अनुनाद

प्रेम के अभ्यास में मैं आकाश से खींच लाई इंद्रधनुष – कंचनलता जायसवाल

बोधिवृक्ष

 जब मैंने स्त्री को जाना

 जैसे छूकर मिट्टी को जाना

जैसे छूकर जल को जाना

 जैसे छूकर अग्नि को जाना

 स्त्री तुम हो बोधि वृक्ष 

सिद्धार्थ ने भी तुम्हारी परिक्रमा की होगी

 अपनी कामनाओं के धागे बांधे होंगे

और तुमने उसे ज्ञान का दर्पण दिखलाया होगा

 जब मैं नींद भर जागा

और सुख भर सोया

तभी मैं खुद को समझ पाया

और, ओ स्त्री !

यह तुमसे ही संभव हुआ

 कि मैं नींद भर जागा

 और सुख भर सोया

 ओ स्त्री ! तुम्हीं तथागत हो।

***

गूगल से साभार

 

अकेले में छोड़े जाने का भय

 अकेले रह जाने के भय की तरह

 जीवन एक दुःस्वप्न है

सुनहरे धूप जैसा दिन बीत जाने के बाद

 एक अंधेरी काली रात में लौट जाना

 रात-भर छूट जाने के भय से जीना है

मानो मंदिर के खंभों में खुसी यक्षिणी

आपस में बातें करती हों

स्वप्न में छूट जाना; दुःस्वप्न है

मानो मंदिर के खंभों में खुशी यक्षिणी

 रात में जागृत हो स्नान करती हों

 आपस में बातें करती हो

 और छूट चुकी स्त्री के

 पत्थर में बदल जाने की प्रतीक्षा करती हों

 स्त्री अक्सर छूट जाती है

 और इंतजार के दिये में परिवर्तित हो जलती रहती है

 किसी बरगद के नीचे, कहीं तुलसी-चौरे पर

 वह वापिस पलटकर भागती है और दूर जा चुके

 परिजनों को कातर आवाज़ दे पुकारती है

 (परिजनों का उसकी आवाज़ सुनकर अनसुना करना,

सिर धंसाए गुजर जाना

 मानों शवदाह गृह से लौट कर आए हों परिजन श्वेत वस्त्र में लिपटे हुए-अवसन्न)

***

गूगल से साभार

तुम्‍हारा चेहरा

 तुम्हारा चेहरा, पिता के चेहरे से जुदा है

 तुम्हारे प्रेम में तपिश है

 इतनी, जितनी में ज़रूरत की रोटियाँ सिक सकें

 मैं ऊनी शॉल और रजाइयाँ इकट्ठा कर रही हूँ

 जो सर्दियों में काम आएंगे

 तुम्हारे होने पर खनकते हैं एहसास के पाज़ेब

 सबसे सुन्दर गहना तुम्हारी कलाइयां हैं

 मेरे गले के इर्द-गिर्द

 मैं इंतज़ार का समुद्र हूँ

तुम्हारे लौट आने तक बनी रहती है खलिश प्रेम की

 महुए की खुशबू जैसे यादों में

 पिता अब दृश्य से बाहर जा चुके हैं

 दृश्य में अब तुम हो

 (अदृश्य पिता अब स्मृतियों में शेष हैं)

 रोटी और आग हमेशा से है

 प्रेम मैंने तुमसे सीखा (पाया प्रेम में इंतजार)

(कविता में पाने की बात नहीं की जाती है)

 खो देना ही पाना है

प्रेम के अभ्यास में मैं आकाश से खींच लाई इंद्रधनुष

और पिता से सीखा; अजनबियों पर भरोसा करना।

***

 

गूगल से साभार

व्हाट्सएप

 तमाम घरों से हंसने और बोलने की आवाज आ रही हैं

रात के नौ बजे हैं

बसंत दबे पांव गुजर रहा है

आज शनिवार का दिन है

लोगों ने अपनी व्हाट्सएप स्टेटस में हनुमान जी के सचित्र भजन लगा रखे हैं

वे ईश्वर के भय में जी रहे हैं

ईश्वर के प्रेम में नहीं

या फिर भय का ही दूसरा नाम प्रेम है

बुद्ध भी साधारण मनुष्य की तरह डरे थे

जरा, आयु और मृत्यु से

फिर करुणा ने ईश्वर का रूप धरा

और महात्मा बुद्ध कहलाए

और भय से न कि प्रेम के लिए स्त्री ने वापसी पर ईश्वर के चरण पखारे

और साथ हो ली सन्यासिनी के भेष में

यह सामान्य दिनों सी बात है

हंसना, बोलना, खुश रहना और ईश्वर को याद रखना

अन्यथा महामारी के दिनों में ईश्वर भी भयभीत था

संक्रमित होने के भय से मंदिरों में घंटियां सूनी टंगी रहीं

इसे संक्रमण काल कहा गया

मंदिरों में भक्त के बिना भगवान सुरक्षित रहे

भय की काली रात के भीतर मनुष्य ईश्वर से ज्यादा व्हाट्स ऐप के भरोसे जिया।

 ***

 

 

 

 

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