अनुनाद

अविनाश मिश्र की कविताएं



अविनाश मिश्र अब युवा हिंदी कविता का ख़ूब परिचित नाम हैं। कविता में उनका स्‍वर अपनी उम्र से बहुत आगे का स्‍वर है। अनुभव-संसार की गुंजाइशों में विस्‍तार तलाशने की कला उन्‍हें बख़ूबी आती है। कविता में उनकी भाषा ख़ासी सुथरी और सुलझी हुई भाषा है, जिसमें समकालीन जीवन की कई-कई उलझनें एक गाढ़े रंगों वाली तस्‍वीर बनाती हैं। यदि यह अविनाश की कविता का आत्‍मस्‍वीकार है तो इससे शानदार और ईमानदार आत्‍मस्‍वीकार किसी भी कवि के लिए एक उपलब्धि है – 

इस प्रवाहमय भाषाका अनुवाद मेरी भाषा नहीं
बस मेरी लड़खड़ाहटें ही कर पाती हैं.

अविनाश की कविताएं पहली बार अनुनाद पर हैं – मैं उनका आत्‍मीय स्‍वागत करता हूं। उनकी कविताएं आगे भी हमें मिलेंगी, इसका भी भरपूर विश्‍वास है। ये सभी कविताएं पब्लिक एजेंडा और शुक्रवार में पूर्वप्रकाशित हैं।
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इंटरप्रेटर



वे लड़खड़ाते हैं जब वक्ता प्रवाह में होते हैं

मैं प्रवाह में नहीं हूं उनमें से एक हूं लड़खड़ाते हुए



मेरे कार्य को कतई सरल करती हुईं

वे स्थितियां बड़ी आकर्षक होती हैं

जहां वे शब्दहीनहोते हैं

मैं बस यहीं, बस यहीं बस जाना चाहता हूं



वे चाहते हैं कि मैं हंसी, खुशी और खीझ को भी इंटरप्रेट करूं

यह कार्य बहुत जटिल हैवे लगभग विलाप करते हैं

और मुझे आंखों में आंसू लाने पड़ते हैं

सब शब्दएक भाषा में नहीं होते

वे यह क्यों नहीं समझते



जैसाकि शास्त्रों में वर्णित है-

सृष्टि के आरंभ में केवल शब्दथा

एक अक्षुण्ण पवित्रता के साथ

वह ‘ईश्वरीय अनुकंपा’ से उत्पन्न हुआ था

यह बीस अरब वर्ष या उससे भी कहीं अधिक प्राचीन तथ्य है

लेकिन वह कोई एक शब्दथा या कोई शब्द समुच्चय

यह अब तक संशय का विषय है



शब्दसंवाद का आवश्यक तत्व

और संवादअब भी एकमात्र विकल्प

युद्धऔर हत्याबहुत बाद के शब्द हैं

बर्बरों के शब्दकोश में सर्वप्रथम होते हुए भी



लेकिन यहां तक आते-आते

शब्दएक प्रश्नचिन्ह, एक अपर्याप्त व सामर्थ्यवंचित सत्ता

और एक चुपएक शब्द समुच्चयसे कहीं अधिक अर्थवान्

इस पथभ्रष्ट परिदृश्य में



यहां आकर उस विनम्रताका भी उल्लेख आवश्यक है

जो प्रायः निःशब्द होती है

और धीरे-धीरे भाषा में विस्तार पाती है



भाषाकी परिभाषा क्या है मैं क्या जानूं

मैं बस भाषाएं जानता हूं

लेकिन भाषासब कुछ नहीं है

वे यह क्यों नहीं समझते



यू.एन.से यू.एस.से यू.के.तक

सार्क सम्मेलनोंऔर ग्रुप-8’ की बैठकों

और तमाम राजनयिक और सामयिक विमर्शों में

वही संसार और बाजार को अस्थिरता से बचाने की कवायदें

और रोज-ब-रोज प्रकट होते हुए नए-नए संकट



मैं वक्ता को ठीक-ठीक व्यक्त कर पा रहा हूं या नहीं

यह मैं स्वयं भी नहीं जानता



इस प्रवाहमय भाषाका अनुवाद मेरी भाषा नहीं

बस मेरी लड़खड़ाहटें ही कर पाती हैं…

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यहां सुधार की जरूरत है



यह वह जगह है जहां वे भूल-सुधारप्रकाशित करते हैं… कभी-कभी वे भूल-सुधारमें भी विराट गलतियां करते हैं… यह करना महज कोई भूल नहीं एक भाषा का विभ्राट है जो मटमैले और लगभग अपठनीय पृष्ठों पर बार-बार उजागर होता है वर्तनी की असंख्य अशुद्धियों के साथ…



यहां भूल-सुधारनहीं आत्मस्वीकृतियांछापी जानी चाहिए…

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घरे बाइरे



दारूण हैं सब सत्य हमारे, दारूण मन की पीर

दारूण हैं सब दर्प हमारे, दारूण है तकदीर



दारूण सब संघर्ष हमारे, दारूण सब आदर्श

दारूण हैं सब द्वंद्व हमारे, दारूण नियम लकीर



दारूण हैं सब वर्ष हमारे, दारूण हैं सब क्षण

दारूण हैं सब पंथ हमारे, दारूण भई कुटीर



दारूण हैं सब सबद हमारे, दारूण हैं सब साखी

दारूण हैं सब बीज हमारे, दारूण संत कबीर



दारूण हैं सब प्यार हमारे, दारूण हैं सब पार

दारूण हैं सब गीत हमारे, दारूण नदिया नीर



कि कहिए कहां जाएं अब राम…?

जीवन पग-पग पर इल्जाम…

***

मैं बाहर से बंद था क्या ?



माथा मेरा गर्म था

लेकिन किसी ने छुआ नहीं

मैं खाना खाकर नहीं आया था

लेकिन ‘खाओगे?’ किसी ने पूछा नहीं

चाय ज्यादा नहीं दो या तीन कप दिन भर में

कोई साथ में पीए तो बहुत बेहतर

उसे अकेले खौलाने का साहस नहीं रहा

लेकिन सब शराब पीना चाहते थे

किसी ने नहीं कहा कि कभी घर चाय पर आइए



मैं बहुत दिनों से सीने में उठते दर्द को दबाए हुए हूं

लेकिन वे चाहते हैं कि मैं उनके साथ जोर-जोर से हंसूं…

***



आगे जीवन है  



बहुत सारी आत्मस्वीकृतियां हैं

बहुत सारी पीड़ाएं और सांत्वनाएं

बहुत कम समय और बहुत सारी शुभकामनाएं

हालांकि सब परिचित पीछे छूट चुके हैं…



अब बस एक बहुत छोटा-सा कमरा है 

जहां एक सीलिंग फैन अपनी अधिकतम रफ्तार में घूमता रहता है 

और जहां जब मैं हर सुबह टूटते हुए बदन के साथ उठता हूं

तब भविष्य वहां पहले से ही मौजूद होता है

यह समझाते हुए कि

मुझे अवसाद और नाउम्मीदियों से बचना है 

थकान और नैराश्य से भी

ईर्ष्या और अधैर्य से भी

मुझे अभिनय नहीं सच के साथ जीना है

हालांकि यह दिन-ब-दिन मुश्किल होता जाएगा

भरमाएगा आस-पास और पड़ोस और नगर

लेकिन घृणा नहीं सब कुछ में यकीन बचाए रखना है मुझे

स्थितियां अब भी संभावनाओं से खाली नहीं

बच्चे अब भी हंस रहे हैं

उनकी हथेलियां अब भी मुलायम और सफेद हैं

और अब भी सख्त होते समय पर उनकी पकड़ मजबूत है…    

***




मुफलिसी में मुगालते



एक नितांत महानगरीय जीवन था

और एक खोने-पाने-बचाने का रूढ़ क्रम

एक अस्तित्व था और एक प्रक्रिया

कई आदर्श और उदाहरण थे

संबल और प्रेरणास्रोत बनने के लिए

लोग थे जाने कहां-कहां से आकर अपना विरोध दर्ज कराते हुए

उपेक्षाएं थीं आत्महीनताएं थीं और मैं था

भारतीय राजधानी के कोने लाल करता हुआ

इसकी दीवारों को नम करता हुआ

यातायात संबंधी नियमों को ध्वस्त करता हुआ

बेवजह लड़ता-झगड़ता और बहस करता हुआ

एक अव्यवहारिक और अवांछित व्यक्तित्व…



समाज बदलने के ठेके नहीं उठाए मैंने

और यकीन जानिए यह सब लिखते हुए मेरी आंखों में आंसू हैं…

***



संपर्क

अविनाश मिश्र

‘पाखी’

बी-107, सेक्टर-63, नोएडा, उत्तर प्रदेश

मो. 09818791434  




0 thoughts on “अविनाश मिश्र की कविताएं”

  1. बहुत अच्छी कवितायें हैं… अविनाश को पढ़ते हुए संतोष हो रहा है कि– कविता थी, है और हमेशा रहेगी .. अपनी महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति में..! हार्दिक बधाई..

  2. अविनाश मिश्र की सभी कवितायेँ आज के समय और स्वयं से साक्षात्कार कराती हुई प्रतीत होती हैं। इनमें उदासी और व्यर्थताबोध के साथ- साथ अकेलेपन की पीड़ा को दर्शाया गया है। महानगर को किसी के सुख दुःख से कोई मतलब नहीं होता है। उदासीनता और असंपृक्तता भरे माहौल का सशक्त चित्रण करने वाली कवितायेँ हैं।

  3. भरी – भरी दुनिया में अकेले होने की कवितायेँ !

    अनुपमा तिवाड़ी

  4. अविनाश की कवितायें अपनी समग्रता के साथ प्रभावित करती हैं . भाषा और ट्रीटमेंट दोनों स्तर पर अविनाश की कविताओं में अविनाशपन है . संवेदना के बारीक तंतुओं को पकड़ते हुए वे आस्वादक के ह्रदय में गहरे पैठ करते हैं . घरे बाइरे कविता ने विशेष प्रभावित किया . अविनाश को ढेरों बधाई .

  5. अच्छी लगीं अविनाश की कविताएँ ..विशेषकर मैं बाहर से बंद हूँ क्या और आगे जीवन है. इनमे अपने समय की असंवेदना मुखर है और साथ ही भविष्य पर इतनी पकड़ भी कि डूबने से बचा जा सके. अविनाश को बधाई और शिरीष जी आपको शुक्रिया.

  6. 'मै बहुत दिनों से सीने में उठते दर्द को दबाये हूँ लेकिन वे चाहते हैं कि मै उनके साथ जोर जोर से हंसू' या घर बाइरे या यह पंक्ति 'संवाद अब भी भाषा का एकमात्र विकल्प है' या दारुण स्तिथियों को रेखांकित करता कवि मात्र वह नहीं कह रहा जो पहली द्रष्टि में अर्थ व्यहत कर रहा है,यहाँ ऐसा भी बहुत कुछ है जिसका दबाब अविनाश की कविताओं से आहिस्ता आहिस्ता नि:सृत होता रहेगा ..यह कवि कवियों की ढेर सी भीड़ में खुद को पढवा ले जाने में समर्थ तो है ही अविनाश का लिखा हमेशा पढ़ती रही हूँ ..अविनाश के प्रति हार्दिक मंगल कामनाएं ,शिरीष का भी शुक्रिया ..

  7. Avinash Ki in Kavitaon Mein Upekshaon Aur Aatmswikrition ka Vedhak aur karun nagrikpan hai, jo dino din nirih ho jaane ke liye abhishptt hua jata hai. beshak yh kavitayen mahanagriy "maharaj ke mahamahotsa" (Saujany : Arun Kamal) ke prati nakar hain, jinhein bhasha aur shbdd ke mahdood dayre ke bahar Ladkhdahton Aur Anshuon mein hi padha ja skta hai. Hardik Badhai.

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