अनुनाद

ये जानते हैं जलते मन और जलती रोटी की बात- सुनीता करोथवाल

(1)

ये एक-एक स्त्री संपूर्ण धरती है 

पूरा गाँव हैं 

कीकर का फूलों से लदा पेड़ हैं 

इन्हीं की किसी झुकी कमर में 

मेरी नानी बसती है खोर बुहारती हुई।

 

इन्हीं में ढूँढती हूँ मैं 

अपनी चाची के आटे से भरे हाथ

 जो जल्दी में हर बार धोना भूल जाती है।

 

बुआ के नाखूनों में फंसा हरा बथुआ 

जो एक समय का चूल्हा जलाता है 

इन्हीं हाथों की चूड़ियों में गेहूँ की बालियाँ उलझी हैं

और ग्वार के रोएँ छुपे हैं।

ताई के दांतों में अटकी हुई है मेथी की महक 

और दादी की बूढ़ी हड्डियों में ठहरा हुआ है जरा-सा खेत।

 

जहाँ पसरा हुआ है 

आज भी चने का साग 

गेहूँ का सुनहरापन

 बाजरे के जिद्दी दाने

 जिन्हें वहीं छुपना है अगले बरस फिर उगने के लिए।

 

मैं इन्हीं में पूरे खेत देखती हूँ

 इन्हीं की मैली ओढ़नी से सरसों के फूल झरते हैं 

इन्हीं की फटी हथेलियों से नरम होकर 

धरती नई फसल बिछाती है 

इन्हीं की “हो-हो” से पशु कतार में चलते हैं 

इन्हीं की पुचकार से भैंस दूध देती हैं 

इन्हीं हथेलियों पर मक्खन उछलते हैं। 

 

इन्हीं के सहलाने से गन्ने रस में बँधते है 

हारों से धुएँ उठते हैं 

चूल्हे अंगार उगलते हैं 

और जन्म लेती हैं सफ़ेद रोटियाँ

 जो धरती पर रहने के लिए शायद

आख़िरी और पहली ज़रूरत है।

    *** 

राजा रवि वर्मा

 (2)

लड़के हमेशा खड़े रहे

खड़े रहना उनकी कोई मजबूरी नहीं रही

बस उन्हें कहा गया हर बार

चलो तुम तो लड़के हो, खड़े हो जाओ

तुम मलंगों का कुछ नहीं बिगड़ने वाला।

 

छोटी-छोटी बातों पर ये खड़े रहे कक्षा के बाहर

स्कूल विदाई पर जब ली गई ग्रुप फोटो

लड़कियाँ हमेशा आगे बैठीं 

और लड़के बगल में हाथ दिए पीछे खड़े रहे

वे तस्वीरों में आज तक खड़े हैं।

 

कॉलेज के बाहर खड़े होकर 

करते रहे किसी लड़की का इंतज़ार

या किसी घर के बाहर घंटों खड़े रहे

एक झलक एक हाँ के लिए

अपने आपको आधा छोड़ 

वे आज भी वहीं रह गए हैं।

 

बहन-बेटी की शादी में खड़े रहे मंडप के बाहर

बारात का स्वागत करने के लिए

खड़े रहे रात भर हलवाई के पास

कभी भाजी में कोई कमी ना रहे

खड़े रहे खाने की स्टाल के साथ

कोई स्वाद कहीं खत्म न हो जाए

खड़े रहे विदाई तक दरवाजे के सहारे

और टैंट के अंतिम पाईप के उखड़ जाने तक

बेटियाँ-बहनें जब लौटेंगी

वे खड़े ही मिलेंगे।

 

वे खड़े रहे पत्नी को सीट पर बैठाकर 

बस या ट्रेन की खिड़की थाम कर

वे खड़े रहे बहन के साथ घर के काम में

कोई भारी सामान थामकर 

वे खड़े रहे माँ के ऑपरेशन के समय

ओ.टी. के बाहर घंटों

वे खड़े रहे पिता की मौत पर अंतिम लकड़ी के जल जाने तक

वे खड़े रहे दिसंबर में भी

अस्थियाँ बहाते हुए गंगा के बर्फ से पानी में।

 

लड़कों रीढ़ तो तुम्हारी पीठ में भी है 

क्या यह अकड़ती नहीं?

*** 

Shashikant Bane

(3)

सबसे आलीशान घर उनके हैं

जिनके घर के बाहर

चार खाट डाल बैठने का चबूतरा है

दस जन ज्यादा आ जाएँ, 

तब भी मूढ़ों की कमी नहीं रहती

जहाँ मनुहार कर परोसा जाता है भोजन

और छ्क कर पिलाया जाता है दूध।

 

जिनके घर भीतर बिन तुला अनाज पसरा है

कपास एक कमरे में छत तक भरी है

कोने में पड़े हैं कच्चे टिंडे खिलने के लिए

आलूओं का पड़ा है ढेर

लहसुन की जूटियाँ बंध कर लटक रही हैं

सरसों अभी भी तेल के लिए दो बोरी संभाल कर रखी है

गेहूँ सौ-सौ मण रखे हैं

एक कोने में रखे हैं महंगे बिनौले- खल

और रसोई की चौखट पर रखी है लस्सी भरी बिलौनी

दूध हारे में सुलग रहा है

और घी, मक्खन रखा है जाली की अलमारी में यूं ही डोंगे में

चक्की घर के एक तरफ लगी है

ठीक पीछे गंडासा

वे कोई बनिए नहीं 

फिर भी तराजू- बाट संभाल रखा है

और अनाज से आज भी धड़ा करते हैं।

     ***

राजा रवि वर्मा

  (4)  

तुम्हारी बातें सुस्त शरीर के लिए पुदीना पानी हैं

और ऑफ मूड में स्ट्रांग कॉफी

अक्सर सादे मिजाज पर 

एक मध्यम संगीत सा असर करती हैं।

 

तुम्हारी बातों में एक धुन है

मुझे रोज सांझ दूर तक ले जाती है

चाँद के पालने में रात झूमर सी सजती है

किसी नवजात सी खुश होती हूँ मैं

बादलों की झालर में।

 

तुम्हारी बातें मन की गुदगुदाहट है

जो कह दूं तो आस-पास, गर्मी सर्दी सबकुछ भुला दे

और लिख दूं तो कविता हो जाए।

 

तुम्हारी बातें भीगी मूंग सी हैं

दिन, दो दिन छोड़ दूं 

तो किसी सुबह हरिया उठती हैं।

 

तुम्हारी बातें तपती लू के बाद

 चेहरे पर गिरती बारिश है

गर्दन से बहकर कमर पर लुढ़कती है।

 

तुम्हारी बातें रातों का सहारा

 दिन की आस हैं

कितना अच्छा हो

कि बातों बातों में ही बस जीवन बीत जाए।

 *** 

Shashikant Bane

 (5)            

घरेलू पुरूष

ये जो सुबह के काम में बंटाते हैं हाथ

सब्ज़ी काट लेते हैं यह कहकर

कि चलो आज खाना मैं बनाकर खिलाता हूँ

बिन कहे ठहर जाते हैं गर्म होते दूध को देख

बरतन रख देते हैं ठीक सिंक में

उठाने लगते हैं यहाँ-वहाँ बिखरा सामान

इन्हें रसोई ही नहीं 

घर की हर स्त्री की जरूरत पता होती है कहने से पहले

ये सब पुरूषों से ज्यादा जानते हैं

ये जानते हैं जलते मन और जलती रोटी की बात।

 

इनकी आँखों में खटकती हैं टूटी कुंडियां

उतरे पलस्तर इनका मन कुरेदते हैं

उधड़ता कुछ भी इन्हें कचोटता है

ये बिन कहे बांधने लगते हैं लटकती तार

उलझता धागा

सिसकता रिश्ता।

 

ये मौसम देख उतार लेते है बाहर सूखते कपड़े

कर देते हैं मुड़ा पायदान सीधा

पानी की फ्रिक करते हुए भरते लगते हैं बाल्टी, टंकी, गमले

बीच में छूटी झाड़ू हो जाती है पूरी इनके होते

चप्पलें ठीक रैक पर रखेंगे ये

संवारते रहेंगे कुशन, परदे, कुर्सियाँ, मन सलीके से

ये कहने से पहले की बात समझते हैं

मन में आने से पहले का भाव।

 

कुछ पुरूष होते हैं ना जो बेहद घरेलू

सच में बहुत प्यारे होते हैं ये

कभी कभी सोचती हूँ

इतने सरल इतने सहज 

मजबूत होकर भी स्त्रियों की तरह 

बस एक घर लिए घूमते हैं अपने भीतर

क्या इन्हें रास आती होगी बाहरी दुनियादारी ?

***

shashikant Bane

(6)             

ये शोक में बैठी स्त्रियाँ हैं

सिर्फ शरीर से नहीं आत्मा तक मुरझायी

धसी आँखों से गधळाई सी

इन्हें नहीं समझ दुख में क्या कहते हैं

फिर भी कह रही हैं-

“तेरे में क्या न्यारी बणी है

तन्नै देख, मन्नै देख, इसनै देख

सब म्हं बण री सै।”

एक दूजे का हाथ थामे

छाती से लगती

आसूँ पोंछती

चिंघाड़ मार रोती

सिकुड़ीं, गठरी-सी, एक लुघड़ी में बंधी

सिर पर हाथ धरती, संभलती, संभालती

चूल्हा-चौंका, सौण-कुसौण करती भी

आई-गई स्त्रियों के साथ फूट कर रो रही हैं।

 

दर्द की गांठ लिए देह के हर अंग से दुखी

इनके चेहरे से भी दुख बोल रहा है।

 

ये वही स्त्रियां हैं

जिन्हें रंगत के दिनों से जानती हूं

भाग-भाग काम करते देखती थी

मटके- बीस मटके पानी भरती

जोर से लड़ती, तेज हँसती, बेहिसाब नाचती, ऊँचे सुर में गीत गाती, 

मोटी आवाज़ में बोलती

कपास चुगती, ज्वार के गद्दे ढोती

गोबर की हेल रखे भी घंटे भर बतियाती।

 

आज सारी चुप हैं

किसी का बेटा जा चुका, किसी का भाई

किसी की माँ, किसी की जवान बहन

ये सब समय से पहले बूढ़ी हुई

एक दूजे को संभाल रही हैं

बार-बार अपने दुख बता

दूसरे के सुन रही हैं।

 

बस स्त्रियों ने ही संभाल रखी है 

स्त्रियों की दुख भरी दुनिया।

 

संभालना भी इन्हें ही है

पुरूषों में कहाँ इतना सब्र  

कि वे लगा सकें किसी रोती स्त्री को छाती से

और बार- बार सुनते रहें, वही दुख… वही दुख।

***

Shashikant Bane

(7)

मैंने गलत वक्त में बेटियाँ जन्मीं 

इन्हें खेलने के लिए आँगन तक नहीं दे पा रही

और दौड़ने के लिए गली

और तो और गंभीर बात यह है

मैंने एक पुरुष भी ऐसा नहीं जन्मा 

जिसे कह सकूँ 

मेरी बच्ची इस पर तुम विश्वास करना।

 

 ये कमबख्त चूजों सी हैं मरजाणियाँ

दोनों पैर तक एक साथ नहीं रख पाती

एक मिनट स्थिर नहीं खड़ी रह पाती

फ्रॉक मुट्ठी में दबा

कभी भी किधर भी दौड़ पड़ती हैं

बेहद जोर से हँसती हैं

स्कूल के बैंच पर 

नुक्कड़ चौराहे पर

छत्त की मुंडेर पर।

 

ये नहीं जानती 

इनका हँसना नोट किया जाता है

इनका आना, जाना, सब पर नजर रखी जाती है।

 

मुझे माँ होना डराता है

बेटियों की माँ होना तो और भी डराता है

यह वक्त अफ़सोस करने लायक भी नहीं है

अब जब धरती की नस्लें उदास हैं

अब जब धरती की फ़सलें उदास हैं

अब जब धरती खून से सनी है

अब जब धरती की औलादों की आपस में ही तनी है

अब जब आसमान में तारे धुँधले हैं

अब जब नहरों का पानी गंदा है

अब जब हवा में मिलावट है

अब जब कोई जगह ऐसी नहीं 

जो सुरक्षा के दायरे में है।

 

मैं अपनी बच्चियों को कौन सी तिजोरी में रखूँ 

कहो मेरे देश

कहो मेरे शहर

कहो मेरे गाँव

कहो मेरी गली

मुझे जवाब दो

मैं सुरक्षा चाहती हूँ 

अपनी बच्चियाँ के लिए।

***

 

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