अनुनाद

भाषा बुलाण-चुलाण में ऐ जाली त बचि रौलि / नवीन जोशी

courtesy : Bhaskar Bhauryal

अछ्यान मी कैं बड़ै सोच पड़ि रूनान। पैली ले कभतै सोचनै छ्युं कि हमरि बोलि क्यै नटी उंणै। हमि आपणि दुदबोलि कैं क्यै भुलण लागि रयां? पै, अछ्यान बांकि सोच पड़ि जानान।

बात यसि छ कि तीन-चार म्हैण बै मी ‘अचल’ पत्रिका अर वीक सम्पादक जीवन चंद्र जोशि ज्यू बार में एक किताब लेखण में लागि रयुं। वी है पैली बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ ज्यु, ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम अर ‘आँखर’ संस्था बार में किताब तैयार करी। यो द्विय्यै जणीनलि आपण पुर जनम कुमाउंनी भाषाकि सेवा में लगै दे। आपण भाषाक विकास, वी में उत्तम साहित्य लेखण-छापण और वीक प्रचार-प्रसार करणै में इनर जनम पुरीणौं। पै, आखिर-आखिर में यों द्विय्यै जणी भौतै दुखी और निराश भ्यान। इनरि काथ देखि-सुणि बेर मन में कतुकै सवाल उपजनान।

आपणि बात कूण है पैली मुणी इनार बार में बतै दिण ठीक होल। जीवन चंद्र जोशि ज्युनलि 1938 में अल्माड़ बै कुमाउंनी भाषाकि पैल पत्रिका ‘अचल’ शुरू करी अर द्वि साल जाणे चलै। ‘अचल’ मासिक पत्रिका छि। 1938 में देश गुलाम छि और साधन ले के नि छि। आपणि दुदबोलि में उरातार द्वि बरस जाणे हर म्हैण पत्रिका सम्पादित-प्रसारित करण कतु मुश्किल भौ हुन्यल, आज यो अंदाज़ लगूण सितिल नि हो। कुमाउंनी में लेखार ले तब नि भाय। कविता लेखणी कुछेक मैंस छि जरूर, मगर गद्य लेखणी क्वे नि भय। पढ़ी-लेखी-खांणी-पीणी पहाड़ि लोगबाग आपणि बोलि कैं छाड़ि बेर अंग्रेज बणण में लागि रूंनेर भाय। कुमाउंनी में बुलाण ले उं नक माननेर भाय। कतुकै लोगनलि ‘अचल’ पत्रिका कें मुखै नि लगाय। कैलै-कैलै त ‘डू नॉट सेंड सच ट्रेश’ (यस कच्यार झन भेजिया) लेखि बेर पत्रिका पन खेड़ि दे। फिरि ले जोशि ज्यु ‘अचल’ पत्रिका कैं मासिक रूप में निकावते ग्यान। दुसर विश्व युद्ध शुरू है ग्योछी, कागज-स्याइ, वगैरा भौत अकर है ग्याछी अर मिलण ले मुश्किल है गाय। तब फरवरी 1940 में आखिरी अंक निकाइ बेर उनन कैं पत्रिका बंद करण पड़ी। पछा ले उनार मन में ‘अचल’ कैं फिरि शुरू करणौक विचार छि। कैं बै क्वे मधत मांतर नि मिलि। बुड़्यांकाव जीवन चंद्र ज्यु बड़ि रीसलि कूंछि- “के करछा, हमि पहाड़िन में अपण्याटै न्हांति। आपण बोलि-भाष कैं हमि मुखै नि लगै दिना।”

बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ ज्यूलि करीबन 31 बरस जाणे आकाशवाणी लखनौ में ‘उत्तरायण’ कार्यक्रमा चलै बेर कुमाउंनी-गढ़वालि भाषाक लिखित साहित्य कैं भौतै भल मंच दे। उनूंलि घर-घर जै बेर आपण दुदबोलिक लेखार, गिदार, कवि, नाटककार, वगैरा तैयार करान। उनन कैं लेखण-पढ़ण-रेडियो में बुलाण सिखाय अर पहाड़ा कौतिकन में जै-जै बेर लोकसंगीत-गीत रिकॉर्ड करान। यो रिकॉर्ड ‘उत्तरायण’ में बजान अर शहरी गिदारन कैं ले उनरि धुन सिखाईं। घर-परिवारै फिकर छाड़ि बेर उं ‘उत्तरायण’ कैं संदर कार्यक्रम बणूण में लागि राय। यतुकै नै, उनूंलि पैली ‘शिखर संगम’ अर पछा ‘आँखर’ संस्था बणै बेर कुमाउंनी-गढ़वालि भाषा में नाटक खेलान। आपणि बोलिन में स्मारिका प्रकाशित करी। रिटायर हईं पछा ‘आँखर’ नामलि मासिक पत्रिका ले सम्पादित-प्रकाशित करी। उनार मन में ले जीवन चंद्र जोशि ज्युनै चारि आपण भाषाक लिजि भौतै पिरेम छि। तबै बीमारी अर डबल-टाक बिन ले उं ‘आँखर’ कैं द्वि-तीन साल चलै ल्हि ग्यान। 1993 बै शुरू ‘आँखर’ पत्रिका पैली मासिक, फिरि त्रैमासिक है बेर 1995 में मजबूरी में बंद करण पड़ी। उंनूलि ले योई दुख में प्राण छोड़ान कि हमि पहाड़िन कैं आपणि भाषा दगै के पिरेम न्हांति।

यस्सी काथ रामनगर वाव मथुरादत्त मठपाल ज्युनैकि ले छ, जनूलि सन 2000 बै ‘दुदबोलि’ नामलि पत्रिका शुरू करी। ‘दुदबोलि’ त्रैमासिक शुरू भ्ये, फिरि सालाना विशेषांक रूप में प्रकाशित हुंछी। उं ले पत्रिकाक लिजि लेखार अर आर्थिक मधतै तैं मैंसन थैं निहरै करण में रान। कां-कां बै चीज-बस्त जोड़ान उनूंलि। बीमारी में ले लागियै रूनेर भाय। ‘दुदबोलि- 2022’ त उनार मरीं पछा प्रकाशित भ्ये। जीवन चंद्र जोशि ज्यु, बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ ज्यु और मथुरादत्त मठपाल ज्युनलि आपणि भाषा लिजि जो संघर्ष करौ, वी कैं हम सबनलि जाणण-समझण चैं, वीकि फाम करण चैं। मगर कि करछा, इनार नौं ले आज कतु लोगबाग जाणनान?

अछ्यान अल्माड़ बै कुमाउंनी में ‘पहरु’ मासिक’, काठगोदाम बै कुमाउंनी-गढ़वालि में ‘कुमगढ़’ द्विमासिक अर पिथौरगढ़ बै कुमाउंनी मासिक ‘आदलि कुशलि’ पत्रिका प्रकाशित हुण लागि रान। हाल-हालै में दिल्ली बै ‘दुदबोलि’ वार्षिक ले फिरि शुरू है रै। दस साल है ग्यान, पौड़ी बै ‘धाद’ नामलि गढ़वालि भाषाकि मासिक पत्रिका प्रकाशित हुणि लागै रै। जो लोग यो पत्रिकानक प्रकाशक-सम्पादक-व्यवस्थापक छन, उं हर बखत योई फिकर में रूनान कि कां बै भलि रचना मिललि, कां बै गाहक बणाल अर कां बै डबल-टाकै मधत मिललि। आज 1938 जास हालत न्हांतिन। 1980-90 में जास हाल छि, उस ले आब न्हांतिन। देश अर समाजलि भौत तरक्की करि हाली। हमार पहाड़ा मैंस ले कां बै कां पुजि ग्यान। राजनीति, सरकार, प्रशासन, उद्योग, विज्ञान, हरेक क्षेत्र में पहाड़ाक स्यैणि-मैंस ठुल-ठुल जागन में बैठी छन। उत्तराखण्ड अलग राज्य बणि ग्यो। जस ले छ, ‘सरकारि विकास’ वां ले खूब हुंण लागि रौ। बजटैकि के कमी न्हांति। पैं, हमरि भाषानकि हालत कसि छ? हमरि लोक भाषाकि पत्रिकानकि हालत कसि छ? पत्रिकानै बात छोड़ि दियो, हमि आपणि भाषा में कतु बुलानुं?  अघिल जाण छाड़ि, हमरि भाषा नटी किलै ऊंणै?

देशक आजाद हुंण है पैली अर आजादी मिलीं पछा 1970-80’क दशक जाणे पहाड़ाक हाल भौत खराब छि। गरीबी यतु छि कि गौं-गौं बै, घर-घर बै एक-द्वि मैंस शहरन उज्याड़ जै बेर नौकरी करनेर भाय। उनार भेजीं मनीआडरलि पहाड़ में नानतिननक पेट पाईनेर भय। पै, पहाड़ा मैंसन कैं नौकरी कसि मिलनेर भ्ये? होटलन में जुठ भानकुन माजणी, सैपना घरन में नौकर-चाकर, दफ्तरन में चपरासि-खलासि अर भौतै भलि किस्मत भई त फौज में सिपै। योई पहाड़िनै पछ्याण भ्ये। ‘ईमानदार-मेहनती नौकर’ कईनेर भाय पहाड़ि मैंस। जो मुणी पढ़ि-लिखि गाय, सरकारि दफ्तरन में क्लर्क या वी है ठुल नौकरी में पुजि गाय, उं आफु कैं लाटसैप है कम समझनेर नि भाय। उनूंलि सिद्द अंग्रेजनै नकल करण भ्ये। मामूली नौकरी वाव आपण स्वार-बिरादरन कैं उं ‘भुस पहाड़ि’ कूनेर भाय। पहाड़ि बुलाण में शरम चितूनेर भाय। उननै तैं पहाड़ि भाषा पराइ बणि ग्ये। जो ले पहाड़ि मैंस तरक्की करते गाय, उ आपणि पहाड़ि पछ्याण, पहाड़ि भाषा कैं छाड़ते गाय। कुमाउंनी हो या गढ़वालि, पहाड़ि भाषा ‘भुस पहाड़िक’ पछ्याण बणि ग्ये। 1938-40 में जब पढ़ी-लेखीं पहाड़िनलि ‘अचल’ पत्रिका कैं ‘यस कच्यार झन भेजिया’ कै बेर पन खेड़ देछि, त जीवन चंद्र जोशि ज्यूक कष्ट समझ में ऊंछ। 1980-90 में जिज्ञासु ज्यूक तकलीफ ले मुणी समझी जै सकीं, किलैकि तब जाणे ले पहाड़िनै ‘भानमांजु’ पछ्याण छनै छि।

पै, सन 2000 में मथुरादत्त मठपाल ज्यु कैं ले उसी तकलीफ क्यै भ्ये? उनरि ‘दुदबोलि’ कैं कतु मधत दे पहाड़िनलि? कतु गाहक बणी वीक? उं कतुकै बखत कूंछि, हिसाब लगै बेर बतूंछि कि ‘दुदबोलि’ तैं कतुक कर्ज़ गाड़ि हालौ कै। ‘अचल’ हो, ‘आँखर’ हो, या ‘दुद्बोलि’ हो या अछ्यान प्रकाशित हुणी पत्रिका हों, उनरि मधत करणी अर सहयोग दिणी लोगबाग ले छनै छन। कतुक मांतर? सौ-द्वि सौ या पांच-छै सौ या लगै लियो आज हजार-द्वि हजार लोग गाहक बणि ले गया त वील कि हुनेर भय? पत्रिका छापण, भेजण, कागज-स्याइ, तमाम दुसार खर्च कतुक हुनान? पत्रिकाक द्वि हाजर गाहक बणि गया त आज भौतै ठुलि बात मानी जानेर भ्ये मगर सोचो धैं, यो कसि शरमै बात छ? सबै पत्रिकान में अपील छपैं कि यो पत्रिका कैं तुमरि मधतै जरवत छ, गाहक बणो-बणाओ, चंद दियो कै। आज सन 2025 में यसि अपील करणै जरवत क्यै पणैं?

देश-विदेश में हो या पहाड़ में, आज आपणि पहाड़ि पछ्याण क्वे नि लुकून। सबै खुशि है बेर कूनान- ‘हमि पहाड़ि छां, हमि उत्तराखण्डी छां।’ आज पहाड़ि कूण में कै कैं शरम नि लागनि, गौरवै बात चिताईं। शहर-शहरन में पहाड़िनाक ठुल-ठुल संगठन छन, बाड़-बाड़ सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनैतिक कार्यक्रम हुनान। बरेलि-लखनऊ बै दिल्ली-मुम्बई जाणे ‘उतरैणी कौतिक’ लागनी, फुलदेई त्यार ले करनान। पहाड़ हो या देस, सबै जाग खूब नाच-गीत, झ्वाड़-छपेलि हुनान। पहाड़ि कलाकार सुराव-कुर्त, घाघर-पिछौड़ पैरि बेर खूबै धिरकनान। आपणि बोलि मांतर क्वे नि बुलान। कुमाउंनी बुलाण में जिबड़ लटपटी जांछ। आपस में या आपण घर भितेर ले हिंदी फुकाल या अंग्रेजी। हमि तरक्की करनै गयां, हमरि भाषा पिछड़नी ग्ये। येक कि कारण हुन्याल?

मी आपणी बात बतूं। नानछना बाबू दगाड़ लखनौ ऐ ग्येछ्युं। यां बाबू थैं कुमाउंनी में बात करनेर भयुं। जब तक उं ज्यून रान, उनन थैं कभ्भै ले हिंदी में नि बुलायुं। बुलै नि सकंछ्युं। खाप बुजी जसि जांछि। पहाड़ में इज दगै ले तस्सै भय। इज-बाब, दीदि-बैणि दगै पहाड़ि में बात करनेर भयुं। मगर जब म्यर ब्या भ्यो, धुलैणि दगै और नानतिन हईं पछा उनन थैं हिंदी बुलानेर भयुं। उनार सामणि पहाड़ि बुलाईनेरै नि भ्ये। जिबड़ लटपटै जानेर भ्ये। जब जाणे इज ज्यून छि, उ आपण नातिन थैं ले पहाड़ि में बुलानेर भ्ये। तबै म्यार नानतिन पहाड़ि असल कै समझनान, बुलाणै सार मांतर उनरि नि भ्ये। आब इज-बाब न्हांतिन त हमार घर में सब्बै हिंदी बुलानान। पहाड़ में जतु दगड़ी छन, गौं है भ्यार जाईं जतु स्वार-बिरादर छन, सबन दगै आब फोन में हिंदी में बात हुंछि। कै थैं पहाड़ि बुलै दियो त उ हिंदी में जवाब दिनान। त, हमार नानतिन पहाड़ि कसिक बुलाल? लखनौ में हमर ठुल परिवार छ। कतुकै स्वार-बिरादर छन। सबन दगै हिन्दी में बात हुंछि। पै कुमाउंनी भाषा कसिक बचलि कूंछा?  

दुन्नी में कां-कां को-को भाषा बुलाण कम हुनै जाणान, को-को भाषा खत्र में पड़ि रै, यो बतूणी ‘यूनेस्को’ कि एक रिपोर्ट प्रकाशित भ्ये। यै में कुमाउंनी भाषा कै ‘असुरक्षित श्रेणी’ में धरि राखौ। मल्लब हमरि कुमाउंनी भाषा नटीणै, वीक बुलाण-चुलाण कम हुणौ, वीक बचण मुश्किल है ग्यो। जब मैंस बुलाण छाड़ि द्यला तो भाषा कसिक बचलि? पहाड़ा दूर-दराजा गौं पन ले पहाड़ि बुलाणी भौत कम लोग रै ग्यान। नानतिन त सबै हिंदी में बुलानान, सयाण स्यैणि-मैंस ले आपणि बोलि में कमै बुलानान।

पोरी बेर चौमास में मील पहाड़क एक गौंक वीडियो देखौ। शूंशाट-भूंभाट करनै मलि बै एक गाड़ दैत्य जसि ऊण लागी भ्ये, पूर मलि गाड़-भिड़न जाणे पुजी भ्ये। एक नान च्यल आपण इज कैं धत्यूणय- “ओ मम्मी … मम्मी, देख तो बाहर को, नदी में कित्ता पानी आ रा रे!” भितेर बै वी इज कूणैछि- “तू उधर को मत जाना रे, इधर को ही रहना हां!” मी सोच में पड़ि गेछ्युं। गौं-गौ में नानतिन आब ‘ओ इजा!’ कै धात नि लगून, ‘ओ मम्मी’ कूनान। ‘इज-बाब-बड़बाज्यू-आमा’ कूण भुलि ग्यान नानतिन। जब पहाड़ै में अर गौं पन ले आपणि बोलि-भाषा नि बचली त फिरि कां बचलि?

आज कुमाउंनी भाषा में खूब लेखार छन। कविता, काथ, व्यंग्य, नाटक, यात्रा-वृतांत, वगैरा-वगैरा, मल्लब हर विधा में खूब लेखीणौ, छापीणौ। जो पत्रिका प्रकाशिन हुणान, उनन तैं रचनानैकि के कमी न्हांति, स्तर जस ले हो। कुमाउंनी में खूबै किताब छापीणान। हिंदी में लेखणी पहाड़ि लेखार ले आब कुमाउंनी में लेखण भै ग्यान। जो भलि कै कुमाउंनी नि जाणन या बुलाण में अटकनान, उं ले हिंदी वाक्य विन्यास में छ-छु लगै बेर ले लेखणै रान। यो सब लेखार बुलानान मांतर हिंदी में। कुमाउंनी भाषा नटीणै, यो फिकर भौत छ। हर साल पहाड़ में एक-द्वि कुमाउंनी भाषा सम्मेलन हुनान। खूब लेखार ऊनान और भाषाकि फिकर में भाषण दिनान। कुमाउंनी कैं संविधानकि अठुं अनुसूची में शामिल करणै जोरदार मांग हुंछि। कुमाउंनीक मानकीकरण करणैकि ले खूबै बात हुंछि। गढ़वालि लेखारनलि आपणि भाषाक मानकीकरण करि हालौ। कुमाउंनीक लेखारन कैं ले आब जल्दी करणैकि फिकर हुणै। भलि बात छ। मानकीकरण ले हुणै चैं। भाषाकि फिकर में सम्मेलन करण ले भलै भय। भाषा, व्याकरण, मानकीकरण, वगैरा पर बात-विचार हुणै चैं। अठुं अनुसूची में धरणै मांग ले हुणै चैं। ये मैं क्ये गलत नि भय।

सवाल यो छ कि यो सब करि बेर भाषा बचि जाली कि? अठुं अनुसूची में शामिल है बेर भाषा ‘सुरक्षित’ श्रेणी में ऐ जाली कि? हमन कैं भाषा कागज में बचूण छौ या बर्ताव में? कागज में या कॉपि-किताबन में भाषा तब बचलि जब उ हमार खाप बै भली कै छुटलि। लेखण में भाषा तब छाजलि जब मनखीना मुख बै फूल जै झड़लि। पै, हमरि भाषा हमार मुख बै झड़नी न्हांति।

एक्कै कुमाउंनी-गढ़वालि भाषा ‘असुरक्षित’ न्हांतिन। गौं-गिराम अर अंचलनैकि कतुकै भाषा खत्र में छन। मलि जो रिपोटौ जिकर करि राखौ, वी में हमार देशकि 170 भाषा संकट में बतै राखीं। दुन्नि में, हमार देशै में कतुकै भाषा विलुप्त है ग्यान अर कतुकै विलुप्त हुणी छन। भाषा हमार आचार-व्यवहार, ज्यून रूणौ ढंग, संस्कृति, कमाइ-धमाइ ढंग, जसि चीजन बै जन्मै अर विकसित हुंछि। जस-जस हमर जीवन-व्यवहार बदवते जांछ, हमरि भाषा ले बदई जांछि। हिंदी भाषा कैं देखि ल्हियो, दस-बीसै साल में उ कतु बदई ग्ये, किलैकि हमर जीवन-व्यवहार बदई ग्यो। हमर कल्यो, खाण-पिण, पैरण, ऊंण-जाण, घुमण, पढाइ-लिखाइ, हंसण-खेलण सब्बै बदई ग्यो। जसि विकास-नीति छ, वी में सारि दुन्नि एक जै हुणि लागि ग्ये। पैली स्कूल-कॉलेजै तैं हमार नानतिन अल्माड़-नैनताल, फिर इलाबाद-लखनौ-दिल्ली जाणे जांछि। आब यूरोप-अमरीका जाणे जाण लागि रान। पैली च्याल-च्येलिनौ ब्या आपण मित्राम, पहाड़ि घर-बार, गोत्र, वगैरा देखि बेर हुंछी। आज कुमाउंनी घरन में बंगालि, पंजाबि, मलयाली या विदेशी ब्वारि छन, जमाई छन। यै में के खराबी नि भ्ये। विकास अर प्रवास में यस हुनेरै भय। जब सब्बै चीज बदई ग्ये त भाषा कैं ले बदवणै भय। ‘बहता नीर’ तबै कईनेर भ्ये भाषा। पै, आपणि भाषा छोड़ि दिण विकास भयै कि? हमि नि बुलाला त हमार नाति-नातिणि पहाड़ि भाषा कसिक बुलाल?

हमार गौं खालि नि हुना, पढाइ-लिखाइ, नौकरी-चाकरी, कमाइ-धमाइ, खवाइ-पिवाइ, सब तिरब गौं पनै हुनौ त भाषा खत्र में नि पड़नि। गौं में क्ये भय नि, द्वि-र्वाट कमूणै तैं ले देश-विदेश जाण पड़नेर भय। खुट भ्यार गया त भाषालि बदवणै भय। जो भाषा में ज्यादा कमाइ होलि, वी बढ़लि। जै में कमाइ कम होलि, उ खत्र में पड़लि अर जै भाषा में बिल्कुलै कमाइ नि हो, उ ‘असुरक्षित’ है जालि, वीक बचण मुश्किल है जाल। अंग्रेजी तबै घर-घर पुजि ग्ये। हिंदी बचि त रै मगर उ ले ‘हिंग्लिश’ है ग्ये। अंग्रेजी ताकतवर भाषा छ, वी में मस्त कमाइ है जैं। तबै सब अंग्रेजी सिखण में लागि रान। कुमाउंनी बुलै बेर के कमाइ हुनी त कुमाउंनी सिखन। यो बात दिल में चोट लगूणी छ, मगर सांचि छ।

पैं, कि करी जावो? आपणि भाषा कैं चुपचाप मरण दियो?

यो कसिक मंजूर है सकौं? ना-ना। आपणि भाषा कैं बचूणै तैं जि ले, जतु ले उपाय है सकनी, सबै करण चैंनी। भौत भलि बात छ, कएक बरसन बै कुमाउंनी भाषा कैं बचूणै फिकर है रै। आज हमरि भाषा में मस्त लेखार छन, जो खूब लेखणान। कमै सई, पाठक ले छनै छन। कुमाउंनी में ब्लॉग-व्लॉग, वेबसाइट, यूट्यूब चैनल ले छन। गिदारनैकि क्वे कमी न्हांति। मंच में ले छपेलि-झ्वाड़नै धूम मचि रै। नियमित पत्रिका प्रकाशित हुणान। किताब छापीणान। अल्माड़ बै कुमाउंनी साप्ताहिक ‘कूर्मांचल अखबार’ ले प्रकाशित हुणौ। उत्तराखण्ड सरकारलि प्राइमरी दर्जन में कुमाउंनी पाठ्यक्रम बणै राखौ कै सुणी। शोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय, अल्माड़ में बीए कक्षान में कुमाउंनी एक वैकल्पिक विषय छ बल। उत्तराखण्ड ओपेन विश्वविद्यालय में ले कुमाउंनी भाषा प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम शुरू है ग्यो। उत्तराखण्ड भाषा संस्थान पहाड़ै भाषान में लेखी किताबन कैं मधत दिणौ, पुरस्कार ले दिणौ। कुमाउंनी पत्रिका और लेखार मिलि बेर साल में एक-द्वि कुमाउंनी भाषा सम्मेलन ले करणान जै में खास बातचीत यो हुंछि कि भाषाक मानकीकरण हुण चैं। यो मांग ले करी जांछि कि कुमाउंनी कैं संविधानकि अठुं अनुसूची में शामिल करी जावो।

यो सब ठीक छ। हमि यो लेख में पैली लेखि ऐ रयां कि जब जाणे हमार जीवन व्यवहार में भाषा शामिल नि हो, जब जाणे गौं-गौं में भाषा नि बचलि, जब जाणे हमार नानतिन ले आपणि भाषा में नि बोलाल-लेखाल अर जब जाणे भाषा कैं विकास नीति में खास जाग नि मिलौ, तब जाणे भाषा बुलाणी कम होते जाल। कूण यो छ कि एक जन आंदोलन हुण चैं कि उत्तराखंडै विकास नीति यसि बणाई जावो कि गौंनक विकास हो, गौं-गौं में स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, नान-नान रोजगार और दुसरि जरूरी सुविधा देई जावो। स्कूली पढ़ाइ-लिखाइ में ले आपणि भाषा शामिल हुण चैं। पै, हुण त उल्ट रौ। गौं उजड़ि ग्यान। गौं में मामूली इलाजै सुविधा ले न्हांति। खेति-पाति चौपट छ। मैंसन कैं पलायनै एक बाट देखीं। यो क्रम उलटण चैं। गौं विकसित हुण चैंनी। गौं बचला भाषा आफी बचि रौलि। गौं बचूणा मल्लब आम-बड़बाज्युना जमानक गौं नै, नई सुख-सुविधा वाव गौं। गौंनक विकास हुण चैं मगर गौं बचण चैनान। जन आंदोलन यस हो कि सरकारै विकास नीति बदइ जौ। यो सितिल न्हांति। आज जो हाल छन, वी में त यै कैं अव्यावहारिक सुझाव कई जाल पर असम्भव न्हांति।

हमि जो करि सकनू, उ यो कि आपस में बुलाण-चुलाण हर बखत आपणि बोलि में करूं। घर-परिवार में सब कुमाउंनी में बुलाला त नानतिन ले सिखाल-बुलाल। जो नानतिन नानछना बै कुमाउंनी सुणनी, जनार मै-बाब कुमाउंनी बुलानी, उं आपण बोलि कभै नि भुलन। एक उदाहरणै फाम उणै। ‘अचल’ सम्पादक जीवन चंद्र जोशि ज्युक, जनर जिकर पैली करि राखौ, जब ब्या भ्यो त उनरि घरवाइ लक्ष्मी ज्यू कैं पहाड़ि बुलाण नि ऊंछि। उनर परिवार भौत पैली बटी अनूपशहर (जिल्ल बुलन्दशहर) में बसि ग्योछि। जीवन चंद्र ज्यु बड़ै कुमाउंनी पिरेमी भाय। उनूंलि आपण घर में यो सख्त नियम बणै दे कि धुलैणि थैं क्वे ले हिंदी नि बुलावो, सब्बै कुमाउंनी में बात कराल। यसिकै लक्ष्मी ज्यु फटाफट कुमाउंनी सिख ग्याछि। उसै संयोग उनार च्याल गुरुप्रसाद ज्यूक ब्या में ले भ्यो। ब्वारि कैं ले कुमाउंनी बुलाण नि ऊंछि। घर में वी नियम फिर चलाई ग्यो अर ब्वारि ले भौत जल्दी कुमाउंनी सिखि ग्येछि। एक उदाहरण त अछ्यानकै छ। तीन-चार साल बै हेम पंत अर हिमांशु पाठक ‘रिस्की’ ल ‘हमर पहाड़-हमरि पछ्याण’ नामलि एक ऑनलाइन कार्यक्रम में कुमाउनी बातचीत शुरू करि राखी। यो कार्यक्रम में खास-खास पहाड़ि मैंसन थैं, ठुल-ठुल जाग पुजी लोगन थैं कुमाउंनी में बातचीत करी जांछि। कयेक लोग जो भलि कै कुमाउंनी नि बुलै सकन, उनूलि ले अटकि-अटकि बेर कुमाउंनी में बात करी। कयेक लोग तब बै कुमाउंनी बुलाणै कोशिश करण लागि रान। मल्लब यो कि अगर ठारि ल्हियो त पहाड़ि घरन में सयाण हो या नानतिन, क्वे ले कुमाउंनी बुलाण सिख सकनी। बस मन में ठारि ल्हिण चैं।   

जो कुमाउंनी पत्र-पत्रिका प्रकाशित हुणान हमि सबन कैं उनर गाहक बणण चैं। सम्पादकन कैं ले पत्रिकाक स्तर भौत सुधारण चैं। यसि-यसि चीज प्रकाशित करण चैं कि वी कैं पढ़ण में मन लागौ, नई-नई जानकारी मिलौ, देश-दुनियाकि खबर-बात आपणि भाषा में मिलौ। लेखार और सम्पादकन कैं यो ध्यान दिण चैं कि कुमाउंनी में लेखणक मल्लब आड़ु-बेड़ु-घिङारु, घाघर-पिछौड़-आंङड़, झ्वाड़-छपेलि-न्योलि, दिगौ-दिगौ-पहाड़, भट-गहत-झंगोर, वगैरा-वगैराई नि हुन। कुमाउंनी में देश-दुनियाकि फसक-फराव क्यै नि है सकनि? जब जीवन चंद्र जोशि ज्यु ‘अचल’ पत्रिका में ‘जापान अर विश्व युद्ध’, ‘नाग-किन्नर जाति’, ‘भारतीय चित्रपट’, जास विषयन में लेख छापनेर भाय त हमि आज इसराइल-फलस्तीन लड़ै, भारत-पाकिस्तान झगड़, हिंदीक साहित्यिक चलन, बुकर पुरस्कार, नोबेल साहित्य पुरस्कार, नई शिक्षा नीति, जास विषयन में लेख क्यै नि लेखि सकना, क्यै नि छापि सकना? यस करणैलि कुमाउंनी भाषाकि जाग फैललि, ठुलि होलि। नई-नई शब्द मिलाल। भाषा कैं नई थिकाव ले चैनरै भाय। वीक बदवण ले जरूरी भय।

दुसरि जरूरी बात यो कि जो ले कुमाउंनी में लेखणान, उनन कैं कुमाउंनी में सोचि बेर लेखण चैं। यस देखण में बांकि ऊंछ कि लेखार हिंदी में सोचि बेर कुमाउंनी में लेखनान। तबै वाक्य विन्यास हिंदी में हुं और आखिर में ‘छ’, ‘छि’ लगै बेर कुमाउंनी बणै दिनान। यसिक भाषाकि मौलिकता, वीकि मिठास और शब्द-सामर्थ्य खतम है जैं। शेरदा ‘अनपढ़’ या गिर्दा या चारु चंद्र पाण्डे ज्यूकि लेखीं देखौ या तारा चंद्र त्रिपाठी, जगदीश जोशी, राजेंद्र बोरा (बाबा त्रिभुवन गिरि) वगैराक गद्य या काव्य देखौ। हौर ले भाल-भाल लेखणी छन, सबनाक नौं लिण यां जरूरी न्हांति। त, इनर लेखीं पढ़ि बेर हमि सिखि सकनूं।

भाषा जब हमार रोजाक व्यवहार में ऐ जालि, मल्लब बुलाण-चुलाण में ऐ जालि, काम-काज में ऐ जालि, लेखण-पढ़ण में ऐ जालि, नानतिना खाप बैठ जालि, त बचि रौलि। नन्तर ‘विकासै’ जसि बाढ़ ऐ रै, वी में लोकभाषाओंक बचण मुश्किलै छ। आज जो भाषा ‘असुरक्षित’ छन, उनर ‘विलुप्त’ हुण में के लाग लागैं कूंछा?

 

 

              

                  

            

         

   

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