अनुनाद

फसक / ज्ञान पंत

courtesy : Bhaskar Bhauryal

  फसक …..          

    हमा्र पहाड़ में एक फसक भै और जो मस्तु फसक मारौं, उ फसकी भ्यो । उसी फसक मारण एक कला छ, आर्ट छ जो सबनां पास नि हुनि । फसक मारण ले सबना बसै बात नि भै । पुर गौं में तुम छियूल ल्ही बेरि ले चाला त बा्ड़ मुस्किलैलि द्वि- चार मिला्ल जनन ” फसकी ” खिताब मिली होल् …. किलैकि आपणि बात त सबै है करनीं और समझै ले दिनीं मगर फसकी खाल्लि बात नि करन, उ क्याप “बाइस्कोप” दिखूँछ । सिद बात ‘क ले त्वरित नाट्य रुपान्तर करि बेरि यसिकै प्रस्तुत करौल कि सुणनेरन कैं लागौल जांणि यो घटना वी आंखनां सामुणि घटित हूँण लागि रै या उ मा्ल बजार ‘क सिनेमा हाल में बैठि रौ । कभै – कभै बात – चीतन में फसकी रस, छंद, अलंकार, का्थ, क्वीड़, कंथ, रामायण, गीता, महाभारत, वेद, पुरांण, कुरान – सुरान, बाइबिल …. सब सन्दर्भ प्रयोग करि बेरि जागर जस लगै दिंछ और सुणनेरन लागौं कि उनैरि आपणनैकि फसक है रै कै । फसक कैं तुम निखालिस टैमपास ले नि कै सकनां । मैं त ” टैक्स फ्री इंटरटेनमेंट ” कूँछ जै मै अक्सर के न के सीख ले मिलैं ।

               म्यार ताऊजी छी ! नाम बतै बेरि विवाद में केहिं पड़ूँ । तुम यतुकै समझ ल्हियौ कि उनैलि जिंदगी में जतु संघर्ष करौ, उतुकै तरक्की ले करी …. । उनैरि योयी खासियत छी कि जां ले बैठा्ल मिसिरी न्याँत घुल – मिल जनेर भ्या । पहाड़ ग्या त …… अरे काखी, तु आजि ज्यूनै छै ! मैलि सोची, मरि गेन्हेली कै ? 

— कब आछै मुस्वा, तेरि बलै ल्हियूँन पोथा – ते कभै अकल नि आ …. और कून – कूनै काखि अंङांव हालि ल्हीनेर भै ताऊजी कैं !  उं आंखीर जाणैं गौं में कैका भतेर ले जै बेरि चहा – पाँणि, खांण् – पिंण सब करि उनेर भ्या । जिन घरन में झगौड़ ले हयी भ्यो त ताऊजी वां जै बेरि सल्ला करै दिनेर भ्या …..  यां औ रे नबुवा ? कि बात भै रै, शाला ज्यादे दिमाग खराब हरौछै त बता ? लगूँ भेलन लै ला्त …….. क्याच्च पाड़ि मुखै लै कै दिनेर भ्या। नब्बू खिसैन पड़ी त बला्ण ….ना दाज्यू के बात न्हां, गलत संगत में न्है ग्यो छियूँ, उनैलि पिवै दे, तबै काखि नाराज है पड़ी । मैलि ले के कै देन्होल् । आ बटी तस नि हौ   …. बस फिर सब पैलियै की न्यांत है जनेर भै …. ।

        यो ले उनैरी फसक छ …… यार मुन्ना ए बखत म्यार मन आ कि हरिद्वार जाई जावौ। मैलि कै छैं के नि कै और सिद बस पकड़ि, बा्ट लागि गियूँ । इज कूनीं रै … ते अचानक कि है पड़ौ, आजि चारै दिन है रईं , घर ऐयी । उ पछिल पड़ि गे न जा, न जा कै मगर मूँ ले कां मानिनेर भयूँ । मैलि कै, इजा! साबुलि दिदी सा्स बेयी रड़ि पड़ी, खुट टुट रौ बल । भिनज्युनौ जबाब ऐ रौ कि हल्द्वाणि जा्ंण छ … वयीं जा्ण लागि रयूँ । फिर इजैलि ले के नि कौय और डबल ले दि द्या पैं ।

         हरिद्वार पुजन – पुजनै रात है पड़ी कूँछा । आ्ब जां ले जावौ – होटल वा्ल कै दिनेर भ्या … खाली नहीं है – सब फुल है । धरमशा्ल ले सब भरी भ्या कूंछा …. … हुन – हुनै रात’ क नौ बाजि ग्या । हरिद्वार ले के खास जि भै … गंगा ज्यू वील वकत भै नन्तरि यहै भल त बाग्शेर छ हमा्र । आ्ब बड़ि मुस्किल है गे, मैलि ले आस नि छाड़ि पैं । ए जा्ग गयूँ, द्वार खटखटैयीं …. एक अदगयी रानौ भ्यार आ । वीलि मूँ नि पछयाणियूँ मगर मैलि अन्यार मैयी अंदाज लगा कि हो न हो यो मुया  गुमनियौ च्योल हरीश छ ! एक यो बिचार ले आइ  हाँ म्यार दिमाग में …..

— हाँ दादा, जगह नहीं है ….. सब फुल ठैरा हरिद्वार, साला रात में कौन देगा जगह हो ! आप कहीं को और जाओ ……। मैलि कौ, अरे तुम पहाड़ के हो ? हम भी वहीं के है, रात काटनी है …. बस यतु कूँण छी, उ शा्ल फाटि पड़ौ । होय हो हम कुमाऊँ के हैं, बेरीनाग के …..

— अरे तु शा्ल गुमनियौ च्योल हरीश भये के ? मैलि अंदाजन तुक्क मारौ और सोचौ अगर नि ले होलो त म्यार कि ल्ही जा्ल । कैं नि मिललो त स्टेशन पनै खिती रुँन …. । उ बला्ंण 

— अरे गुरु ! कां बटी ऐ पुज्छा रात में हरिद्वार ? वील म्यार खुट पकड़ि द्या हो । झोल् टिप बेरि भतेर होटल में ल्हि गो, बैठा और कूँण लागौ …

— गुरु तुम भैठौ, चहा पियौ …. मैं के इंतजाम करुँ मनेजर छैं कै बेरि । … 

— देख् , मैं मनेजर सनेजर कै नि जांणन्यूँ …. गौं में नि ऊँण दियूँ ते समझ ल्हियै ! मैलि यसी कै कौ त उ आजि बला्ण …

— अरे गुरु कसि बात करि दे, तुम चहा पियौ …… और चाखै घड़ि में हरु ऐ पुज पैं । गुरु तुमन तकलीफ होलि, चौमंजिल में एक इमरजेंसी लिजी धरि राखौ, तुम वयीं हिटौ और मेरि झोल् झंटी ल्ही बेरि चौमंजिल पुजै देछ । ऐल अगर उ सरग ले पुजै दिनो त कतु भल हुँछीं ! मैं सोच पड़ि ग्या कि हरिद्वार वाकई में हरी को द्वार छ …..तब जांणै नै – ध्वे हरु र् ‘वा्ट ल्ही बेरि ऐ गोछी ।

—  गुरु ! चोख् समझि बेरि खै ल्हिया हाँ , यां यसो  भै …..  मौक मिलौ त मैं ले कां चुकनेर भयूँ । कै दे, यार मैं र् ‘वा्ट खै ल्हियूँ, भ्यार भात न खान्यूँ ।  मनै –  मन सोचौ कि यां पेटन उमांव ऊँण लागि रौ और यै शा्ल कैं चोखैकि है रै । ऐल सड़क में मेस्तर ले बणूँनो त अमृत समझौ …. फिर हरु त आपणै भै हो ! म्यार लिजी त भगवानै छी । 

      खै, पी बेरि जब उ कंबल दिंण ही आ त मैलि पुछ ….. यार साँचि – साँचि बतैये, के हरिद्वार में सबा – सब होटल, धरमशा्ल यसी कै फुल रुनीं या तुम लोग मैंस देखि बेरि बात करछा ? 

— तमि गुरजी भया ! तमैलि पायि राख्छा , झुठ नि बलां ….  यां जो ले बुड़ मैंस उनी…. सब  मरणां लिजी ऊँनीं ! तीन दिन कौल और निकावण धो है जानीं । कयीं बीमार है ग्या त मुसीबत और मरि ग्या त फिर पुलिस वा्ल भौतै परेशान करनीं । दुन्नी भरी बयान – सयान और डबल खर्च अलग ….. यै वीलि गुरु ऐकोल् बुड़ कैं क्वे होटल या धरमशा्ल वा्ल ठौर नि दिन । सिद भजै दिनीं मगर बुड़, उ लै ऐकौलकट्टू बुड़ा लिजी त कुच हा्थ ल्हीनेर भ्या । भौत केस हुँनीं हो यां तास् …… ।

       और संयोगै कई जाओ कि साँचि में यो फसक सुणांयी बाद फिर ताऊजी मुस्किलल आठ म्हैंण ज्यूँन रयीं ! शैद उनन आभास है गोछी मगर मूँ लै पगालै भयूँ । मैलि सोचि, ताऊजी खाल्ली फसक मारणयीं कै !

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अपर — लोअर

                पैलीं पहाड़ जाण् आफत छी और जनन् मोटर लाग्छी, उनार् लिजी त नरक भै हो नरक मगर के करछा ! बाबूनैकि मजबूरी छी कि आम् पहाड़ मैयी रुनेर भै और बुड्याकावौ शरीर, जब – तब के न के लाग्यै रूँछीं ….. जब ले घर बटी जवाब आय् या चिट्ठी पुजी, हम लोग बोरा बिस्तर बादि बेरि घर हुँ लांगा बाट् …. हमन् जनरल बोगी में सामान सहित ठोसणैं जिम्मेदारी जगथयी प्रयाग दत्त भट ज्यूनैकि भै किलैकि अर्जेन्ट रिजर्वेशन कां मिलनेर भै …. प्रयाग ‘दा द्वि घण्ट पैलीं जै बेरि जाग् घेरि ल्हीनेर भै। उ बाबूनांक् दफ्तर मैयी काम करछीं । ..लखनौ बटी नैनताल ऐक्सप्रेस में हल्द्वाणि और वी बाद फिर अघिल’कयात्रा।
              घर जाँणै बात ले यां पन् खुशबू न्याँत फैल जनेर भै और वी बाद बिरादर लोगनां ‘क पुन्तुरि (पार्सल) और सवाल – जवाब ले ! कै न बतावौ त मुसीबत और बतै बेरि ले आफत …. द्वि पैकेट रियूड़ि एक कपड़ा थैल में सिंणि बेरि नाम लेखि गे कि तल्ला गराऊँ के हरी किशन शास्त्री, कैले पौ भरि तमाख् कैं चार पन्नी और फिर थैल में लपेटि बेर लेख् कि सिमागाड़् के कुतना दाज्यू … । कैले धोति भेजि त कैले कुर्त पैजाम् …. यासै पाँच – सातेक पुन्तुरि नौव छै, रामबाड़ि और बजेरि वाल्नाक् पैलिए तैयार है जांछी और ल्हि जांण् ले पंणछी। उन् दिनान पहाड़ जांण् में एक ठुल्लो सन्दूक, होल्डाल, एक – द्वि थैल मामूली बात भै …. योयी बात घर बै लखनौ ऊँण में ले हुँछी । क्लेशक्वायर गोबिन्दा इज भट, गौहत , भांग कुल मिलै बेरि चार किलो पुन्तुरि बँणै दिनेर भै। तारि दत्त ज्यू आठ दसेक चूका दांण् लूनेर भै … च्याला तु ले खै ल्हिए और गोबिंद कैं भिजै दिए। चार्रै ओखण छन् केदारी – तु जग्गुवा ड्यार पुजै दिए …. क्वे चार पिंगाव् ककाड़न् लि आल …. केदारी ऐल साल ककाड़् लागै न्हांतिन् । कयीं लागि ले त यो नौव छैं शेक्खू नि रुँण दिनेर भ्यो …. अधरात मैयी रानौ चोरि ल्हीनेर भ्यो – बाड़् मुश्किलैलि यो लुकै राखीं कि तु आलै त रेब्बू ले मिल् जाल् …. फिर कान् लै खूरु – खुर कौल ” द्वि त्यार ले छन् हाँ । अरे के बात न होल्डाल में सिरान मुणिं धरि ल्हियै यार ” …. बाबूनैलि कभै ना नि कौय् । हमैरि आम् सिरौव, मड्डुवौ पिस्यूँ , भांग्, भट, गौहत, मिसिर ….. मणीं – मणी सब बादि दिनेर भै …. । लखनौ ऐ बेरि इन पुन्तुरिन और सामान कैं बीरनगर, नजरबाग, सदर, नहर कालोनी, राजा बजार पुजुणैं ड्यूटि मेरि भै। द्वि एक बखत ककाड़ और नारिंग थेची ले ग्या लियूँण में मगर कभै कैले नक् नि मान् । …. अहा ! पुन्तुरिन् में कस् प्रेम हुन्यौल् ! तबै त कैं कै ले लूँण में या ल्हि जांण् में कभै क्वे परेशानी नि हुनेर भै ! बाद – बाद में त हमारै गौं लोग कूँण बैगेछी …. चचा, मूँ वाया बरेलि जूँन, आब् पत्त न कतु रुकण् पणौं … । नब्बू कुनेर भै ” जेड़्जा, हल्द्वाणिं में सिकेट्टी शाल् ऐ रौ बल् । वीलि ऐन बखत मीटिंग लगै दे .. आब् घर बटी खालि हाथ जून नन्तरि मैं केदार’का लिजी त्यार सिरौव जरुर लिझै दिन्यूँ ….” । दिगौ ! बखता दगाड़् कतु चीज बदयी जानीं जो जरुरी ले छ । अगर बदलाव नि होलौ त फिर तरक्की कसिक् होलि ? मैं विकास विरोधी न्हाँत्यूँ और नयी विचारनौ्क स्वागत करुँ मगर हमैरि प्रगति में मानवीय संवेदना और ” पहाड़ ” अचानक हरै पड़ौ …. योयी मैं गट् लागौ ! नान्तिनैलि स्थायी पत्त में मकान नं० और फ्लैट नं० कब लिखण् शुरु करि दे … मैं पत्त नि लाग् हो …. आब्  पुन्तुरि ले चिट्ठी की न्याँत हरै गियीं ! पार्सल आन लाईन में कोरियर उनेर भै मगर उ में ” उ ” बात त कभै नि ऐ सकनेर भै …. !

        …….  हल्द्वाणि जांणै त ठीक मगर अघिल ‘कि यात्रा कि भै यातना समझौ ! पुराणिं बात है गे, उन दिनान् न त सड़क ठीक – ठाक छी और न ततु गाड़ि भ्या । टैक्सी ले भ्या मगर सबनैकि बसै बात ले नि भै कि टैक्सी में जावौ …. आम पहाड़ि त ” के एम ओ ” यानी कुमाऊँ मोटर्स ओनर्स यूनियन वाल्नैकि गाड़ि में जांछी । गाड़ि’क डिजाइन ने अजीब छी … आम् कुनेर भै ” केमो ढोट् ” । भ्यार कै चावौ त लाग्छी जांणि अल्लै भ्याव छुटां ! यमै ले ड्राइवरै तरफ मूँख कर बेर बैठणीं पाँच सीट ” अपर ” कयी जांछी जो पैलियै भरि जांछी । वी बाद गाड़ी समानांतर द्वि लम्ब फट्याव् जास् सीट जमै आमुणिं- सामुणिं मूँख करि बेर लोग – बाग बैठछीं और बीच में सामान भरी रुनेर भै ….. ” लोअर ” सीट कयी जांछी।  मिडिल सीट ले हुँछी या नि हुँछी … मैं याद न्हाँ …. । उ में ले आदु सवारी लिजी सीट नि भै त नान्तिन कैका ले काखियूँन बैठ जनेर भ्या … हम तीन भै – बैणीं और इज मिलै बेरी चारन् कैं बस लाग्छी … इज त लाल कूँ बटी पहाड़ देखते वाक्क – वाक्क करनेर भै …. एक बाबू छी जनन् बस नि लाग्नेर भै। एक तरफ ड्राइवर सैपले गाड़ि स्टार्ट करी ….. भुर्र भुर्र … हौंहौंऔंऔं … इष्ट देवन् हाथ जोड़् , आपण कानन् द्विय्यै हाथ लगैयी और लाग् बाट् …. रिंङन् – रिंङनै ज्योली कोट, भवाली बाद गरम पाँणिं में गाड़ि ” लंच ” करनेर भै । वां पकौड़ि, रैत और पय्यो – भात …. जनन् मोटर नि लाग्छी, उ खूब पचकूनेर भ्या मगर ईजै लिजी राम भजो । एक घूट चहा जबरदस्ती पियो ले त अघिल जांण् है पैली पल्टी जनेर भै … हम लोगन् बाबू के न के खवै दिनेर भ्या । इज कै त यो ले पत्त निहुनेर भै कि को कां बैठ रौ … एक बाबुनां काखियून और द्वि लोग मिलेटरी वाल्ना दगाड़ बैठ रुछियां … उन् दिनन् ले मिलेटरी वाल्नौ भौत भरौस भ्यो । जो गाड़ि में द्वि – चार आर्मी वाल् भये त समझौ उनैरि यात्रा सपैड़ि गे … गाड़ि खराब है जावौ, बाट् पन् के अवरोध आवौ या क्वे बीमार है जावौ … सब आर्मी वाल् ठीक करि दिनेर भ्या । गाड़ि में बैठण बटी उतरण जाणै … सबनाक् मददगार भ्या …. हम नान्तिन् उनार् थिकावन् गंद करि दिनेर भयाँ मगर कभै कैले नक् नि मान् … गरम पाँणि बाद अल्माड़ रूकनेर भै । वां लोग बाग बाल मिट्ठै खरीदनेर भ्या। वी बाद रुकन – रुकनै गरुड़, कोशि होते गाड़ि ब्याव- ब्यावा टैम में बाग्शेर पुज्छी । सबनाक् बुर हाल है जनेर भ्या जाँणि गाड़ि में है नै, बोरिन् है भ्यार निकायि राखीं … इज त एक घण्ट बाद होश मे उनेर भै । होटल में सामान धरि बेरि सब लोग नांण – ध्वैंण सरयू मैयी करनेर भ्या । हमन् ले एक रात बाग्शेर रुकण् पणछीं किलैकि दिन में द्वि बाजी बाद बेड़नाग – गंगोलिहाट उज्यांण गाड़ि नि जांछी । दुहार् रत्तै आठ बाजियै गाड़ि में हम बेड़नाग हूँ जांछ्या …….. उन दिनान् बाग्शेर में खटमल भौतै लाग्नेर भ्या हो !

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अपनों के बहाने …… 

              मुझे याद है भात खाने के टैम पर हम घर पहुँचे होंगे क्योंकि आमा तब सिंगल धोती में ही देहरी से बाहर आ गई थी। बेचारी का चोखा – पोखा सब धरा रह गया। अब ये खाना वह नहीं खा पायेगी और अपने लिए उसे चोखा यानी दूध में सने आटे की रोटियाँ या चार पूड़ी बनानी होंगी ….. कुछ ऐसा ही उसने चाची को भी बताया है …..। वहाँ के ब्राह्मण घरों में रसोई में जाते समय आचमन सा, ठिया से बाहर न बैठना, रिस्यार को न छूना, छू दिया तो छूँत हो जाना, हलवाहे को उसके लिए निर्धारित वर्तनों में ही देहरी पर भोजन देना, छू जाने पर पानीं छींटना और खेतों में हल न चलाना, ठाकुर, जिमदार, छोटी – बड़ी धोती, सम्बन्धों को लेकर अकड़ …… आदि कुरीतियाँ मुझे पहले भी कभी ठीक नहीं लगीं थीं और आज तो सवाल ही नहीं उठता है । अजीब स्थितियाँ थीं कि हमारी जीवन यात्रा के सहयात्रियों से ही परहेज …… इसका खामियाजा भी खूब भुगता है पहाड़ ने ! वर्तमान के हालात में इन सबके योगदान को नकारा नहीं जा सकता ……  खुशी है कि स्थितियाँ पहले से कहीं बेहतर हुई हैं और लोग भी समझ रहे हैं ।

      नमस्कार के उत्तर में आस पड़ौस की जितनी भी मेरी आमाएं लगतीं थीं, सभी बाबू के गाल मलासते – मलासते आँसुओं से खुद को भरतीं रहीं । बोज्यू लोग दूर से ही पिताजी से कहतीं …… भल आछा लला ! मुझे कोई हाथ लगाता तो मैं झिटक कर माँ के करीब चला जाता …. कि इनसे बदबू आ रही है। ऐसी ही अकल रही होगी उन दिनों ! पहली बार मैं अपनों के बीच कुछ ऐसे ही पहुँचा था । माँ टोकती तो आमा और उसकी सहेलियाँ डाँट देती ”  …. के न कौ ब्वारी, नान्तिन भै, अकल जि छ ते कैं ! लखनौ में कां देखि भ्या तैलि, कि जाँणों त – शिबो ….. ” मेरे मुँह चिढाने पर वे खुश होतीं और बची रये कहती। बाद में एक दो पड़ौसी आकर कहती …. ”  मेरे से बास नि आ री –  देख तो पोथा ~ आआआआ~~ गोदी आ जा एक्की बार ” …..  मैं कहता , ये पोथा – पोथा क्या होता है ….. तो वे कहतीं ….. यां ऐस्सा ही होत्ता है । तु पोथा हुआ हमारा । भलो भल पोथा …. और मैं माँ को देखते हुए खी –  खी हँसता तो वे पूछतीं….. ब्वारी, भौ ठा्ठ करण लागि रौछै ? के बात नै ….. इस तरह मुझे तीन चार दिन लगे थे अपनों को जानने, पहचानने और समझने में भी ….. माँ के साथ तो छोटी – बड़ी और उसकी हमउम्र सभी गले लगकर बहुत देर तक देखतीं रहीं थी। उस समय मेरे लिए छोटी लड़कियों को भी धोती में देखना अजीब लगा कि ये मेरी दीदी, बुवा कैसे हो सकतीं हैं ! अपनी आधी से भी कम उम्र के बस ‘का ( बसन्त बल्लभ पंत ) को जब बाबू ने नमस्कार कर मु्झसे कहा …..  बड़बाज्यू के पैर छूकर प्रणाम करो तो ….. मैं उँगली दिखाकर हो – हो करते हुए आमा की गोद में दुबक गया ……. अपनी आमा से मुझे कभी बास नहीं लगी । मैं उसके मुँह में उँगली डालकर टूटे दाँत गिना करता …… । 

      आस पड़ौस के बहुत से लोग और बच्चे – बच्चियाँ हमारे भीतर जाने से पहले ही चा्ख में बैठ गये थे । बगल से चाची सबके लिए पीतल के गिलासों में चाय बनाकर ले आयीं थी …. ब्या्ल ( काँसे का कटोरा ) में चाय डालकर फू – फू करते हुए आमा चाय पिलाने लगी तो मुझे ” वाक्क ” सा कुछ बाहर आने को हुआ ……  इतनी मीठी तीन तार वाली  चासनी जैसी चाय पीने में और किसी को दिक्कत नहीं हुई । इसी बीच आमा ने फरमान सुनाया कि नान्तिनौ, आजि सामान नि ऐ रै । तुम ब्याव कै ऐया …. और के लूँ वाँ बटी बोकि बेर –  केदारि रियूड़ि लै रौन्योहोल …. बड़े तो भेंट करके चले गए लेकिन बच्चों को लगभग खदेड़ना पड़ा था ….. पैरों तक मैक्सी नुमा झगुला पहनी गंग – लाटि को तो आमा गरियाते हुए देहरी पर ले गई ….. ” ते लाटी पेटन कफ्फू बासि रौ । द्वार जा रवा्ट दमकै बेरि त्योर पेट नि भर त आ्ब कभै नि भर …. बे – कामैकि मर्रि रै ! खाँण’कि काव….  ” जब कि दो रोटी के ऐवज में आमा के सभी कार्य वही करती थी  …. कौन जाने आमा के लाड़ जताने का एक तरीका ऐसा भी होता हो ! हमारे घर तो नहीं लेकिन मैंने अपनी ही बखाई के दो घरों में गरीबी देखी ही नहीं, अनुभव भी की है…… ऐसा ही एक तिरलोकी पंत जी का घर था । गंगा सहित उनके परिवार में चार लड़कियाँ और दो लड़के थे । गंगा उसी परिवार से थी।  मुझसे छोटी, बहुत छोटी लेकिन रिस्ते में गंगा बुआ …..  बोलने में लड़बड़ाट करती थी तो छोटे – बड़े.सभी उसे ” ओ, गंग ला्टि ” कहते थे । घरवालों को उसकी तनिक भी चिन्ता न थी । माँ से उसकी दोस्ती इसलिए भी हो गई थी कि रात – बेरात साथ के लिए वह सदैव उपलब्ध रहती ………. । शिबौ ! हमारी चौड़ी देहरी पर जाने कितनी रातें उसकी भोर के इंतजार में ही बीतीं होंगी ! माँ की पुरानी धोती को लपेटे वह सभी बहनों में सुन्दर दिखती थी । कुछ और जरुरी कपड़े भी माँ ने उको ही दिए थे ……  बाबू का नियम था कि लखनऊ से चलते समय बाँटने के लिए खूब सारे पुराने कपड़े लाते । केशर’ दा का कोट के लिए जवाब आया था तो बाबू ने खादी भंडार से बंद गले का नयाँ कोट तब चौंतीस रुपये का छूट में लेकर रक्खा हुआ था कि होली में लेकर जायेंगे लेकिन हमें जल्दी जाना पड़ा । बाद में केशर ‘दा जब अपनी बेटी से मिलने झाँसी गए तो लौटते समय एक दिन हमारे घर भी रहे थे। तब उन्होंने वही कोट पहना हुआ था ….  उनकी आवाभगत बाबू ने ठीक वैसे ही की थी जैसे गुन्दी बड़बाज्यू या नौव छैं तर्दा ताऊजी की थी । हम सभी ने उन्हें सादर नमस्कार किया ओर माँ ने उनके हाथ से बर्तन छीन लिए थे …..  बात हुसैनगंज मोहल्ले की है । सायं नैनीताल एक्सप्रेस में बिठाने के लिए मैं भी गया था ….. उनके मिलेटरी वाले दामाद ने झाँसी से हल्द्वानी तक का पूरा टिकट बनवाया था लेकिन बाबू ने हिसाब से गाँव तक पूरा टिकट, रेवड़ी, गजक और पन्नी में लिपटी  खुशबूदार तम्बाकू का एक बड़ा सा गोला भी दिया था ….. ।  दोपहर में हम अमीनाबाद घुमने गए और बाबू ने उनसे, अपने लिए कुछ खरीदने के लिए कहा तो सीधे – सीधे बोले …..”  के ल्हीजाँ, मणी तमा्ख ल्हीजाँणैं सोचणोंछियूँ…. मिललै कती ? अन्नुवै इज कूँण लागि रैछी …. आ्ब जवैं दगा्ड़ कूँण में भल नि लाग कि…..  तुम गुसैं राठ भया पणज्यू ……  ” तो बाबू ने उनके मुँह पर हाथ रख दिया …. ना केशर ‘दा तस नि कौओ ! उ सब बात आ्ब खतम है गियीं । को जमानै बात छन यो सब ….. आज छणकुलि झाँसी पुजि गे ….  तुमैरि मेहनत और प्रेम भै हो यो सब । एक आद दिन रुँना त भूलभुलैय्या घुमी जा्न मगर तुम त घ्वा्ड़ में बैठी जे के आया …….. पिताजी तब लगभग रुँवासे हो गए थे । फिर केशर ‘दा कहते रहे थे कि फिर ऊँन – फिर ऊँन हो ! लेकिन वो ” फिर ” कभी नहीं आया । केशर ‘ दा जल्दी चले गए थे ………  बाबू के विचारों में तब भी इतना विस्तार और समझ थी जब कि गाँव वाले सन 73 में भी मुझसे ” छोड़् हा्ल .- छोड़् हा्ल.”  कहते रहे रहे थे ! उस साल मैने खूब ” हौ – हौ बल्दा ”  की और अधिया खेतों में अन् ‘दा के साथ ” मै ” भी लगाई , खेत में खाना खाया था …..  अन’ दा , केशर ‘दा के एकमात्र बेटे थे जो स्कूल गए ही नहीं जब कि उनकी बेटी और मैं घुसी स्कूल में कक्षा चार में साथ पढ़े हैं  ….. । पिता – पुत्र एक ही व्यक्ति को ” दा ” कहें….  ऐसा हमारे रुढ़िवादी समाज में ही देखने को मिलता है । …….. खैर, बात से बात निकलती ही जायेंगी लेकिन गंगा बुवा की बात है तो  इधर – उधर लोगों के घरों में छोटे – मोटे काम धाम के ऐवज में उसे रुखा – सूखा तो जरुर मिलता लेकिन तृप्ति उसे माँ से ही होती जब वह आमा से बचाकर रोज दो चुपड़ी रोटी उसे जंगल जाते समय देती ….  लाटी बुवा ऐसे ही बड़ी हुई हो रही थी । उसके सर धोने के लिए लिए माँ ने आधा लाईबब्वाय बासिंग के चौड़े पत्ते में लपेट कर  ”  गो्ठ मुणि ” लुका रक्खा था । नियम से साफ सफाई के कारण उसके जुँवे भी कम हो गए थे । यह बात गंगा की माँ कहती थी …..  ब्वारी त्योर भल हौ – त्यार वीलि गंग ढलूड़ि ले अच्छयान मणीं मैंसन जसि है रै …..  नन्तरि तैक ख्वारन है जुंग झरनेर भै । कै है रै सुबुत – कभै मैं ले चार ठुँग मारे त मार …… बाँकि अलीत कूँण में कै के नि जा्न । असल बात को जाँणौं….. ” लखनऊ आने पर बहुत बाद में पता लगा गंगा बुवा मर गई है …… लोग तमाम तरीके की बातें बताते थे कि वह ठंड से मरी, कोई कहता कि उसने फाव हाली बल !  कुछ ” गलत बात ”  भी कहते क्योंकि उसके बड़े होने तक समय भी ” बड़ा बदल ”  गया था …… वैसे कहने में क्या जाता है, हमारे पड़ौस के लोग तो लाड़ी के लिए भी ऐसा ही कुछ कहते थे कि ट्रक ड्राइवरों से मांग कर ” चहा – पाँणि ”  खाती है ….. जो भी हो बहरहाल, आमा के लिए तो नहीं कह सकता लेकिन घरवालों के लिए तो गंगा बुवा कभी का मर चुकी थी  ! …… बातें और भी बहुत सारी हैं । कुछ बताने वाली तो कुछ सार्वजनिक न करने वाली भी हैं …… लेकिन इतना तय है अब  आगे कुछ भी लिखने के लिए मुझे बहुत सोचना पड़ेगा …. ।

***

 

 

       

 

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