
2003 के क्रिकेट विश्व कप के समय मैं सत्रह साल का था। किराए पर कमरा लेकर अलवर में रहता था। वह पहली बार घर से बाहर रहने का अवसर था। आज़ादी का पहला मौका। बिगड़ने के नाम पर मैंने बस इतना किया था कि पढ़ाई से जी चुराकर धन्ना के चाय के खोखे पर समय व्यतीत कर लेता और कभी-कभार सिनेमाहॉल में जाकर फिल्में देख आता था। फिजूलखर्ची के नाम पर मैंने बस इतना किया था कि एक दुकान पर लगा हुआ ऋतिक रोशन का पोस्टर बीस रुपए देकर ख़रीद लिया था।
मेरे बिल्कुल पड़ोस में था धन्ना का चाय का खोखा। हम धन्ना के चाय के खोखे पर टीवी देखा करते थे; अख़बार पढ़ा करते थे। हम यानी मैं और मेरे जैसे किराए पर कमरा लेकर रहने वाले लड़के।
उन दिनों खाना बनाने में आलस आता था। मेरे पास तब गैस की व्यवस्था नहीं थी। नूतन कंपनी का स्टोव था जो पहले तो चालू नहीं होता था। और यदि एक बार आग पकड़ ले तो फिर बुझता नहीं था। उसमें थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर बहुत देर तक प्रयास करने के बाद वह बंद होता था। मैं सुबह और दोपहर में धन्ना के यहाँ चाय और फैन खाकर पेट भर लिया करता था। जब उनसे मन भर जाता तो भूख लगने पर ब्रेड खाकर गुज़ारा किया करता था।
हम एक बार धन्ना की टीवी पर गाने का वीडियो देख रहे थे। वह गाना उस समय की परिभाषाओं के अनुसार कुछ अश्लील सा था। उस समय तो मिनी स्कर्ट को भी अश्लील मान लिया जाता था। तभी एक बुजुर्ग व्यक्ति वहाँ आया। उसके सामने ऐसा गाना टीवी स्क्रीन पर देखने में थोड़ी शर्म आई और हम लड़के इधर-उधर झाँकने लगे। उस आदमी ने कुछ देर तक ध्यान से गाने को देखा और फिर जो बोला, उसे आपत्तिजनक शब्द हटाते हुए कुछ फेरबदल के साथ इस तरह कहा जा सकता है, “ये फिल्में बनाने वाले हीरो के इंजेक्शन लगा देते हैं, इसलिए शूटिंग करते समय वह उत्तेजित नहीं होता।” मुझे बड़ी कोफ्त हुई कि हमने इस बेशर्म-वाहियात बुड्ढे के लिए आँखों की शर्म की थी।
दिन गुज़रते गए और आ गया 2003 का विश्व कप। चाय पीने वाले कुछ अधिक संख्या में आने लगे। आने वाले कुछ और अधिक देर तक ठहरने लगे। लड़के कोचिंग छोड़कर मैच देखने लगे।
धन्ना एक मज़ेदार आदमी था। यदि भारत की बैटिंग चल रही होती और बॉल तीस गज के दायरे से बाहर चली जाती तो उसे लगता कि बस चौका लगने वाला है। अपनी मुराद जताने के लिए वह यह डायलॉग इस्तेमाल करता था- “होगो दीखै काम पैंतीस।”
सौरव गांगुली तब मेरा सबसे प्रिय खिलाड़ी नहीं था। तब मैं राहुल द्रविड़ का फैन हुआ करता था जो कि अब भी हूँ लेकिन अब मुझे गांगुली सबसे अच्छा लगता है। इतना अच्छा कि गांगुली के रिटायरमेंट के बाद से मैंने क्रिकेट देखना लगभग छोड़ दिया है। हम जैसों के लिए आज भी गांगुली भारत का सर्वश्रेष्ठ कप्तान है। हम वो थोड़े से लोग हैं जो ‘दादागिरी’ को भूले नहीं हैं।
कप्तानी मिलने से पहले गांगुली इतना अच्छा वनडे बैटर था कि महान सचिन तेंदुलकर की बराबरी करने लगा था। कप्तानी के दबाव से गांगुली की अपनी बैटिंग पर असर पड़ा। एक बार जब वह सस्ते में आउट हो गया तो मैंने कहा, “आज फिर गांगुली चल नहीं पाया।” चाय के खोखे पर जमने वाली भीड़ में से एक आदमी ने कहा, “गांगुली को आप बॉल डाल दीजिए, आपकी बॉल पर भी आउट हो जाएगा।” मतलब किसी को गिराने की हद देखनी हो तो वह ठीक यही है। फिर केन्या और नामीबिया के खिलाफ गांगुली ने शतक ठोक दिया तो हमारे यहाँ के अख़बार में हैडलाइन छपी थी- “कमज़ोर टीमों के ख़िलाफ़ गांगुली हीरो”। जबकि उस समय केन्या की टीम कमज़ोर नहीं थी। यदि वह कमज़ोर होती तो विश्व कप के सेमीफाइनल तक कैसे पहुँच पाती? उस समय गांगुली के ख़िलाफ़ मीडिया और फैंस लामबंद हो गए थे। तब मुझे गांगुली पर तरस आता था। छक्के मारना उसने अपने बुरे दौर में भी छोड़ा नहीं था। जब वह लॉन्ग आन पर छक्का मारता तो मेरे दोस्त घनश्याम के गाँव के लड़के कहते थे- “करा दी बॉल पाटोर के पार!”
वैसे होने को टीवी पास के जनरल स्टोर वालों के पास भी थी लेकिन वहाँ उस तरह भीड़ नहीं लगती थी। उनका व्यवहार ऐसा नहीं था कि किराए पर रहने वाले लड़के उन्हें पसंद करें। हालांकि मेरे साथ वे ठीक से पेश आते थे। उन्होंने एक बार सौरव गांगुली पर टिप्पणी करते हुए कहा था- “देखो भाई, कप्तान तो आक्रामक है, आधी फीस वहीं कटवा कर लौटता है।” गांगुली अपनी टीम के लिए स्टैंड लेता था और कई बार जुर्माने के तौर पर उसकी मैच फीस काट ली जाती थी।
विश्व कप में पाकिस्तान के तेज़ गेंदबाज शोएब अख़्तर के बाल थोड़े कम लंबे नज़र आ रहे थे। इस पर हमारे अलवर का एक अड्डेबाज़ आदमी बोला–“भाई साहब, इसको तेंदुलकर ने पहले ही बोल दिया था कि अगली बार मेरे सामने आए तो कटिंग करवा कर आना।” मनगढ़ंत बातों को इतने आत्मविश्वास के साथ कहने वाले आदमी भारत के हर शहर में मिल जाएंगे। ये लोग बड़े दिलचस्प होते हैं। ये ख़ुद तो किस्सागो होते ही हैं, आपको भी अपने रंग में रंग सकते हैं। आप इनकी संगत में रहकर अच्छे कहानीकार बन सकते हैं।
पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत का सेमीफाइनल मैच ऐतिहासिक था। इस मैच में शोएब अख़्तर की गेंद पर लगाया हुआ सचिन का छक्का यादगार है। मैं जब भी उस मैच को याद करता हूँ, धन्ना के खोखे पर पहुँच जाता हूँ।
फाइनल में भारत ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध खेला। लेकिन रिकी पोंटिंग की बल्लेबाज़ी ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया। रही-सही कसर भारत की बल्लेबाज़ी ने पूरी कर दी। मुझे सचिन और गांगुली के विकेट गिरने के बाद ही पता चल गया था कि अब भारत नहीं जीतेगा और मैं धन्ना के यहाँ से अपने कमरे पर वापस आ गया था। मैं भारत को हारते हुए नहीं देखना चाहता था।
आज भी मैं कभी-कभी किसी बात पर उम्मीद की उत्तेजना में कह बैठता हूँ- “होगो दीखै काम पैंतीस।”
** होगो दीखै काम पैंतीस – बन गया शायद काम
रोचक किस्सागोई