(1)
चंद लम्हों का प्यार का मौसम
फिर वही इंतज़ार का मौसम
एक मौसम वफ़ा का फूलों का
इक जफ़ाओं का ख़ार का मौसम
सारे पत्ते वफ़ा के झड़ने लगे
जा चुका ऐतबार का मौसम
सारे मौसम बदल भी जाएँ पर
नहीं बदलेगा प्यार का मौसम
अब के आओ तो खोज कर लाना
खो गया है बहार का मौसम
गाँव वालों से ले के जाते हैं
शहर वाले उधार का मौसम
इस मुहब्बत की रुत में ढूँढ़ते हैं
नौजवाँ रोज़गार का मौसम
***
(2)
सूरज ने पकड़ी घर की डगर शाम हो गई
आया उफ़क़ पे चाँद नज़र शाम हो गई
हौले से छेड़ती है हवा शाख़-शाख़ को
चुपचाप ऊँघते हैं शजर शाम हो गई
तुम इंतज़ार करना मगर ये भी सुन रखो
तुम लौट जाना घर को, अगर शाम हो गई
वीरान जंगलों में कोई गीत क्या छिड़ा
झींगुर ने तान कर दी मुखर शाम हो गई
मंज़िल हो दिल में आँखों में जलता रहे चराग़
क्या हो गया जो राह में गर शाम हो गई
दुनिया के ताम-झाम में ये दिन बिता दिया
अब तो चलूँ मैं लौट के घर शाम हो गई
पानी पे अक्स पड़ने लगा आफ़ताब का
चंचल-सी हो गई है लहर शाम हो गई
***
(3)
रातों से समझौता करना पड़ता है
ख़्वाबों से समझौता करना पड़ता है
शायर हूँ, पर दिल का हाल सुनाने को
लफ़्ज़ों से समझौता करना पड़ता है
कुछ लोगों को मंज़िल पाने की ख़ातिर
राहों से समझौता करना पड़ता है
अजब दौर है जोगी और मलंगों को
शाहों से समझौता करना पड़ता है
***
(4)
ज़िन्दगी रोज़ छली जाती है
फिर भी उम्मीद जगी जाती है
चोट पत्थर से खा के आई हवा
पेड़-पौधों पे तनी जाती है
हँस के कुछ दर्द सिवा होता है
रो के आँखों की नमी जाती है
राज़ हम खोल तो दें रहज़न का
फिर मगर राहबरी जाती है
ख़्वाब आँखों में मिलन के लेकर
नाचती-गाती नदी जाती है
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(5)
उस बेवफ़ा की चाहत, कुछ है भी, कुछ नहीं भी
यानी मुझे मुहब्बत, कुछ है भी, कुछ नहीं भी
कहता था हाल सारा उसका उदास चेहरा
अब फ़ैसले पे हैरत, कुछ है भी, कुछ नहीं भी
उल्फ़त की रुत में हमने फूलों से ज़ख़्म पाए
फिर भी हमें शिकायत, कुछ है भी, कुछ नहीं भी
मुझको ज़बाँ तो दी पर आवाज़ छीन ली है
अब कहने की सहूलत, कुछ है भी, कुछ नहीं भी
दुनिया की मैं ज़रूरत बिल्कुल नहीं हूँ लेकिन
दुनिया मेरी ज़रूरत, कुछ है भी, कुछ नहीं भी
कहने को तौबा कर ली, पीने को पी भी लेंगे
मय से हमें शिकायत, कुछ है भी, कुछ नहीं भी
फिर चाँद रात है और तुम शहर में नहीं हो
इस से बड़ी अज़िय्यत, कुछ है भी, कुछ नहीं भी।
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परिचय
नाम – अभिषेक कुमार अम्बर
पता – मवाना, मेरठ, उत्तर प्रदेश