अनुनाद

तो अंत नहीं/राम नगीना मौर्य

 ‘‘देवकान्त जी! आपका फोन आया था।’’

 ‘‘किसका फोन? कहां से आया था?’’ आफिस पहुँचते ही, लगभग अकबकाए स्वर में चपरासी ने जब यह खबर देवकान्त जी को दी, तो उसकी देहभाषा को देखते, अपने मेज की ड्रार खोलते उन्होंने उत्सुकतावश पूछना चाहा।
         

‘‘अधिष्ठान प्रकोष्ठ वाले रामजतन बाबू का फोन था। कह रहे थे कि देवकान्त जी जैसे ही आयें, उन्हें अधिष्ठान में भेज दीजिएगा।’’ चपरासी ने पुनः उसी कौतुहलता से जवाब दिया।
       

 ‘‘ठीक है, मैं देखता हूँ। काम शुरू करने से पहले अधिष्ठान में ही हो आता हूँ।’’ यह कहते देवकान्त जी ने अपने मेज की ड्रार को बन्द करते अधिष्ठान का रूख किया।…पता नहीं क्या बात है…? यूँ अचानक…अधिष्ठान से बुलाहट की वजह से उनके मन-मस्तिष्क में तमाम तरह की शंकाएं-आशंकाएं सिर उठाने लगीं।

‘‘आइये देवकान्त जी! आज आपको आफिस आने में देर कैसे हो गयी?’’ देवकान्त जी को देखते ही यह प्रश्न करते, रामजतन बाबू ने उत्साहपूर्वक उनका ऐसे स्वागत किया मानो वो उनकी प्रतीक्षा में ही थे।

‘‘कुछ खास नहीं…आज बस्स ऐसे ही देर हो गयी। शहर में जाम के तमामों झाम से तो आप भी अच्छी तरह वाकिफ हैं। उस पर आज एक नेता जी की चुनावी रैली भी थी, जिससे एक तरफ का तो पूरा रास्ता ही बन्द हो गया था। ट्रैफिक-जाम में लगभग पौन घण्टे तक फंसा रह गया। बहरहाल…आप बताइये! कैसे याद किया मुझ नाचीज को?’’ कहते, देवकान्त जी ने प्रकृतिस्थ होने का प्रयास किया।

‘‘अरे! जनाब थोड़ा धीरज रखिये। ये लीजिए…चाय भी आ गयी। पहले इत्मिनान से चाय पीजिये। आपको एक खास खबर देनी है, बल्कि दिखानी है। देखेंगे तो उछल जायेंगे।’’ अपने बुलावे के कारणों को जानने के लिए अधिष्ठान प्रकोष्ठ में पहुंचने पर देवकान्त जी, रामजतन बाबू के सामने रखी कुर्सी पर अभी बैठे ही थे कि ऑफिस-कैण्टीन से चाय वाला चाय की केतली और अपनी उंगलियों में फंसाए तीन-चार कप सहित, उनकी टेबल के सामने हाजिर हुआ।

‘‘अरे भई! कैसी ख़बर है, जिसे आप सुनाने की बजाय दिखाने की बात कह रहे हैं? अब आप ये पहेलियां बुझाना छोड़िये। चाय तो पी ही लूँगा। अब जल्दी से मुझे वो ख़बर बताइये, नहीं-नहीं दिखाइये?’’ कहते, देवकान्त जी व्यग्र हो उठे।

‘‘ये देखिये! आपकी पर्सनल-फाइल…? आप लोगों की वार्षिक-प्रविष्टियां मुख्यालय भेजनी थी। उन्हीं फाइलों को ढूँढ़ते आपकी यह वर्षों पुरानी फाइल भी मिली है।’’ अपने पीछे की रैक से एक पुराने कवर वाली मटमैली सी फाइल निकालकर, जिसकी धूल रामजतन बाबू पहले ही झाड़ चुके थे, देवकान्त जी के सामने रख दी। देवकान्त जी ने उत्सुकतापूर्वक अपनी पर्सनल-फाइल के पन्ने पलटते, उसे ताबड़-तोड़ देखना शुरू कर दिया। लेकिन लगभग दस-बारह मिनट तक उस फाइल के पन्ने पलटते उन्हें समझ में नहीं आया कि उसमें खास क्या है? पर्सनल-फाइल में रखे सारे कागजात, दस्तावेज, अभिलेख आदि तो उनके जाने-पहचाने ही थे। उनमें से कुछेक की तो पृष्ठांकित प्रतियां भी उनके पास थीं। 

‘‘अरे देवकान्त जी! फाइल के पेज नम्बर तेइस की नोटिंग जरा गौर से तो देखिये…?’’ कुछ खास कागजात आदि न देखते उन्होंने जब उस फाइल के फीते बांधते, रामजतन बाबू को लौटानी चाही…तभी उन्होंने देवकान्त जी को टोकते, फाइल पुनः खोलते, उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा।

रामजतन बाबू के इस तरह जोर देकर कहने पर प्याले में बची चाय को एक ही घूँट में खत्म करते, वे उस फाइल को पुनः पढ़ने लगे। फाइल के पहले पेज से तेइसवें पेज तक आते-आते देवकान्त जी के दिलो-दिमाग़ में मानो तूफान-सा मच चुका था। दिमाग़ में एक-एक शब्द हथौड़े के मानिन्द इस तरह लग रहे थे कि यदि थोड़ी देर तक और वो फाइल पढ़ते रहे, तो उनका माथा सुन्न हो जायेगा। उतनी देर वो जाने कैसे-कैसे झंझावात से गुजरे होंगे। पूरी फाइल पढ़ने के बाद उनका खू़न खौल उठा। लेकिन तुरन्त किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाये। हां! इतना ज़रूर हुआ कि अगले ही पल उनके दिलोदिमाग़ में यह विचार भी आया कि ज़‍िन्दगी का जो तूफानी दौर गुज़र चुका है, उस पर इतने वर्षों बाद स्यापा करने से अब फायदा भी क्या? कुछ सोचते, उन्होंने उस फाइल के फीते को जस-की-तस बांधते, उसे रामजतन बाबू की ओर वापस सरका दिया।

‘‘देखा आपने! कितनी ज्यादती हुई है आपके साथ…? वर्षों पहले आपके विरूद्ध जो कार्यवाही की गयी थी, उस पर सक्षम स्तर से अनुमोदन ही नहीं लिया गया था। आपके विरूद्ध एकतरफा कार्यवाही करते, प्रतिकूल-प्रविष्टि का वो आदेश साजिशन निर्गत कर दिया गया था। ये तो पता नहीं कैसे, दूसरे कार्मिकों की पर्सनल-फाइल्स ढूँढ़ते, रैक से यह फाइल अचानक फर्श पर गिर पड़ी। फाइल पर आपका नाम देखते, कौतुहलवश मैं इसके पन्ने पलटने लगा तो देखता हूँ कि आपकी प्रतिकूल-प्रविष्टि के आदेश पर जिस अधिकारी मनोहर लाल के हस्ताक्षर हैं, वो तो आज की तारीख में रिटायर हो चुके हैं। लेकिन प्रतिकूल-प्रविष्टि के इस आदेश पर उस महाभ्रष्ट अधिकारी मनोहर लाल के हस्ताक्षर देखकर, मुझे जाने क्यों आपकी इस फाइल को पढ़ने की जिज्ञासा हुई।’’ यह सब बताते रामजतन बाबू काफी तैश में थे।

‘‘रामजतन जी, अब इन बीती बातों पर चर्चा करने से फायदा भी क्या…? फिर, मनोहर लाल जी भी तो रिटायर हो चुके हैं।?’’ देवकान्त जी ने तनिक अन्यमनस्कता से उत्तर दिया।

‘‘देवकान्त जी, याद होगा, आपने एक बार इस प्रतिकूल-प्रविष्टि के बारे में मुझसे जिक्र किया था। आपने यह भी बताया था कि मनोहर लाल की प्रतिकूल टिप्पणी की वजह से ही आपका ट्रांसफर दूर के किसी पठारी क्षेत्र में कर दिया गया था। बड़ी कोशिशों के बाद, लगभग छः साल बाद आपका तबादला फिर से यहां मुख्यालय में हो पाया।’’

‘‘जी, अब क्या कहूँ? अतीत की बातें हैं। जितना कष्ट लिखा था, वो सब तो भुगत चुका हूँ। अब उन बीती बातों को याद करने से फायदा भी क्या? वो तनाव-हताशा-निराशा भरे दिन वापस तो नहीं आ सकते न? फिर…उस घटना को बीते भी लगभग बाइस-तेइस साल हो गये। पिछले कुछ वर्षों से अब मैं यहां मेन-ब्रान्च में तैनात हूँ। बच्चे भी ठीक-ठाक पढ़ाई करते, उच्च-शिक्षा वास्ते दूसरे शहरों में चले गये। क्या करना है अब उन बीती बातों को याद करके…?’’ देवकान्त जी ने पुनः निरूत्साहित से स्वर में कहा।

‘‘सोचिए! समय कितनी तेजी से गुजरता है? पर आपने जो तनाव-हताशा-निराशा उस दौरान झेली, महसूस करी, मैं तो उस एक-एक पल का साक्षी हूँ। किस तरह रज्जन कुमार और मनोहर लाल ने गहरी साजिश करते, मुआवजे की रकम में कमीशनबाजी के घपले में खु़द को बचाने वास्ते, आपकी अनुपस्थिति में सारी गलतियों के लिए आपको जिम्मेदार ठहराते, आपका स्थानान्तरण करवाते, आपको प्रतिकूल-प्रविष्टि भी दिलवा दी थी, और अपने चहेते अखिलेश्वर की पोस्टिंग आपकी जगह करवा दी थी? मुझे तो अच्छी तरह याद है कि उस दण्डादेश के अगले तीन-चार महीने बाद ही पदोन्नति समिति की बैठक होने वाली थी। वह प्रतिकूल-प्रविष्टि आपके प्रोमोशन में बाधक हो सकती थी, जिस कारण उसे एक्सपंज करवाने वास्ते आपने किस-किस के दरवाजे नहीं खटखटाए? किस-किस के आगे हाथ नहीं जोड़े? किस-किस से अपनी व्यथा कहते, उनके सामने नहीं गिडगिड़ाए? मुझे सब कुछ अच्छी तरह याद है।’’ रामजतन बाबू ने इस बार देवकान्त जी से अति-आत्मीयता जताते सहानुभूतिपूर्वक कहना चाहा। चेहरे पर बिना कोई भाव लाये, सिर झुकाए, देवकान्त जी, रामजतन बाबू की ये सारी बातें सुनते रहे।
       

‘‘हां पर…आप भी जानते हैं कि वाबजूद उन लोगों के तमाम प्रतिकूल प्रयासों के, वो तो पदोन्नति समिति की सहृदयता थी कि उन्होंने मेरे प्रत्यावेदन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करते, नैसर्गिक-न्याय के दृष्टिगत मेरी पदोन्नति पर विचार किया, जिससे मेरी पदोन्नति अपने निर्धारित समय पर ही हुई थी।’’

‘‘यही तो आपकी खू़बी है। आप ऐसों के कुकृत्यों को माफ़ कर देना चाहते हैं। लेकिन, ये क्यों भूलते हैं कि उन्होंने आपको परेशान करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। हालांकि दोनों खु़द आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे रहे। एक जनाब तो रिटायर हो चुके हैं, परन्तु दूसरे के ख़‍िलाफ अभी भी किसी मामले में इन्क्वायरी चल रही है।’’ रामजतन बाबू अभी भी अति-उत्तेजित थे।

‘‘अच्छा भई, अब मुझे इजाजत दीजिए। अभी काफी सारा काम पेण्डिंग पड़ा है। आपकी बुलाहट पर सारा काम छोड़ते, तुरन्त ही चला आया था। कभी फुर्सत में इस मसले पर तफसील से बातें करेंगे। चलता हूँ। नमस्कार।’’ देवकान्त जी ने वहां से जाने के लिए रामजतन बाबू से इजाजत लेनी चाही।

‘‘जी, अवश्य। नमस्कार।’’ रामजतन बाबू से इजाजत लेकर देवकान्त जी अपने कक्ष में आ गये। कक्ष में आकर उनका मन काम में नहीं लग रहा था। चपरासी से एक कप कॉफी लाने के लिए बोलते, वो अपनी सीट के बगल, रखी आराम कुर्सी पर आकर जम गये। कॉफी पीने के बाद सामने रखी फाइलों के पन्ने उलटते-पलटते…वो अतीत की उन कड़वी यादों में खो गये। परिवार में शादी के सिलसिले में देवकान्त जी को गांव जाना था। लगभग दस दिन की छुट्टियां बिताने के बाद जब वो ऑफिस आये, तो सबसे पहले उनकी मुलाकात ऑफिस के डाक बाबू मोहसिन खान से हुई। उसने उन्हें सुबह-सुबह वो सील-बन्द लिफाफा रिसीव करवाते, उसे शीघ्र पढ़कर देखने को कहा था। लिफाफा खोलते ही देवकान्त जी के होश उड़ गये। प्रतिकूल-प्रविष्टि का आदेश था। पूरा आदेश पढ़ते-पढते उनका माथा चकराने लगा। आंखों के आगे घनघोर अंधेरा सा छाने लगा। आर-पार कुछ भी नहीं सूझ रहा था। मानो बिजली के नंगे तार को छू दिया हो। करेण्ट-सा झटका लगा था। अपमानित करने वाला आदेश था। देवकान्त जी के मन-मस्तिष्क में ढ़ेरों विपरीत विचार ऊभ-चूभ होने लगे थे।

 उन्हें ऐसी अनियमितता के लिए दण्ड दिया गया था, जिसके लिए वो कत्तई दोषी नहीं थे। उन्हें अच्छी तरह पता था कि यह कारस्तानी किनकी है? मनोहर लाल और रज्जन कुमार ने यह सारी कवायद सिर्फ देवकान्त जी को मुख्यालय से हटवाने के लिए की गयी थी। देवकान्त जी के रहते उन लोगों की ऊपरी कमाई लगभग बन्द हो गयी थी। कभी-कभी तो उन्हें फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं होती। ऐसे तो उनका बंटाधार हो जायेगा। देवकान्त जी उनके अनियमित कार्यों में रूकावट जो बनने लगे थे।…देवकान्त को इस शाखा से हटवाने के लिए कुछ-न-कुछ उपाय करना ही होगा। यही सोचते, आपसी सांठ-गांठ करते, मनोहर लाल और रज्जन कुमार ने उस दण्डादेश के साथ-साथ देवकान्त जी को मुख्यालय से भी स्थानान्तरित करा दिया था। देवकान्त जी की मजबूरी ये भी थी कि वो ऐसे बेईमान, धूर्त, मक्कारों को सबक भी नहीं सिखा सकते थे। कारण कि उन लोगों ने ऊपर तक अपनी पैठ बना रखी थी। मुख्यालय से लेकर, ऊपर के बॉस को भी येन-केन-प्रकारेण उपकृत करते साध रखा था।        

दण्डादेश के साथ ही देवकान्त जी के लिए घोर अपमानित करने वाली बात यह भी थी कि वो उन लोगों की साजिशों का शिकार हो गये, जो खुद महाभ्रष्ट थे। नैसर्गिक-न्याय के विपरीत, वह दण्डादेश उन लोगों ने देवकान्त जी की अनुपस्थिति में, उन्हें स्पष्टीकरण का पर्याप्त मौका दिये बगैर, अत्यन्त जल्दबाजी में निर्गत करा दिया था। उस दण्डादेश में जहां-तहां ढ़ेरों गलतियां इस बात के स्पष्ट प्रमाण थे। और-तो-और, तथ्यों का उल्लेख सकारण न होने के साथ-साथ, मनमानी तरीके से मन-गढ़न्त बातों का भी समावेश कर दिया गया था। देवकान्त जी को अच्छी तरह याद है, वो तत्काल वह दण्डादेश लेकर विरोध जताने, तत्समय आफिस के बॉस बलवन्त सर के केबिन में भी गये थे। 

‘‘सर मैंने कोई गलती नहीं की है। यह दण्डादेश वापस करवा दीजिए। आपको तो अच्छी तरह पता है, अगले कुछ महीनों में मेरा प्रमोशन होने वाला है। इस दण्डादेश के चलते मेरे प्रमोशन पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। मैं भारी कठिनाई में पड़ जाऊंगा। प्लीज सर, मेरी विनती स्वीकार कर लीजिए।’’ कहते देवकान्त जी लगभग रूवांसे से हो गये थे। लेकिन, थोड़ी ही देर बाद उन्हें महसूस हुआ कि वो एक बुत के आगे गिड़गिड़ा रहे हैं। देवकान्त जी अपमान के कड़वे घूँट पीकर रह गये थे। 

उन्हें अच्छी तरह याद था कि विगत वर्षों में वो कुछ प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाओं में असफल हो गये थे। मां-बाप सहित उनके सपनों पर भी तुषारपात हो गया था। अब वर्तमान नौकरी में ही रहकर तरक्की का भरोसा था, लेकिन ऐसा लग रहा था, मानो दुर्भाग्य ने यहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। उन्हें अपना भविष्य अन्धकारमय दिखने लगा था। पर क्या कर सकते थे…? उन्होंने इसे नियति का खेल मानते, स्वीकार कर लिया।

देवकान्त जी अपने समय के दर्शन-शास्त्र विषय में यूनिवर्सिटी टॉपर थे। पी.एच.डी. आदि करके किसी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनने की उनकी बड़ी इच्छा थी। उन्होंने कितने छात्रों को तो दर्शन-शास्त्र पढ़ाया भी था। कुछ तो विभिन्न उच्च प्रशासनिक सेवाओं में चयनित भी हुए। परन्तु दुर्भाग्य के मारे वही रहे। उन्हें तृतीय श्रेणी की मामूली नौकरी से ही सन्तोष करना पड़ा था, उसमें भी बहत्तरों अड़चनें दरपेश होती रहीं।

उन्हें याद है…उन्होंने एक अंतिम प्रयास भी किया था कि चलो मनोहर लाल, जो बॉस का मुंहलगा था, से ही अनुरोध कर लिया जाय कि वो खु़द ही बलवन्त सर से कह कर दण्डादेश वापस करवा दे। काहे से कि उस दण्डादेश के रहते देवकान्त जी के प्रमोशन पर निश्चित ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ना था। लेकिन, उनका वह अन्तिम प्रयास भी बेकार ही गया। मनोहर लाल टस-से-मस नहीं हुआ। उस पर देवकान्त जी के कहने का कोई असर नहीं पड़ा। पीठ पीछे तो उन्होंने उसे यह भी कहते सुना कि…‘‘ये देवकान्त तो अपने बैच का टेलेण्डर होगा, जबकि मैं तो अपने बैच का टॉपर हूँ। बड़ा आया मुझे रास्ता बताने वाला। देखता हूँ, इसे कैसे प्रमोशन मिलता है?’’

मनोहर लाल के मुंह से ऐसी बातें सुनते उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगा था। उस वक्त मनोहर लाल के ये शब्द उनके सिर पर हथौडे़ सरीखे लग रहे थे। उन शब्दों को वो जब भी याद करते, जेहन में अपमान की कसक सी उभर आती। पर साथ ही पता नहीं किसकी प्रेरणा थी, विपरीत परिस्थितियों में वो और भी मजबूत होते गये। देवकान्त जी ने तय किया कि ऐसी विपरीत परिस्थिति का डटकर सामना करेंगे। उन्हें कत्तई हार नहीं मानना है। हिम्मत बनाए रखनी होगी। उन्होंने उस दण्डादेश के विरूद्ध प्रत्यावेदन देने का निर्णय लिया। पर यह क्या…? उन्होंने देखा कि बलवन्त सर ने तो उनके प्रत्यावेदन को प्रस्तुत करने के लिए अब्दुल कादिर को निर्देश दिया था। अब्दुल कादिर तो महादुष्ट था।…‘वो तो खड़े-खड़े हाथी निगल जाये…और डकार भी न ले।’, जैसे जुमले, जब-तब उसके बारे में कहे-सुने जाते थे। वो कब उनका हित चाहेगा। वो ससुरा तो कार्यालय में सभी सहकर्मियों से दिन-भर मांग-मांग कर चाय-समोसा, पान मसाला आदि खाता रहता था। बिना अपनी फीस लिए वो उनके प्रत्यावेदन को प्रस्तुत करने से रहा। परन्तु उन्होंने भी ज़‍िद ठान रखी थी कि अपने सिद्धान्त पर कायम रहेंगे। बहरहाल वही हुआ जिसका अंदेशा था। जानकारी करने पर पता चला कि उनकी फाइल ऊपर तक जाने ही नहीं दी गयी। देवकान्त जी को अच्छी तरह पता था, उन्हें सुना-समझा नहीं जायेगा। उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती सदृश होकर रह जायेगी। उन्हें न्याय की रही-सही आशा भी धूमिल-सी दिखने लगी। इन सब प्रतिकूल परिस्थितियों का मिला-जुला असर उनके जीवन पर यह पड़ा कि वो अब बात-बात पर गुस्सा हो जाते। बाजदफे वो अपना गुस्सा घर के लोगों पर या कभी-कभी ऑफिस सहकर्मियों पर भी उतारते। मनोहर लाल और रज्जन कुमार द्वारा किये गये अपमान और अपनी बेबसी पर वो तिलमिलाकर रह जाते। वो अन्दर-ही-अन्दर सुलगते रहे।

 सचमुच…उनके लिए बहुत कठिन दिन थे। आश्चर्य तो तब होता जब उनकी परेशानियां भांपते उन्हें कुछ ऐसे लोग तरह-तरह के सुझाव देते, जीवन के प्रति सकारात्मक नज़रिया बनाए रखने का परामर्श देते, जिन्हें एक समय पर आगे बढ़ने के लिए उन्होंने ही तन-मन-धन से मदद की थी। वर्तमान तो अन्धकारमय लग ही रहा था। वो भविष्य के प्रति भी तमाम शंकाओं-आशंकाओं से घिरे रहते। उनके दिन घिसटते हुए बीत रहे थे। जिन्दगी में उत्साह नाम की कोई चीज नहीं बची थी। मानो वो खुद को ढ़ो रहे हों। शाम को दफ्तर से थके-हारे घर लौटते। आधा-तिहा पेट भोजन करते, पत्नी की गोद में सिर रखकर सो जाते। 
 

आज उन्हें मुख्यालय में वरिष्ठ शाखा अधिकारी के पद पर काम करते लगभग बारह-तेरह वर्ष होने को आये। प्रतिकूल-प्रविष्टि सम्बन्धी वो फाइल आज उनके सामने थी। उन्होंने फाइल के एक-एक पन्ने को उलटते-पलटते, हर्फ-दर-हर्फ, भली-भांति देखा-पढ़ा था।…‘पर मनोहर लाल और रज्जन कुमार ने बिना सक्षम स्तर के अप्रूवल के ही वो दण्डादेश क्यों निर्गत करा दिया था? उन लोगों ने ऐसा क्यों किया…? क्या जरा से स्वार्थ की वजह से कोई सीनियर, किसी युवाकर्मी के कैरियर को दांव पर लगा सकता है? उन्हें क्या यह अहसास नहीं था कि ऐसा करके वो अनजाने में ही किसी युवा कार्मिक के जीवन में तरक्की के सारे रास्ते बन्द कर रहे हैं। किसी भी युवाकर्मी के लिए यह कितना निराशाजनक हो सकता है? क्या उन्हें जरा भी इल्म नहीं था?’…देवकान्त जी देर शाम तक अपनी सीट पर गुम-शुम बैठे, जाने क्या-क्या सोचते-गुनते रहे…

देवकान्त जी के जीवन के वो बहुमूल्य वर्ष बेहद त्रासद भरे थे। बीते एक-एक पल के त्रासद भरे अनुभव उनकी आंखों के सामने एक चलचित्र की भांति घूम गये। उन्हें लगा जैसे उनके जीवन से ये कुछ वर्ष कम हो गये, जिसकी भरपाई सम्भव नहीं थी, और इसके उत्तरदायी सिर्फ और सिर्फ…मनोहर लाल और रज्जन कुमार थे। वो उन्हें अवश्य कड़ा सबक सिखायेंगे। यही दृढ़-निश्चय करते वो उस दिन घर लौटे थे।

‘‘क्या फायदा? अब आपके जीवन के वो बहुमूल्य वर्ष तो लौटने से रहे। तिस पर बदले की भावनावश कार्यवाही करने में, ज़रूरी नहीं कि उन्हें दण्ड और आपको न्याय मिल ही जाये। आप ये क्यों नहीं सोचते कि जो दुःखद प्रसंग बीत चुके हैं। उन त्रासद भरे पलों को याद करने से आपका दिल भी तो दुखेगा। फिर इन सबसे हासिल होगा भी क्या? उस घटना के सकारात्मक पक्षों के बारे में आप ये क्यों नहीं सोचते कि वाबजूद मनोहर लाल और रज्जन कुमार के तमाम अड़चने लगाने के, प्रमोशन तो आपको उसी समय मिला, जब मिलना था। कहा भी गया है…जब-जब, जो-जो होना है, तब-तब सो-सो होता है। याद है! समय पर प्रमोशन आदेश मिलने पर आप कितने प्रफुल्लित थे? प्रमोशन आदेश के एक-एक शब्द को चबा-चबाकर पढ़ा था। उस दिन आपका मन बल्लियों उछल रहा था।’’ देवकान्त जी ने उस दिन घर आकर जब इस प्रसंग का जिक्र पत्नी से किया तो, पत्नी ने कुछ इस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त की। 

‘‘लेकिन जो अनावश्यक तनाव-हताशा-निराशा आदि उन वर्षों में मैंने झेलीं, त्रासद भरे अनुभवों से दो-चार हुआ, उनका क्या?’’ देवकान्त जी ने व्यथित स्वर में कहा।

‘‘याद कीजिए। आपने बताया था कि आपके प्रत्यावेदन को अब्दुल कादिर ने फाइल में विस्तार से लिखते, ऐसे प्रस्तुत किया था, मानो सारी गलती आपकी ही थी। ऐसी घटनाओं, अनुभवों से आपको, कम-अज-कम इन्सान को पहचानने,उसके नज़रिये को जानने, सीखने का मौका तो मिला। क्यों नहीं सोचते कि आप जैसे घोंचू व्यक्तित्व को होशियार बनाने में ऐसी घटनाओं का होना, जीवन में कभी-कभी अभूतपूर्व परिवर्तनकारी भी होता है। अभी कल ही कहीं लिखी बात पढ़कर आप जिक्र कर रहे थे…‘कभी-कभी हारना, जीत से ज्यादा सुकूनदायक होता है।’ याद कीजिए उन त्रासद भरे जीवनानुभवों में आपने क्या-कुछ नहीं सीखा? आप कितने ही ऐसे लोगों से मिले, उनके दर तक गये, उनसे परामर्श लिया, जिनके बारे में जानते तक नहीं थे। न्याय के लिए हर सम्भावित दरवाजे को खटखटाया। कैलकुलेटेड-रिस्क के मायने जाने। तमाम नियम-नियमावलियां आदि पढीं। आपके जीवन में ऐसी चुनौतियां नहीं आती तो शायद…आप ढ़ेरों बहुमूल्य सबक से भी तो वंचित रह जाते? जो कुछ होता है, अच्छे के लिए होता है। कहते भी हैं कि…बेस्ट रिवेंज इज नो रिवेंज।’’  हम जिस समाज में रहते हैं वहां सभी को कभी-न-कभी एक-दूसरे के मदद की आवश्यकता पड़ती है। ये आप पर निर्भर है कि बदले की आग में घी डालिये या पानी।’’ पत्नी ने देवकान्त जी को होशियारीपूर्वक समझाने की कोशिश की।

‘‘कितनी उम्मीदों से बस्ती वालों ने पत्र लिखा था। उचित कार्यवाही का इन्तजार कर रहे थे कि ठेकेदार की काली करतूतों का खुलासा हो। उसे उचित दण्ड मिले, और बस्ती वालों को उचित मुआवजा। लेकिन मेरे क्षेत्र का कार्य होने के कारण मनोहर लाल और रज्जन कुमार को कमीशन में बन्दर-बांट करने का मौंका नहीं मिल पा रहा था। ऐसे में मनोहर लाल और रज्जन कुमार ने यह तरीका निकाला कि बाॅस से मिल-जुल कर उन्होंने मुझे दण्डित कराते, उस क्षेत्र से मेरा ट्रांसफर करवा दिया, और ऊपर वालों से मिल-बांट कर सारा मुआवजा चट कर गये। थोड़े लोगों को छोड़कर बस्ती वालों को लगभग सिफर मुआवजा ही मिला। कुछ तो बिना मुआवजा पाये, न्याय की आस लिये बीच में ही मर-खप गये। मैं उन्हें छोड़ूँगा नहीं।’’ देवकान्त जी अभी भी जिद पर अड़े थे।

‘‘इतना तो आप भी जानते होंगे कि मनोहर लाल और रज्जन कुमार कैसी जिन्दगी जी रहे हैं? फिर, यह भी मायने नहीं रखता कि वो कैसी जिन्दगी जी रहे हैं। मायने यह रखता है कि आप कैसी जिन्दगी जी रहे हैं। किसी को अपने अपमान के लिए दोषी बताकर उसका भाव ऊंचा करने की आवश्यकता नही। ऐसों को अवायड करने की कोशिश होनी चाहिए। वैसे भी हम लोगों को बिना संघर्ष के, आसानी से कुछ भी नहीं मिला। ये अलग बात है कि कड़े संघर्ष के बाद जब कुछ हासिल होता है तो उसका सुख, उसका स्वाद कुछ और ही होता है।’’ पत्नी ने इस बार गम्भीरता से समझाने का प्रयास किया।

 ‘‘मतलब…सबसे ज्यादा सबक हमें जीवन में घटित विपरीत घटनाओं, परिस्थितियों से ही मिलते हैं?’’

‘‘जाहिर है। वैसे भी, जीवन के कुछ सबक हम अपने आसपास की घटनाओं से सीखते हैं, तो कुछ अपनी गलतियों की वजह से। साथ ही यह भी तय करना होता है कि हमें खुशियां किस चीज से मिलती हैं? बदले की भावना से, या माफ कर देने से। गालिब साहब की ये खूबसूरत पंक्तियां देखिये…‘‘कुछ इस तरह मैंने जिन्दगी को आसान कर लिया/ किसी से माफी मांग ली, किसी को माफ कर दिया।’’ देवकान्त जी की पत्नी ने उस दिन का अखबार उनके सामने करते, अखबार में प्रकाशित एक लेख में आयी इन पंक्तियों की ओर इशारा करते, उसे पढ़ते कहा।

‘‘सच कह रही हो। हमें जीवन की कड़वी सच्चाइयों को स्वीकार करने का हुनर आना ही चाहिए। इस नजरिये से तो हमें विपरीत परिस्थितियों का स्वागत करना चाहिए…हें-हें-हें।’’ देवकान्त जी अब कुछ हल्के मूड में लग रहे थे।

‘‘हें-हें-हें…। अरे हां! उसी दौरान आपने शास्त्रीय-संगीत सीखा। योग-प्राणायाम करना सीखा। याद होगा, कॉलेज और बेरोजगारी के दिनों में तो आपने खूब सारा घासलेटी साहित्य, जासूसी उपन्यास आदि पढ़ा था, लेकिन ऐसी विपरीत परिस्थितियों में एक बार फिर आपका रूझान साहित्य की ओर हुआ। आपने गम्भीर साहित्य, विभिन्न विषयों पर ढ़ेर सारी किताबें पढ़ीं। शहर स्थित पुस्तकालय की सदस्यता भी ग्रहण की। महान लोगों की आत्मकथाएं, व्यक्तित्व विकास आदि से जुड़ी किताबें पढ़ीं। इसी कवायद में आपके पास देश-विदेशी साहित्य का अच्छा-खासा कलेक्शन भी हो गया था। इन किताबों का पढ़ना जहां एक तरफ सुकूनदायक रहा, वहीं दूसरी तरफ विपरीत परिस्थितियों का सामना करने, सकारात्मक सोचने के लिए मार्गदर्शन भी मिला। आपने फिर से लिखना-पढ़ना शुरू कर दिया। ये अलग बात है कि घर के हर कमरों की आलमारियों, रैक्स आदि में चहुंओर किताबें ही किताबें दिखने लगीं…हें-हें-हें।’’ पत्नी ने इस बार तनिक मजाहिया मूड में कहा।

‘‘हें-हें-हें…शायद, तुम ठीक कह रही हो।’’ देवकान्त जी अब लगभग तनाव-मुक्त दिख रहे थे। 

 ‘‘सोचिये, यह विपरीत परिस्थितियां आपके लिए कितनी महत्वपूर्ण साबित हुईं? वो कहते हैं न!…अन्त में सब ठीक होता है। अगर ठीक नहीं, तो अन्त नहीं। क्या पता, आपको जीवन में ऐसे कड़वे अनुभवों से दो-चार होना लिखा हो। आपको पता है कि जीवन में आयी ऐसी कठिनाइयों की वजह से ही आपने अपनी कमियों को स्वीकर करना सीखा। एक लापरवाह जिन्दगी के बजाय अनुशासित रहने के महत्व को जाना। अपना ध्यान पढ़ने-लिखने में लगाया। आपके अन्दर के लेखक को जीवन मिला। क्या पता…लिखने की वजह, आपके जीवन में आयीं ये मुश्किल घटनाएं, विपरीत देश- काल- स्थितियां- परिस्थितियां ही हों? खैर…ये सब बातें छोड़िये…ये अदरक-कालीमिर्च वाली अपनी पसंदीदा चाय पीजिए।’’ पत्नी ने अपने और उनके लिए दो कपों में चाय ढ़ालते हुए कहा।

‘‘हें-हें-हें…शायद…तुम ठीक कह रही हो। कहा जाता है कि हम जिस चीज के हकदार हैं, अपने प्रयासों से भले न पा सकें, लेकिन वक्त एक दिन, उसे हमें अवश्य दिला देता है। बस्स…जरूरत थोड़े धैर्य की होती है। वैसे भी…अन्त में सब ठीक होता है। अगर ठीक नहीं, तो अन्त नहीं।’’ कहते देवकान्त जी इत्मिनान से बैठ कर चाय की चुस्कियां भरते, उदासी, निराशा और तनाव भरे उस दौर से बाहर निकलने के रोमांचक अनुभवों की स्मृतियों को, और ये भी कि इससे सीखने को मिले सबक को कलमबद्ध करने की सोचने लगे, ताकि भविष्य के लिए सनद रहे। आखिर…जिन्दगी की किताब का शिराजा बिखरने न पाये, इसके लिए जीवन के अलग-अलग पड़ावों के बिखरे सफहे को समेटना-सहेजना भी तो लिखने-पढ़ने की ही कवायद है। इत्यलम्।

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1- प्रकाशन- साहित्य जगत की लगभग सभी लब्धप्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कहानियां कविताएं, व्यंग्य, समीक्षाएं व निबन्ध आदि रचनाएं प्रकाशित।  
     कई साझा संकलनों में भी रचनाएं प्रकाशित। अब तक निम्न नौ कहानी संग्रह/ पुस्तकें प्रकाशितः-
      (1)-आखिरी गेंद, 
      (2)-आप कैमरे की निगाह में हैं, 
      (3)-साॅफ्ट काॅर्नर, 
      (4)-यात्रीगण कृपया ध्यान दें, 
      (5)-मन बोहेमियन, 
      (6)-आगे से फटा जूता,
       (7)- रामनगीना मौर्य की 23 चयनित कहानियाँ,
       (8)- खूबसूरत मोड़,
       (9)- ठलुआ चिन्तन।
  2- पुरस्कार व सम्मान- 
       (1)-राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, द्वारा वर्ष 2016-17 में सतत साहित्य साधना के लिए ‘साहित्य गौरव सम्मान’।
       (2)- राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, द्वारा हिन्दी भाषा गद्य की मौलिक कृति, कहानी संग्रह ‘‘आखिरी गेंद’’, वर्ष 2017-18 के लिए  ‘‘डाॅ0 विद्यानिवास मिश्र’’ पुरस्कार (रू0 1,00,000/-)। 
       (3)- कहानी संग्रह, ‘‘आखिरी गेंद’’, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, द्वारा वर्ष- 2017 में रूपये 75 हजार के अन्तर्गत ‘‘यशपाल पुरस्कार’’ । 
       (4)- अखिल हिन्दी साहित्य सभा (अहिसास), नासिक- महाराष्ट्र द्वारा ‘‘राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य सम्मान- 2019’’ के अन्तर्गत, कहानी संग्रह ‘‘आप कैमरे की निगाह में हैं’’ को ‘‘साहित्य शिरोमणि सम्मान’’ (रूपये, 5100/-)। 
       (5)- साहित्य के क्षेत्र में समर्पण एवं उत्कृष्ट सेवा के लिए ‘साहित्य श्रेणी’ में प्रतिष्ठित ‘‘लोकमत सम्मान-2020’’ से सम्मानित। 
       (6)- अदबी उड़ान 5 वें राष्ट्रीय पुरस्कार एवं सम्मान- 2020 के अन्तर्गत कहानी विधा में ‘अदबी उड़ान कहानी साहित्यकार सम्मान’ प्रशस्ति-पत्र।
       (7)- ‘‘गया प्रसाद खरे स्मृति साहित्य, कला एवं खेल संवर्द्धन मंच-भोपाल’’ द्वारा ‘‘शान्ति-गया सम्मान समारोह-2020’’ में कहानी संग्रह ‘‘साॅफ्ट काॅर्नर’’ के लिए ‘‘प्रो0 श्यामनारायण लाल स्मृति सम्मान’’ से अलंकृत।
       (8)- ‘‘मैत्रेय ग्लोबल फाउण्डेशन-अमेठी, उत्तर प्रदेश’’ द्वारा ‘‘इसराजी देवी साहित्य शिरोमणि सम्मान-2022’’ से अलंकृत।
       (9)- साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक उन्नयन हेतु अग्रणी संस्था ‘‘युगधारा फाउण्डेशन-लखनऊ, उत्तर प्रदेश’’ द्वारा दिनांक 08 मई, 2022 को ‘‘पं. प्रताप नारायण मिश्र सम्मान’’ (रूपये, 5100/-) से अलंकृत।
      (10)- ‘‘टाइम इंडिया न्यूज व आक्सीटी’’ के संयुक्त तत्वावधान में साहित्यिक क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिनांक 03 जुलाई 2022 को ‘‘भारत गौरव सम्मान- 2022’’ से अलंकृत।
      (11)- गुफ्तगू, त्रैमासिक पत्रिका एवं प्रकाशन, प्रयागराज द्वारा ‘कैलाश गौतम सम्मान- 2022’ से सम्मानित।
      (12)- जयपुर साहित्य संगीति संस्था – जयपुर द्वारा सर्वोत्कृष्ट साहित्य कृति सम्मान “जयपुर सम्मान – 2024″।
      (13)- कथा रंग कहानी प्रतियोगिता- 2023, के अन्तर्गत “श्री धीरज सिंह स्मृति अमृतलाल नागर कथा सम्मान -2023″।

सम्प्रति-   राजकीय सेवारत (उत्तर प्रदेश सचिवालय, लखनऊ में विशेष सचिव के 
                  पद पर कार्यरत।)

सम्पर्क-                        
(राम नगीना मौर्य)
5/348, विराज खण्ड, गोमती नगर
लखनऊ – 226010, उत्तर प्रदेश,
मोबाॅयल न0-9450648701,
ई मेल-ramnaginamaurya2011@gmail.com

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