सखी-संवाद
एक सधन्यवाद पत्र
सखी!
जितना समझी हूँ अब तलक
संसार में सुख-दुःख की आदी परम्परा रही है,
सुख अपने भीतर गिरकर उन्मादी होते हैं
तो,दूसरों के भीतर बरसकर कुंठित
और दुःख .
यदि अपने ही भीतर झरे तो
तो गरिमायुक्त विलीन
दूसरों के भीतर लुढ़के
तो घनघोर मलिन
यह कथा/व्यथा लोक हेतु
महज,सुखया-दुःखया रीति है
जिसमें.. एक कहता जाता है
तो दूसरा सुन लेता है
जैसे उबासियाँ आती है..तो चली भी जाती हैं, निर्विरोध
इस आदी-परम्परा में
कभी सम्भव हो तो
तुम्हें थमकर देखना चाहिए
कहीं श्रोता भी आकंठ प्रतीक्षारत तो न था
अपनी व्यथा का जोड़ तुम्हारी गांठ से मिलाने को
यह सुख-दुःख का शाश्वत लेन-देन है..
इस नश्वर संसार में
क्या तुमने सुना,सखी!
तो,उन्हें पहुँचाओ
भोग लगी तुलसी-पत्र आच्छादित पंजीरी
और एक सधन्यवाद पत्र भी
जो सुन लेते हैं सधैर्य परपीड़ा
जानते हुए कि
परपीड़ा नहीं है विभूति स्वपीड़ा की
भला परपीड़ा का पारायण किस विधि हो,सखी
वे तो स्वतः विस्मरण हेतु पूर्वदीक्षित हैं
और हमने स्वपीड़ाओं को
‘कुत्ते के मुंह में हड्डी‘ की माफ़िक
जी भर कर चूसा..भर-भर कोसा भी!
जीवन की संगत
सुनो सखी!
इस लब्ध..संचित जीवन में
कुछ रीत गए महामारी में
कुछ फँसे पड़े हैं,ख़ुद से भागते हुए
कुछ बीत रहें हैं,किसी के भीतर
रहन-सहन-बसन की निबाह में
अधिकतम मूर्छित से हैं….कॉकरोच की तरह!
जबकि परिपक्व -शिक्षित है इस सन्दर्भ में
कि कॉकरोच भले ही दीर्घायु हो
लेक़िन उसकी गुज़र है
कोई अंधेरी-गीली खोह
प्रकाश-वायु से उसे जन्मजात भय है
ज़रूरी तो नहीं,सखी
कि जो ख़ूब लम्बा जीये
वह पूर्णतः ख़र्च करे..कुल जमा सांसें भी
काश!जीवन तितली सा हो
संक्षिप्त-ऊर्जस्वित पथिक सा
जिसके पास चींटियों की तरह
शोकगीत संकलित न हो
सात लोक,चौदह भुवन और दस दिशाओं में न फैला हो
भले ही कार्य-व्यापार,प्रसिद्धि-प्रभाव
पर एक यूक्रेनी बच्ची की भांति
शांति-शत्रु को ललकारने का अदम्य साहस हो
इस जीवन की आंच
जलते काष्ठ पर चिपकी भस्म सरीखी है
जो झरकर..भी देगची पर लीपकर
चढ़े चूल्हे पर..बारम्बार
जले काष्ठ के बकाया बन्धु-बांधव की संगत में
जीवन की संगत…
ऐसी ही विसंगतियों से सम्पन्न हुई,सखी
अपूर्ण-वध
तुम्हारी आपबीती
भीड़ हेतु मात्र जगबीती है,सखी!
जिसकी स्थिर पुतलियों में कीलित है:–
यह फसल से विलगित भूसी मात्र है..अंततः!
और,तुम्हारा अवरुद्ध कंठ विस्मित है
मेरी पीड़ाओं की थरथराहट को
तुम्हारे स्वेदित ललाट पर धरने से
क्योंकि उनकी उद्गम स्थली सर्वथा भिन्न है !
तनिक स्मृति-गवाक्ष खटखटाओ तो..
झाँको हृदय के भीतर..
बगैर भीतर झाँके घावों की शल्यक्रिया कैसे
पीड़ाओं का निस्तारण कैसे
तुम्हारे कंठ पर जो रुदन कुंडली मार बैठा है
वह दरअसल
मेरी जीवनकथा में शामिल हुई तुम्हारी अनुकथा है
उस रुदन की शक्लोसूरत उस समर्थक सी है
जो चुनावी जीत के हुड़दंग से धकेलकर बाहर है
इस रुंधे कंठ में
कुठाराघातों से लहूलुहान
हमारे बाल-स्वप्नघरों के भग्नावशेष हैं
जिनकी चौहद्दी पे अट्टहास करते अपने से लोग हैं
ये भग्नावशेष
लोभ-डाह का खुला आसन्न प्रसूति गृह है
जहाँ अकाल मृत्यु की हाँक नहीं
कुटिल कामनाओं का बहुप्रतीक्षित प्रहार है
इसके तलघर में
चक्रव्यूह से घिरे हम अकेले खड़े हैं
अतीत ही नहीं ,वर्तमान के घर-खलिहान भी
अभिमन्यु के ऐसे अपूर्ण-वध से अभिशप्त हैं
उठो सखी!
हमारे बाल-स्वप्नघरों के
विध्वंसकों से विलगने की महायात्रा शुरू हुई है
देखो,आपबीती-जगबीती शृंखला में
हमारे भी प्रस्थान करने की अमृत वेला आई है
संतुलन – 1
इस ब्रह्म मुहूर्त में
उत्तरायण-सूर्य को सोचते हुए
उत्तर दिशा की उस नाली की कौंध है
जिस पर कैशोर्य-कदमों के सहारे
हमारे मध्य संतुलन सधता था,सखी!
संतुलन केंद्र में हो,तो ही स्थिति नियंत्रित
बहुमंजिला इमारत के इस कोने से
ताकती हूँ आकाश
जो शनैः शनैः कम कर दिया जाएगा
एक उठती वृहद बहुमंजिला इमारत से
कई हिस्सों की धूप-हवा निगलती हैं ऐसी दानवाकृतियाँ
यहाँ भी साध रही हूँ संतुलन,सखी!
यह सोचकर कि
कमअजकम मेरे पास है एक कमरा…
जिसके ठीक सामने नहीं है कोई दूजी इमारत
मेरी टिकी पीठ और एकांतिक भावभूमि
पर नहीं है किसी की अर्थभेदी -खोजी नज़र
जबकि कुछ खोजी मनुष्यों से आशंकित हूँ कि
मेरी वयस्क मस्तिष्क-सरंचना कमतर है
देहयष्टि से..
जीवन-केन्द्र में मस्तिष्क ही सर्वोपरि थाती है–
इस विश्वास पर सधैर्य सधते हुए
घूम रही हूँ गोल-गोल
जैसे,संतुलन साधा है पृथ्वी ने
संतुलन – 2
यथासम्भव सचेत रही
कि मन्दम आवाजाही बनी रहे
सम्बन्धों के संवेदी धरातल पर
कभी सरल रेखीय गति तो कभी वर्तुलाकार भी
लेक़िन बेहद संकीर्ण होते समय में
यदाकदा ये पगथाप भी लौटते हैं
सम्बन्धों में उगते न्यून-कोणों से
किसी कोण में चिन्हित स्थान बाँधते हैं तन-मन
अब यहाँ संतुलन कैसे सधे,प्रिये!
कोने में ही तो ठूंसा-समेटा जाता है निरीह को
और कोनों से ही टिके है विकासमान सकल ढांचे
कैसी-कैसी
उलटबांसियों से पगा है यह क्षणिक जीवन
जब रोता है कोई मेरे सम्मुख
छीजते सम्बन्धमाला के बहुकोणीय छल से
ढहती हूँ उस आँकर विकलता की खोरी में
जो अनगिनत बार जुड़ा था उस छीजन से
मुट्ठी भींचने का दुस्साहस तो करती हूँ
लेक़िन,नहीं कह पाती
अपना एक गुप्त-संतुलन.. कि
समय को निर्मम और बलवान बताकर
मैं बची रही अपनी समूल जिजीविषा में
इससे अधिक सम्बन्धों को
कुछ कम निर्दोष बताने का मुझमें कौशल नहीं
बताना तो ज़रा
क्या मुझसे कुछ संतुलन सधा
जैसे हमनें साधा था पितृविहीन जीवन,सखी!
हालाँकि जानती हूँ
आश्वस्तियों की बाट जोहता संतुलन किसी क्षण निरुत्तर भी हो जाता है।
यह चँवर डुलाने की घड़ी है
यह चँवर डुलाने की घड़ी है
एक आत्मीय गप्पशप के मध्य
सखी भूल चुकी थी
सबसे लंबे सीनियर को
जिसे कहती थी,’अमिताभ का धनुषनुमा वर्जन‘
क्लास के ‘जगजीत सिंह‘,’रवि शास्त्री‘
और पिछलग्गू एक ‘हैंडसम बन्दे‘ को भी
कानों पर बज्जर पड़ा हो जैसे
स्वस्थ स्मृति यूँ धूमिल कैसे!
अचानक मेरी हैरानी छनकी
फोन के क़रीब,उसके पति की सरसराहट से
“कौन!मुझे ध्यान नहीं..”
उसकी भाषा-भंगिमा बदल गई
आत्मा छटाँक भर अवश्य सिकुड़ी थी
जो मैं सिहरकर सचेत हुई
फिर उस धूमिल स्मृति को स्मरण हुए
रात्रिभोज पे न्योते गए पाहुने
शंकाओं के धूसर मेघ व्यापते रहे
मैं दम साधे सोचती रही
वह पुरुष क्या सोचता होगा
मसलन..उम्रदराज़ होने जा रही हूँ
अभी तलक बाईस की वय का कॉलेज याद है
सीनियर याद है..सहपाठी भी स्मृतिवन में हैं
अशोभनीय व्यवहार!सम्भवतः बिगड़ैल भी!!
ख़ुद को भुलक्कड़ घोषित कर
सखी ने मुझे क्या साबित किया था
दूसरी दफा वह सतर्क थी
हास- परिहास बहुत औपचारिक,
कमोवेश.. कृत्रिम
बदले हुए भाषा -प्रवाह में
व्यवहार-नियमन मुस्तैदी से लागू था
जबकि,हम दोनों
एक ही भाषा-बोध के रहवासी हुआ करते थे..
सहपाठियों संग हुए
संयमित संवाद को यूँ दुत्कारना,मात्र
स्मृतिभ्रंश जतलाने का उपक्रम नहीं था,सखी!
समझो तो, वह तुम्हारी..और
हर उस स्त्री की निजता का अनैतिक उल्लंघन है
जिसने संकुचित परिवेश में खुलकर हँसने का माद्दा पाला
जो आज़ादी का गूढ़ार्थ जानती हो
जिसने संगीत की बारीकियों को नहीं
बल्कि किसी कंठ में दैवीय वास खोजा हो
जो,गुनगुनाने का भावार्थ पहली बार समझी
हास-परिहास करते हुए भी चौकन्नी है
तुम्हें यूँ संकुचित देखना
आत्मघाती है..जिसे तुम
स्वयं को भी याद दिलाना भूल गई
मेरी आत्मा तुम्हारी निरीह सतर्कता पर कातर है !
अपनी निजता हेतु निषेध करो..
उस अनैतिक सेंधनुमा आवाजाही का
सनद रहे प्रिये..
किसी व्यवस्था/व्यवहार हेतु
‘ना‘ कहते ही स्वयं के भीतर आत्मा का जन्म होता है..
अपने निजी एकांत में मुझसे बतियाओ कभी..!
आत्मा के परिपोषण हेतु कुछ स्वर्ण-नियम बनाएंगे
तुम्हारी अलभ्य निजता मलिन पड़ी है
उसे फ़िर से समायोजित करो
यह तुम्हारी निजता पर चँवर डुलाने की नाजुक घड़ी है,सखी!
***
परिचय:–
मंजुला बिष्ट कवि और कहानीकार हैं।इनकी रचनाएं नया ज्ञानोदय, हंस, पाखी,विश्व गाथा ,बहुमत,राजस्थान-पत्रिका व दैनिक भास्कर समाचार पत्र और विभिन्न ब्लॉग्स में प्रकाशित हैं।कुमाऊँ यूनिवर्सिटी से बीए और मुंबई यूनिवर्सिटी से बीएड हैं।प्रथम कविता-संग्रह ‘खाँटी ही भली’ बोधि प्रकाशन,जयपुर से प्रकाशित है।
Mail id:-bistmanjula123 @gmail.com