
आदमी भले ही खाली हाथ हो उसकी भाषा हमेशा उसके साथ होती है। आज से कई साल पहले जब हमारे बड़े-बुजुर्ग, पिता या दादा पहाड़ छोड़कर समतल पर आये तो उनके साथ उनकी भाषा मजबूती से खड़ी थी। मैदान की गर्मियों में ये उनकी भाषा की छांव ही थी जहाँ वे सुकून महसूस करते थे। वे जब मैदान की भाषा सुनते होंगे तो उन्हें वह मैदानों की तरह ही सपाट लगा करती होगी। उन्हें भाषा में अपने पर्वत के शिखरों और जंगलों की हरियाली की कमी अखरती होगी। ऐसे में जब उन्हें कोई अपनी बोली बोलने वाला आदमी दिखता होगा तो निश्चित ही ये उनके लिए बेहद सुकून भरी बात होती होगी। क्योंकि दुख वैसे तो किसी भी भाषा में बयान किये जा सकते हैं किन्तु यदि दुख अपने पहाड़ों से बिछड़ने का हो
यूँ तो एक भाषा से दूसरी भाषा या बोली में अनुवाद बहुत आम बात है किन्तु हम ये जानते हैं कि इसमें मूल भाव का कुछ न कुछ ह्रास हो जाता है। और फिर बोलियाँ अपने साथ अपनी तो उसकी सच्ची अभिव्यक्ति पहाड़ की भाषा में ही तो संभव होगी।
आंचलिकता को लाती हैं। इसके साथ-साथ उनमें अपना भूगोल भी होता है। जैसे गढ़वाली भाषा में एक शब्द-युग्म “ढीस” और “तीर” का है। पहाड़ों पर बने हुए रास्तों के एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ खाई होती है। इनमें से पहाड़ की तरफ वाला हिस्सा “ढीस” और खाई की तरफ वाला “तीर” कहलाता है। अब क्योंकि ये ढीस और तीर पहाड़ी रास्तों पर ही संभव है इसलिये इनका कोई ठीक-ठीक शब्द हमें इसके अलावा किसी क्षेत्र की बोली में वहाँ के संदर्भ वहाँ का लोक और रहन-सहन सब अपना स्थान पाते हैं और बोली को अपना रंग भी देते हैं। जैसे पहाड़ों के जंगलों में बाघ पाये जाते हैं जो कभी-कभा मैदान की हिन्दी में नहीं मिलता।
रिहाइश की तरफ भी आ जाते हैं। मुझे अच्छी तरह याद है बचपन में जब हम नाना-नानी के घर जाते थे तो रातों को बाहर निकलने की मनाही होती थी। इसके साथ ही गाय-बछड़ों को भी भीतर कर लिया जाता था। वहाँ ऐसे बहुत से किस्से प्रचलित थे कि रात को बाघ जंगल से बाहर निकल कर गांव की तरफ आता है। तो बाघ से पहाड़ के लोगों का सामना सदियों से होता आया है। इसीलिये बाघ का जिक्र हमें गढ़वाली भाषा के कई मुहावरों और लोकोक्तियों में मिलता है जैसे –
इसके अलावा पहाड़ पर लगभग सभी घरों में (पहले तो यह बात बुज्या कु बाघ
भावार्थ- भ्रम होने पर झाड़ी भी बाघ की तरह दिखती है।
किबुला कु नाग अर बिरला कु बाघ
भावार्थ- भारी भरम हो जाना।
शत प्रतिशत सत्य थी) गाय या भैंस होती हैं। ऐसा कृषि योग्य भूमि और पहाड़ों पर खेती में आने वाली मुश्किलों के कारण भी है कि पशुपालन पहाड़ों पर मुख्य व्यवसाय होता है। और वहाँ ये गाय या अन्य पशु पूजनीय होने के साथ-साथ लगभग परिवार के सदस्य की तरह ही प्रेम पाते हैं। यही वजह है कि वहाँ की बोलियों के मुहावरों में हम अक्सर उनकी मौजूदगी देखते हैं जैसे गढ़वाली बोली के ये मुहावरे-
अपणा गोरु का पैणा सींग भी भला लगदा
भावार्थ- अपनी वस्तु की ख़राब बात भी बुरी नहीं लगती है।
गाय न बाच्छी, नीने अच्छी
भावार्थ- किसी तरह की जिम्मेदारी न होने पर चैन की नींद आती है।
पहाड़ से मैदान की तरफ आये लोगों ने अपने जीवन में अपनी बोली को बचाकर रखा और उन्हें अगली
पीढ़ी को सौंपा भी लेकिन अगली या उसके आगे की पीढ़ियों की बोलियों में ये मुहावरे और लोकोक्तियां लुप्त होते गये। लगभग यही हश्र पहाड़ के लोकगीतों का भी हुआ। जैसे-जैसे वे पीढ़ियां कम होती गईं जिनके दैनिक जीवन का हिस्सा होते थे लोकगीत, वैसे-वैसे लोकगीतों की अनदेखी होती गई। लोकगीतों का प्रसार प्रमुखतः मौखिक माध्यम से ही होता आया है किंतु अब हम देखते हैं कि विवाह आदि के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों के लिए हमें किसी को बाहर से बुलाना पड़ता है।
पहाड़ी जीवन और लोगों का लोकगीतों से अभिन्न रिश्ता रहा है। यहाँ पर सिर्फ उत्सव या खुशी के ही नहीं बल्कि खुद (याद) और पहाड़ की तमाम दिनचर्या से जुड़े गीतों का अंबार रहा है। इनमें भी चैती, झुमैलो, बसंती और खुडेड़ गीतों के अलावा दाम्पत्य के, चरवाहों के, प्रणय के, चिड़ियों के और रितुओं के लोकगीतों की समृद्ध परम्परा रही है। इनमें से शायद बहुत से लोकगीत अब जनमानस की चेतना में विस्मृत हो चुके हैं। लोकगीतों का ये हश्र सिर्फ मैदानी भागों में आ गए पहाड़ी लोगों के साथ-साथ ही हुआ हो ऐसा नहीं है। इन लोकगीतों को पहाड़ों पर भी वैसा आश्रय और मान-सम्मान नहीं मिल सका
जिसके वे हक़दार थे।
यहाँ पर उत्तराखंड के लोकगायकों को याद करना समीचीन होगा जिनके प्रयासों से हमारी बोलियों के बहुत सारे लोकगीत आज भी बचे हुए हैं। और जिन्होंने उन्हें संगीतबद्ध करके इन बोलियों की मधुरता और पहाड़ी जीवन के सुख-दुख को सबके सामने लाने का कार्य किया। चंद्र सिंह राही, नरेंद्र सिंह नेगी, प्रीतम भरतवाण जैसे गायकों ने अपनी पीढ़ी को लोकगीतों से जोड़े रखा। नरेंद्र सिंह नेगी जी ने पुराने गीतों को सहेजने के साथ-साथ बहुत से नए गीतों की रचना की है। उनके ये गीत उसी लोकगीत की परंपरा से आते हैं जिनमें पहाड़ के एक आम आदमी की पीड़ा तथा अन्य सहज भाव अपनी अभिव्यक्ति पाते हैं। इन गीतों के असर का किस्सा मुझे कुछ इस तरह याद आता है कि बचपन में हमारे घर में नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीतों के कैसेट रहते थे जिन्हें हम टेपरिकार्डर पर अक्सर सुना करते थे।
एक दिन जब हमारे पड़ोस में रहने वाले एक भाईसाहब ने “तेरी पीड़ा मा द्वी आंसू मेरा भी तौरी जाला” गीत सुना तो उन्होंने आकर पहले तो उसका अर्थ पूछा और फिर वो कैसेट हमसे मांगकर अपने पास रख लिया। उसके बाद तो वह गीत उन्हें लगभग याद ही हो गया था। यह उन शब्दों और संगीत और शायद गढ़वाली भाषा में अन्तर्निहित माधुर्य के कारण हुआ होगा। इन कैसेट्स को बड़े मन से सुना जाता था और इन गीतों को सुनते हुए हमने अक्सर मैदान में रह रहे पहाड़ से दूर हो चुके लोगों को सिसकते भी देखा है।
हालांकि आज की तारीख में उत्तराखंडी गीतों की लोकप्रियता और भी बढ़ी है किंतु आज के गढ़वाली गीतों की भाषा से हमें ऐसे शब्द कम ही देखने को मिलते हैं जो पहाड़ों के अपने थे और पुराने गीतों में काफी इस्तेमाल होते थे जैसे घस्यारी (घास काटने वाली महिला), पन्देरा (पहाड़ों पर पानी का एक स्रोत), गाड (नदी), डाँडू (शिखर), चाखुड़ी (चिड़िया), जुन्याली (चांदनी), झेंवरी (पायल), यखुली (अकेली), तिबारी (घर का एक भाग), कोदू (मंडुवा), ओबरा (भूतल का कमरा), कूल (छोटी नहर) आदि। इसका एक प्रमुख कारण पहाड़ों पर बदलती हुई जीवन शैली भी है। सड़कों और रेल के माध्यम से, बेहतर संचार व्यवस्थाओं के चलते पहाड़ अब बेहतर तरीके से मैदानी इलाकों से जुड़े हुए हैं। पहाड़ों से लगातार हो रहे पलायन के साथ-साथ भाषा से भी उसके अपने शब्द कम होते जा रहे हैं और हिन्दी या अंग्रेजों के सामान्य
शब्दों से स्थानान्तरित हो रहे हैं।
इस सबके बीच युवाओं का एक वर्ग ऐसा भी दिखता है जो सोशल मीडिया के माध्यम से या फिर पहाड़ी लोगों के बीच जाकर हमारे लोकगीतों और संगीत को सहेजने का प्रयास कर रहा है। निश्चित ही उनका यह प्रयास सराहनीय है और आशा बंधाता है फिर भी लोकगीतों और लोकसाहित्य की विशाल विरासत को ध्यान में रखते हुए हमें यह समझना होगा कि सिर्फ इतना भर काफी नहीं है। इसके साथ-साथ सरकार की तरफ से भी लोक साहित्य, भाषा और संगीत को सहेजने के लिए ज़रूरी कदम उठाये जाने चाहिये।
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