आशीष मिश्र की ओर से मुझे यह सुखद संचयन प्राप्त हुआ। इसे भेजते हुए आशीष ने लिखा है –”मैंने सुबोध जी के इन ‘स्पार्क्स‘ को मेहनत से इकट्ठा किया है। सुबोध जी के
पास घड़ी की कमानी जितनी संवेदनशीलता और घड़ीसाज़ की चिमटी जितनी सूक्ष्म दृष्टि है।
वे उतने ही धैर्य से अनुभवों को विश्लेषित भी कर सकते हैं, अवरोह
की प्रत्येक कड़ी से गुजरते हुए ऐसा महसूस होता है। आप इस बात के क़ायल हो जाएँगे,
कि चीज़ों की स्थिति-अवस्थिति को एप्रोप्रिएट ढंग से पकड़ने की जैसी
क्षमता सुबोध में है वह बहुत विरल है। मैंने सुबोध जी से बिना बताए
इन्हें इकट्ठा किया और बिना उद्देश्य बताए इसके बारे में कुछ लिखवा भी लिया । मैं
चाहता हूँ कि आप इसे अनुनाद पर लगाएँ ताकि इसे इकट्ठा पढ़ा जा सके। और अगर यह काम
सुबोध जी को बिना भनक लगे हो तो उनके लिए एक सरप्राइज़ भी हो।” आशीष आपको यह करने के लिए शुक्रिया। ये फेसबुक टीपें भर नहीं हैं, इनमें समाज, राजनीति और साहित्य की नई पड़ताल है।
इस पोस्ट के साथ ही अनुनाद अब आचार्य रामपलट दास और पंकज मिश्र की ऐसी ही फेसबुक टीपें भी एक जगह प्रस्तुत करने का प्रयास करेगा।
ये पंक्तियाँ मेरे सबसे धुरीविहीन समय की संतानें हैं. यात्राओं के
क्षेत्रफल में अपनी उपस्थिति का आयतन तलाशते हुए ये कब पैदा हुईं कह नहीं सकता. मुखौटों
के खेल से ऊबा हुआ और इशारों की प्रतिस्पर्धा में घुटता हुआ, कब क्या शब्दों में गिरता-उठता रहा मुझे इसका भान न तो
उस वक़्त था न इस वक़्त है. हाँ, आग्रहों का कितना ही पानी इस
बीच बह गया हो पर स्मृतियों की वह सिलवटों से भरी रेत आज भी जस की तस है इस नम
भरोसे के साथ कि भले ही भाषा की हथेली से ये कीचड़ की तरह लिपटी हो पर जीवन की
मुट्ठी से ये फिसलेगी नहीं।
-सुबोध शुक्ल
अवरोह
(1)
सफलताओं से बड़ी त्रासदी क्या है कि जिनकी प्राप्ति हमारे अभावों को और गहरा
देती है।
संवाद में विकलांग लोग, अक्सर ही
चुप्पी के उन्माद के शिकार हो जाते हैं।
आदर्शों की बौखलाहट, अक्सर ही यथार्थ को बड़बोला बना देती है।
राजनीति के ग़ुस्लख़ाने में नंगी सिर्फ जनता होती है।
असुरक्षा की दीवार पर रेंगते सुविधाओं के सरीसृप, कितनी आसानी से आस्थाओं को कीट में तब्दील कर देते हैं।
(6)
अक्सर महसूस होता है कि विनम्रता एक अभिनीत तत्व है. यदि इसका निर्देशन,सम्पादन और प्रस्तुतिकरण ‘रसोद्रेक‘
पैदा नहीं कर पा रहा है तो ‘शो‘, फ्लॉप भी हो सकता है ..
शुचिता को पहलवानी की तरह इस्तेमाल करने वाले, अक्सर ही चरित्र को थप्पड़ की तरह चलाते रहते हैं।
आपकी मर्दानगी के मानचित्र में हमारी बुज़दिली की विषुवत रेखा भी मौजूद है
आर्य जो भले ही हमारे जीवन को 0 डिग्री बनाती
हो पर आपको भी बीच से काटती है।
वेतनभोगी सवालों के दफ्तरी जवाबों में, अपने
सपनों का प्रार्थना-पत्र लिए यह जीवन, क्या एक अदद ‘रिश्वत‘ भर है ?
मनोरंजन एक पॉलिटिक्स है. इस खोल में आप पूरी लगन, मासूमियत और शिष्टाचार के साथ बलात्कारी होने से लेकर
हत्यारा बनने तक का मज़ा ले सकते हैं. और यकीन मानिये आपके प्रेमी और प्रतापी होने
में ज़रा भी आंच नहीं आयेगी।
बहुधा, नैतिकता बेनामी संपत्ति की तरह इस्तेमाल की
जाती है. आमतौर पर इसे दूसरे के नाम पर ही खरीदते-बेचते हैं।
पशुता एक लत है और मनुष्यता एक शौक. देखा यह भी गया है कि लोग अपनी लत के
बेहद शौक़ीन होते हैं।
यह वक़्त, ईमानदारी को महामारी और सत्य को संक्रामक बना
डालने का है।
(14)
स्मृतियों के मर्तबान में बंद सपनों के जीवाश्म, यथार्थ को भी पुरातात्विक बना डालते हैं।
यह वक़्त घटाटोप नायकों के मूसलाधार पतन का है. क्या अभी भी आप की आशा का
दुर्भिक्ष हरा-भरा नहीं हुआ ?
एक अनंत
विलाप में तब्दील होते जा रहे इस जनतंत्र में ‘हम‘, सिर्फ एक ‘शव‘ का नाम है।
(17)
इतिहास को
दंतकथा में बदल डालने का षडयंत्र वर्तमान को भी अफ़वाह में तब्दील कर देता है ।
(18)
आत्ममुग्ध संदेह, आत्मघाती
विश्वास को ही पैदा करता है।
(19)
भय की कुंडली में अपने पश्चाताप को बांचता जीवन, चंद अपदस्थ सुखों और असहमत दुखों के प्रतीक्षातुर
मुहुर्त के सिवाय कुछ नहीं होता।
(20)
प्रतिस्पर्धाओं की ज़िल्द बांधते , उपलब्धियों की भूमिकाएं लिखते और औपचारिकताओं के शीर्षक चुनते, पता ही नहीं चलता कि जीवन की किताब कोरी की कोरी ही रह गई।
(21)
स्मृतियों में छंद, स्वप्न
में विज्ञान और यथार्थ में अलंकार खोजने वाले अक्सर ही जीवन की कविता से चूक जाते
हैं।
(22)
जीवन, मजबूर विनम्रता की काहिली और औचक हिंसक हो जाने
की लाचारी के बीच झूल रहा है। लगता है जैसे मनुष्य होना सिर्फ एक पेशे का नाम है।
(23)
यह दौर पेंटहाउस नायकों का है, जिनकी ड्राइंगरूम शालीनताओं के बिलकुल क़रीब से ही उनकी बाथरूम मर्यादा और
बेडरूम नैतिकता के भी गलियारे निकलते हैं।
(24)
दुःख कोरे काग़ज़ की तरह होता है, और सुख अंगूठे की तरह. ज़िन्दगी की ज़मीन कितनी दफ़ा गिरवी रखी जाती है वक़्त
के मुनीम के पास।
(25)
विजेताओं से भरे इस विश्व में, प्रेम एक पराजय का नाम है।
(26)
भूगोलों की लड़ाई में, हारता
हमेशा इतिहास ही है।
(27)
धंधे के कौमार्य को रिंकल-फ्री रखने के लिए विचार के नाजायज़
गर्भ को गिरवाते रहना पड़ता है. अब आप तैयार हैं अपनी गदराई निर्भीकता, कमसिन क्रोध और बाली उमर आदर्शों के लिए. नहीं तो
स्टे-फ्री आत्मविश्वास, लाइफबॉय मर्दानगी और हीरो-होंडा
राष्ट्रीयता भी ट्राई की जा सकती है।
(28)
ईमानदारी को आतिशबाज़ी और प्रतिभा को गुलेल की तरह इस्तेमाल करने
वाले अक्सर ही तर्क को आखेट में बदल डालते हैं।
(29)
आत्महत्या, एक हथियारबंद
सामूहिक वंचना के खिलाफ़, निजता का निहत्था हो जाना है।
(30)
सफलताएं बड़ी ख़ुदगर्ज़ होती हैं,तिनका-तिनका यथार्थ बुनते हुए,कतरा-कतरा स्वप्न
उधेड़ती जाती हैं।
(31)
विकास की तीव्रता, क्षरण
की मात्रा को भी सुनिश्चित कर देती है।
(32)
मजबूरियों की भी अपनी तिकड़म और चालाकियां होती हैं वैसे ही जैसे
विकल्प के अपने धोखे और नादानियां।
(32)
दिवंगत सरलताओं के बीच अहंकार का शान्ति-पाठ चल रहा है आजकल।
(33)
निरपेक्षता एक रोमान ज़रूर है पर पक्ष तय कर लेने की अपनी
त्रासदियाँ हैं।
(34)
यह ईमानदारी के ‘बेस्टसेलर‘
और आम आदमी के ‘एडल्ट‘ होने
का दौर है।
(35)
सत्ता के ख़िलाफ़ होना बग़ावत है और जनता के ख़िलाफ़ होना जम्हूरियत।
(36)
कविता की ब्लैक-मार्केटिंग के दौर में, आलोचना अपनी तरह से हफ्ता वसूलती है।
(37)
आत्मविश्वास बड़ी बेशर्मी के साथ साधने वाली चीज़ है।
(38)
अनशनों की कंज्यूमरशिप जितनी तेज़ी से बढ़ी है, आने वाले दिनों में या तो उसका प्रोडक्शन ठप्प होने जा रहा
है या फिर सेल वेल्यू शून्य होने जा रही है।
(39)
समूह की
चेतना को झुंड के कारोबार से अलगाने के लिए पक्षधरता और पालतूपन में फ़र्क पता होना
चाहिये।
बहुत गहरी बातें
आशीष सर ने यह जरूरी काम किया है। सुबोध सर की सूक्ष्म दृष्टि देखते ही बनती है।