
फूलों के रंग
फूलों के रंग
कैसे बदले जा सकते हैं
रक्त के रंगों से?
अगर इस वक़्त में
बदले जाने के लिए खंजर उठाए जा रहे हों
तब भी मैं इसे नहीं मानूँगा।
मैं नहीं मानूँगा तब तक यह
जब तक कि बच्चों के हाथों में फूल
गेंद बनकर उछाले जाते रहेंगे
***
प्रेम और नफ़रत का भेद
हम जो भी किसी को देते हैं
वो ही लौटकर फिर अपने तक आता है
चाहे वो शहद के मानिंद प्रेम हो
या आग की लपटों सी दहकती नफ़रत
इस बीच
हमें इस फ़र्क़ को नहीं भूलना चाहिए
कि दुनिया को सिर्फ़
शहद के मानिंद
प्रेम ही बचा सकता है
दहकती लपटें नहीं
***
प्यार और हिंसा
तुममें कूट-कूटकर भरा है प्यार
उसमें कूट-कूटकर भरी है हिंसा,
देखना एक दिन!
तुममें कूट-कूटकर भरा प्यार
उसमें कूट-कूटकर भरी हिंसा को
जीत लेगा
***
जीवन को मैंने क्या जिया
जीवन को मैंने क्या जिया
जितना मेरे प्राणों ने जिया
जीवन को मैंने क्या जिया
जितना मेरी धड़कनों ने जिया
जीवन को मैं
जी ही कहाँ पाया
जितना तुम्हारी याद में
मेरी तड़प ने उसे जिया
मैं जीवन को कहाँ जी पाया उतना
जितना तुम्हारे लिए
कविताएँ लिखते हाथों ने उसे जिया
कहां जी पाया मैं
उतनी जीवटता से भी इसे
जितना तुम्हारे इंतज़ार में
मेरी पथराई आँखों ने जिया
मैं तो दिन रात
तुम्हें याद करता रहा
कभी नदी के पत्थरों में
भटकते हुए
कभी एकांत घास पर लेटे
कभी उन तारों के तले
जिन्हें हम दोनों
देखा करते थे रातों में
मैं तो तुम्हारे लोभ में
डोलता रहा निर्जन खंड में
तुम्हारे एक स्वप्न की ख़ातिर
***
प्रेम
इस ढहती हुई पृथ्वी को
बचा लेंगे हम
चाहिए तो बस
तुम्हारा प्रेम
और मेरे हाथों में
तुम्हारे हाथ
***
इस दुनिया को बनाने में
इस दुनिया को बनाने में
कई रातें खर्च हुईं
कई दिन बीते
अपने को खोकर
फिर से पाया
ऐसा कई-कई बार हुआ
इस बीच कई शोध आजमाए
कई चीजें परखीं
सत्य के आग्रह पर
पाँवों को जमाए रखा
धूप, सर्दी’बारिश
और तीव्र दमन में भी
इन सबके साथ
अपनी हथेलियों में
थामे रखा प्यार
थामे रखी पृथ्वी
तब कहीं जाकर ये दुनिया
रहने लायक बनी है
अब इसे
रहने लायक बने रहने दीजिए
***
फिलहाल मेरे पास
मैं अकेला बैठा हुआ
आकाश में बादलों को देख रहा हूँ
इस वक़्त नदी का तट है मेरे पास
नदी के इस तट पर
खजूर का अकेला पेड़ है
जिसके तने पर कठफोड़वा
पंजे गड़ाए अपनी चोंच से
कट-कट करता
घर की जुगत में कोटर बना रहा है
बड़ी ही एकाग्रता से वह
इस काम को कर रहा है
अभी दिन का तीसरा पहर है
या तो यह अकेला पक्षी है यहाँ
या फ़िर मैं ही हूँ
नदी पर सूरज की किरणें पड़ रही हैं
वह दर्पण बन गई है
आषाढ़ के बादल उस दर्पण में
अपना चेहरा देखते हुए गुजर रहे हैं
नदी का किनारा चढ़कर मैं समतल में आ गया हूँ
देखता हूँ करंज के पेड़ पर कोयल और पपीहे
एक-दूसरे से झगड़ रहे हैं
कोयल उड़कर दूर पीपल में जाकर छुप गई है
वहाँ जाकर उसने
पत्तों में छुपकर
अपनी तान को फिर छेड़ दिया है
यहीं तरह-तरह की चिड़ियाँ
बारिश से पहले
अपने घोंसले बनाने में जुटी हैं
गिलहरियाँ घास और कपास के फाहों से
अपने महल बना रही हैं
बुलबुल ने काँटों की झाड़ी के बीचोंबीच
अपना घर बनाया है
मैं खेतों की मेड़ पार करता चला जा रहा हूँ
अब नदी से घर तक जाने वाले रास्ते में
एक नाला पड़ता है
जिसमें अभी-अभी वर्षा होने के कारण
पानी बहने लगा है
अब इसे पार करना है
यह पाँवों को डुबोए बिना संभव नहीं हो रहा है
मैं इन सबसे गुजरते हुए
इनसे मिलते हुए
घर के रास्ते में हूँ
नदी,बादल, खजूर, कठफोड़वा
कोयल, पपीहा, बुलबुल सोचते हुए मैं चल रहा हूँ
घर के रास्ते में पड़ने वाला
फूलों से लदा गुलमोहर आ गया है
जिसकी छाँव तले
अक्सर मैं बैठा रहता हूँ
अभी-अभी बारिश शुरू हो गई है
यहीं से थोड़ी दूरी पर
बच्चे भीग रहे हैं
उनकी भीगी हथेलियों को मैंने छुआ
तो वे शरमाते हुए भाग गए हैं
उनकी हथेलियों का रंग ऐसा
कि हर किसी को अपने प्यार में डुबो देना चाहता है
उनकी हथेलियों को मैं सोचता हूँ
मैं और आगे बढ़ता हूँ
अब साँझ घिर आई है
घर दिख रहा है
वह डूब रहा है
साँझ के गाढ़े रंगों में
आकाश पर अब साँझ का तारा टँग गया है
इस वक़्त वह अकेला तारा है
जो बादलों के बीच में टिमटिमा रहा है
बादल, बारिश और बच्चे मेरे साथ हैं
तुम आना मेरे पास
मैं छत पर
उसी टिमटिमाते साँझ के अकेले तारे को
निहारते हुए मिलूँगा
फिलहाल मेरे पास कुछ नहीं है
तुम्हें देने के लिए
सिवाय इस अकेले तारे के
.***
परिचय
झालावाड़ राजस्थान से । मुक्तिपथ फेसबुक पेज की संचालन टीम में सदस्य। पूर्व में कविताएं बनास जन,समय के साखी,परिकथा, वागर्थ पत्रिका में प्रकाशित