अनुनाद

प्रेम साहिल की कविताऍं / हिन्‍दी अनुवाद: मनोज शर्मा

त्रिभुवन नेगी

| नीलकंठ |

अध्यापकों की मार से 

हमें कौन बचाता था ?

एक ही रास्ता था मार से बचने का 

घर से पाठ याद करके जाना 

पर पाठ रोज़-रोज़ तो याद नहीं होते 

कई पाठ कठिन होते थे

अकेले के बस के नहीं होते, 

किसी की सहायता माँगते 

पर मेरे गाँव में सहायता करने वाला

कोई नहीं मिलता था

 

किसी न किसी विषय में 

किसी न किसी अध्यापक से

मार पड़नी तय थी

मैं पैदल स्कूल जाता था

रास्ते में नीलकंठ ढूँढ़ता था 

कोई नीलकंठ बिजली की तार पर 

कोई किसी और जगह बैठा मिलता

और कोई हवा में उड़ता हुआ दिखाई दे जाता

जितने नीलकंठ दिखाई देते 

मैं समझता

स्कूल के उतने ही पीरियड में

मार से छुटकारा पक्का है …I

सबक-कठिन, रोज़-रोज़ याद नहीं होते 

और नीलकंठ भी प्रतिदिन कहाँ दिखाई देते हैं!

  ***

| मैं रंग चित्रित करूँगा |

मैंने जितने स्वप्न रंगों में डुबोए 

सभी के रंग 

हवाएँ उड़ाकर ले गई

 

किन रंगों में चाव डुबोऊँ  

कौन सा भ्रम ओढ़ लूँ 

अँधेरे में न मिले परछाई

 

फूल-बूटे चित्रित करते 

जान निकालती रही फुलकारी 

कालिख़ से भरकर

कोई मार गया पिचकारी 

ज़िन्दगी किस ज़ुर्म की भोगती सजाएँ

 

स्वप्न मेरे, ज़ुर्म है मेरा 

मैं अपराधी, हूँ रंग-चितेरा 

शोख़ रंगों की हों 

शोख़ शरबती छायाएँ …

 

मैं रंग चित्रित करूँगा

साथ ही चित्रित करूँगा, सजाएँ।

***

| पीपल |

ऐ पीपल, मेरे गाँव के

नित माँगूँ तेरी ख़ैर

तेरे नीचे धूप तापी

सुस्ताए कई शिखर दोपहर

 

स्वाँग होते हम देखते

तेरे तले, सुनते थे गान

कंचे, पिट्ठू फिर खेलने को

तड़पते हैं मेरे प्राण

 

तेरे सब्ज़ पत्तों से

हम बनाते थे जोड़ी बैल 

फिर ता~ ता~ करके हाँकते थे

वे नखरे करके चलते थे 

 

लड़कियाँ जब कीकली डालतीं

अपेक्षाएँ उमड़ती आती थीं

कितना होता था तुमको 

होने का अभिमान

 

मिलता तुझसे रहूँगा 

आऊँगा गाँव जितनी बार 

मालूम, तू भी मुझ पर कभी

न बंद करेगा अपने द्वार।

***

| बालन |

स्कूल से वापस घर लौटते ही

माँ मुझे चाय-रोटी देती

फिर रस्सी, दरांती थमाकर

खेतों की ओर भेज देती थी 

बालन का ख़र्च बच जाए 

वह इस कोशिश में रहती

 

झाड़-झंखाड़ काटते 

आम की पत्तियों की गठरियाँ

बाँध-बाँध घर ले आते 

आम व टाहली से झड़कर टूटी हुई 

सूखी लकड़ी बीनते, कुछ तोड़ भी लेते 

उपले भी चुन कर ले आते थे

कभी-कभी उपलों के भ्रम में गंदगी पर हाथ पड़ जाते

 

झाड़ियां काटते तो हाथ लहूलुहान हो जाते 

लकड़ियां तोड़ते-मरोड़ते 

हाथ भी दुखने लगते

जब ज़ख्मी हाथों पर 

मलते थे सरसों का तेल 

बहुत जलन महसूस होती थी 

कभी किसी का काटा बालन चुराते हुए

पकड़े जाते 

कभी मौका मिल जाता तो घर भी ले आते 

कभी हाथ में कुछ पैसे होते तो

मोटा बालन खरीद लेते

राया कूटते 

तिल झाड़ते तो बदले में सूखा बालन मिल जाता 

भुट्टे बीनते तो उसके तुक्के मिलते …

बरसात के दिन छोड़ 

बालन लाने का यह काम कभी रुकता नहीं था 

पर चूल्हा तो बरसात में भी जलना था ।

***

प्रेम साहिल का परिचय:

प्रेम साहिल मूलतः पंजाब के हैं। इनका जन्म 11 जुलाई 1953 को मोदीनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। शिक्षा होशियारपुर में हुई। वे पंजाबी के वरिष्ठ कवि-लेखक हैं। हिन्दी के ग़ज़लकार और कवि भी हैं। इनकी रचनाएँ पंजाबी की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। वे राजकीय इंटरमीडिएट कॉलेज से प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। शिक्षा विभाग में आने से पहले वे सी.आई.एस.एफ. में सब इंस्पेक्टर भी रहे हैं। इन दिनों देहरादून (उत्तराखंड) में निवास कर रहे हैं। पंजाबी में इनके पाँच कविता संग्रह, एक ग़ज़ल संग्रह और एक गद्य की पुस्तक प्रकाशित है। इसके अलावा हिन्दी में भी पाँच ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए हैं। पंजाबी साहित्य में दीर्घकालिक कार्य के लिए इन्हें ‘उत्तराखंड साहित्य गौरव पुरस्कार’ प्राप्त हुआ है।  premsahil60@gmail.com 

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