(1)
खुरदुरे हाथों वाली पहाड़ी लड़कियां
गर्भ में सीख जाती हैं, कितनी कसकर थामनी है दरांती
किस गोलाई में समेटनी है हथेली
ताकि काटी जा सके, एक भरपूर मुठ्ठी घास.
घुटनों चलते हुए बिठा लेती हैं,
दाहिने और बाएं हाथ का ऐसा तालमेल
कि बिना कुदाल भी बारीक़ी से मिटा दें खर पतवार के निशान.
बंजर खेतों के सीने पर लिख देती हैं हरे गीत.
ताम्बें के बर्तनों पर हथेली और राख के नाच से
ले आती हैं सुबह की पहली किरण सी चमक
अपनी उँगलियों के पोरों से रिसते खून से
पालतुओं की पीठ पर ममता लिखती हुई
इन खुरदुरे हाथों वाली पहाड़ी लड़कियों के हाथों की
सारी ताकत तब हो जाती है गायब
जब प्रतिरोध करना होता है
खुद पर उठते एक मरियल से हाथ का.
शराब की गंध मिले पसीने में नहाया हुआ
वो हाथ जिसे तब थामा था,जब नहीं गहराया था
हथेलियों का खुरदुरापन.
***
(2)
माँ कभी स्कूल नहीं गई
इसीलिए नहीं पढ़ पाई
कभी कोई किताब
बस दस तक गिन पाती है
उंगलियों में
पिता के साथ रही हमेशा गाँव में
सो शहर भी बहुत कम देखा
माँ बहुत कम लोगों से मिली
शायद ही कभी सुनी हो
किसी बहुत पढ़े लिखे की कोई बात
धीरे धीरे बूढी होती माँ
सारी उम्र अपने पालतुओं के बीच रही
इंसानों से ज्यादा
जंगलों में अकेले भटकती रही
एक एक मुठ्ठी घास के लिए
गुस्से, प्यार और दुःख के अलावा
शायद नहीं जानती कोई मानवीय भाव
नहीं समझती
शायद
नागरिक होने के अपने अधिकार
टीवी में ख़बरों वाले वक़्त
रसोई में सेंक रही होती है रोटियां
दुनिया का मतलब समझती है
अपना परिवार और गाँव
बहुत सरल और साहसी मेरी माँ
बस एक बात जानती है
कि जंगल, घर और कहीं भी बाहर
बिना दरांती नहीं जाना है
इंसान जानवर नहीं
कि सिर्फ भूखे पेट ही हमलावर हों
इंसान
कहीं भी घात लगाये मिल सकते हैं.
***
(3)
हम पहाड़ी औरतें
कुंडली में विरह का दसवां ग्रह लेकर जनमती हैं।
सौर के बारहवें दिन से माँ का विरह,
माँ जो सुबह निकले तो शाम को लौटा करती है
खेतों, जंगलों से सर पर बोझ और खाली मन लेकर,
उसकी छाती से रिसते दूध में पसीने का नमक घुला होता है
आंखों से पिता के विरह में गिरते आंसू
पिता जो यादों में दूर देस से लौटे एक चुप से आदमी की शक्ल में याद आते हैं,
आदमी जो प्यार कम और जेब से गुड़ चना ज्यादा देता है।
पिता जो दूर कहीं तराई भाबर में नमक और तेल कमाने में खप जाते हैं।
माँ चाचियों के साथ घास लकड़ी के लिए जंगल नापते हुए
घाटी में गूंजते उनके खुदेड़ (विरह) गीतों की उदासी,
शादी ब्याह के गीतों में गुन्थी छूटते मायके की टीस,
मेलों के बीच भी मायके लौटी बेटियों के आंसुओ से तर रुमाल
सावन भादों के कोहरे से अनवरत टपकता है वसंत का विरह
सर्दियों की स्याह ठंडी रातों में गूंजता है।
समझ लेती हैं कि ये दसवां ग्रह किसी जप से शांत नहीं होने वाला है।
हम पहाड़ी औरतें
ब्याह के तीसरे दिन सर पर टिन का सन्दूक लादे
पति को देस के लिए विदा करने जाती हैं
और लौटती राह कुलदेवता से मनाती हैं कि उसके भाग का विरह कुछ कम हो
और यही मनौती सालों बाद फौजी बेटे को विदा करके लौटते हुए भी मांगती है।
आखिरी वक़्त भी उनकी आंखों से विरह झांकता है,
जानती हैं कि उस लोक भी गाना पडेगा
“सौणा का मैना, ब्वे कन कै रैणा”।
(माँ ! सावन के महीने मैं कैसे रहूं?)
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(4)
फिर एक दिन,
जब हाथ में थोड़े से पैसे और पैरों में थोड़ी सी ताकत बची होगी,
मैं गांव लौट जाउंगी.
तुम भी साथ चलना.
देवदार और चीड़ की लकड़ी से घर बनाएंगे
घर, जिसकी छत पटालों की होगी और फर्श मिट् का
आँगन में फ्योली रोपेंगे.
बंजर खेतों में कुछ उगाएंगे, उम्मीद जैसा कुछ.
ताँबे की छोटी सी गागर में तुम पानी लाना, बाँझ की जड़ों से निकला,ठंडा पानी
मैं मंडुवे की रोटी बनाकर रखूंगी,
हिस्से तुम करना, बछिया, चिड़िया और बिल्ली के लिए .
हर शाम हम नई पगडंडियां तलाशेंगे
और लौटते हुए झोला भर के घिंघारू, किनगोडे, काफल ले आएंगे
मैं तुम्हे वो सब जगहें दिखाउंगी, जहाँ मेरी हँसी, मेरे गीत गिरे थे,
तुम बस मेरा बचपन उठा लेना,और वो रुमाल भी, जो बीस गते के मेले में कहीं गिर गया था
या मैंने ही गिराया था.
फिर एक दिन,
जब चैत के महीने में, मेरे आँगन की फ्योली खिलेगी
मैं सो जाऊँगी, और तुम सोचोगे, मैं मुस्करा रही हूँ.