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कोणार्क : कला का औदात्य और शिल्पी का समर्पण – अंबुज कुमार पाण्डेय

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कुबेरनाथ राय और धर्मवीर भारती ने समर्पित कलासाधक को ‘संपाती’ के तुल्य बताया है। सौंदर्य का ऐसा उपासक जो सच्ची कला को निरावरण देखने की अभीप्सा लिए उस लोक तक पहुँच जाता है, जहाँ अनावृत्त सौंदर्य को नंगी आँखों से देखना वर्जित है। लेकिन वह कहाँ मानने वाला ! वह तो सावयव उस उद्गम तक पहुँचता हैं जहाँ आँखें चौंधियाती हैं, प्राणवायु अवरूद्ध हो जाता है और वह अपने पंख जलाकर औंधे मुँह धरती पर आ पड़ता है। फिर भी इस भयावह परिणति की परवाह किए बिना वह निकल पड़ता है अक्षत-सौंदर्य का अपरूप साक्षात्कार करने।

 

दुनिया की महान कलाकृतियों में मानवीय कल्पना, मेधा, पराक्रम और त्रासदी की न जाने कितनी रहस्यकथाएँ ख़ामोशी के साथ सो गयी हैं। ये स्मारक तो आज भी उस भव्य अतीत को उन्नत ललाट पर लेकर इतरा रहे हैं, लेकिन इन्हें सिरजने वाला शिल्पी अपने अपूर्व सौंदर्य का प्रतिदर्श रच कर लुप्त हो गया। अपनी कल्पना को आकार देकर वह कोई पहेली बन गया। उसकी रचना को पुराणेतिहास में भरपूर जगह मिली, लेकिन वह न समझे जाने योग्य कोई गल्प हो गया। उसकी प्रशस्ति हेतु न कोई पुनश्चर्या है, और न ही अवलंब।

 

पुरी से उन्नीस मील दूर कोणार्क का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर अवस्थित है। दूर-दूर तक कोई पर्वत-श्रृंखला नहीं, लेकिन दैत्याकार शैल-खंडों से निर्मित यह मंदिर टूटे हुये विमान के साथ सदियों से भग्न अवस्था में खड़ा है। मध्यकालीन परिवहन और यातायात के अभाव में भी जिन स्रोतों और मार्गों से लाकर शिलाखंडों को यहां स्थापित किया गया है, सचमुच वह पुरूषार्थ अकल्पनीय है।

 

अपने संपूर्ण रूप में सूर्य मंदिर जगह-जगह खंडित है। उड़ीसा की शिल्प-शृंखला में पराकाष्ठा तक पहुँची विद्याधरों की यह अंतिम कड़ी है। इतिहासकार बताते हैं इसमें कभी पूजा नहीं हुई, मंत्रोच्चार से नितांत निरलस, उजाड़ यह देवस्थान जैसे आप ही सूर्य के प्रदाह से जला पड़ा है। उड़ीसा में मंदिरों-भवनों की सुदीर्घ परंपरा में सर्वाधिक नूतन, किंतु नष्टप्राय यह धरोहर पुरातत्वविदों को और अचरज में डालती है।

 

मंदिर अपने प्रारूप में चौबीस पहिए का एक विशाल रथ है, जिसे सात अश्व खींच रहे हैं। इसका भव्य आकार देख कर उदात्त कल्पना भी फीकी पड़ जाती है, स्थूल भित्तियों पर सूक्ष्म चेष्टाओं के साथ अंकित मुद्राएँ सधे चित्रकार को भी विस्मय से भर देती हैं। इनकी भावप्रवणता देखकर कवि भी अचरज में पड़ जाते हैं। इसके सामने तमाम शिल्प तेजहीन लगने लगते हैं, और आधुनिक शिल्पकार स्तंभित हो जाते हैं। बड़े-बड़े महारथियों का पराक्रम इसके सम्मुख बचकाना लग सकता है।

 

भारतीय स्वाधीनता के चार साल बाद जगदीश चन्द्र माथुर नें अपनी अनुपम नाट्य-कृति ‘कोणार्क’ का प्रणयन किया था। सदियों बाद जब इस इस देश में सबकुछ नये सिरे से निर्मित हो रहा था, वे भारत के गौरवशाली अतीत में पहुँच जाते हैं। जहाँ महाप्रतापी नरसिंहदेव का साम्राज्य विलस रहा था। यद्यपि नाटककार ने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़-छाड़ तो नहीं की है, लेकिन उड़ीसा में प्रचलित लोकश्रुति को हू-ब-हू न स्वीकार कर, उससे कल्पना के लिए थोड़ा अवकाश ज़रूर ले लिया है। रचनाकार के लिए यही रन्ध्र अभिप्रेत है, जिसमें प्रविष्ट होकर वह हज़ार साल पीछे पहुँच जाता है।

 

नाटक का मुख्य चरित्र शिल्पकार ‘विशु’ है। ‘विशु’ उसका छद्मनाम है। पहले वह ‘श्रीधर’ हुआ करता था। श्रीधर एक ‘शबर-बाला’ पर आसक्त हो जाता है। लेकिन उसके गर्भधारण करने पर लोक-लाज के भय से वह आत्म-निर्वासन ले लेता है। उसके निर्वासन का कारण उसकी भीरूता है, वह जागतिक प्रश्नों से मुँह छिपाकर भाग जाता है। उसमें विद्रोह करने की सामर्थ्य न थी। लेकिन उसके भीतर इच्छाएँ शेष थीं, वासनाओं का ज्वार थमा नहीं था। महत्वाकांक्षा हिलोरें ले रही थी, किंतु वास्तविक मरुभूमि उसे जला रही थी। अब कला ही उसके लिए साध्य और साधन दोनों थी, कल्पना ही उसके जीवन का व्याज था। वह प्रतिज्ञ होता है कि उसे जीना है तो रचना होगा, रचे बिना कुछ नहीं। न इस पार, न उस पार। विशु बारह वर्षों से अनवरत कोणार्क की रचना में दत्तचित्त होकर लगा हुआ है। उसके साथ बारह सौ अन्य शिल्पी और हज़ारों की संख्या में श्रमिक इस महत् कार्य में जुटे हैं। अन्न-जल और अनेक आवश्यकताओं से बेपरवाह सब की एक ही अभीप्सा है…मंदिर अपूर्व और कालातीत कीर्ति का साक्षी बने।

 

महाराजा नरसिंहदेव प्रजावत्सल और कलाप्रेमी थे। साहित्य, संगीत, नृत्य और ललित कलाओं के लिए उन्होंने अपना कोश खोल दिया था। मंदिर निर्माण के लिए उन्होंने विशु को प्रधान शिल्पी बनाया और अन्य शिल्पियों व श्रमिकों हेतु सारी सुविधाओं का निर्देश चालुक्य राज को देकर बंगविजय पर चले गये थे। चालुक्य महत्वाकांक्षी, कपटी और कलाओं से पूर्णतया निस्संग था। उसने समस्त शिल्पियों और मज़दूरों की स्वर्णमुद्राओं (पारिश्रमिक) पर रोक लगा दी थी। और आदेश दिया था कि यदि सात दिन की अवधि में मंदिर का त्रिपटधर स्थापित न हुआ तो सभी बारह सौ शिल्पियों के हाथ काट लिए जाएँगे। इस तरह का क्रूर बर्ताव वह महाराज की आड़ लेकर कर रहा था।

 

मंदिर का उन्नत त्रिपटधर स्थापित करने में विशु असहाय हो गया था। कोई ऐसी जुगत न काम कर रही थी, जिससे मंदिर का ऊपरी हिस्सा स्थिर किया जा सके। यदि त्रिपटधर स्थापित न हुआ तो बारह वर्ष का समय और अपरिमेय श्रम का नाश तो होगा ही, अपयश और कलंक भी उसके मस्तक पर मढ़ दिया जायेगा। विशु किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुका था, उसकी कल्पना अँधेरे में राह तलाश रही थी। जिस कला की उसने जीवन भर साधना की थी आज वह मान पर बैठी थी।

 

सूर्य प्रकाश का अधिष्ठाता है और प्रसिद्धि का अधिपति भी, जबकि बृहस्पति और चन्द्रमा, विद्या व कला के स्वामी हैं। ज्योतिष-विज्ञान में यदि जातक का सूर्य अवनत दशा में हो तो कला-विद्या का चिर-अभ्यासी भी कीर्ति से वंचित ही रहता है। विशु प्रायश्चित करने की मनोदशा में खुद पर सूर्य का अध्यारोपण कर लेता है। वह मानता है कि उसका अपराध भी सूर्य जैसा है। जैसे सूर्य कुंती पर सहसा आसक्त हो उसे लांछित कर देता है, कर्ण को अनाथ कर उसकी अस्मिता के साथ खिलवाड़ करता है, उसी तरह का अक्षम्य अपराध मैंने भी किया।

 

निष्णात शिल्पी हाथ पर हाथ धरे खुद मूर्ति बन गये थे। उनकी सूक्ष्म कला-दृष्टि और बलिष्ट हाथों ने जितने कौशल से निर्माण कार्य किया था, परिणति से पहले वह अकारथ लगने लगा था। शिल्पियों ने सोचा भी न था कि कलश स्थापना उनके लिए इतनी बड़ी चुनौती बनेगी। इसी दौरान एक नाटकीय घटनाक्रम में धर्मपद का आगमन होता है। धर्मपद एक किशोर आशु शिल्पी है। उसकी कला में अपूर्व ओज है। यह ओज कई बार दर्प और औद्धत्य में व्यंजित होता है। वह कलश स्थापना के लिए आतुर है।

 

धर्मपद की गर्वोक्तियों से विशु को धक्का लगता है। विशु को नहीं मालूम ..धर्मपद उसी शाबर-स्त्री का पुत्र है, जिसे वह सत्रह वर्ष पहले छोड़ आया था। विशु ने अपनी भीरूता और नाकारेपन को कला से ढँक दिया था। एक बार वह असफल प्रेमी सिद्ध हो चुका था, दोबारा सर्वश्रेष्ठ शिल्पी का मुकुट उससे छीना जाने वाला है। जब विशु को गर्भवती सारिका का संबल बनना था, तब वह सर्वस्व समर्पित करने वाली प्रेयसी को छोड़कर भाग गया। अब जबकि उसके अधीन सारे शिल्पी और श्रमिक अपनी जान की परवाह न करके उसका सहयोग कर रहे हैं, मृत्यु और विद्रोह उन्हें संत्रस्त कर रहा है, विशु एक वायवी लोक में ऊभ-चूभ कर रहा है। उसे नहीं मालूम गर्वोक्ति, अभिमान और प्रचण्ड आत्मविश्वास से भरा हुआ धर्मपद अभावों में जूझकर खड़ा हुआ है, उसकी माँ ने दूसरों के यहाँ श्रम करके उसे पाला है। वह कला और धर्म को आसन्न नैतिक दायित्वों से विलग करके नहीं देखता।

 

आज विशु प्रधान शिल्पी के सम्मानित पद पर है, उसके पास ऐश्वर्य है, वह कला की मीमांसा करना जानता है। लेकिन कला उसका साथ छोड़ चुकी है…रचना-कर्म के सूत्र कब उसके हाथों छूट गये, इसका उसे भान ही न रहा। उसके सामने खड़ा तरूण शिल्पी अपने तर्क और बौद्धिक त्वरा से विशु को निरूत्तर कर देता है। वह युद्धकर्म में निपुण है, शिल्प-स्पर्धा में उसके सम्मुख दूर-दूर तक कोई नहीं।  विशु से धर्मपद पूछता है ..आपके शिल्पी, मज़दूर अन्न-जल के अभाव में प्राण त्याग रहे हैं, उनकी स्त्रियों का शीलहरण हो रहा है, उन्हें उनकी भूमि से वंचित किया जा रहा है…ऐसे में कला की बात करना क्या न्यायोचित है ? जब विशु उसे समझाता है कि शिल्पियों को राज-काज के कर्मों से खुद को अलग रखना चाहिए, तब धर्मपद विद्रोही बन जाता है।

 

धर्मपद की तर्कणा अकाट्य है, उसका आत्मबल सुमेरु की तरह अडिग है, उसकी कला में चन्द्रमा की व्याप्ति है, उसमें करूणा की पातालगंगा फूट रही है…और उसके सामने विशु संसार का सबसे दीन व्यक्ति है…प्रेम से वंचित, कला से बहिष्कृत और आत्मदौर्बल्य के सागर में हिचकोलें खाता डूबने की कगार पर..। प्रतिभावान धर्मपद न केवल शिल्पियों का मान रखता है, बल्कि सब उसके वशीभूत भी हो जाते हैं। फलतः इस विपरीत घड़ी में विशु प्रधान शिल्पी का अपना पद धर्मपद को दे देता है। तरूण धर्मपद अपनी चातुरी और तकनीकी दक्षता से सात दिन की अवधि में शिखर स्थापित करने में सफल हो जाता है। 

 

..और फिर शुरू होता है एक विप्लव, दुरभिसंधि का एक अपूर्व प्रतिकार जिसमें अपने राज्य के क्षेत्ररक्षण का दायित्व है, कला और अपने आराध्य पर सर्वस्व न्यौछावर करने का समय है। इसमें शिल्पी और सारे मज़दूर शामिल हैं।  अंततोगत्वा इस आपद धर्म में…सर्वनाश हो जाता है। बचती है एक खंडित कला, एक अपूरित प्रेम, और उसकी रहस्यगाथा…।

 

कोणार्क संश्लिष्ट अर्थों की मंजूषा है, इसका औत्सुक्य पाठकों-दर्शकों को डुबो देने वाला है, इसकी भाषा ओजपूर्ण और चित्ताकर्षक है। कलाकार के भीतर उपजते तमाम अंतर्द्वन्द्वों का यह समाहार करने वाली है। सचमुच तीन अंकों की यह नाट्यकृति अद्भुत है..!!

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