प्रौढ़ कवियों के युवा कहलाने के दौर में राहुल देव एक नौउम्र कवि हैं। युवा कविता के सैलाब में कुछ अन्तर्धाराएं हैं, जिनके जल का बहाव और ऊष्मा ऊपरी लहरों से अलग है – राहुल आपने आगमन में उसी अन्तर्धारा के कवि मालूम होते हैं। उनके यहां नरेशन और रेटारिक को साधने के प्रयासों के बीच कहीं कविता अपनी प्रतिबद्धताओं के साथ बोलती है और हम उसका बोलना ध्यान से सुनते है। इन कविताओं की भाषा, जो जनता की है – बोधगम्यता की नहीं, अपने समाज और विचार तक पहुंचने की कसौटी पर ख़ुद को आज़माती है।
जाहिर है कि राहुल हमारे लिए घनी उम्मीदों के कवि हैं, जो संभावना के हर स्पेस में दिखाई दे रहे हैं। अनुनाद पर राहुल के पहले संग्रह की समीक्षा पाठक पढ़ चुके हैं – उनकी कविताएं हम पहली बार छाप रहे हैं। इस युवा ऊर्जा का अनुनाद पर स्वागत और इन कविताओं के लिए शुक्रिया।
असम्पृक्त
रहते हुए
रहते हुए
कितने दिन,
कितनी रातें, कितनी बातें
कितनी रातें, कितनी बातें
हमारे
चारों ओर कितने सारे लोग
चारों ओर कितने सारे लोग
और लोगों
के बीच में निपट अकेले हम..
के बीच में निपट अकेले हम..
हमारा कल
कितना अच्छा था
कितना अच्छा था
सचमुच वह
दिन लौट सकते
दिन लौट सकते
यह सोचना
अक्सर,
अक्सर,
बीता हुआ
कल, आज और आने वाला कल
कल, आज और आने वाला कल
हाँ चीजों
का होना मेरे बस में नहीं
का होना मेरे बस में नहीं
स्थितियां
हमेशा एक जैसी नहीं रहती
हमेशा एक जैसी नहीं रहती
मैं हँसता
हूँ यह सोचकर-
हूँ यह सोचकर-
क्या
मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी हो सकता है…
मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी हो सकता है…
जब दिमाग़
का दही होता है
का दही होता है
घूमफिरकर
एक ही बात,
एक ही बात,
जेब में
पैसे की गर्मी हो
पैसे की गर्मी हो
तो साला
दिमाग कैसे सरपट भागता है
दिमाग कैसे सरपट भागता है
इस पैसे ने
आदमी को कहीं का न छोड़ा
आदमी को कहीं का न छोड़ा
पैसे पर
टिकने वाले सम्बन्ध !
टिकने वाले सम्बन्ध !
कभी-कभी
अपने आप पर कितना गुस्सा आता है
अपने आप पर कितना गुस्सा आता है
जैसा मैं
सोचता हूँ वैसा
सोचता हूँ वैसा
शायद सभी
सोचते होंगे (?)
सोचते होंगे (?)
ख़ालीपन को
मैं कैसे भरूं
मैं कैसे भरूं
क्या यहाँ
पर कोई मेरे जैसा है और ?
पर कोई मेरे जैसा है और ?
लोगों की
कुछ बातें
कुछ बातें
मुझे बहुत
बुरी लगतीं हैं
बुरी लगतीं हैं
ऐसा
वातावरण तैयार होता है
वातावरण तैयार होता है
कि बस
पूछिए न
पूछिए न
क्या ही
अच्छा होता कि
अच्छा होता कि
कोई मेरे
जैसा ही साथी
जैसा ही साथी
मुझे मिल
गया होता
गया होता
और मैं आज
ही
ही
अपने छोटे
से घर के आँगन में
से घर के आँगन में
कल के सपने
बोता !
बोता !
***
वे लोग !
कभी-कभी
ऐसा होता है
ऐसा होता है
जब तुम कुछ
और सोचते हो
और सोचते हो
और होता
कुछ और है
कुछ और है
तुम कुछ और
चाहते हो
चाहते हो
लेकिन होनी
को
को
मंजूर कुछ और
होता है
होता है
तब तुम-
नियमों को
धीरे-धीरे तोड़ते हो
धीरे-धीरे तोड़ते हो
तुम्हारी
कुंठा तुम्हारी कमजोरी बन जाती है
कुंठा तुम्हारी कमजोरी बन जाती है
कुछ
कारण…
कारण…
तुम्हारी
समझ की समझ में आते हैं
समझ की समझ में आते हैं
जिन्हें
तुम अपने रास्ते की रूकावट मानते हो
तुम अपने रास्ते की रूकावट मानते हो
लेकिन तुम
जानते हो
जानते हो
कि तुम
उनसे पार नहीं पा सकते
उनसे पार नहीं पा सकते
तब तुम कुछ
अपनी सोच से
अपनी सोच से
थोड़ा आगे
ही सोच डालते हो
ही सोच डालते हो
और लोग जान
तक नहीं पाते !
तक नहीं पाते !
तुमने समय
को इस तरह से बिताया
को इस तरह से बिताया
कि आज
स्थिति बहुत बिगड़ गयी
स्थिति बहुत बिगड़ गयी
समस्या बढ़
गयी
गयी
तुम्हे
समाधान सूझा नहीं
समाधान सूझा नहीं
अपनी
परेशानियों का हल तुम्हे
परेशानियों का हल तुम्हे
ढूंढें से
भी मिला नहीं,
भी मिला नहीं,
तुम करो तो
क्या करो
क्या करो
तुम स्वयं
नहीं जानते
नहीं जानते
और दूसरों
से जानना भी नहीं चाहते
से जानना भी नहीं चाहते
धीरे-धीरे
तुम
तुम
समाज से
विलग हो गये
विलग हो गये
और अपनी
अलग दुनिया में
अलग दुनिया में
न जाने
कहाँ खो गए !!
कहाँ खो गए !!
***
दलदल
अनंत तक
विस्तृत सागर कर्मशील होता है
विस्तृत सागर कर्मशील होता है
झरनों का
कलनाद हमें अच्छा लगता है
कलनाद हमें अच्छा लगता है
और नदियाँ
बड़ी सुन्दर होती हैं
बड़ी सुन्दर होती हैं
सदा अबाध
गति से चलतीं हैं
गति से चलतीं हैं
लेकिन दलदल
!
!
जहाँ समस्त
जलचरों की उपस्थिति का
जलचरों की उपस्थिति का
भय बना
रहता है
रहता है
संसार की
सृष्टि में
सृष्टि में
दलदल की
अपनी अलग सृष्टि होती है
अपनी अलग सृष्टि होती है
बिलकुल अलग
तरीके की
तरीके की
अलग तरह के
लोग अलग-थलग जीवन
लोग अलग-थलग जीवन
तरह-तरह की
ध्वनियों का रहस्य दफ़न होता है
ध्वनियों का रहस्य दफ़न होता है
दलदल में
हलचल होती है
हलचल होती है
हम दुबक
जातें हैं
जातें हैं
डर है वह
हर वस्तु लील लेगा
हर वस्तु लील लेगा
क्या कुछ
और भी है इसके पीछे
और भी है इसके पीछे
आवरण झीना
है
है
जलाविष्ट
निचले मैदान
निचले मैदान
भय के
वातावरण में जी रहे हैं
वातावरण में जी रहे हैं
मगर क्यों ?
परदे के
पीछे छायाएं बनती हैं
पीछे छायाएं बनती हैं
लम्बी-लम्बी
घासें
घासें
वायुवेग से
सरसराती हैं
सरसराती हैं
झुरमुट आपस
में टकराते हैं
में टकराते हैं
हलके से
झांकता है डरे हुए चाँद का चेहरा
झांकता है डरे हुए चाँद का चेहरा
बादलों के
पार फिर छिप जाता है
पार फिर छिप जाता है
रात की
निस्तब्ध नीरवता
निस्तब्ध नीरवता
उसे डसे ले
रही है
रही है
शांत कोहरा
जो उसकी सतह पर
जो उसकी सतह पर
कफ़न की तरह
पड़ा रहता है
पड़ा रहता है
या बड़ी
कठिनाई से सुनाई दे सकने वाले
कठिनाई से सुनाई दे सकने वाले
छपाके के
स्वर !
स्वर !
जो बहुत ही
कम, बहुत ही धीमा होते हुए भी
कम, बहुत ही धीमा होते हुए भी
कभी-कभी
बिजली की कड़कों
बिजली की कड़कों
या तोपों
की गड़गडाहटो से भी भयानक होता है,
की गड़गडाहटो से भी भयानक होता है,
इनमें से कोई
तो कारण होगा
तो कारण होगा
या कुछ और
बात है
बात है
नहीं,
इसमें कोई दूसरी ही बात है
इसमें कोई दूसरी ही बात है
कोई दूसरा
ही रहस्य है शायद
ही रहस्य है शायद
वह सृष्टि
का अपना ही इतिहास है
का अपना ही इतिहास है
क्यों क्या
यह बात नहीं कि निश्चित
यह बात नहीं कि निश्चित
एवं ठहरे
हुए गंदले जल में
हुए गंदले जल में
इस गीली
भूमि की बेहद सील में
भूमि की बेहद सील में
सारी
निष्ठा, विष्ठा में मिल गयी
निष्ठा, विष्ठा में मिल गयी
और पहले-पहल
जीवों में
जीवों में
प्राणों का
संचार हुआ
संचार हुआ
उसी के
कारण यह स्थिति है
कारण यह स्थिति है
सब सहने की
आदत पड़ती जा रही है
आदत पड़ती जा रही है
लिजलिजे हो
एक दूसरे को ताक रहे हो
एक दूसरे को ताक रहे हो
तुम एकदम
मूढ़ हो गये हो
मूढ़ हो गये हो
ऐसी कुछ
बातें तुम्हारे दिमागों में
बातें तुम्हारे दिमागों में
घुसपैठ कर
गयीं हैं
गयीं हैं
जो इन
दलदलों को
दलदलों को
उन भयानक
कल्पित देशों के समानांतर
कल्पित देशों के समानांतर
ला पटकती
हैं
हैं
जिनमें एक
अज्ञेय
अज्ञेय
एवं भयानक
रहस्य होता है
रहस्य होता है
एक मिनट
भाई साब
भाई साब
आप धीरे
धीरे जड़ हो रहे हो !
धीरे जड़ हो रहे हो !
***
महाप्रलय
लाशें बिछी
हुई हैं
हुई हैं
जहाँ तक
नज़र जाती है
नज़र जाती है
सिर्फ
लाशें ही लाशें
लाशें ही लाशें
सुर्ख कफ़न
में लिपटे शरीर
में लिपटे शरीर
निश्चेष्ट
पड़े हुए हैं
पड़े हुए हैं
कोई हरकत
नहीं
नहीं
सन्नाटा
चीखता है
चीखता है
बिलकुल निस्तब्धता
मानो यह
दुनिया खाली हो गयी है
दुनिया खाली हो गयी है
कहीं कोई
आवाज़ नहीं
आवाज़ नहीं
मेरे सिवा
जाने सब कहाँ चले गये
जाने सब कहाँ चले गये
बगैर पहचान
के सब मिट गये
के सब मिट गये
कोई रहने
वाला नहीं बचा धरा पर;
वाला नहीं बचा धरा पर;
या खुदा
तेरी खुदाई
तेरी खुदाई
मरते वक़्त
तेरे बच्चों ने
तेरे बच्चों ने
दो ग़ज जमीन
भी न पाई
भी न पाई
कोई टुकड़ा
बचा ही नहीं
बचा ही नहीं
इस चुप्पी
में हजारों चीखें समाई हैं
में हजारों चीखें समाई हैं
आखिर ये
दुनिया तेरी ही बनाई है
दुनिया तेरी ही बनाई है
अचानक शरीर
हिलने लगे
हिलने लगे
हलचल होने
लगी
लगी
एक लाश का
हाथ
हाथ
कफ़न फाड़कर
बाहर निकला
बाहर निकला
ईश्वर को
शायद ये अच्छा न लगा
शायद ये अच्छा न लगा
उसकी
संताने यूँ ही मर जाएँ
संताने यूँ ही मर जाएँ
अरे !
यह क्या..?
सब के सब
हाथ उठने लगे
हाथ उठने लगे
कुछ चेतना
बाकी थी इनमे शायद
बाकी थी इनमे शायद
में बना था
मूकदर्शक
मूकदर्शक
क्या
करिश्मा है यह !!
करिश्मा है यह !!
या किसी
विभीषिका का मूर्त
विभीषिका का मूर्त
आने वाली
आपदा का स्वरुप
आपदा का स्वरुप
लोग चिल्ला
रहे थे-
रहे थे-
हमें
बचाओ…
बचाओ…
हम जीना
चाहते हैं
चाहते हैं
जीवटता का
चरम था यह
चरम था यह
मैं सहन न
कर सका,
कर सका,
अचानक देखा–
एक लहर उठी
और सबको
लील गयी
लील गयी
सब शांत हो
गया
गया
अब कोई भी
हाथ नहीं उठा
हाथ नहीं उठा
सब स्थिर
हो गया
हो गया
जो कुछ
जैसा था वैसा ही रहा
जैसा था वैसा ही रहा
पूर्ववत !
सिर्फ इतना
ही लिखने के लिए
ही लिखने के लिए
मै भी
जिंदा रहा
जिंदा रहा
फिर तड़पा
और मुक्त
हो गया !!
हो गया !!
***
अनहद नाद
वह अक्सर
मेरे उधर आता है
मेरे उधर आता है
शरीर एकदम
दुर्बल
दुर्बल
कृशकाय
त्वचा
त्वचा
धीमी आवाज़
से कुछ कहता,
से कुछ कहता,
भगा दिया
जाता
जाता
फिर आता
अपने आप से
लड़ता
लड़ता
अपने आप से
खेलता
खेलता
हँसता रोता
सुबह से
शाम तक खटता
शाम तक खटता
जीवन इसी
तरह कटता जाता
तरह कटता जाता
और अंततः
एक दिन
एक दिन
वह मर जाता
है;
है;
वे लोग
जो उसके
जिंदा रहने पर
जिंदा रहने पर
आनंदोत्सव
मनाते थे
मनाते थे
उसके मरने
की खबर सुनकर
की खबर सुनकर
क्षणिक शोक
में डूब जाते हैं
में डूब जाते हैं
फिर हमेशा
की तरह
की तरह
अपने कामों
में व्यस्त हो जाते हैं,
में व्यस्त हो जाते हैं,
मेरा दिल
यह मानने को
यह मानने को
तैयार नहीं
होता
होता
रह-रहकर
मेरी दृष्टि
मेरी दृष्टि
अटक जाती
है नुक्कड़ के उस टीले पर
है नुक्कड़ के उस टीले पर
जहाँ वह
घंटों एक ही मुद्रा में बैठा रहता
घंटों एक ही मुद्रा में बैठा रहता
न चाहते
हुए भी मेरी नज़र
हुए भी मेरी नज़र
इस सड़क से
उस सड़क तक चली जाती
उस सड़क तक चली जाती
उसकी कराह
अनहद नाद बनकर
अनहद नाद बनकर
मेरे आसपास
गूंजती रहती
गूंजती रहती
आज इतनी
भीड़ होने पर भी
भीड़ होने पर भी
पता नहीं मुझे
क्यों
क्यों
सड़क सूनी
नज़र आती !!
नज़र आती !!
***
अक्स में
‘मैं’ और
‘मेरा शहर‘ !
‘मैं’ और
‘मेरा शहर‘ !
ठहर जाता है समय
कभी–कभी
ठहरे हुए पानी की तरह
तो कभी फिसल जाता है वह
मुट्ठी में बंधी रेत की तरह
जब आँखें बन्द रहती हैं
और दिमाग जागा करता है
तब सोचता हूँ…
करता हूँ कोशिश सोने की
करवट बदलता हूँ
सुविधा, सुविधा– ‘दुविधा‘
हाय रे ‘सुविधा‘ !
मैँ अपने खोखलेपन पर हँसता हूँ
खालीपन को भरने की
करता हूँ एक नाकाम कोशिश
दोहरेपन के साये में
दोराहे सी जिंदगी का
अनजान
राही बन
राही बन
आगे–पीछे चलता
फीकी हँसी–फीकी नमी
उन खट्टे–मीठे पलों की यादें
गूँजती आवाजे़ं;
अपने पैदा होने के कुछ ही वर्षो बाद
मैंने जान लिया था
क्या है जीवन–
जीवन संघर्षो का नाम है
जिस पर चलते रहना
आदमी का काम है !
कल यूँ ही बाजार टहलने निकला तो
देखा-
देखा-
ठेले पर धर्म, शांति और मानवता
थोक के भाव में बिक रही थी
फिर भी कोई नहीं था उसे लेने वाला
दूसरी ओर भ्रष्टाचार का च्यवनप्राश
सबको मुफ्त बँट रहा है
जिसे लेने
के लिए
के लिए
धक्कामुक्की मची है
जिन्हे मिल गया वे
दोबारा हाथ फैलाए हैं
कुछ आदमी पीछे लटककर
बाँटने वालों से
साँठ–गाँठ कर रहें
हैं
हैं
आँख उठाता हूँ तो
दूर–दूर तक दिखते
हैं
हैं
कच्चे–पक्के चौखटे
और ऊपर भभकता सूरज
जिसकी तपिश से झोपड़े आग उगल रहे हैं
इसी शहर में कहीं दूर नैतिकता
ए.सी. में आराम कर रही है
दूसरी तरफ कुछ ईमानदार सच्चाई के
बोझ से थककर
बोझ से थककर
बेईमानी की चादर तानकर सो गए हैं
आगे नुक्कड़ पर भूले बिसरे सज्जन
दुर्जनों को
अपने पैसों की चाय पिला रहें हैं
यह इस शहर में आम है
क्रिकेट में चौका,
दीवानेखास में मौका
प्लस बेईमानी का छौंका
यह इस तीन सूत्रीय कार्यक्रम का
अपना एक अलग इतिहास है
पंचसितारा होटलों की सेफ में बन्द
है
है
‘परिश्रम‘ की डुप्लीकेट चाभी
सिक्सर्स हँस–हँस कर ताली पीट रहें हैं
समाधान, समाधान
समाधान !
हे. हे..
हे…
हे…
सौ प्रतिशत मतदान
बन्द हो गई राष्ट्रीयता की दूकान
आमतौर पर यहाँ हर दूसरा आदमी
‘बाई पोलर
डिसआर्डर‘ से ग्रसित होता है
डिसआर्डर‘ से ग्रसित होता है
हर दुनियावी प्राणी का अक्स
उसकी परछांई से छोटा होता है !
***
अरे भाई !
अरे भाई !
क्यूँ उदास
बैठे हो ?
बैठे हो ?
इस युग में
ताज़ा माल
लिए बैठे हो
लिए बैठे हो
ऐसे तो
भूखे मर जाओगे !
भूखे मर जाओगे !
कुछ
विविधता लाओ
विविधता लाओ
सच में झूठ
के कंकर मिलाओ
के कंकर मिलाओ
बेचो, मौज
उड़ाओ
उड़ाओ
खाओ, पियो,
ऐश करो
ऐश करो
रिश्वत ले
दे के व्यवहार बनाओ,
दे के व्यवहार बनाओ,
बैंक
बैलेंस बढ़ाओ
बैलेंस बढ़ाओ
आयकर मत दो
स्विस बैंक
में खाता खुलवाओ
में खाता खुलवाओ
जब लोग
उन कंकरों
को चबायेंगे
को चबायेंगे
तब
तुम्हारे गुण गायेंगे
तुम्हारे गुण गायेंगे
कोई फिकर
नहीं
नहीं
पकड़े जाओ
तो भी घूस
देकर बच जाओ
देकर बच जाओ
और ससम्मान
घर आकर
घर आकर
फिर से
अपनी दूकान चलाओ !
अपनी दूकान चलाओ !
***
हारा हुआ
आदमी
आदमी
बस एक ही काम
सुबह से शाम
और शाम से सुबह तक
एक यथास्थितिवादी की तरह
अपनी क्षमताओं का आकलन
देना योगदान समाज को
अपने होने का एहसास
खुद की पहचान का सीलबन्द
प्रस्तुतिकरण..
प्रस्तुतिकरण..
आज आदमी होने के मायने
कितने बदल गए हैं
भीड़ बढ़ती जाती है
दुनिया सिमट रही है
चहुँओर मनी और पॉवर की धूम है
जहाँ देखता हूँ हर तरफ
आदमी दुबका जाता है
दूसरी तरफ समय चलता जाता है;
शायद आदमी के लिए आदमी होना
कोई बड़ी बात नहीं
लेकिन मेरे लिए
आदमी को आदमी समझना
खुद के लिए शर्मनाक है
जिसकी आदमियत की डेट कबकी एक्सपायर
हो चुकी है
हो चुकी है
लेकिन वो जीता जा रहा है, लाचारी से
जिंदगी जीने के मुगालते में
किसी बन्द आवरण में लिपटी प्रतिमा
की तरह
की तरह
मूक है जिसकी मौलिकता
उसकी सम्वेदनाओं के शीशों पर
भौतिकता की मोटी परत चढ़ गयी है
आज वह जी रहा है अपने लिए
सोच रहा है तो सिर्फ अपने लिए
देख रहा है सिर्फ अपनी सुविधा,
जिनको पढ़ने
वाला अब कोई नहीं बचा
वाला अब कोई नहीं बचा
ऐसी फिलॉसफी, इतिहास और साहित्य की किताबों को
दीमक पुस्तकालयों में बन्द अलमारियों में
मजे से खा रहें हैं
मानो सारा जीवन बगैर पटरी की रेल है
सारा सिस्टम ही फेल है.
कल क्या था और कल क्या होगा
इससे किसी को कोई मतलब नही
चर्चाओं का माहौल गरम है
गाँव के गलियारों से
शहर के चौराहों तक
हर एक जगह लगा हुआ है
इन हारे हुए आदमियों का
अट्ठहास लगाता हुआ मज़मा
विरोध के नेपथ्य में
एक आदमी बड़ा परेशान है
जी हाँ,
वह कवि है
कविता हैरान है !!
***
–
संपर्क – 9/48 साहित्य सदन,
कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203
कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203
मो.– 09454112975
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com
ब्लॉग- samvedan-sparsh.blogspot.in
राहुल की कविताएँ अपने अर्थों में बहुत गूढ़ होती हैं लेकिन भाषाई स्तर पर सरल. उनमें भाषा का दिखावा या बनावटीपन नहीं. चलते-चलते रास्ते में मिलने वाले शब्दों को वे पिरोते चलते हैं. यही कारण है कि उनकी अभिव्यक्ति का सम्प्रेषण इतना सशक्त होता है!
कविताएं सुन्दर हैं ।बधाई ।