 

चल रही थी ज़िंदगी सही ही, सर हम भी ठीक ही कमाते थे

इस बीच सुनीता मेरी वाइफ की किडनी में हो गई दिक्कत

सर आंधी तूफान में कैसे उखड़ते हैं पेड़ समझ गए हकीकत

होता था बीपी अप एंड डाउन पर अचानक आई ऐसी मुसीबत

पता नहीं किस जनम का पाप जो चुका रहे उसकी अब कीमत

 

लखनऊ में हफ्ते में होती है दो दिन सुनीता की डाइलिसिस

चार हजार किराया दो हजार बिटिया की जाती है फीस

सर पेट मुँह दाबते कैसे भी उड़ जाते हैं बीस-इक्कीस

किसी महीने में उधारी दे देता है प्यारा दोस्त सतीश

 

बारह बजे दिन से बारह बजे रात तक गाड़ी चलाता हूँ

बहुत कोशिश करके महीने में बीस या बाईस कमाता हूँ

सर इतने से कैसे चलेगा, मैं लोगों को प्लॉट भी दिलाता हूँ

 

आपको कुर्सी रोड की तरफ चाहिए तो कहिए बताता हूँ

सीतापुर के बाशिंदा सुधीर के भाई हैं पाँच

सर आज के ज़माने कौन किसका यही है साँच

सब अपने में मगन दूर से हकीकत लेते हैं जाँच

सर लीजिए पहुँच गए, रुपये हुए कुल एक सौ पाँच!

 

   रफीक मास्‍टर   

 

हरदोई से भाग कर आये हैं रफीक मास्टर

पंडितखेड़ा में डेढ़ कमरे का किराये का घर

बरतन बासन कपड़ा लत्ता और बिस्तर

हँसकर कहते हैं, देख रहे नवाबों का शहर

 

कुछ अपनों ने मारा कुछ गैरों ने मारा

कब तक सहते छोड़ आये निज घर सारा

ज़िंदगी ऐसी दिखा रही दिन ही में तारा

सी कर ढँक रहे गैरों के तन फट गया वसन हमारा

 

पुलिया से आगे फुटपाथ के किनारे

तानी है पन्नी बांस बल्ली के सहारे

यही झोपड़िया लगाएगी नैया किनारे

फटी सब सीएंगे टूटी मशीन के सहारे

 

सुनो रे भैया कहानी उनकी तुम सच्ची

कभी कभी फांका कभी पक्की औ कच्ची

नेक है बगल वाली अपनी कलावती चच्ची

दे जाती है सुबह में रात की रोटी उनकी बच्ची

 

घर में मुर्गी न बकरी बस बीवी और बच्चे

समय पर चुके किराया मौला दे न गच्चे

 

सुबह से शाम करते हैं काम

कभी न उनको छुट्टी आराम

बड़े छोटे सबको करते सलाम

 

हफ्ते के सौ रुपये लेता चौराहे का सिपहिया

कभी आ जाता रंगदार मनोजवा चलाता दुपहिया

फटी उघड़ी सबकी बनाते, देखते सुखवा के रहिया

कैंची चलाते सोचते जाएगा दुखवा ई कहिया

 

पैंडल मार मार फूल रहा दम टूटही सड़क पे चलना मुश्किल

कहते रफीक होके उदास कैसे चलेगी जीवन की साइकिल

कहिये भैया अब आप ही कहिए

लग रहा पंचर भी हैं इसके दोनों पहिये! 

***

परिचय

नाम- हरे प्रकाश उपाध्याय

कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब जीविकोपार्जन के लिए प्रकाशन का कुछ काम

बिहार के एक गाँव में जन्म। अभी लखनऊ में वास।

तीन किताबें- दो कविता संग्रह – 1. खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं

  1. नया रास्ता

एक उपन्यास- बखेड़ापुर

अनियतकालीन पत्रिका 'मंतव्य' का संपादन

पता –

महाराजापुरम

केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास

पो- मानक नगर

लखनऊ –226011

मोबाइल – 8756219902

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