शबरी चर्या -1
(१)
राजा के महल में तेरा स्थान नहीं,
शबरीवाली
इतिहास के दुर्ग के परिखा को पार कर
तू बस चली जा
तेरा वही घनघोर जंगल को,
हजारों पंखुड़ियों के पद्मकोश के ओर
नजाने किस स्थपति के आह्वान से
उद्भाषित पराकाष्ठा के ओर ।
नाव की छाया को थाम लिया है: नदी
जंगल मेँ शर विद्ध: साँबला पादपद्म
काल समन्दर उमड़ आएगा
डूबा देगा सारा द्वारका
जाराशबर के पश्चाताप से
तापत्रय से
अर्बुद दुःख से
अहंकार के अक्षौहिणी से
अपरिणामदर्शी शबर
कितने यकिन के साथ छोड़ा था तुम्हे
ऊँचे पर्वत के शिखर पर
फिर भी तुम चले आए राजमहल को
ऐश्वर्य के सिंहासन को ।
(२)
ढलता हुआ सूरज
दण्डकमण्डल पकड़ कर निकल गया
चान्द्रायण व्रत में
अंधेरा धीरे धीरे लौटता है
नदी ,नाल और समन्दर को समेट कर
कौन हो तुम :
जादूगर
परम कारुणिक
बहते हो अब खुन में ।
(३)
शबरी की कोख में
प्राचीन भग्न मन्दिर के अभ्यन्तर में
तुम्हारा अभीष्ट है,
हे ! शबर
निवृत्त अनुरक्ति में
सब खो जाता है ;
गाँव के मिट्टी का खेल
श्मशान में खोपड़ि और मटका
कुचिला का पेड़ के धुँआँ से आतुर
मकड़ी का जाल और
चीता की तपन ।।
सूर्योदय के आतिशय में
गिर पड़ेगी :
भय शंका और आतंक का आवरण
शबरीवाली की अविरत प्रार्थना से
स्तव, स्तुति, प्रलंब से
भूलुण्ठित होगा
अंधकार का साम्राज्य
विचित्र एक नदी प्रवाहित होगी
शबरी की काया भेद कर ।।
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( यह कविताएं ओडिशा साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत “शवरीचर्या” संकलन से ली गयी हैं)