इस बार तो कंग्डाली भाम देखने जाना ही है आखिर इतनी बातें जो सुनी हैं इसके बारे में और फिर 12 वर्षों में भी तो आता है रङ जनजाति का ये त्यौहार। इन्हीं दिनों अल्मोड़ा में रामलीला और रावण दहन भी चल रहा है तो लगे हाथ मैंने उसका भी आनंद ले लिया पर उसकी बात फिर कभी।
सुबह 4.45 मिनट में अल्मोड़ा टैक्सी स्टैंड पहुंची पर टैक्सी वाला खुद ही 6 बजे वहाँ पहुंचा और 7 बजे टैक्सी चली। धारचूला तक छोड़ने की बात थी पर उसने पिथौरागढ़ में बोल दिया – धारचूला के लिये टैक्सी पकड़ लो। भरोसे के लायक नहीं हैं यहां के टैक्सी वाले। मैं धारचूला 4 बजे पहुंचती हूं पर त्यौहार का समय होने के कारण नारायण आश्रम के लिये टैक्सी है ही नहीं। मुझे एक परिवार ने कहा कि नारायण आश्रम जाने तक बहुत रात हो जायेगी इसलिये मैं आज उनके साथ पांगू चलूं और वहीं रुक जाऊं।
धाराचूला से आगे की सड़क एकदम पतली सी है जो घाटी से सटी है। अगर लापरवाही की तो कहीं भी कुछ भी हो सकता है और इन सड़कों में हादसे होना आम बात है। टैक्सी वाले ने बताया कि कुछ दिन पहले ही उसके भाई की मृत्यु भी एक दुर्घटना के दौरान इसी सड़क में हुई है। इस सबके बीच धौली नदी को साथ चलता देख अच्छा लगता है। कई जगह लेंडस्लाइड हुए हैं और सड़क चैड़ीकरण काम भी चल रहा है। अब शाम भी होने लगी और कंजुक्ती पहुंचते हुए मौसम अचानक खराब हो गया। मुझे लेंडस्लाइड का डर था पर सब ने कहा – कुछ देर में मौसम ठीक हो जायेगा। धौली कभी पास तो कभी दूर अपनी पूरी रफ्तार से बह रही है। अंधेरा होने के कारण अब सिर्फ धौली की आवाज ही कानों में आ रही है। जैसे ही अंधेरा बड़ा वैसे ही घाटियां डरावनी लगने लगी। घुप्प अंधेरे में पतली सी सड़क के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा पर हां तारों से भरा आसमान अच्छा लग रहा है। पांगू में अपने होस्ट के घर पहुंची तो उन्होंने रसोई में अपने साथ आने को कह दिया जहां पूरा घर इकट्ठा है। लकड़ी के चूल्हे में सब्जी और रोटी बनने की तैयारी चल रही है पर इनका घर सीमेंट और टाइल का बना हुआ है। अब यहां भी ऐसे मकानों का चलन बढ़ता जा रहा है। पूछने पर घर की बुजुर्ग महिला ने शिकायती अंदाज में कहा – पारंपरिक मकान बनाना महंगा भी पड़ता है और फिर नये जमाने के लोग अब सीमेंट-टाइल के मकान में ही रहना पसंद करते हैं और हर समय मोबाइल में लगे रहते हैं। कंग्डाली के बारे में बताते हुए उन्होंने चमकती आंखों से कहा – ये त्यौहार बहुत अच्छा लगता है क्योंकि भोटिया लोग खूब रंगीन कपड़े पहन कर नाच करते हैं और जंगल जाते हैं। इन्होंने मुझे सलाह दी कि अगले दिन हमखोली गांव में कंग्डाली होनी है इसलिये मैं वहां जा सकती हूँ और वहां रुकने की जगह भी बता दी। अब मैं हिमखोली जा रही हूं। चूल्हे के पास बैठकर खाना खाकर सभी सोने चले गये।
रात को जो घाटियां डरावनी लग रही थी सुबह वो घाटियां खूबसूरत नजर आने लगी। घर के एक कोने से थोड़ा सा हिमालय भी दिख रहा है। सामने के घर में एक महिला अपने बच्चे को घुमा रही है। कैमरा देख के मेरी ओर मुड़ तो गयी पर फिर चेहरा छुपा लिया। दूसरी ओर एक बुजुर्ग महिला धूप सेक रही हैं। मैं उनसे बात करने चले जाती हूं। मेरे बारे में पूछने के बाद अपनी ही रौ में वो बताने लगी – मेरी लव मैरिज हुई थी। शर्माते हुए बोली – वो मुझे भगा के लाया था। मैंने चैंक के पूछा – भगा के ? तो बोली हाँ हमारे यहां इसका बुरा नहीं मानते हैं क्योंकि बाद में घर वाले अपना लेते हैं। उन्होंने बताया – वो 40 साल फौज में रहा फिर उसकी मौत हो गयी। मैंने बच्चों को अकेले ही पाला। तब तो मैं छोटी भी थी। मैं ही जानती हूं मैंने कैसे बच्चों को पाला। जब तक पति जिन्दा रहा उसने मुझे बड़े प्यार से रखा। मुझे कुछ काम नहीं करने देता था। मैं बस घर का ही काम करती थी पर उसके मरने के बाद मुझे सारे काम भी करने पड़े और बच्चे भी पालने पड़े। उन्होंने ये सब इतने सहज ढंग से बताया कि लगा ही नहीं मैं किसी पिछड़े गाँव में हूँ। नाश्ता करने के बाद मैं पैदल ही हिमखोला निकल गयी हूँ। ये सड़क अच्छी है पर आज भी टैक्सी नहीं चल रही हैं। करीब 2-3 घंटे चलने के बाद मैं हिमखोली में हूँ। नीचे से देखते ही गांव के मैदान में खूब सारे पुरुष और महिलायें रंगीन पोशाकों में नृत्य करते दिखायी दिये पर अभी यात्रा निकलने में समय है।
यहां भी मुझे बुजुर्ग दंपत्ति ने अपने घर रहने का न्यौता दे दिया इसलिये मैं उनके साथ जा रही हूँ। दोनों ही पति-पत्नी बेहद शालीन स्वभाव के हैं। गाँव के सामने एक नदी बह रही है। जिसका नाम जीवंती बताया। इन दोनों ने बताया कि 2021 में जब बहुत बाढ़ आयी उस समय ये जीवंती जो अभी बेजान लग रही है इसमें इतना भयंकर पानी आया कि वो सब कुछ अपने साथ ले जाने को आमादा हो गयी। नदी से लगे अपने खेतों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने बताया – नदी किनारे उनके खेत फसलें चैपट हो गयी और आज भी इन खेतों में रेत भर जाने के कारण फसल नहीं होती। अपने घर की ओर इशारा करके उन्होंने कहा – वो तो हमारा घर थोड़ा ऊंचाई में है इसलिये हम बच तो गये पर अभी भी हम खतरे में हैं। हालांकि इनको पांगू के पास जमीन दी गयी है जहां ये अपना घर बना सकते हैं। मैं इनके घर की ओर चलती हूँ। बुजुर्ग अचानक बोले – सूअर और सेही भी फसलों के लिये मुसीबत हैं। इनका घर गांव का मिट्टी-पत्थर वाला दोमंजिला पारंपरिक घर है। ऊपर अपने रहने के लिये और नीचे गाय-बकरी के लिये पर इनको टाइल और सीमेंट वाले मकान अच्छे लगते हैं। भेड़ें पालना यहां मुख्य कामों में है। भेड़ों को जंगलों में ही रखना होता है और उनकी पहरेदारी वहीं रह कर करनी होती है। महिला ने एक घर की ओर इशारा करके बताया – ये लोग रात को कंग्डाली वाले गांव चले गये और वहां थोड़ी पी भी ली। पूरी रात भेड़ें वैसे ही रही। सुबह तक भालू ने चार भेड़ें और दो भेड़ के बच्चे मार दिये। भेड़ों का ऐसे मरना बहुत बड़ा नुकसान है इसलिये पहरेदारी जरूरी होती है। बरामदे में थोड़ी सी राजमा सूख रही है पर इस बार फसल इतनी ही हुई। थोड़ा मौसम की मार बांकी जानवर। सूअर के खोदे खेत मैं आसानी से दिख पा रही हूं। गांव से ढोल-बाजों की तेज आवाज आ रही है इसलिये में त्यौहार देखने निकल गयी।
यहाँ कंग्डाली मनाने की तैयारियां चल रही हैं। सभी त्यौहार में व्यस्त हैं इसलिये किसी के पास बात करने का समय नहीं है। फिर भी लोगों से बात करने का मौका मैंने खोज ही लिया। महिलायें रंगीन पोषाकों और आकर्षक गहनों से सजी हैं। इस पोषाक को चुंग्भाला कहते हैं। पुरुष भी सफेद रंग की आकर्षक पोषाकों और सफेद रंग की पगड़ियों में हैं जिसे रंगा कहते हैं। एक घर के बड़े बरामदे में कुछ लोग बड़े-बड़े ढोल दमाउ बजा रहे हैं जिनके साथ गाँव के पुरुष और महिलायें हाथों में तलवार पकड़े नृत्य कर रहे हैं।
महिलाओं की तलवार लकड़ी की है जिसमें ऊपर चांदी का रंग किया है, इसे रिल कहते हैं और पुरुषों की तलवार सामान्य है और इसे दांग्या कहा जाता है। पूरा गाँव में इस समय इस संगीत में डूबा हुआ है। हिमखोला गांव चैदास घाटी में आता है जो पिथौरागढ़ जिले में है। चैंदास घाटी को यहां की भाषा में इसे ‘बंग्बा’ घाटी कहते हैं। जिसमें ‘बंग्’ मतलब ‘स्थान’ और ‘बा’ मतलब ‘पूर्वज’ है। अर्थात ‘बंग्बा’ का अर्थ हुआ ‘पूर्वजों का स्थान’। यहां के निवासियों को ‘बंग्बानी’ कहते हैं। चैंदास घाटी चैंदह गांवों से बनी हुई है जिसमें इस त्यौहार को रंङ समाज, जिसे आम बोलचाल की भाषा में भोटिया भी बोल देते हैं, द्वारा उत्साह के साथ मनाया जाता है। इन सभी चैंदह गांवों में पहले से ही तय हो जाता है कि किस दिन कौन से गांव में कंग्डाली भाम मनायी जायेगी। इस बार यह 25, 26 और 27 अक्टूबर 2023 को मनायी जानी है। कंग्डाली हर बारह वर्ष में मनाये जाने वाला त्यौहार है और रंङ समाज इसे बड़े धूमधाम से मनाता है। जिसकी तैयारी ये लोग साल भर पहले से ही करने लगते हैं।
कंग्डाली एक पौंधा है जिसमें हर बारह वर्ष में फूल आता है। इसके फूल हल्के नीले रंग के होते हैं। जब बारह वर्षों में कंग्डाली में फूल आता है तो हर जगह जंगल में इसके फूल खिले हुए दिखने लगते हैं। उत्तराखंड में बिच्छू घास को भी कंडाली कहा जाता है पर बिच्छू घास और ये कंग्डाली पौंधा दोनों बिल्कुल अलग-अलग हैं।
मुझे गांव में कुछ बुजुर्ग मिल गये जो तैयारियों का जायजा ले रहे हैं। मैंने उनसे इस त्यौहार को मनाये जाने के बारे में पूछा तो उनमें से एक ने बताया – बहुत समय पहले की बात है जब स्वास्थ्य सुविधायें नहीं थी और घरेलू उपचार ही किये जाते थे, तब एक बार राजा का बेटा बीमार हो गया। उस समय उसे हर तरह के घरेलू उपचार और जड़ी बूटियां दी गयी पर वो ठीक नहीं हुआ। अंत में कंग्डाली पौंधे का फूल लाकर उसकी दवाई बनाई और बच्चे को दी। दवा पीते ही बच्चे की मृत्यु हो गयी। बच्चे की मृत्यु हो जाने के कारण गांव वालों ने कंग्डाली के फूल को अपना सबसे बड़ा शत्रु मान लिया और तय किया की जैसे इसने हमारे राजा के बेटे का अंत किया है वैसे ही हम भी इसका अंत करेंगे। कंग्डाली के पौंधे में 12 वर्षों में फूल आता है और जब उसमें फूल आता है तो गांव वाले तलवार, ढाल और कई अस्त्र-शस्त्र लेकर जंगलों में जाते हैं और पौंधे का नाश कर देते हैं। इसलिये इस त्यौहार को एक तरह से विजयोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। जब मैंने उनसे पूछा कि इंटरनेट में त्यौहार को लेकर कई अन्य कहानियां भी मिलती हैं, उन कहानियों में कितना सच है ? उन्होंने कहा – ये सब किवदंतियां हैं। हमने अपने बुजुर्गों से जो कहानी सुनी है वो राजा के बेटे वाली ही है और हम इसको ही मानते हैं। उनसे बात करते हुए लगातार कई तरह की आवाजें कानों में पड़ रही है। कुछ एनाउंनसमेंट भी हो रहे थे। पलट कर देखा तो एक स्टेज दिखा जिसमें खाने की व्यवस्था है और यहां से हर तरह के एनाउनंसमेंट भी हो रहे हैं। मुझे भी वहां खाने के लिये आमंत्रित किया गया। इसी बीच कुछ बच्चियों से भी बात करने का मौका मिल गया जो कि त्यौहार के लिये सजी हुई हैं। उनसे बात करते हुए मैंने पूछा – क्या आप लोग यहीं रहते हो या धारचूला ? उनमें से एक ने जवाब दिया – हम दोनों दिल्ली में रहते हैं और वहीं से पढ़ाई कर रहे हैं। मैं अभी 12 में हूं और ये इस साल कॉलेज चली गयी है। उन दोनों से बात करते हुए लगा कि वो अपनी पढ़ाई और भविष्य के लिये बेहद सजग हैं और दोनों ने अभी से ही तय कर लिया है कि उनको आगे क्या करना है। उन्होंने बताया इससे पहले जब कंग्डाली हुआ था तब वो बहुत छोटी थी इसलिये उन्हें ज्यादा कुछ याद नहीं है पर इस बार वो इस त्यौहार का खूब आनन्द लेंगी। अपने गांव के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा – हमें गांव आना अच्छा लगता है और हम गांव आते रहते हैं। इसी दौरान एक महिला भी वहां पर आ गयी। उनको देख के लगा कि वो भी बाहर से ही यहां आयी हैं। उनसे बात हुई तो पता चला वो भी दिल्ली ही रहती हैं पर अपनी जड़ों से जुड़ी हुई हैं। उनसे मैंने पूछा – ये जो बच्चे गांवों में कभी रहे ही नहीं, वो भी अपनी भाषा अच्छे से कैसे बोल रहे हैं ? उनका कहना था – हम लोगों का समाज बहुत छोटा हैं। अगर हम अपने बच्चों को अपनी बोली-भाषा और रीती-रिवाज नहीं सिखायेंगे तो ये सब लुप्त हो जायेगा इसलिये हम हमेशा बच्चों के साथ अपनी भाषा में बात करते हैं और जो भी त्यौहार होता है उसके बारे में बचपन से ही उनको सिखाते हैं। हमेशा उन्हें गांव लाते हैं ताकि वो अपनी जड़ों से जुड़े रहें। वो भी त्यौहार की जल्दी में ही थी पर जाते-जाते उन्होंने कहा – गांव से जाना हमारी मजबूरी है पर अपनी जड़ों से अपने गांव से जुड़े रहना हमारा कर्तव्य है। अब ढोल दमाउं की आवाज बहुत तीव्र हो गयी। सभी त्यौहार में जाने के लिये गांव के पधान के घर के बरामदे में इकट्ठा हो गये। यह यात्रा पधान के घर से ही शुरू होती है और पधान के घर में ही समाप्त होती है। यात्रा शुरू होने से पहले घर के सामने कुछ रस्में पूरी की जाती हैं जिसके बाद यह यात्रा शुरू हो जाती है।
महिलाओं ने चटख मरुन रंग के कपड़े पहने हैं तो पुरुषों ने सफेद कपड़े पहने हैं। एक महिला ने हंसते हुए बताया – इस त्यौहार के लिये स्पेशल ऑर्डर देकर ये पोषाकें और नये गहने बनवाये हैं जिन्हें बनवाना आसान नहीं है क्योंकि ये गहने बिल्कुल अलग तरह के होते हैं और इन्हें बनाने वाले कम मिलते हैं। हर गहने का अलग नाम भी उन्होंने बताया। सबसे लम्बी माला बलडंग है। उससे छोटी वाली चन्द्रहार है इसके अलावा कंठी और तिलहड़ी भी हैं। हाथ के कंगन को बहां तो नाक की नथ को बीरा और कान की बाली को छूंगरोबाली कहते हैं। बलडंग में पुराने सिक्के लगते हैं जिन्हें इकट्ठा करना कठिन होता है। बच्चों के लिये भी गहने और पोषाकें बनवायी जाती हैं। लड़किया भी ये पहनती हैं बस वो मंगलसूत्र नहीं पहनती हैं। छोटे-छोटे बच्चे बच्चियां इन रंगीन पोषाकों में खूबसूरत लग रहे हैं। अब तक बरामदे में सब एक साथ इकट्ठा हो चुके हैं और कतारबद्ध होते हुए पुरुष और महिलायें क्रमबद्ध तरीके से नृत्य करते हुए आगे बढ़ने लगे। इस कतार में उम्र की कोई सीमा नहीं है। छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सब नृत्य कर रहे हैं। ये लोग गीत भी गा रहे हैं पर शब्द समझ पाना मुश्किल है। पूछने पर पता चला कि ये शगुन के गीत हैं जिन्हें शुभ कायों में गाया जाता है। एक गाने के कुछ बोल जो मुझे पता चले वो इस तरह हैं – धनकी धई ताला धनकी धई, जु्रगली धाजा सुंपुंक शरज, ठोक्तन ठनतन ससमां धनकी धई ताला…। ये पूजा और शुभ कार्यां में गाये जाने वाला शगुन गीत है। कई बार ऐसा भी दिख रहा है कि पहली पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को नृत्य और ढोल बजाने की सीख भी दे रहे हैं। ये देख के अच्छा लगा।
खैर क्रमबद्ध तरीके से नृत्य करते सभी आगे बढ़े और छोटे संकरे रास्ते से नीचे की ओर उतरे। चलते-चलते लोगों से बात करती रही तो पता चला कि पहले से पूरी चैंदास घाटी के लोग एक साथ कंग्डाली काटने जंगल जाते थे पर समय के साथ रिवाजों में बदलाव आ गया है। जंगल की जगह अब नजदीक में ही कंग्डाली के पौंधों को रोप दिया जाता है और वहीं जाकर प्रतीकात्मक रूप से उसको नष्ट कर इस उत्सव को मनाया जाता है। जिस जगह में यह पौंधा लगाया जाता है वहां तक सभी पैदल जाते हैं पर क्योंकि अब सड़क आ गयी है इसलिये बुजुर्गों और बच्चों के लिये गाड़ियों का भी इंतजाम है।
बड़े-बड़े ढोल बजाने वाले आगे चल रहे हैं और बांकि लोग उनके पीछे। इनके साथ एक ध्वजा भी चल रही है जिस में ‘ऊँ’ लिखा है। मैंने देखा एक महिला हाथ में दराती पकड़े सबसे आगे चल रही है और वो कुछ अलग दिख रही है हालांकिमैं उसके बारे में जानना चाहती हूं पर वहां किसी को भी बात करने की फुर्सत नहीं है। सब नाचने में व्यस्त हैं। सड़क से होते हुए सभी नाचते-नाचते उस ओर पहुंच गये जहां कंग्डाली के पौंधे हैं। मुझे लगा था कि कंग्डाली के फूल और पेड़ दिखेंगे पर इस समय तक ये सूख चुके हैं तो सिर्फ झाड़ जैसा ही दिखायी दिया।
कंग्डाली के पौंधे को काटते हुए देखने के लिये पूरा गांव इक्ट्ठा हो गया है। जैसे ही नृत्य करते हुए सब उस जगह पहुंचे उन्होंने कंग्डाली के पौंधों को जोर-जोर से मारना और काटना शुरू कर दिया। इसे काटने के बाद सभी जोश से भर गया। वो खुशी से अपनी तलवारें हवा में लहराते हैं लगे और कुछ नारे लगाते हैं फिर एक जगह इकट्ठा होकर एक साथ नृत्य करते हुए जहां चाय-पानी का इंतजाम है वहाँ जाने लगते हैं।
यह मकान भी पारम्परिक तरीके से बना बहुत प्यारा घर है। सफेद रंग का मकान और नीले रंग के खिड़की-दरवाजे जिनमें बीते वक्त वाली कारविंग की गयी है। इस कमरे के सामने सभी लोग इकट्ठा हुए और फिर यहां सबने अपने-अपने साथी के साथ नृत्य किया इसमें ऐसा कोई बंधन नहीं है कि पति-पत्नी ही साथ में नृत्य करेंगे। कोई भी किसी के साथ नृत्य कर सकता है। लड़किया ज्यादातर अपनी लड़की दोस्त के साथ नृत्य कर रही हैं जबकि पुरुष अपने परिवार वालों के साथ नृत्य कर रहे हैं। इस नृत्य के साथ ही यह उत्सव खत्म हो गया।
यह उत्सव एक तरह से सबके मिलने का भी मौका है। जो चाहे कहीं भी हो इस अवसर पर कुछ दिनों के लिये अपने गांव आते हैं और सबके साथ मिलके समय बिताते हैं। इस समय गांव में भी रौनक छायी रहती है। इस दौरान कई तरह के पकवान भी बनाये जाते हैं। शाम को भी खाने का इंतजाम है और डीजे लगा है जिसमें सभी इकटठा होकर झूम रहे हैं।
मैं रहने के लिये बुजुर्ग दंपत्ति के पास ही आ जाती हूं। सुबह ठंड हो रही है। महिला ने पास ही बने चूल्हे में आग जलाई और पानी गर्म करके दिया और फिर चाय बना के पिलाई। इतनी ही देर में पुरुष भी वहीं आ गये और कहने लगे – अगली बार जब तू आयेगी तो हमारा घर पांगू में होगा तुझे इतनी दूर नहीं आना पड़ेगा। ये लोग अभी भी कीड़ाजड़ी तोड़ने जाते हैं। पर अब वो भी कम होने लगी है क्योंकि बर्फ गिरनी कम हो गयी है। दुःखी होकर उन्होंने कहा – यहाँ न तो अस्पताल और न स्कूल है। अगर ये सुविधा होती तो हमें अपना घर छोड़कर धारचूला नहीं जाना पड़ता। नेताओं से भी उनकी इस बात पर नाराजगी थी कि वो सिर्फ वोट मांगने आते हैं और फिर गायब हो जाते है। पैदल चल के नेता इन सड़कों से हमारे पास आये तो उनको हमारी परेशानी पता चले। उन्होंने बताया कि अभी वो जंगल जाकर घास काट कर लायेंगे क्योंकि फिर हेमंत लग जायेगा तो जानवरों की घास की दिक्कत होने लगेगी। आज मुझे भी नारायण आश्रम होते हुए पांगू निकलना है।
नारायण आश्रम चले जाने के कारण मुझे पांगू पहुंचने में देर हो गयी है। मेरे पहुंचने तक उत्सव मनाया जा चुका है और अब प्राइमरी स्कूल के मैदान में भोजन की तैयार चल रही है जिसके बाद कुछ कार्यक्रम होंगे और आज शाम को मुख्य समापन आयोजन होना है जिसके लिये पूरी चैंदास घाटी से लोग पांगू में इकट्ठा हो रहे हैं। यहां पर टेंट भी लगाये गये हैं और सबके रहने और भोजन का इंतजाम यहां के लोगों द्वारा ही किया गया है। पांगू में इस समय बहुत हलचल है और ठंड भी होने लगी है। शाम को रंगारंग कार्यक्रम शुरू हुए जिसमें सभी गांव के लोगों द्वारा गीत-संगीत का कार्यक्रम आयोजित किया गया। पूरा पांगू का मैदान गांव वालों की भीड़ से भरा है। इस भीड़ में थोड़ा धक्का-मुक्की और थोड़ा लड़ाई-झगड़ा भी चलता रहा और इन्हीं रंगारंग कार्यक्रमों के साथ तीन दिन से चल रहे इस उत्सव का समापन हो गया।