हाशिये की आवाजों से भरी
मुखर कविता
प्रखर पत्रकार व वाम राजनीतिक, सांस्कृतिक संगठनों से लम्बे समय से सक्रिय रूप से जुड़े आंदोलनधर्मी, प्रतिबद्ध विचारक 78 वर्षीय अजय सिंह का पहला काव्य-संग्रह ‘राष्ट्रपति भवन में सूअर’ अभी हाल में ही (फरवरी 2015 में) गुलमोहर किताब, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। संग्रह में कुल 16 कविताएँ हैं, जिनमें से नौ लम्बी कविताएँ हैं। भूमिका में कवि ने याद किया है कि उसने 1963 से 1965 के बीच कभी कविता लिखना शुरु किया था और कुछ समयान्तराल पर, कभी-कभार लिखा। उनमें से कुछ कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपीं। भूमिका में कवि ने उम्मीद व्यक्त की है कि ‘ये कविताएँ दिलचस्प पायी जायेंगी, और कारामद (उपयोगी) भी।’ इस संग्रह में 1995 से 2014 के बीच लिखी गयी कविताएँ शामिल की गयी हैं।
अजय
सिंह सीधे-सादे ढंग से, दो-टूक अभिव्यक्ति
के या बेलाग और सपाटबयानी के कवि हैं। वे गहरी आसक्ति, गहरा आवेग, तड़प व बेचैनी के
साथ लिखने वाले कवि हैं। संग्रह की पहली कविता ‘देश प्रेम की कविता
उर्फ़ सारे जहाँ से अच्छा…’ पूरे-पूरे वाक्यों
में- बिल्कुल सपाट गद्य की तरह- लिखी गई है। कवि ने कई चर्चित रचनाओं, रचनाओं के पात्रों, खूंखार
दुर्घटनाओं/साजिशों, औरतों के साथ हुए
बलात्कार व जलाने की हैवानियत भरी वारदातों, को उनके नाम व स्थान
के साथ उल्लेख किया है। यह कविता मुसलमानों व औरतों के खिलाफ घटित, सुनियोजित, खूंखार घटनाओं के
पीड़ादायी, अमानवीय, दुःखद स्मृतियों से
बुनी हुई है। कविता में उनका पत्रकार रूप ज्यादा हावी हुआ है, जिसके कारण कविताई
बेदम नज़र आती है। यह कविता निहायत दुःखद, उदास गद्य की शक्ल
में एक तरफ खूंखार होते भारत का और दूसरी तरफ चित्कारते भारत का आईना भी है।
तात्कालिकता, घटनात्मकता, उद्धरणबहुलता, जनप्रतिबद्धता के
साथ खूंखार घटनाओं की रिपोर्टिंग की शक्ल में यह लंबी कविता हमारे सामने आती है।
इस
संग्रह की दूसरी कविता ‘झिलमिलाती है अनंत
वासनाएँ’ औरतों की अधूरी
इच्छाओं, प्यास, दमित आकांक्षा व
उनकी कराहों से सामना कराती है। उद्धरणबहुलता यहाँ पर भी है। इस कविता की ये
पक्तियाँ, जिसमें एक स्त्री की
अनंत वासनाएँ झिलमिलाती हैं, कितनी मार्मिक हैं-
तुमने मुझसे कभी
प्रेम नहीं किया
तुम हमेशा फ़रमाइशें करते रहे
तुम मेरे दोस्त न बन सके।
(पृष्ठ-20)
एक
दूसरी कविता का शीर्षक ही निहायत गद्य में, नाटकीय संवाद के रूप
में है: ‘करिश्मा कपूर ने कहा, असली जि़न्दगी में
अमीर लड़की टैक्सी ड्राइवर के साथ नहीं भागा करती’। इसमें दिलकश
फिल्मी गीतों की लाइनें हैं, सिनेमाई पर्दे की
जवां प्रेम की सनसनीखेज व साहसिक ज़िन्दगी को सपनों में बुनती लड़की की असफल प्रेम
से भरी ज़िन्दगी का दुःखांत दिखाया गया है। वर्णनात्मकता, घटनात्मकता या
कथात्मकता, गीतों व काव्य
पंक्तियों के उद्धरण और ब्यौरों से भरी यह कविता, कविताई की दृष्टि से
बेदम और सपाट लगती है। लेकिन इन सबके कारण, बहुत सी बातों और
अन्तर्वाह्य आवाजों के साथ, लड़की का
मर्मस्पर्शी दुःखांत भी यहाँ दर्ज हो जाता है। कविता की कई पंक्तियाँ अत्यंत
संवेदनशील नाटकीय संवादों के रूप में हैं। यथा-
मैं तुमसे प्रेम
करती हूँ
पर तुम केवल अपनेसे प्रेम करते हो
तुम किसी से प्रेम कर ही नहीं
सकते
तुम बहुत पज़ेसिव हो
मैं तुम्हारी छाया नहीं बन सकती’। (पृष्ठ- 24-25)
इस कविता का अंत उस
लड़की के दुःखांत की सूचना से होता है –
मछुआरे बताते
हैं
लैंपपोस्ट बुझे थे
लड़की समुद्र की तरफ़ जाती
दिखायी पड़ी।
अजय
सिंह के इस काव्य-संग्रह की सबसे लम्बी कविता है- ‘खिलखिल को देखते हुए
गुजरात’। खिलखिल, कवि की प्यारी नातिन
है, जिसका जन्म गुजरात
दंगे के आसपास हुआ था। पन्द्रह पृष्ठों में फैली यह कविता राज्य प्रायोजित सामूहिक
नरसंहार की पुरजोर भत्र्सना करते हुए लिखी गई है। यह कविता दरअसल हर संवेदनशील
व्यक्ति के दिल-ओ-दिमाग को झकझोर देने वाले, हृदयद्रावक, 2002 में गुजरात में घटित, खौफनाक मंजर के ऊपर
लिखी गई मार्मिक कविता है। यह एक विक्षुब्ध, भावुक व्यक्ति का
हत्यारी सत्ता की नापाक़ करतूतों के विरुद्ध आक्रोश, विक्षोभ से भरी और
इंसानियत के हक़ में मुकम्मल तहरीर है। यहाँ कवि का पत्रकार रूप उसके कवि-रूप पर
हावी हो गया है। पत्रकाराना तेवर इस कविता की ताकत भी है और कमजोरी भी। कविता की
अनेक पंक्तियाँ खौफ़नाक दृश्यों को बुनती हैं –
…एक शहर में
क़त्लोगारत कोहराम मचा था
…अहमदाबाद था हिंदुस्तान का ख़ास शहर
…शहर के
बीचोंबीच जि़ंदा इंसानों की
चिताओं की लपटें…
लाशघर बना दी गयीं बस्तियाँ।
(पृष्ठ 27-28)
इस
कविता में यह नया सच सामने आता है –
टेलीफ़ोन
मोबाइल
दिलों को जोड़ते ही नहीं
क़त्लोगारत का सामान भी जुटाते हैं।
(पृष्ठ-32)
और तब –
पलक झपकते लाखों लोग
अपने देश में
बेवतन बेपहचान बेदरोदीवार बेआबरू
बना दिये जाते हैं।
(पृष्ठ-37)
कवि अपने सद्यजात
नातिन ‘खिलखिल’ से मुखातिब होकर
कहता है –
खिलखिल,
बहुत छोटी हो तुम
अभी
लेकिन बांधता हूँ चंद बातें गांठ में तुम्हारी
कुछ बड़ी होना तो सोचना
गुजरात
को कभी न भूलना।
(पृष्ठ-39)
कवि यहाँ खिलखिल के
बहाने आने वाली नस्लों को उस भयावह मंजर और उसे अंजाम देने वालों को न भूलने की
सीख देता है। सन् 2002 में गुजरात में
घटित उस सामूहिक नरसंहार के चंद महीनों बाद लिखी गई कविता है- ‘खुसरो घर लौटना चाहे’। कवि बड़ी शिद्दत
से महसूस करता है कि ‘‘मेरा देस तेज़ी से
परदेस बन रहा था। बहुतों को बेवतन बनाता जलावतन करता’’। (पृष्ठ-44)
व्यक्ति
की स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा, न्याय और
लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जन जागरूकता अजय सिंह की संवेदना के मूल में है। इस
संग्रह में संकलित ‘आधी रात की नर्तकी’ कविता में कवि की
केन्द्रीय चिन्ता है-
इस पर सोचो क्या
किया जाए
कि फिर कोई गुजरात न हो
कोई बाबरी मस्जिद फिर न टूटे।
(पृष्ठ-50)
कम्युनिस्ट आन्दोलन
से गहरे जुड़े होकर भी उस आन्दोलन की कमियों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखना
उनके व्यक्तित्व की खासियत है। संग्रह में संकलित ‘लाल सलाम साथी!’ कविता वामपंथी महिला
आंदोलन की प्रखर नेत्री अजंता लोहित को समर्पित है। कवि ने अजंता लोहित के दिलकश, स्नेहसिक्त और
जुझारू व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को बड़े दिल से उकेरा है। कैंसर से लड़ती हुई
वह निरंतर मौत की तरफ बढ़ी जा रही थी मगर ‘वह/जि़न्दगी के
एक-एक पल का/भरपूर लुत्फ उठाती’ जा रही थी। उसके
ऊर्जावान, जि़ंदादिल
व्यक्तित्व को याद करते हुए वह कहता है-
वह वेगवान नदी
उछाड़-पछाड़ करती
ज़िन्दगी की तमाम रंगीनी और चाहत से भरपूर
पार्टी ने बनाया उसे
अनुशासित सिपाही।
(पृष्ठ-56)
एक रात वह एक सपना
देखती है- ‘लाल किले पर लहराते
लाल झंडे’ का सपना। कवि, चारु मजुमदार का यह
कथन, कविता में टीप देता
है: ‘जो नहीं देख सकता
सपना, वह नहीं हो सकता
क्रान्तिकारी’। कविता में आगे वह
उन वामपंथियों की अच्छी तरह खबर भी लेता है, यह कहकर –
उस लाल सपने पर बात, जिसे
कई समझदारों और
सुधी जनों ने
अरसा हुआ
देखना छोड़ दिया।
उनमें से ‘कुछ तो आवारा चिटफंड
कंपनी वाले की कदमबोसी करने लगे।’ इस कविता में
अवसरवादी तथाकथित वामपंथियों के डेविएशन पर तीखी चुटकी ली गई है।
अजय
सिंह उद्धरणों से भरे लंबे वक्तव्यों के रूप में कविता लिखते हैं। इस कारण कई बार
उनकी कविता, कविता की जमीन से
दूर चली जाती है और सपाट गद्य के शिल्प में वक्तव्य बन जाती है। ‘उस हवा को सलाम’ कविता कवि के लंबे
वक्तव्य के रूप में सामने आती है। इसमें कवि की मुख्य चिंता है –
आज वामपंथ के
सामने
कितनी मुश्किलें हैं
कई ओर से उसे
हमले झेलने पड़ रहे हैं
कुछ वामपंथी
भी
वामपंथ की प्रासंगिकता पर
सवाल उठाने लगे हैं
वामपंथ को कैसे सही दिशा
मिले
कैसे उसका पुनर्जीवन हो
इस पर हम सोचें।
(पृष्ठ-64)
अजय सिंह की कविता
में समय पूरे सक्रियता व जीवन्तता के साथ मौजूद होता है। कविता में कई बार वह समय
को जीवंत पात्र की तरह रचते हैं। समय उनकी एक कविता का शीर्षक ही बन गया है: ‘30 मार्च 2013 शनिवार शाम 4 बजे’। यह कविता समय के
संवेदनशील हिस्से पर रची गयी एक मार्मिक कविता है, जिसमें नर-नारी के
बीच खड़ी हुई अविश्वास/संदेह की दीवार गिर जाती है और एक दूसरे के प्रति
प्रेम/भरोसा पैदा हो जाता है।
अजय
सिंह की जिस चर्चित/कुचर्चित कविता को काव्य-संग्रह का शीर्षक मिला है, वह एक लम्बी कविता
है। कवि चाहता है कि सूअर, गदहे, बकरियाँ, बिल्लियाँ, मुर्गियाँ घोड़े, भैंसें, कानी कुतिया ‘राष्ट्रपति भवन’ में मटरगस्ती करें
और ‘राष्ट्रपति भवन की
दबंग नस्लवादी/रंगाई-पुताई को नेस्तनाबूद कर दें’। हरचरना, खिलखिल, हामिद, नारायणअम्मा, बिल्क़ीस बानो के
साथ ही सताए हुए और न्याय की खातिर आंदोलन चलाने वाले सभी वर्ग संघर्षशील समूह
आयें और राष्ट्रपति भवन में क़ाबिज़ हो जायें। यह कविता, गुप्तांगों व
अनैच्छिक क्रियाओं के भदेस वर्णन, अश्लील या अभद्र
शब्दों के इस्तेमाल वाली आम जन की भाषा के बावजूद, ‘स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व’ की नींव पर टिके
मानवीय गरिमा की थीम पर रची गयी है। इसमें कवि का सपना है-
कोई मानवीय महामहिम
माई लार्ड न हो
बराबरी का जज़्बा हो
न हो डर या ऊँच-नीच
सब सहयोद्धा और कामरेड हों।
(पृष्ठ-77)
संग्रह के अंत में
संकलित हैं- ‘चार कविताएँ शोभा के
लिए’। कवि ने पत्नी के
लिए चार हाइकू या क्षणिकाएँ लिखी हैं, उनमें से तीन
कविताएँ प्रकृति-चित्र हैं, चौथी कविता में
पत्नी का ऐंद्रिक बिम्ब है। चौथी कविता में वह पत्नी को संबोधित करते हुए कहता है–
ज़ालिम!
दाँत तेरे
दाड़िम
मैं दिवाना
जैसे-
चिड़ियों के पीछे
सालिम!
(पृष्ठ-85)
अजय
सिंह की कविताओं की थीम और बनावट पर बात करना जरूरी है। क्योंकि कुछ हद तक उन्हें
कविता के रूप में खारिज करने की बात उठी है। इस संग्रह में नौ लम्बी कविताएँ हैं।
आज लिखने वाले नये-पुराने कवि लम्बी कविताएँ नहीं लिख रहे हैं, ऐसे में एक कवि के
काव्य-संग्रह में एक साथ नौ लम्बी कविताएँ होना सुखद है। इस संग्रह में संकलित
लम्बी कविताओं में तात्कालिकता या घटनात्मकता, घटनाओं के
देश-काल-पात्र का उत्तम पुरुष में उल्लेख, लम्बे वक्तव्य, खबरनवीस की
टिप्पणियाँ, संवेदनशील व्यक्ति
की असंयमित अभिव्यक्ति, चर्चित रचनाकारों-रचनाओं
व उनके पात्रों का उल्लेख, कविता व गीतों की
पंक्तियों का उद्धरण, भय, आतंक, असंवेदनशीलता-संवेदनशीलता
के ऐन्द्रिक बिम्ब आदि विशेषताएँ मौजूद हैं। कविताओं में उद्धरणबहुलता, अखबारी टिप्पणियाँ, नारे और रेटारिक कथन
हैं, जिनसे बुनी हुई
काव्यभाषा में नाटकीयता का ख़ास गुण है। कई कविताओं में हिन्दू मिथकों के पात्रों
व हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है और कवि ने उन्हें आततायियों के द्वारा
इस्तेमाल होते दिखाया है। मानवता को शर्मसार कर देने वाली हिंसा, बलात्कार, समुदाय विशेष का
सामूहिक नरसंहार और उसे अंजाम देने वाले आततायी तंत्र/सत्ता के प्रति उनमें तीव्र
घृणा, गुस्सा, विक्षोभ और
प्रतिहिंसा का भाव दिखायी देता है। सच्चे आवेग, तीव्र विक्षोभ और
घृणा को संतुलित या संयमित न कर पाने, काॅलरिज के शब्दों
में ‘आॅब्जेक्टिव कोरिलेशन’ (‘वस्तुनिष्ठ सहसम्बन्ध’) न साध पाने के कारण
बहुधा कवि असंयम व भावुकता का शिकार हो जाता है। उनकी कविता में साम्प्रदायिक
फाँसीवाद, अंधराष्ट्रवाद एवं
अलोकतांत्रिक-अमानवीय सत्ता का प्रखर प्रतिरोध है और सत्ता में लोकतांत्रिक स्पेस
की आकांक्षा है। एक्टिविस्ट कवि अजय सिंह ने अन्यायपूर्ण, अमानवीय, हत्यारी, सत्ता के प्रखर
प्रतिरोध के क्रम में अपनी आवाज़ बुलन्द करने हेतु कारगर, मुखर एवं आक्रामक
भाषा का इस्तेमाल किया है। कवि ने जीवन्त जनभाषा के भदेसपन को कारगर तौर पर
इस्तेमाल किया है। परिवेशगत असंगतियों और अन्यायी-अत्याचारी सत्ता की ख़तरनाक
साजिशों का जीवन्त भोक्ता कवि का आक्रोश, बौखलाहट से भर जाना
स्वाभाविक है। आम आदमी की वेदना व आक्रोश को स्वर देते हुए संवेदनशील, भावुक कवि अजय सिंह
ने हत्यारी व अमानवीय सत्ता के खि़लाफ आक्रोश तथा बौखलाहट से भरकर निर्मम प्रहार
करते हुए आक्रामक, जुझारू भाषा में, उत्तम पुरुष में, नाम ले लेकर उनकी
नंगी सच्चाई सबके सामने उजागर कर दिया है। इस क्रम में उन्होंने कई बार भदेस जन
भाषा में बरती जाने वाली गालियों का इस्तेमाल भी किया है लेकिन इन गालियों का
इस्तेमाल स्त्री, अल्पसंख्यक व दलित
के पक्ष में है, उनके विरुद्ध नहीं।
अपनी कविता में बार-बार जरूरी सवाल उठाने वाले कवि अजय सिंह ने स्त्री, अल्पसंख्यक एवं
दलितों के पक्ष में, अन्याय के विरुद्ध
और न्याय के पक्ष में ‘पक्षधर कविता’ लिखी है। उनकी लम्बी
कविताओं में ब्यौरे बहुत हैं, जिससे कविता का
शिल्प प्रायः चरमरा जाता है। सत्ता या तंत्र के अन्याय व जुल्म के खिड़ा होकर कवि
अपनी कई लम्बी कविताओं (ख़ासकर ‘खिलखिल को देखते हुए
गुजरात’, देशप्रेम की कविता ‘उर्फ सारे जहाँ से
अच्छा…’, ‘खुसरो घर लौटना चाहे’) में हत्यारी साजिशों
व जुल्म की घटनाओं का डाॅक्यूमेंटेशन करता है। बेबस, लाचार जनता की मजबूर
खामोशी व सत्ता के लूट-खसोट में हिस्सेदार बने प्रभावशाली लोगों की चुप्पियों के
बीच समय के खूँखार पंजों की शिनाख़्त और उनसे तीव्र नफरत करने के लिए, ऐसे अमानवीय, वीभत्स, क्रूर लोगों के लिए
अभद्र और भदेस अभिव्यक्ति के लिए कवि अजय सिंह और उनका यह काव्य-संग्रह याद किया
जायेगा।
अजीत प्रियदर्शी
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
डी॰ए॰वी॰ (पी॰जी॰) कालेज, लखनऊ
मोबाइल : 8687916800