(इस लेख को मेल द्वारा भेजते हुए सूचित किया गया है कि इसे मूलत: जनसत्ता के लिए लिखा गया था किन्तु जनसत्ता सम्पादक द्वारा यह हवाला देते हुए कि इस विषय पर बहुत कुछ छापा जा चुका है और इस लेख विशेष के लिए अब जगह नहीं रह गई है, इसे लौटा दिया गया। पहले भी जनसत्ता से इस तरह के उत्तर आशुतोष कुमार, गिरिराज किराड़ू, अशोक कुमार पांडे आदि नए लेखकों को मिलते रहे हैं।
बहरहाल, वरिष्ठ कवि विष्णु खरे को अख़बार द्वारा मिले जवाब को मैं अत्यन्त खेदपूर्वक इस तरह पढ़ता हूं कि एक ज़माने से हमारे बहुत प्रिय रहे जनसत्ता नामक अख़बार में अब उन साहित्यिक बहसों के लिए कोई जगह नहीं रह गई है, जिन्हें उसके सम्पादक अपने मन-मुताबिक संचालित नहीं कर सकते। इस लेख को हमें भेजने के लिए खरे जी का आभार। इसे अनुनाद पर शब्दश: लगाया जा रहा है)
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मुझे लोक- या आंचलिक भाषाओं का मरजीवड़ा कहलाए जाने की
कोई पछाँही बीमारी नहीं है किन्तु कभी-कभी कथित बोली-बानियों के कुछ शब्द कतिपय
सन्दर्भविशेषों में बहुत कारगर हो उठते हैं.हमारे बुंदेलखंड में अतिरिक्त या ‘’मूर्ख’’
उत्साहीलालों के लिए ‘हुलफुल्ला’ विशेषण चलता है और शायद उसी अर्थ में
‘हुड़ुकलुल्लू’ को भी हिंदी में कई,विशेषतः युवा,लेखकों ने अंगीकार किया है.इधर एक
ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण हादसा पेश आया है कि यह दोनों शब्द बहुत याद आ रहे हैं.
हिंदी जगत को स्मरण होगा कि मित्रवर अशोक वाजपेयी ने
[‘कभी-कभार’,9 जून] उसे सूचित किया था कि वह इस ‘’रवीन्द्रनाथ ‘गीतांजलि’
नोबेल-पुरस्कार शती-वर्ष’’ के उपलक्ष्य में ‘सैयद हैदर रज़ा प्रतिष्ठान’ के
तत्वावधान में एक विश्व कविता समारोह करने जा रहे हैं जिसके लिए उन्होंने भारत के
राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री से आर्थिक सब्सिडी माँगी है.उनके द्वारा आयोज्य इस
वैश्विक अनुष्ठान में कितने देशों से कौन-से कवि-कवयित्रियाँ आनेवाले थे यह अशोक
ने ज़ाहिर नहीं किया था – शायद इसलिए भी कि वे स्वयं इतने विदेशी भागीदारों को या
तो जानते न थे या अनेक कारणों से उनके नाम तय नहीं कर पाए थे.
चूंकि मेरे लिखे पर उचित ही व्यापक रूप से ध्यान नहीं
दिया जाता इसलिए यह कैसे कहूँ कि उसी हिंदी जगत को यह भी स्मरण होगा कि अगले ही
रविवार [16 जून]को मैंने अशोक के प्रस्तावित विश्व काव्य मेले का रवीन्द्रनाथ के
बहाने विरोध किया था और यह सवाल उठाए थे कि किसी जीवित,संपन्न चित्रकार को अमर और
समृद्धतर बनाए जाने के उद्देश्य से खड़े किये गए निजी ट्रस्ट या फाउंडेशन द्वारा
आयोजित किसी अंतर्राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन को कोई भी सरकार आर्थिक मदद क्यों देगी –
विशेषतः तब जबकि उसी सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा सौ प्रतिशत पोषित एक ऐसी
अकादेमी भी मौजूद है [अब पिछले कई वर्षों से वह मिनिस्ट्री और वह अकादेमी कैसी है
और उनके मंत्री/अध्यक्ष/सचिव आदि कैसे रहते चले आए हैं यह एक अलग बहस है] जिसका
काम ही ऐसी साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करना है और जिसका कार्यालय पिछली
आधी सदी से ऐसे भवन में है जिसका नाम कवि रवीन्द्र पर ही है ? ऐसे किसी भी जलसे पर
एक करोड़ रुपए से कम क्या खर्च होगा– अशोक में सब ऐब होंगे पर उनमें कंजूसी शामिल
नहीं है,उनके यहाँ पैसा शराब की तरह बहाया जाता रहा है – और इतनी बड़ी रक़म सरकार
द्वारा किसी निजी प्रतिष्ठान के सी ई ओ को कैसे सैंक्शन की जा सकती है,भले ही वह
‘अधिकारी’ उसी मंत्रालय में एक वरिष्ठ आइ ए एस अफ़सर रहकर रिटायर क्यों न हुआ हो ?
लेकिन रज़ा फाउंडेशन के पैसे और पद,अपने पूर्व-आइ ए एस
होने के आत्म-विश्वास और अपनी निजी प्रतिभा के ‘हुब्रिस’ से मुग्ध अशोक ने इस विश्व-काव्यायोजन
के प्रयोजन हेतु ‘पी आर’ तथा प्रतिभा-आखेट के लिए एक ‘यूरोप-टूअर’ बना ही डाला और
वहाँ विभिन्न देशों,राजधानियों-महानगरों,साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की
यात्राएँ कीं.मित्रों और पूर्व-परिचितों से भी मिले. उन्हें यकीन था कि उनके
प्रतिष्ठान को सरकारी अनुष्ठान-राशि मिल जाएगी और उन्होंने दाएँ-बाएँ आश्वासन और
निमंत्रण बाँटने शुरू कर दिए.
अब जब कोई ऐसा ‘सैल्फ-फिनान्स्ड’ व्यक्ति यूरोप में सही
‘नेम-ड्रॉपिंग’ सहित अपनी कर्नल ब्लिम्प-नुमा,’सूडो-ऑक्सब्रिज’ इंग्लिश बोलता हुआ
इतने आत्म-गौरव से लबरेज़ घूमता है तो आमतौर पर भरोसा हो जाता है कि इस तरह के
विज़िटिंग-कार्ड वाला, इतना डाइनैमिक 70-वर्षीय ‘’अधेड़’’आदमी ‘फ्रॉड’ तो नहीं हो सकता. यूँ
भी अशोक ‘फ्रॉड’ नहीं हैं.उन्हें अपने आयोजन पर इतना विश्वास था कि उन्होंने सबको
इसी दिसंबर की तारीख भी दे दी.लिहाज़ा उनके दावतनामों या तज़वीज़ों पर फ़ौरन यकीन किया
गया,कुछ लोगों ने टिकट भी बुक कर लिए और कुछ संस्थाएँ अपनी-अपनी सरकारों से अपने
कवियों के लिए ग्रांट लेने की अर्ज़ियाँ भी देने लगीं.यूरोप में इन बातों को बहुत
संजीदगी से लिया जाता है और महीनों पहले योजनाएँ बनानी पड़ती हैं.
यह ठीक-ठीक मालूम नहीं हो पाया है कि अशोक ने रज़ा
फाउंडेशन की ओर से कितने और कौन से कवियों और देशों को निमंत्रण या प्रस्ताव
दिए.सिर्फ़ दो प्रमाणित जानकारियाँ हैं कि एक छोटे-से देश की बड़ी काव्य-प्रतिभा को
उन्होंने पक्की चिट्ठी दी और दूसरे एक छोटे-से मुल्क से कहा कि वह दो कवियों को
भेजने की तैयारियाँ कर ले, ख़त पहुँचा दिया जाएगा.
इधर दैवदुर्विपाक से कुछ ऐसा हुआ कि शायद अशोक का
महत्वाकांक्षी प्रस्ताव राष्ट्रपति या/और प्रधानमंत्री कार्यालय से होता हुआ
संस्कृति मंत्रालय के तार्किक गलियारों तक पहुँचा जहाँ वह सिद्धांततः तो मान लिया गया किन्तु इस तरमीम के
साथ कि सारा कार्यान्वयन साहित्य अकादेमी अपनी सुविधा से करेगी,पूरा विशेष बजट उसी
को मिलेगा,वही जवाबदेह होगी,एक उच्चस्तरीय स्टियरिंग कमेटी ज़रूर बनेगी जिसमें
संस्कृति मंत्रालय के सर्वोच्च अधिकारियों के साथ अशोक वाजपेयी [हिंदी],सीताकांत
महापात्र [ओड़िया],के.सच्चिदानंदन [मलयालम],सितांशु यशस्चंद्र [गुजराती] आदि
होंगे.अशोक के निमंत्रण जिन कवियों को भेजे जा चुके हैं उनके सम्मान की यथासंभव रक्षा की जाएगी किन्तु अन्य कवियों और मुल्कों
की उनकी फ़ेहरिस्त को रद्द माना जाएगा.
यह सत्यापित नहीं हो पाया है किन्तु सुना है मंत्रालय
में ऐसी अफ़वाह है कि उपरोक्त पहले तीन कवियों का एक गुप्त महत्वाकांक्षी एकल
अजेंडा स्वयं को विश्व मंच पर नोबेल पुरस्कार के भारतीय उम्मीदवार के रूप में
प्रोजेक्ट करने का भी हो सकता है, इसलिए एक विचित्र किन्तु सत्य शर्त यह भी लगा दी
गयी है कि कमेटी के कवि-सदस्य प्रस्तावित विश्व-काव्य-मंच पर स्वेच्छा से अपनी
कविताएँ नहीं पढ़ेंगे.यूँ भी जहाँ इस सम्मेलन में चालीस विदेशी कवियों के
पहुँचने की आशंका है वहाँ भारत को सिर्फ़
दस का कोटा अलॉट है जिसके लिए राशन की दूकान पर केरोसीन की आमद जैसी फ़ौज़दारी होगी.
लेकिन यूरोप में अशोक की
अदूरदर्शी,ग़ैरज़िम्मेदाराना,आपत्तिजनक,लगभग आपराधिक गतिविधियों के दुष्परिणाम उन
कवियों और देशों को झेलने पड़ रहे हैं जिन्होंने रज़ा फाउन्डेशन के इस नुमाइंदे पर
विश्वास कर लिया.जिस प्रतिभागी को वह दिसंबर का पत्र दे आए थे उसे अब अकादेमी का
4-9 फरवरी का निमंत्रण मिला है,जब उसे दक्षिण अमेरिका के एक बड़े कविता-समारोह में
जाना ही है और इधर उसने दिसंबर का दो व्यक्तियों का भारत का टिकट ले रखा था .अशोक
अब अपनी लज्जा ढाँपने के लिए उसे दिल्ली से कहीं बहुत दूर किन्हीं संदिग्ध जेबी
भगिनी-संस्थाओं के सामने कविता पढ़ने भेज रहे हैं लेकिन स्वाभाविक है कि वह बेहद
नाराज़ और परेशान है.इतने बड़े काव्य-व्यक्तित्व के साथ यह सरासर धोखाधड़ी है.अशोक ने
उनसे कोई क्षमा-याचना भी नहीं की है.
यह मामला तो एक व्यक्ति के साथ था लेकिन दूसरे में तो
अशोक ने एक राष्ट्रीय साहित्यिक संस्थान के साथ दुर्व्यवहार किया है.अव्वल तो यह
समझना मुश्किल है कि उन्होंने भले ही कविता में समृद्ध किन्तु अपेक्षाकृत एक छोटे देश को दो निमंत्रणों का प्रलोभन क्यों
दिया क्योंकि उस पैमाने पर तो शायद जर्मनी और फ्रांस सरीखे देशों से उन्होंने
दस-दस कवि बुलाए होंगे.उस संस्थान ने अपने मंत्रालय से दिसंबर की भारत-यात्रा के
लिए दो कवियों के वास्ते अनुदान लेने की कार्रवाई शुरू कर दी लेकिन जब अशोक ने
उनसे सारे संपर्क तोड़ लिए तो घबरा कर उन्होंने पूछताछ शुरू की और उन्हें पता चला
कि साहित्य अकादेमी अशोक की लिस्ट के कवियों को आमंत्रित कर चुकी है और उनके देश
से कोई नाम नहीं है.इस संस्थान ने अपनी साख खोई हो या न खोई हो,यह उनके राष्ट्रीय
साहित्य की अवमानना तो है ही.पता नहीं वह किसको क्या जवाब दे रहे होंगे.
इस बात की औपचारिक जाँच होनी चाहिए
कि अशोक ने किस आधार पर किन कवियों और देशों को निमंत्रित किया था.साहित्य अकादेमी
और संस्कृति मंत्रालय को न केवल इन तथ्यों को उजागर करना चाहिए बल्कि सैयद हैदर
रज़ा,अशोक वाजपेयी और रज़ा ट्रस्ट के जेबी ट्रस्टियों से प्रभावित देशों और विदेशी
कवियों से लिखित,सार्वजनिक क्षमा-याचना करवानी चाहिए.भारत के विदेश मंत्रालय और
भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् [आइ.सी.सी.आर.] को इस घटना को एक उदाहरण बना कर दिल्ली-स्थित
सारे दूतावासों को एक गश्ती-पत्र लिख कर चेताना चाहिए कि वे और उनके सम्बद्ध
संस्थान इस तरह के निमंत्रणों और उन्हें देने वाली संस्थाओं की पूरी जाँच कर लिया
करें.इस विश्व कविता समारोह में तो ऐसा पत्र बँटवाना ही चाहिए ताकि वह कवियों के
माध्यम से ही सारे देशों और अंतर्राष्ट्रीय साहित्य-बिरादरी में प्रसारित हो
जाए.अशोक की विचारहीन अहम्मन्यता से विदेशों मे पहले से ही पिटी हुई भारत की छवि
पर एक और दाँचा लगा है.इधर भारत में कई ‘भाषा’ या ‘विश्व’ साहित्य और फिल्मादि समारोह
कुकुरमुत्तों की तरह सर उठा रहे हैं जिनके प्रच्छन्न उद्देश्य एकदम प्रकट हैं.यह
सही है कि उनसे सम्बद्ध अत्यंत संदिग्ध और दुर्बुद्धि स्त्री-पुरुषों के लिए कई
दरवाज़े खोल दिए गए हैं लेकिन दिग्भ्रमित उत्साह में सैयद हैदर रज़ा और अशोक वाजपेयी
के नाम भी उन उचक्के माफ़ियाओं के साथ
जुड़ने के मोहताज क्यों दिखें ?
कुल 1364 शब्द
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Jansatta kahen chhapega ise? Vah ab a'shok' sattaa hai. 🙂 vahan khare shishya chhap sakte hain, khare nahi. 😉
जनसत्ता ने नहीं छापा, अच्छा किया। कहीं कोई प्रमाण नहीं, कवियों का नाम नहीं, किसी देश का नाम नहीं। टाँग खींचने की विष्णु खरे की आदत है। यही काम वे इस लेख में कर रहे हैं।
जनसत्ता कभी अब केवल नाम भर बनती जा रही है…
अशोक वाजपेयी को सफाई देनी चाहिए, अगर यह सही है तो शर्मिंदा होना चाहिए और माफी मांगनी चाहिए। बाकी इसमें क्या शक कि खरे अपनी एक अजीब छवि अर्जित कर चुके हैं, इसे वे अपनी योग्यता में गिनते होंगे। एक कवि ने सही ही याद दिलाया है कि यही खरे इन्हीं अशोक वाजपेयी की तुलना अकबर से कर चुके हैं। जहां तक जनसत्ता को लेकर शिरीष भाई की टिपण्णी है तो खुद खरे ओम थानवी की इस शैली से लाभान्वित हो चुके हैं। बावजूद इस सबके इस लेख में उजागर की गई बातें भयानक हैं और सिर्फ इसलिए कि वे विष्णु खरे ने लिखी हैं, नजरअंदाज नहीं की जानी चाहिए।
अशोक ने हिंदी कविता और कवियों,अन्य साहित्यिक विधाओं और रचनाकारों तथा भारत भवन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के लिए भोपाल में रहते हुए जो किया है वह अविस्मरणीय है.पचासों कवियों के संग्रहों की ख़रीद,''पहचान'' सीरीज़ और ''पूर्वग्रह'' का प्रकाशन,विनोदकुमार शुक्ल को मुक्तिबोध फेलोशिप जिसके तहत उन्होंने ''नौकर की कमीज़'' जैसी कालजयी कृति दी,शमशेर बहादुर सिंह,त्रिलोचन,कृष्णा सोबती,निर्मल वर्मा आदि को वर्षों भोपाल रहने का निमंत्रण आदि उसके कारनामे अब तक किसी से बराबर नहीं किए जा सके.भारत भवन के कला-संग्रह की क़ीमत आज अरबों रुपए की है.वहाँ ऐसी दुर्लभ रिकॉर्डिंग्स हैं जो आकाशवाणी के पास नहीं हैं.वह अकबर की तरह बादशाह नहीं था,एक आइ ए एस अफ़सर ही था,भले ही अर्जुन सिंह ने उसे एक ब्लैंक चैक दे रखा था.सभी जानते हैं कि आइ ए एस अफ़सर नेताओं की गुलामी कर परस्पर करोड़ों रुपए आज भी कमा रहे है.अशोक ने हमेशा 'सॉफ्ट पोस्टिंग्स' लीं – या उसे वैसी ही दी गईं – जिनमें प्रलोभन का न्यूनतम अवसर था.वह यदि किसी राज्य या केंद्र में संस्कृति मंत्री होता तो विवादास्पद होते हुए भी और महान कार्य करता.उसे,मुझे और हबीब तनवीर को दिग्विजय सिंह ने विधान सभा चुनाव लड़ने को कहा था,मुझे कमलनाथ से आशंकित विरोध के कारण मेरी जन्म-स्थान छिन्दवाड़ा से टिकट नहीं दी गयी जबकि अशोक और हबीब भाई ने सिरे से इन्कार कर दिया.अशोक को आज तक मैंने अच्छा,प्रासंगिक कवि नहीं माना.लेकिन 'अपनी बातें-ही-बातें हैं,सैयद काम करता है'. हिंदी में 'issue-based' समर्थन या विरोध की न कोई समझ है न परम्परा.यहाँ किसी भी गधे की समीक्षा या ताईद न कीजिए,वह आपके ख़िलाफ़ रेंकने लगता है,उसी को किसी शाम स्कॉच पिला दीजिए,वह आपके जूते और गुप्तांग चाटने पर आमादा हो जाता है.
ओम थानवी मेरे कारण तीन बार गंभीर संकट में पड़ चुके हैं.एक बार मैंने उनके यहाँ एक हिंदी पत्र-समूह के संघी मालिक को विदूषक लिख दिया था.दूसरी बार लक्ष्मी मित्तल की बेटी की अश्लील खर्चीली शादी की आलोचना की थी.तीसरी बार टाइम्स ऑफ़ इंडिया की मालकिन इंदु जैन के 'नवभारत टाइम्स' के मुखपृष्ठ पर छपे 'बॉक्स-एडिटोरिअल' ''राह दिखाए राहुल'' के ख़िलाफ़ लिखा था.पहले पर तो शायद मालिक डालमिया ने ओमजी को सिर्फ़ फटकारा ही था,बाद के दो प्रसंगों के कारण उन्होंने दो अलग-अलग किस्तों में मेरा स्तम्भ वर्षों तक बंद कर दिया था.मित्तल वाली टिप्पणी के तारतम्य में जब मैंने सुब्रत राय के बेटों की उतनी ही अश्लील खर्चीली शादी की मज़म्मत की तो मंगलेश डबराल-नामवर सिंह के सम्पादन के स्वर्ण-युग में सहाराश्री ने मुझ पर सम्पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया.
'सहारा' में तो उसके बाद मैंने स्वयं ही कुछ नहीं लिखा किन्तु ओम थानवी के साथ यल्ग़ार-ओ-सुलह चलती रही.मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि अशोक वाजपेयी-ओम थानवी का परस्पर मुफ़ीद इब्लीस-ओ-फ़ाउस्ट गँठजोड़,जिसमें यह कहना मुश्किल है कि दोनों में से कब कौन इब्लीस है और कौन फ़ाउस्ट,इस वक़्त हिंदी की सर्वशक्तिमान 'डबल्स टीम' है.
Vah.
Vah