
छत की मुंडेर से सटकर खड़े पुराने नीम के पेड़ की डाल से पत्तियां तोड़ते हुए, वो ढलती सांझ के सूरज को देख रहा था। देख क्या किसी गहरी सोच में डूबा था।
इधर कुछ दिनों से घर उसे काट खाने को दौड़ता था, क्योंकि जो भी उसे देखता था बस एक ही प्रश्न पूछता था ‘कब आ रहा है परीक्षा का परिणाम?’
ये सुनते ही उसे एक डंक सा चुभता था। उसे मालूम था ये प्रश्न नहीं था, एक तीर था जो आज चलाया जा रहा था, मगर उसका असली असर कुछ दिनों बाद होना था, जब शायद उसका परीक्षा परिणाम अनुकूल नहीं आयेगा।
आख़िर सब कुछ तो दांव पर लगाकर उसने तैयारी की थी, क्या नहीं छोड़ दिया था उसने उसके लिए! हँसना, रोना, ठीक से सोना, ठीक से खाना, साल भर घर न आना…..दीवाली पर भी नहीं, जिसकी वो पिछले बरस से प्रतीक्षा करता था। शरीर लिफाफ़िया हो गया था उसका, आँखों के नीचे घेरे ,काले और गहरे मानो उनमें वो डूब जायेगा।
आज सुबह ही एक पड़ोस के शिक्षक मुँह में कुछ चबाते हुए उसको देखते ही उसकी ओर तीव्रता से बढ़े “अरे कमलेश क्या चल रहा है……..” वो लगभग उनकी बात अनसुना करते हुए तेजी से भागा और निकल गया साइकिल पर पैडल मारते हुए। मन में वो यही सोचता रहा कि ये भी कैसा पड़ाव है जीवन का कि लोगों से छुपना पड़ता है, मानो उनका कुछ चुराकर रख लिया हो उसने। ये कैसा संताप है, जो खुलकर किसी से अपनी व्यथा भी नहीं कह सकता। घरवाले उम्मीद से देखते हैं, बाहरवाले विद्वेष और भय से कि कमबख़्त कहीं इस बार निकल गया तो! उसे कहीं चैन न था।
वो घर में अपने कमरे में घुसा कुछ न कुछ पढ़ता देखता रहता। कभी नींद में ऊँघने लगता तो सो लेता। सोकर उठता और फिर शून्य में निहारते सोचता रहता।
सहसा उसे सांझ ने मानो घेर लिया, उसे हल्की झुरझुरी सी हुई और वो नीचे अपने कमरे की तरफ़ भागा। ओढ़ कर लेट गया। थोड़ी ही देर में उसे तीव्र ज्वर चढ़ आया और वो कंपकपाने लगा, कराहने लगा। उसकी आवाज़ सुन माँ दौड़ी आयी, वो उसके हाथ पैर मलने लगी। घबराहट में उन्होंने उसके पिता को फ़ोन लगाया जो दफ़्तर में थे, उन्होंने अपनी मेज़ की दराज़ से एक गोली लेकर खाने को कहा, जो बुख़ार उतारने की थी। माँ ने उसे गुनगुने पानी से खाने को दिया। वो खाकर ओढ़कर लेट गया। थोड़ी ही देर में वो पसीने से नहा गया। ज्वर उतर गया था।
माँ ने चिंतित होकर उसे उलाहने दिए कि ऐसी सर्द शाम में पतली सी कमीज़ पहनकर वो छत पर घंटों खड़ा रहता है। “जाने क्या सोचता रहता है? अब परीक्षा का परिणाम आना है और ये बीमार पड़ गया! मने कोई कुछ कहे भी न। अजीब बच्चे हैं आजकल के।” माँ भुनभुनाती हुई नीचे उसके लिए कुछ बनाने लगी।
बिस्तर में लेटे लेटे वो सोच रहा था कि क्या ग़ज़ब का जीवन है! परीक्षा न हुई एक व्याधि हो गई कि बचे या गए। उसके लिए जीवन में मात्र परीक्षा परिणाम ही शेष रह गया था! उसके पहले जो कुछ भी हो रहा था वो मात्र उस परिणाम की प्रस्तावना थी। न कुछ इधर न उधर। बस एक सूची और उसके भीतर एक नम्बर। नम्बर जो फिलहाल उसका अस्तित्व था।
वो कई बार अपने प्रिय मित्र अरविंद, जो उसकी ही तरह एक परीक्षार्थी था से अक्सर कहता “यार अगर कोई कुछ न बनना चाहे तो या वो अपनी इच्छा से अपनी आजीविका कमाए और जैसा रास्ता उसे आगे दिखे उस पर बढ़ता जाए। वो कुछ तय न करे बस अपने मन की सुनते हुए कुछ ऐसा करे जिसको करने में वो थके न, उसे सुख और संतोष मिले, भले वो नाम या शोहरत न सही, अथाह पैसा भी नहीं। क्या ये कोई सामाजिक या पारिवारिक अपराध है, जिसे आजकल शायद हज़ारों लाखों में से कोई एक मनचला करता होगा? क्यों उसे समाज निठल्ला और माँ बाप अपनी इच्छाओं का विद्रोही मान लेते हैं? हम क्यों जीवन के प्रवाह में जगह जगह बांध बनाकर उसको रोकने में अपनी ऊर्जा खपाते रहते हैं। अटके रहते हैं एक छोर पर और समय बहता रहता है पानी की तरह, इस ख़ुशी में कि एक दिन हम इस गुजरे हुए समय की भरपाई इकट्ठे कर लेंगे। कितना हताशा भरा है ये सब कुछ!”
अरविंद उसे दिलासा देता कि “भाई मां बाप बस इतना चाहते हैं कि उनकी संतान का जीवन सुरक्षित रहे। उसे कोई आर्थिक या सामाजिक संकट न घेरे! ये एक सुरक्षा चक्र है, जो अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों के आसपास बुनते हैं। बहुत कम ही ऐसे होते हैं, जो इसे तोड़कर अपनी राह चुनते हैं। जीवन में इच्छाएं कितनी प्रत्याशित होती हैं, लगभग सबकी एक जैसी। एक जैसा उतावलापन और उनको लेकर एक समान असुरक्षाएँ, जबकि जीवन कितना अप्रत्याशित है ये कोई नहीं सोचता।”
सोचते सोचते कब उसकी आँख लग गयी उसे पता न चला। वो देर तक निढ़ाल पड़ा सोता रहा।
घंटों बाद उठा तो उसे बड़ी देर तक सब कुछ बदला बदला सा लगा। कई दिनों बाद उसे ऐसी नींद पड़ी थी शायद ज्वर से हो रही थकान के कारण। वो उठकर नीचे गया, तो उसे ड्राइंग रूम से कुछ आवाज़ें सुनाई दे रही थीं।
पिता के कोई मित्र आये थे। वो माँ के पास रसोईघर में चला गया, माँ ने उसे देखते ही कहा “अरे शर्मा अंकल आए हैं, तुझे आते ही पूछा … जाकर मिल ले थोड़ी देर”
वो अचकचा गया, अनमने मन से कहा “मिल लूँगा बाद में… अभी पापा से बात कर रहे हैं” माँ ने तनिक ज़ोर देकर कहा “अरे बाद में कब मिलेगा? वो तुझसे ही मिलने आए हैं। तू सो रहा था तो बैठ गए।”
अब उसे अपने उठकर आने पर पछतावा होने लगा। “बेकार ही इधर आ गया, वैसे ही पड़ा रहता तो कम से कम इस सब से जान बचती”। ये सोचते हुए ड्राइंग रूम की तरफ़ बढ़ा।
घुसते ही शर्मा जी खिल उठे “आओ आओ बेटा बैठो! क्या चल रहा है आजकल? ” उसने तत्परता से उत्तर दिया “कुछ नहीं अंकल परीक्षा से फ़ुर्सत मिली है, तो कुछ दिन यूँ ही बस आराम कर रहा था।”
शर्मा जी कुछ सोचते हुए बोले “आराम कहां बेटा, अभी परिणाम की चिंता होगी?”
“जी वो तो है ही।” उसने थोड़ा अनमने ढंग से उत्तर दिया तो पिता की तिरछी नज़र उससे टकराई।
“अब इस बार फाइनल करो बेटा, वरना समय व्यर्थ जा रहा है….” शर्मा जी ठहाकर बोले।
“अंकल ये मेरे हाथ में तो नहीं है…. जितनी मेहनत कर सकता था कर ली, अब ईश्वर जो परिणाम दे।” संयत स्वर में बोलते हुए उसने अपने माथे को हाथ से रगड़ा, शायद वो तनिक उद्विग्न हो रहा था।
शर्मा जी उसके पिता की ओर देखने लगे, तो वो नज़र बचाकर चुपचाप निकल आया और सीढियां चढ़ते हुए अपने कक्ष की ओर चल दिया। वही एक जगह थी, जहां वो इस संसार की चुभती चौंधियाहट से दूर अपने को समेट लेता था। पंख भी तो नहीं थे कि वो कहीं उड़ जाता घने सायों के बीच, जहां कम से कम कुछ दिन उसे कोई न देख पाता।
इतनी क्यों पड़ी रहती है लोगों को दूसरों या दूसरों के बच्चों की, न कोई लेना न देना, न ही पहले इतना कोई मिलने आता था, सब के सब व्यस्तता की बात कह चुपचाप निकल जाते थे। पर इधर जब से वो प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहा है, जाने कौन कौन भूले भटके लोग पिताजी की ख़ैरियत पूछने के बहाने चले आते थे। मक़सद शायद बस इतना कि पिताजी और मुझको एक साथ ज़लील किया जा सके। इस बात की याद दिलाई जा सके कि इंजीनियर साहब आपका लड़का अभी कुछ करता नहीं नज़र आ रहा, क्या होगा उसका और आपका ? ब्याह भी ढंग से न हो सकेगा कि घर की इज़्ज़त बनी रहे। सब लोग पीठ पीछे बातें बनायेंगे कि ये अपने आपको तुर्रमखां समझते थे, अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे। न जाने क्यों लोग वहीं प्रश्न छेड़ते हैं, जिसका उत्तर आपके पास उस समय नहीं होता। ये भी पता नहीं होता कि कब आप उनके प्रश्नों के उत्तर दे पायेंगे या शायद दे ही नहीं पायेंगे। क्या फ़र्क़ पड़ता है ऐसे लोगों को? क्या वे मेरा ख़र्चा उठाते हैं? पूरा परिवार किस तरह मेरे पीछे जूझ रहा है, दुःखी है इससे क्या किसी को लेना देना है?
सच ही तो कहा गया है कि मात्र परिणाम पुरस्कृत किये जाते हैं प्रयास नहीं। प्रयासों के दौरान हुए मानसिक और शारीरिक कष्टों का कोई हिसाब नहीं। उनका माटी बराबर भी मोल नहीं, किसी गठरी में बांध कर भाड़ में झोंक दिए जाते हैं। बस इतना सा सत्य है हमारे जैसे लाखों निराश जूझते अभ्यर्थियों का।
वो सोचते हुए ही एक पुस्तक उठाकर पढ़ने बैठ गया। उसे चिंता थी कि न हुआ तो कम से कम यही अध्ययन उसे अगले वर्ष के लिए काम आयेगा। पर इस समय में कुछ भी नहीं हो पाता। न आराम न काम, सिवाय चिंता और घबराहट के। वो कई बार सोते हुए चौंककर उठ जाता, माथे का पसीना पोछता, फिर थोड़ा पानी हलक के नीचे उतारता और लेटकर पंखे की ओर देखकर सोचता रहता।
ख़ैर कुछ समय पश्चात परीक्षाफल आने का समय हो आया। उसे रोज़ धुकधुकी लगी रहती कि आज नहीं तो कल परीक्षा परिणाम आने को है। एक पर्व के दिन जब उसके माता-पिता गंगा स्नान के लिए जा रहे थे, तो उन्होंने उससे तड़के चलने के लिए पूछा, हालांकि वो जानते थे कि वो जायेगा नहीं, क्योंकि हमेशा वो ऐसा ही करता था। वो सोता रहता और घर के लोग गंगा स्नान कर लौट भी आते। पर इस बार जाने क्या हुआ कि वो तुरंत चलने के लिए तैयार हो गया। माता-पिता को आश्चर्य हुआ, मगर वो प्रसन्न भी हुए। गंगा स्नान से लौटते ही उसकी नज़र गेट पर लगे अख़बार पर पड़ी, उसने जैसे ही प्रमुख ख़बरें देखनी चाहीं, कहीं किनारे पर एक बॉक्स में लिखा था ‘प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम भीतर देखें’। ये देखते ही उसका मस्तिष्क सुन्न पड़ गया और अख़बार हाथ से छूट गया। उसने हिम्मत करके अख़बार उठाया और भीतर चला गया। पिता गाड़ी खड़ी कर लौटे, तो उन्होंने अख़बार ढूंढा, न मिलने पर वो कहीं और व्यस्त हो गए ।
अख़बार मुड़ा हुआ रखा था उसके सामने, वो देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उसके सामने बीते वर्षों के दृश्य घूमने लगे, जब वो लगातार असफल होता रहा था। वही निराशा, विषाद और माता-पिता के सूखे हुए चेहरे उसकी आँखों के सामने घूमने लगे। एक बड़ा अंतराल जो परिणाम आने के बाद किस तरह उसने अवसाद में काटा, फिर अपने को समेटा, कितने जतन से खड़ा किया। उसे सोचकर ही वो सिहर उठा और सुबह के गुलाबी मौसम में वो पसीने से नहा गया।
थोड़ी देर बाद उठा और उसने अपना प्रवेश पत्र निकाला। वो क्या कर रहा था, इसका उसे तनिक भी आभास नहीं हो रहा था। बस वो किसी उपकरण की तरह अपने काम को कर रहा था, जिसे करना उसकी विवशता थी।
उसने अपना रोल नम्बर निकालते हुए परिणाम से मिलाया पर खोज नहीं पाया। उसे घबराहट होने लगी और उस घबराहट में उससे परिणाम देखा न गया। वो बड़ी देर तक सुन्न बैठा रहा। औंधे मुँह बिस्तर पर लेट गया और लेटा रहा न जाने कितनी देर यूँ ही।
नीचे से माँ का बुलावा आया नाश्ते के लिए, उसे अनसुना किये पड़ा रहा। किस मुँह से जाए और कहे कि एक बार पुनः वो असफल रहा। उसके और अन्य के मध्य अब एक बड़ी असफलता थी, जिसे वो कैसे मिटाता।
बड़ी देर बाद उसके पिता उसे खाने के लिए ढूंढ़ते हुए ऊपर आए और उन्होंने आज का अख़बार, प्रवेश पत्र बिस्तर में उसके बग़ल बिखरा हुआ पाया। वो जाने किस सोच में डूबा लेटा था, उसे तनिक भी आभास न हुआ।
उसके पिता वहीं उसकी कुर्सी पर बैठकर उसका परीक्षा परिणाम देखने लगे। उन्हें समझते देर न लगी।
उन्होंने उसका क्रमांक दोबारा मिलाया और गौर से देखने लगे। सहसा उनकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। उसका चयन बड़ी सरकारी सेवा के लिए हो गया था, वो भी बहुत अच्छे अंकों के साथ। उसका क्रमांक ऊपर ही था, पर उसकी आँखों को कई असफलताओं ने अंधा कर दिया था। वो अपनी सफलता को नीचे कहीं ढूँढ़ रहा था और हड़बड़ाहट में अपना रोल नंबर देख ही नहीं सका।
उसके पिता खिल उठे और सहसा उसे विश्वास ही नहीं हुआ। वो अवाक् उन्हें देखने लगा। उसके पिता ने उसके सिर पर हाथ फेरा। उसे तब भी भरोसा नहीं हुआ। उसके पिता ने पेन से उसका क्रमांक मिलाकर उसे दिखाया, वो पुलक उठा और उसके बाद बधाइयों का तांता लग गया। घर में उत्सव जैसा माहौल हो गया। सभी अपनों ने उसे हाथोंहाथ लिया, मुँह मीठा कराया और आगे के लिए आशीर्वाद दिया।
वो लोग, जो उसे लगातार अपने व्यंग्य शब्दों से नीचा दिखाते थे, अब उसको देखते ही मुँह दूसरी ओर घुमा लेते थे। उनके भीतर उसको बधाई देने का भी साहस न था। उसके पिता के तमाम दोस्त जिनमें शर्मा जी भी थे, उससे मिलने आए और तारीफ़ों के पुल बांधकर गए। उन्होंने पिछली भेंट का ज़िक्र करते हुए कहा कि उन्हें उसके चेहरे से आभास हो गया था कि इस बार वो निकल जायेगा!
हालांकि इन सब के बीच एक ख़बर, जिसने उसे विचलित कर रखा था वो ये कि उसके प्रिय मित्र अरविंद का एक बार पुनः नहीं हुआ था। वो उससे बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
आख़िर एक दिन वो उससे मिलने गया। अरविंद उसे सामान्य ही लगा पर उसके चेहरे विषाद की रेखा स्पष्ट दिखाई दी। अरविंद ने उसका स्वागत किया और बधाई दी। फिर दबे हुए स्वर में बोला “चलो तुम्हारा संघर्ष तो समाप्त हुआ फिलहाल अब आगे की तैयारी करो।”
कमलेश समझ नहीं सका कि क्या कहे! सारी दिलासाएं और हिदायतें बेहद बनावटी लगती हैं ऐसे समय में, जब सामने वाला असफल हो गया हो और सफलता आपके क़दम चूम रही हो। अरविंद का ये तीसरा प्रयास था और उसके आगे के रास्ते में घुप्प अंधेरा था। उसके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी, पिता थे नहीं और वो अभी संघर्ष कर रहा था। माँ को जो पेंशन मिलती थी, उसी से गुज़ारा चल रहा था।
कमलेश ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा “संघर्ष कहा समाप्त होता है भाई! फिर कोई अगला मोड़ प्रतीक्षा कर रहा होगा। वो तो वहां जाने पर ही पता चलेगा।”
अरविंद ने मुस्कुराते हुए कहा “भाई तुम घुस तो गए, पहला चरण समाप्त हुआ। अब कम से कम खाने कमाने का तनाव तो नहीं ही रहेगा। मैं तुम्हारे लिए हृदय से ख़ुश हूँ। ये कहते उसकी आँखों के लाल डोरे उभर आए।”
कमलेश ने उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए कहा “मन छोटा न करो मित्र तुम अवश्य सफल होगे, तुम्हारे भीतर एक लगन है। परिश्रम व्यर्थ नहीं जाता। अनेक द्वार खोलता है।”
अरविंद ने एक गहरी सांस ली फिर सिर झुकाकर बोला “भाई लगन वग़ैरह तो ठीक है, सुनने में अच्छा लगता है, पर बात ये है कि आख़िर कब तक और कहां तक पढ़ा जाए? इस भीड़ में नियति किसके साथ क्या खेल करती है कौन जाने! श्रम तो अधिकतर लोग करते हैं, मगर चुने जाने के लिए आपके भाग्य के सितारे भी चमकने चाहिए। उन पर किसका ज़ोर है। घर की हालत क्या है तुमसे छिपी नहीं, फिर भी मैं तीन बार अपना सर्वस्व झोंककर जुटा रहा। अब मुझे पहले घर को देखना होगा, कोई छोटा मोटा काम ढूंढना होगा तभी आगे कुछ कर पाऊंगा।”
कमलेश अब आगे और क्या कहता, उसका मनोबल बढ़ाकर चला आया।
इन तमाम शब्दों के बीच उसका जीवन के असल चेहरे से तआरुफ़ हो रहा था। उसे उस आठ अंकों के क्रमांक में जीवन का फ़लसफ़ा मिल गया था। क्या होता अगर आज उसका क्रमांक सूची में नहीं होता, तो यहीं मातम हो रहा होता। वो किसी कमरे में घुसा पड़ा होता, उसकी माँ सुबक रही होती और पिता मुँह छोटा किये कहीं बैठे होते। लोग उनको उसकी तरह तरह की कमियां बता रहे होते और वो सबकी हाँ में हाँ मिला रहे होते। और रास्ता भी क्या होता उनके पास।
फिलहाल वो इन सबसे आज़ाद था और आज उसका दिन था।
बहुत दिनों से एक खगोलशास्त्र की पुस्तक लाकर रखी थी उसने। उसे सूदूर सितारों, ग्रहों के विषय में पढ़ने में बड़ी रुचि थी, पर वो परीक्षा की तैयारी में कभी मुक्त भाव से पढ़ न सका। उसने वो पुस्तक निकाली और छत की ओर चल दिया। अब वो कुछ दिनों तक आराम से उसे पढ़ सकता था। बहुत दिनों से उसने तारों भरी रात छत से नहीं देखी थी।
आज रात हसीन थी।
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